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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • बन्ध-अधिकार

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    बन्ध तत्त्व यह राग मद्य को घुला घुला कर पिला पिला,

    सकल विश्व को, मत्त बनाकर खेल रहा था खुला खिला।

    धीर निराकुल उदार मानस ज्ञान सहजता जगा रहा,

    चिदानन्दमय रस, पीकर अब बन्ध तत्त्व को भगा रहा ॥१६३॥

     

    सचित अचित का वध नहिं विधि के बंध हेतु ना इन्द्रियगण,

    भरा जगत भी विधि से नहिं है चंचलतम भी ‘‘वच तन मन''।

    राग रंग में रचता पचता रागी का उपयोग रहा,

    केवल कारण विधि बन्धन को यों कहते मुनि लोग अहा! ॥१६४॥

     

    यदपि भले ही इन्द्रियगण हो चिदचित् वध हो क्षण-क्षण हो,

    जग हो विधि से भरा रहा हो चंचलतर ये तन-मन हो।

    राग रंग से रंजित करता यदि नहिं शुचि उपयोगन को,

    निश्चय विराग दृढ़ धारक मुनि पाता नहिं विधि-योगन को॥१६५॥

     

    परन्तु ज्ञानी मुनि को बनना स्वेच्छाचारी उचित नहीं,

    उच्छृन्खलपन बन्ध धाम है आत्म ज्ञान हो उदित नहीं।

    इच्छा करना तथा जानना युगपत् दो ये नहिं बनते ,

    बिना राग के कार्य अतः हो मुनि के नहिं तो! विधि तनते ॥१६६॥

     

    जो मुनि निज को जान रहा है वह ना करता विधि बन्धन,

    जो विधि करता नहिं निज लखता यही राग का अनुरंजन।

    राग रहा है अबोधमय ही अध्यवसायन का आलय,

    मिथ्यादर्शन बन्ध हेतु वह जिनवाणी का यह आशय ॥१६७॥

     

    नियत रहे हैं सभी जगत में सुख-दुख मृतिभय जनना रे!

    अपने-अपने कर्म-पाक वश पाते जग जन तनधारे।

    सुख-दुख देता पर को जीवित करता मैं निज के बल से,

    तेरा कहना भूल रही यह फलतः वंचित केवल से ॥१६८॥

     

    पर से जीवन जीता जग है सुख-दुख पाता मरता है,

    इस विध जड़ ही कहता रहता मूढ़पना बस धरता है।

    वसुविध विधि को करता फलतः अहंकार-मद पीता है,

    मिथ्यादृष्टी निजघातक है दानव-जीवन जीता है ॥१६९॥

     

    जग के पोषण-शोषण का यह मिथ्यादृष्टी का आशय,

    बोध विनाशक नियम रूप से अबोध-तम-तम-का आलय।

    कारण! उसका आशय निश्चित भ्रम है भ्रम का कारण है,

    दुखत विविध वसुविध-विधि के बस, बन्धन है असु-मारण है॥१७०॥

     

    दुखमय अध्यवसायन कर कर निज अनुभव से स्खलित हुआ,

    दीन-हीन मतिहीन हुवा है संमोहित है भ्रमित हुआ।

    मोही प्राणी सबको अपना कहता रहता भूल रहा,

    इसीलिये वह इन्द्रिय विषयों-में निशदिन जो झूल रहा ॥१७१॥

     

    सकल विश्व से पृथक रहा वो यद्यपि आत्मा अपना है,

    तथापि पर को अपना कहता करता मोही सपना है।

    अध्यवसायन-दल यह केवल मोह मूल ही है इसका,

    स्वप्न दशा में भी ना यतिवर आश्रय लेते हैं जिसका ॥१७२॥

     

    अध्यवसायन को कहते ‘जिन' त्याज्य त्याज्य बस निस्सारा,

    जिसका आशय मैं लेता बस छुड़वाया सब व्यवहारा।

    शुद्ध ज्ञान-घन में धृति फिर भी क्यों ना धारण करते हैं,

    निश्चल बन मुनि निज छवि में हा! क्या कारण नहिं चरते हैं ॥१७३॥

     

    शुचिमय चेतन से हैं न्यारे रागादिक अघ ये सारे,

    वसुविध विधि के बंधन कारण यह तुम मत जिन! ए प्यारे।

    रागादिक का पर क्या कारण पर है अथवा आतम है,

    इस विध शंका यदि जन करते कहते तब परमातम है ॥१७४॥

     

    रागादिक कालुष परिणतियाँ यद्यपि आतम में होती,

    स्वभाव से पर वे ना होती कर्म-हेतु वश ही होती।

    मोह पाक ही उसमें कारण वस्तु तत्त्व यह उचित रहा,

    सूर्य बिम्ब वश सूर्यकान्तमणि से ज्यों अगनी उदित अहा ॥१७५॥

     

    इस विध पर की बिना अपेक्षा वस्तु-तत्त्व का अवलोकन,

    सहज स्वयं ही ज्ञानी मुनिजन करते पर का कर मोचन।

    रागादिक से अतः स्वयं को करते नहीं कलंकित हैं,

    कर्ता कारक बनते नहिं हैं फलतः सदा अशंकित हैं ॥१७६॥

     

    वस्तु-तत्त्व का रूप कभी ना जिनके दृग में अंकित है,

    अज्ञानी वे कहलाते हैं निज के सुख से वंचित हैं।

    रागादिक से अतः स्वयं को करते सदा-कलंकित हैं,

    कर्ता कारक बनते जब हैं फलतः पामर शंकित हैं ॥१७७॥

     

    इसविध विचार विविध विकल्पों को तजने निज भजते हैं,

    राग भाव का मूल परिग्रह मुनिवर जिसको तजते हैं।

    निजी निरामय संवेदन से भरित आत्म को पाते हैं,

    बन्ध मुक्त बन भगवन अपने में तब आप सुहाते हैं ॥१७८॥

     

    बहु विध-वसुविध राग कार्य-विधि-बंध, मिटा बन निरा अदय,

    विधि बन्धन के कारण जिनको रागादिक के मिटा उदय।

    भ्रम-तम-तम को तथा भगाता, ज्ञान भानु अब उदित हुवा,

    जिसके बल को रोक सकेगा कोई ना यह विदित हुवा ॥१७९॥

     

    दोहा

     

    मात्र कर्म के उदय से नहिं वसु विध विधि-बंध।

    रागादिक ही नियम से बंध-हेतु, सुन-अंध ॥१॥

    बन्ध तत्त्व का ज्ञान ही केवल मोक्ष न देत।

    मोह त्याग ही मोक्ष का साक्षात् स्वाश्रित हेतु ॥२॥


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