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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१०३ ११-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अन्तःसाक्षी अन्तर्यात्रा निर्देशक गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु करता हूँ.... हे गुरुवर! आप तो संसार सागर से तिर ही रहे हैं, साथ ही संसार सागर से तिरने के लिए जिनजिन भव्यात्माओं ने सहारा माँगा उन्हें भी सहारा दे तैरना सिखाया। आप जैसे श्रेष्ठ अनुभवी समर्थ करुणावान निरीह तैराक ने जब नसीराबाद में दो डूबते संसारियों को तैरने के लिए पोशाक पहनायी। उस भव्य मुनि दीक्षा का आँखों देखा वर्णन रतनलाल जी गदिया ने ‘जैन गजट' फरवरी १९६९ एवं नसीराबाद से प्रकाशित जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा का मासिक प्रपत्र ‘वीरोदय' में ०८-०३-१९६९ को प्रकाशित कराया।वह लिख रहा हूँ- भव्य मुनिदीक्षा का आँखों देखा वर्णन ‘नसीराबाद नगर में दिनांक ०७-०२-१९६९ को ऐतिहासिक मुनि दीक्षा समारोह सम्पन्न हुआ मरवा निवासी वासिम प्रवासी श्री लक्ष्मीनारायण जी छाबड़ा के वैराग्यपूर्ण भावों के कारण उन्होंने सांसारिक भोगों को त्यागते हुए निर्ग्रन्थ मुनि पद स्वीकार करना चाहा, ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज सा. ने श्री लक्ष्मीनारायण को मोक्षपथ पर अग्रसर करने हेतु मुनिरूप में दीक्षित किया। समारोह का कार्यक्रम आठ दिन के समय में कई चरणों में निम्न प्रकार से सम्पन्न हुआ- ३१-०१-१९६९ को अजमेर निवासी श्रीमान् कजौड़ीमल जी अजमेरा द्वारा छोल भरी गई। ०१-०२-१९६९ को पीसांगन निवासी श्रीमान् रिखबचंद जी पहाड़िया द्वारा आचार्य निमंत्रण पं. श्री चम्पालाल जी द्वारा चारित्र शुद्धि मण्डल विधान प्रारम्भ कराया गया। रात्रि में श्रीमान् पाथूलाल जी प्रेमचंद जी बड़जात्या द्वारा शोभायात्रा सम्पन्न कराई गयी। ०२-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन। रात्रि में चौकड़ी मोहल्ला नसीराबाद के सर्व बन्धुओं द्वारा शोभायात्रा का आयोजन किया गया। ०३-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन । रात्रि में श्रीमान् सेठ जतनलाल जी टीकमचंद । जी गदिया द्वारा शोभायात्रा का आयोजन किया गया। ०४-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन । रात्रि में श्रीमान् कनकमल जी मोतीलाल जी सेठी द्वारा शोभायात्रा। ०५-०२-१९६९ को मध्याह्न में मण्डल विधान व रात्रि में छप्या वालों की तरफ से शोभायात्रा। ०६-०२-१९६९ को विधान पूजन, शान्ति विसर्जन व शान्तिधारा। रात्रि में दिगम्बर जैन पंचायतनसीराबाद की तरफ से विशाल शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें भगवान के पंचकल्याणक का प्रदर्शन हजारों नर-नारियों ने उत्साहपूर्वक देखा। ०७-०२-१९६९ प्रातः रथ यात्रा दिन में १२:00 बजे से मुनिदीक्षा ग्रहण कार्यक्रम विशाल पाण्डाल में १५-२० हजार नर-नारियों की उपस्थिति में प्रारम्भ हुआ। जैन पाठशाला की छात्राओं द्वारा मंगलाचरण तथा अजमेर के वकील श्री प्रभुदयाल जी द्वारा मंगलगान किया गया। श्री मनोहर लाल जी जैन प्रधानाचार्य अभिनव प्रशिक्षण केन्द्र, चिड़ावा के भाषणोपरान्त दीक्षा सम्बन्धी क्रियाएँ प्रारम्भ की गयीं, श्री लक्ष्मीनारायण जी को निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा तथा क्षुल्लक श्री सन्मतिसागर जी को ऐलक दीक्षा प्रदान की गई। नवदीक्षित मुनि श्री १०८ विवेकसागर जी तथा मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी के प्रवचनोपरान्त श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब अजमेर का सामयिक भाषण हुआ। सर सेठ सा. जयपुर में अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर इस समारोह में सम्मलित होने के लिए पधारे थे। श्रीमान् माणकचंद जी गदिया, एडव्होकेट द्वारा व स्थानीय दिगम्बर जैन समाज की रुचि अनुसार ज्ञानमूर्ति तपस्वी मुनि श्री ज्ञानसागर जी महराज को संघ का आचार्य पद प्रदान करने हेतु प्रस्ताव किया गया जिसका चतुर्विध संघ सहित उपस्थित सभी २० हजार नर-नारियों ने एक स्वर से हर्ष ध्वनि व जयघोष के साथ समर्थन किया। आचार्य श्री के आध्यात्मिक प्रवचन के पश्चात् स्थानीय दिगम्बर जैन समाज ने सभी आगन्तुक महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद दिया तथा समारोह समापन किया। समारोह की व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित तथा समयानुकूल की गई थी। स्थानीय जैन समाज की ओर से सभी आगन्तुक सज्जनों को प्रीतिभोज दिया गया। दीक्षा समारोह समिति के अध्यक्ष श्रीमान् सुमेरचन्द जी जैन B.A. Govt. Contractor का योगदान बहुत ही प्रशंसनीय रहा। श्री सुमेरचंद जी साहब न केवल एक योग्य सामाजिक कार्यकर्ता है, वरन् उदार दानी तथा धर्म प्राण व्यक्ति हैं। जैन संस्कृति तथा समाज के लिए आप की सेवाएँ हर समय उपलब्ध रहती हैं। श्री १०८ विवेकसागर जी महाराज का दीक्षोपरान्त प्रथम प्रवचन ‘‘जय बोलो श्री आदिनाथ भगवान की... जय... जय बोलो श्री शान्तिनाथ भगवान की... जय... जय बोलो श्री महावीर भगवान की... जय... परमपूज्य चारित्रविभूषण श्री ज्ञानसागर जी महाराज, श्री विद्यासागर जी महाराज तथा अन्य त्यागी गण? आज मुझे बहुत प्रसन्नता है, कि बहुत समय से चाही हुई मुनि दीक्षा मुझे गुरु महाराज की कृपा से तथा आप लोगों के हार्दिक सहयोग से उत्साहपूर्वक वातावरण के मध्य प्राप्त हुई है सबसे पहले मैं आचार्यों द्वारा प्ररूपित गाथा का स्मरण करना आवश्यक समझता हूँ- खम्मामि सव्वजीवाणां सव्वे जीवा खमंतु मे।। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि ॥ जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक मेरे निमित्त से ज्ञातभाव या अज्ञातभाव से किसी भी प्रकार की विराधना हुई है उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। मैं स्वयं भी सब प्राणियों को क्षमा करता हूँ, प्राणी मात्र के प्रति मेरा मैत्री भाव है। अनादिकाल से यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता हुआ बड़ी कठिनाई से इस मनुष्य गति के अन्तर्गत जैनधर्म को पालन करने का अधिकारी हुआ। आदर्श गृहस्थ का कर्तव्य पूर्ण करके संयम धारण करना वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। दूसरी कोई गति ऐसी नहीं है, जिसमें प्राणी अनन्तकाल के दूषित संस्कारों को दूरकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सके। वे धन्य हैं जो चढ़ती हुई जवानी में ही संयम धारण करके गुरुओं के अगाध ज्ञान को प्राप्त करके दिगम्बर जैन श्रमणसंघ की-संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं। कुटुम्बी वर्ग की भी मैं प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने मेरे संयम धारण के आवश्यक कार्य में बाधक नहीं बनकर साधक का ही कार्य किया है। परमपूज्य पिता जी श्री सुगनचन्द जी, भाई सुखदेव जी, भाई उम्मेदमल जी, श्री कजोड़ीमल जी अजमेरा, ब्र. प्यारेलाल जी बड़जात्या, पं. विद्याकुमार जी सेठी अजमेर, पं. चम्पालाल जी नसीराबाद आदि ने हर तरह से मेरे उत्साह को बढ़ाया है। इस नगर के भाईयों के धार्मिक उत्साह को भी मैं नहीं भुला सकता जिन्होंने तन, मन, धन से इस कार्य में पूर्ण सहयोग दिया है। मुझे इतना ही कहना है कि आपने जैसी बिन्दौरी आदि में अपनी उमंग प्रदर्शित की है। ऐसी ही उमंग अपने उपेक्षित भाईयों की रक्षा में, अकाल पीड़ित दुखियों की रक्षा में, संस्कृति की रक्षा में तथा अन्य आवश्यक कार्य में भी बनाये रखें और अन्त में स्वयं संयम को धारणकर मानव जीवन को सार्थक करें। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। पुनः श्री दीक्षागुरु, वयोवृद्ध ज्ञान के सागर, संघ के शिरोमणि ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल नमोऽस्तु करता हुआ अन्य त्यागियों को समाधिर्भवतु का आशीर्वाद देता हुआ, धार्मिक प्राणियों की धर्मवृद्धि चाहता हुआ तथा पापियों के भी पापक्षय की भावना करता हुआ श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करता हूँ कि मेरी संयम में उत्तरोत्तर भावना बढ़ती रहे और मैं अपने रत्नत्रय में कुशलता प्राप्त करता हुआ, अपनी आत्मा के स्थायी रूप को प्राप्त कर सकूँ।" नवदीक्षित मुनि श्री विवेकसागर जी के प्रवचन के उपरान्त मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने भी अपने ज्ञानचक्षुओं की अनुभूति प्रकट की जिसे पं. चंपालाल जी जैन विशारद ने जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा नसीराबाद के मासिक प्रपत्र ‘वीरोदय' में दिनांक ०८-०३-१९६९ को प्रकाशित कराया जो इस प्रकार है। मुनि विद्यासागर जी के प्रवचनांश ‘‘जैन धर्म के मूल प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ हुए हैं। जिसका उल्लेख वेदों में आदि कर्ता नाम से देखने को मिलता है। ऋषभनाथ जी का उपदेश तीनों त्याग मार्ग को लेकर के ही नहीं था बल्कि साथ-साथ पूर्व अवस्था में पद के अनुसार भोग लेते हुए अर्थात् धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों के साथ अपने जीवन को आदर्शमय बनाते हुए अर्थात् सदाचार व मानवता को अपनाते हुए, गृहस्थाश्रम की परिपाटी चलाते हुए, जबकि संतान में स्वयं अपने पैर पर खड़े होने की शक्ति आ जावे, तब ऊपर बताए हुए तीनों पुरुषार्थों को छोड़कर, चतुर्थ मोक्ष पुरुषार्थ को अवश्य ही अपना लेना चाहिए। जैन दर्शन की विशेषता यही है, कि यह त्याग को प्रधानता देता है, अन्य दर्शनों में भोग की तो पुष्टि मिलती है, मगर त्याग का उपदेश नगण्य-सा ही देखने को मिलता है। अतः उनसे आत्मा की तृप्ति व शान्ति सम्भव कैसे हो? इस प्रकार ऋषभनाथ भगवान ने स्वयं तीन पुरुषार्थों का आचरण करते हुए तेरासी लाख पूर्व वर्ष गृहस्थाश्रम में व्यतीत किए, अन्त में चौथे पुरुषार्थ को अपना कर मोक्ष को प्राप्त हुए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभू स्तोत्र में कहा है- प्रजापति र्यः प्रथमं जिजीविषुः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो , ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः॥२॥ इससे यह विदित होता है कि मानव को तीनों पुरुषार्थों में पारंगत होकर के शारीरिक शक्ति रहते हुए चौथे मोक्ष पुरुषार्थ की साधना करनी चाहिए।" हे गुरुवर! आप यह देखकर कितने खुश होते होंगे कि कन्नड़ भाषा भाषी शिष्य दो वर्ष में हिन्दी पर कितना अधिक अधिकार बना चुका है। जो आगम ज्ञान को शुद्ध और पूर्ण क्रिया में परिणत कर धर्म के मर्म को धारा प्रवाह हिन्दी भाषा में ऐसे बोल रहा है जैसे इनकी मातृभाषा हिन्दी हो। आपको अपने होनहार मेधावी सत्यान्वेषी मधुरभाषी शिष्य को पाकर गौरव का अनुभव होता होगा। ऐसे शिष्य मेरे गुरु ने आपसे जो सीखा और जो पाया वह आज तक सभी को दे रहे हैं। जिसके बारे में मैं आपको आगे लिखता रहूँगा। आपके उपकारों को स्मरण करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१०२ १०-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर धर्म संस्कृति अध्यात्म भाषा साहित्य के श्रेष्ठ शिक्षक आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी की सम्यग्ज्ञानमयी शिक्षा को त्रिकाल कोटि-कोटि वन्दन नमन अभिनन्दन... नसीराबाद में मुनि दीक्षा की शिक्षा-की कक्षा हे गुरुवर! आपने वसुन्धरा में सर्व प्रिय दर्शनीय, मूलाचार के श्रमण, समाज एवं राष्ट्र की अनुपम निधि, श्रमण संस्कृति उन्नायक, साधक शिष्य को पहचाना एवं उसे कुन्दकुन्द की परम्परा का निर्वहन करने के लिए योग्य संस्कार दिए और भविष्य में संघ को चलता-फिरता गुरुकुल बनाने की प्रेरणा दी तथा उसकी कार्यान्विति के लिए पग-पग पर सूत्र दिए उसी कड़ी के अन्तर्गत ०७-०२-१९६९ को मुनि एवं ऐलक दीक्षा देना सिखाया। इस सम्बन्ध में मुझे नसीराबाद के आपके अनन्य भक्त श्री चेतन सेठी, श्री प्रदीप गदिया, नरेन्द्र सेठी आदि ने चित्र दिखाए जिसमें आपकी ज्ञानदृष्टि, भविष्य के सूरि नवोदित मुनिराज श्री विद्यासागर जी महाराज को दीक्षार्थी के केशलोंच संस्कार आदि सिखा रही है। नसीराबाद के ज्ञात इतिहास में यह प्रथम जैनेश्वरी दीक्षा होने जा रही थी। इस कारण दिगम्बर जैन समाज नसीराबाद में अत्यधिक उत्साह था और समाज बढ़-चढ़कर के इस महोत्सव को मनाना चाह रही थी। जिस तरह से मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा अजमेर में हुई उसी तरह का महोत्सव नसीराबाद में भी हो इसके लिए निर्देशन किससे लें? आप तो अध्यात्म शिखर पर विराजमान थे। आप तक पहुँचना सबके वश की बात नहीं थी अतः समाज के युवाओं ने संघस्थ मुनिराज श्री विद्यासागर जी महाराज को जो युवाओं के चहेते मुनिराज थे उन्हें इस महोत्सव का निर्देशक बना लिया। तब नवोदित मुनिराज श्री विद्यासागर जी ने दीक्षा लेने के बाद निजज्ञानचक्षुओं से जगत् को देखा, अनुभव किया कि सुख किसमें है? दु:ख किसमें है? बस इस संवेदन को दुनिया भी जाने और संवेदित हो तथा परम सुख का पुरुषार्थ करें, अतः वैराग्य के इस प्रसंग को सब लोग देखें इस परम करुणाभाव से निर्देशन किया। हे गुरुवर ! इस सम्बन्ध में मुझे नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी, सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने १५-१२-२०१५ को जो बताया वह मैं आपको बता रहा हूँ, जिसे आप पढ़कर वात्सल्यमयी आनन्द से भर उठेंगे- मुनि श्री विद्यासागर जी बने दीक्षा महोत्सव के निर्देशक "२९ जनवरी १९६९ को नसीराबाद में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने श्री लक्ष्मीनारायण ब्रह्मचारी जी को मुनिदीक्षा देने की घोषणा की तब हम लोगों ने दीक्षा महोत्सव को भव्य विशाल आकर्षक रूप से मनाने के लिए विचार किया समाज के लोग और युवाओं ने मिलकर तैयारियाँ कीं और इस महोत्सव को सात दिन पूर्व से ही मनाना प्रारम्भ किया। हम सभी युवा लोग मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास गए और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया। तब सात दिन तक क्या कैसा करना है, कैसे बिन्दौरियाँ (जुलूस) निकालना हैं, कौन सा विधान करना है? इन सब का मार्गदर्शन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से प्राप्त करते थे। उन्होंने ही हम लोगों को तरह-तरह की झाँकियों के बारे में बताया था। वे हम लोगों को बहुत उत्साहित करते थे। वे कहते थे-‘‘मोक्षमार्ग की प्रभावना करने में बहुत बड़ा पुण्य है। इससे भव्य आत्माओं में दीक्षा के प्रति सद्भाव पैदा होता है, लगाव पैदा होता है और वैराग्य पैदा होता है। दीक्षा लेना पलायन नहीं है यह तो आत्म उन्नयन का पुरुषार्थ है।'' इस तरह मुनिश्री विद्यासागर जी के निर्देशन में दीक्षा समारोह महाप्रभावना के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ था।'' इस प्रकार आपके अन्तेवासी प्रिय शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का साधर्मी मुमुक्षु के प्रति कितना वात्सल्य भाव एवं मोक्षमार्ग के प्रति कितना समर्पण भाव और धर्म की प्रभावना का कितना अन्तरंग निर्मल भाव था, वह आज तक हम लोग देख रहे हैं। ऐसे वैरागी शिष्य के चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१०१ ०९-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर असंख्य आत्मप्रदेश के ज्ञानयात्री गुरूणां गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...। हे गुरुवर ! जब आपने संघ सहित केसरगंज अजमेर से नसीराबाद की ओर विहार किया तब का आँखों देखा वर्णन पत्रकार के नजरिये से देखने वाले श्रीमान् इन्दरचंद जी पाटनी ने बताया- केसरगंज से विहार-नसीराबाद में आगवानी ‘‘लगभग २२ जनवरी १९६९ को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने विहार किया और ६ कि.मी. चलकर माखुपुरा में रुके वहाँ पाटनी परिवार द्वारा स्थापित एक चैत्यालय है, एक घर है। वहीं पर आहार हुआ और दूसरे दिन शाम को ६ कि.मी. चलकर बीरग्राम चौराहा पर एक अन्यधर्म की धर्मशाला में रुके, वहाँ पर तीसरे दिन बीरग्राम के और नसीराबाद के लोगों ने आहारचर्या करवायी। फिर वहाँ से शाम को ९ कि.मी. चलकर नसीराबाद पहुँचे। नसीराबाद में दो नसियाँ, दो मन्दिर, दो चैत्यालय हैं एवं ८५ दिगम्बर जैन घर हैं, सबने मिलकर भव्य आगवानी की। इस आगवानी की विशेषता यह रही कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी जब नसीराबाद में रहे तो जैन-अजैन सभी सुन्दर युवा ब्रह्मचारी को देखकर अचम्भित होते थे। आज जब वे दिगम्बर मुनि बनकर आ रहे थे तब उन्हें देखने के लिए जैन-अजैन युवा बच्चे महिला-पुरुष सभी उमड़ पड़े। इकहरा गौरवर्णी युवादेह में लिपटी दिगम्बरत्व की मूर्ति को देखा तो लोग देखते ही रह गए। सब जयकारों से आकाश को गुंजायमान कर रहे थे। इस तरह नवोदित मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को देख सब आकर्षित होते थे और उनसे बातें करना चाहते थे किन्तु मोहजन्य अभिनिवेश आसक्तियों से परे अपनी धुरी पर गतिमान गुरु चरणानुरागी विद्यासागर जी किसी की ओर मुखातिब नहीं होते। नसीराबादी प्रत्येक जैन श्रावक उन्हें अपने चौके में पड़गाहन करने को लालायित हो उठा, मानो उन्हें अपनत्व की मूर्ति अपना बेटा-सा अनुभूत होने लगा। यही कारण है कि नसीराबाद के वे दिन लोगों को त्योहार जैसे लगने लगे। हर घर में एक अलौकिक राग व्याप गया, तैयारियाँ होने लगीं इस कलिकाल के महाश्रमण के आतिथ्य की। आप तो वयानुसार आसपास के लोगों को धर्मलाभ देते किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी तो जवान पगों से नसीराबाद के ओर छोर पर निवासरत श्रद्धालुओं का आतिथ्य स्वीकार कर उन्हें दानपुण्य का आनन्द प्रदान करते। धन्य हैं...ऐसे पवित्र भावों को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१00 ०८-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर दीर्घतपस्वी भवनाशक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों की भावार्चना करता हुआ... हे गुरुवर! आपकी संगति से मेरे गुरु में नित गुणात्मक परिवर्तन लोगों ने महसूस किया था। जब आप १९६८ का चातुर्मास करके सोनी नसियाँ से केसरगंज गए और शीतकाल में लगभग दो माह का प्रवास किया तब के दो संस्मरण केसरगंज (अजमेर) के श्रीमान् कन्हैयालाल जी जैन ने मुझे २०१७ किशनगढ़ में सुनाये। वह मैं आपको बता रहा हूँ- वैयावृत्यनिपुण मुनि श्री विद्यासागर ‘‘सन् १९६८ दिसम्बर एवं जनवरी १९६९ के शीतकालीन प्रवास केसरगंज में रहा तब गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी का स्वास्थ्य बिगड़ा तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को छोड़कर एक पल भी नहीं रहते थे और सुबह-दोपहर-शाम उनकी वैयावृत्य किया करते थे और हम लोगों को भी बताते थे कि वैयावृत्य ऐसे करो। सुबह धूप में बैठाते और तेल मालिश करते । रात्रि में आवश्यक वैयावृत्य करते थे। रात्रि होने के पूर्व कक्ष में अपनी पिच्छी से पाटा बुहारते फिर सलीके से पियाँर (चारा) को बिछाते फिर गुरु जी को उस पर लिटाते थे। उनकी वैयावृत्य से मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो गया। हम लोग आपस में चर्चा करते थे कि देखो अपन लोगों को भी अपने दादा एवं पिता की सेवा ऐसे ही करना चाहिए।" इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के गुणों से दर्शक प्रभावित होते थे। जन्म-जन्म के संस्कारों से संस्कारित आत्मा मुनि श्री विद्यासागर जी के रूप में सब को प्रभावित कर रही थी। केसरगंज प्रवास का एक और संस्मरण कन्हैयालाल जी केसरगंज वालों ने सुनाया, वह मैं आपको बता रहा हूँ- जिसको छोड़ दिया उसे फिर क्यों पकड़ना मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज मन्दिर जी में ऊपर पार्श्वनाथ भगवान की वेदी वाले हॉल में बैठे स्वाध्याय कर रहे थे। मैं उनके दर्शन करने आया। तो संघस्थ एक क्षुल्लक जी हॉल के बाहर चबूतरे पर बैठे थे। मैं दर्शन करके अन्दर चला गया, भगवान के दर्शन कर और मुनि श्री विद्यासागर जी के दर्शन कर माला फेरने लगा। एक-दो छोटे बच्चे आये तो क्षुल्लक जी ने उनसे पूछा-तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे पापा का नाम क्या है? तुम कितने भाई हो? भाई का नाम क्या है? तुम्हारा भाई क्यों नहीं आया? तुम्हारे मामा कहाँ रहते हैं? तुम्हारे कितने मामा हैं? तुम्हारे मामा की किस चीज की दुकान है? तुम्हारे पापा की किस चीज की दुकान है? यह सब पूछ रहे थे। बच्चों के जाने के बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज उठकर बाहर आए और क्षुल्लक जी को बड़े प्यार से समझाने लगे-महाराज! ये क्या कर रहे हो आप? आत्म कल्याण के लिए घरबार छोड़कर आए फिर उसी संसार को पकड़ रहे हो। जिसके लिए संसार छोड़ा था वह कार्य करना चाहिए। स्वाध्याय करो, आत्मध्यान करो, जाप करो । संसार की बातें करने से क्या होगा? कौन आ रहा है? कौन जा रहा है? इन बातों से क्या लेना देना? जिसको छोड़ दिया उसे फिर क्यों पकड़ना? तब क्षुल्लक जी महाराज उठकर अन्दर चले गए। इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का दृढ़ वैराग्य था। यह आपने देख लिया, जान लिया था। तभी आपने उन्हें दिगम्बर मुनिरूपी असिधारा व्रत प्रदान किया। ऐसे तपस्वी चरणों की वन्दना करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-९९ ०७-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर श्रेष्ठचर्यापालक श्रमणोत्तम गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तीर्थंकरोक्त चरणाचरण की अभ्यर्चना करता हूँ... हे गुरुश्रेष्ठ! आपकी निर्दोष चर्या से आपकी ही तरह नव-नवोन्मेषी श्रमण श्री विद्यासागर जी महाराज आगम चर्या का निर्दोषरूप से पालन करते। अपने मूलगुणों के पालन में किंचित भी प्रमाद न होने देते। समय पर अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते। दीक्षा के बाद हर तीन माह में केशलोंच करने की आज्ञा आपसे माँगते । आप गुरु-शिष्य के केशलोंच की जानकारी समाज को कैसे होती । इस सम्बन्ध में मुझे इन्दरचंद जी पाटनी ने ५ जनवरी २०१८ ज्ञानोदय तीर्थ पर बताया। वह रहस्य का पर्दा मैं उठा रहा हूँ- रहस्य का पर्दा "जब कभी ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच का समय आ जाता तो वे संघस्थ साधुओं से पूछते-बानी (राख) मिल जाएगी क्या? तो संघस्थ साधु श्रावकों से बोलते तब सबको पता चल जाता था और जब मुनिवर विद्यासागर जी का समय हो जाता था तो गुरु महाराज से केशलोंच की आज्ञा माँगते तो लोग सुन लेते थे या उनके लिए संघस्थ त्यागीगण राख मँगाते तो पता चल जाता था कि कब केशलोंच है। मुनि श्री विद्यासागर जी के केशलोंच देखने के लिए खासकर युवा पीढ़ी उमड़ पड़ती थी। अजैनों को पता चलते ही वे भी केशलोंच देखने के लिए आते। इसका कारण था कि मुनि श्री विद्यासागर जी सुकुमार देही थे और उनके काले घने घंघराले सुन्दर बालों को वे ऐसे उखाड़ते थे, जैसे घास-फूस उखाड़ रहे हैं। उखाड़ते समय आवाज आती खट-खट की और खून की धार भी देखने में आती। सभी की आँखें, उनकी आँखों एवं चेहरे पर होतीं, कहीं आँसू तो नहीं आ रहे हैं? चेहरे पर कहीं कोई पीड़ा की तरंग तो नहीं आती है? किन्तु वे तो हँसते हुए उखाड़ते और लोग धीरे से अपने आँसू पौंछ लेते।" मुनि श्री विद्यासागर जी का दीक्षोपरान्त यह दूसरा केशलोंच था और ब्रह्मचारी अवस्था में किशनगढ़, दादिया एवं दीक्षा के समय अजमेर में ऐसे तीन केशलोंच कर चुके थे। इस तरह ये पाँचवा केशलोंच अपने हाथों से धुंघराले काले बालों को उखाड़ते देख दर्शकगणों की आँखों में नमी देखी जा रही थी। सभी के मुँह से यही निकल रहा था कि धन्य हैं ये वैरागी जो युवावस्था में ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में २३ जनवरी १९६९ को ‘जैन गजट' में समाचार प्रकाशित हुआ- केशलोंच से हुई प्रभावना "अजमेर-श्री १०८ परमपूज्य ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी महाराज के संघस्थ मुनिराज पूज्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का केशलोंच १९-०१-१९६९ को महावीर मार्ग केसरगंज में महती प्रभावना के साथ हुआ। इस अवसर पर सर्वश्री विद्याकुमार जी सेठी, निहालचंद जी एम.ए., पं. हेमचन्द जी शास्त्री आदि वक्ताओं के प्रभावशाली भाषण हुए। श्री प्रभुदयाल जी तथा सेठ गम्भीरमल जी सेठी नसीराबाद के सामयिक भजन हुए। पूज्य मुनिराज संघ अभी केसरगंज स्थित श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन जैसवाल मन्दिर जी में विराजमान है। वयोवृद्ध मुनिराज श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ्य कुछ सुधार पर है।" इस प्रकार आपके संघ के केशलोंच के महोत्सव के रूप में कभी कोई पर्चा नहीं छपा। आगमिक भावलिंगी चर्यापालक गुरुवर के चरणों में बोधित्व की प्राप्ति हेतु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । नमोऽस्तु... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-९८ ०६-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सल्लेखना-समाधि विज्ञ स्थितप्रज्ञ दादागुरु के तपःपूत चरणों की नित्य वन्दना करता हुआ... हे गुरुवर! १ दिसम्बर १९६८ को सोनी नसियाँ से विहार हुआ उस समय के समाचार ‘‘जैन गजट' ०५-१२-१९६८ को प्रकाशित हुए। जो इस प्रकार हैं- संघ विहार "अजमेर-चातुर्मास काल में यहाँ विराजमान प.पू. वयोवृद्ध ज्ञानमूर्ति चारित्रविभूषण श्री १०८ मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज तथा प.पू. श्री १०८ मुनिराज विद्यासागर जी महाराज का दि. ०१-१२१९६८ को केसरगंज के लिए ससंघ विहार हो गया। विहार बेला पर आयोजित सभा में अनेक वक्ताओं ने पूज्य मुनिराज संघ से अभी यहीं विराजमान रहने का विनम्र अनुरोध करते हुए कहा कि परमपूज्य मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज के वृद्धावस्था तथा समयसार प्रकाशन के महत्त्वपूर्ण कार्य को यथाशीघ्र सम्पूर्ति के लिए मुनि संघ का यहाँ विराजना अत्यन्त आवश्यक तथा समाजहित में है। आशा है परमपूज्य मुनिराज समाज के अनुरोध को अवश्य स्वीकार करेंगे। वक्ताओं के अंत में मुनिराजद्वय का प्रभावशाली प्रवचन हुआ।'' इस तरह हे गुरुवर! आप जहाँ भी जाते समाज आपका स्नेहपूर्वक बड़ी भक्ति के साथ सान्निध्य चाहती कारण कि आपके रहने से समाज को सही दिशायें मिलतीं थीं। समाज का हित होता था और आगम का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता था। आप संघ सहित केसरगंज पधारे। दिगम्बर जैन समाज, केसरगंज ने भव्य आगवानी की। नित्यप्रति आपका प्रवचन होता और मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का रविवार को आप से पहले प्रवचन होता था। मुनि विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन सुनने विशेष तौर पर युवा लोग एकत्रित होते थे। तब आपने कहा था- ‘एक दिन विद्यासागर धर्म का डंका बजाएगा।' अब मैं आपका ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ-केसरगंज के प्रवास की एक घटना की ओर जो वहाँ के कन्हैयालाल जी जैन ने सुनाई जिसे आप जानते हैं। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- केसरगंज ने देखी आकस्मिक समाधि संघ में एक ब्रह्मचारी पन्नालाल जी जो फिरोजपुर झिरका (जिला-गुड़गाँव) के रहने वाले थे। उन्होंने गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत ले रखे थे। १० जनवरी १९६९ शुक्रवार को मध्याह्न ११:00 बजे उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और उनको घबराहट होने लगी तभी हम लोगों ने गुरुदेव श्री ज्ञानसागर जी महाराज को जाकर बताया। तो उन्होंने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को भेजा। बाजू वाले कमरे में ब्रह्मचारी पन्नालाल जी लेटे हुए कराह रहे थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने उनकी विकट स्थिति देखकर कहा-तत्काल वैद्य जी को बुलवाओ और जाकर गुरुदेव को सारी स्थिति बतलाई। वैद्य जी को लेकर हम लोग आए, तो वैद्य ने देखकर उनके पेट पर कुछ लेप-सा लगाया, फिर भी स्थिति नहीं सुधरी तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बड़ी ही तत्परता के साथ उन्हें णमोकार मन्त्र सुनाने लगे और गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने उन्हें सब कुछ त्याग कराया और उनकी समाधि हो गई। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ‘जैन गजट' १६-०१-१९६९ की एक कटिंग दी। जिसमें मिलापचंद जी पाटनी का समाचार इस प्रकार छपा हुआ है जो आपको बता रहा हूँ- मुनि श्री पवित्रसागर जी महाराज का स्वर्गवास अजमेर-परमपूज्य चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति १०८ श्री मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज के संघस्थ पूज्य ब्रह्मचारी श्री पन्नालाल जी फिरोजपुर (झिरका) का १०-०१-१९६९ शुक्रवार को मध्याह्न १२ बजकर ८ मिनिट पर ७६ वर्ष की आयु में समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो गया। करीब ११ बजे अचानक उनकी तबीयत खराब हुई थी। अंतिम समय जानकर पूज्य मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने सभी त्यागीगणों व श्रावकों की उपस्थिति में ब्रह्मचारी जी को दिगम्बरी दीक्षा प्रदान कर दी तथा इनका दीक्षित नाम मुनि श्री पवित्रसागर जी रखा गया। जैसे ही इनके स्वर्गवास का समाचार दीक्षित होकर स्वर्गवास होने का नगर में पहुँचा, नगर के समस्त जैन समाज का व्यवसाय बंद हो गया। लगभग ४ हजार स्त्री पुरुष सहित अंतिम यात्रा का जुलूस नगर के मुख्य मार्गों से होता हुआ नगर से ३ मील दूर स्थित छत्रियाँ नामक स्थान पर ले जाया गया। वहाँ पूज्य मुनिराज का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। उस समय वहाँ उपस्थित जन समुदाय ने पूज्य मुनिराज जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। पूज्य ब्रह्मचारी पन्नालाल जी पिछले ७ वर्ष से सीकर में पूज्य मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी से सप्तम प्रतिमा ग्रहण कर संघ में रहकर धर्मध्यान पूर्वक जीवन बिता रहे थे। आप हरदोई ग्राम में पंसारी का कार्य करते थे। आपके २ पुत्र एवं २ पुत्रियाँ हैं। दिनांक ११-०१-१९६९ मध्याह्न २ बजे स्थानीय केसरगंज स्थित श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मंदिर (जहाँ पर संघ विराजमान है) में परमपूज्य १०८ मुनिराज श्री ज्ञानसागर महाराज व श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में पूज्य १०८ स्वर्गीय श्री पवित्रसागर जी मुनिराज को श्रद्धांजलि अर्पण हेतु सभा हुई जिस पर पूज्य १०५ क्षुल्लक श्री सन्मतिसागर जी महाराज ने उनका पूर्ण परिचय दिया। बाद में पण्डित विद्याकुमार जी सेठी, भीखाराम जी जैन, श्रीपति जी जैन व श्रीमंत सेठ सर भागचंद जी साहब सोनी ने स्वर्गीय पूज्य मुनिराज श्री पवित्रसागर जी के प्रति अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। अंत में पूज्य श्री १०८ श्री मुनि ज्ञानसागर जी महाराज एवं श्री विद्यासागर जी महाराज ने समाधिमरण पर प्रकाश डाला। पश्चात् श्री प्रभुदयाल जी जैन द्वारा काल की विचित्रता दर्शक पद्यगान हुआ और उपस्थित जनसमूह ने नौ बार णमोकार मंत्र का जाप किया। इस तरह अनायास ही मुनि श्री विद्यासागर जी ने आपसे समाधि-सल्लेखना के निर्देशन की कला सीख ली। आपके निर्यापकाचार्यत्व में आत्मसम्बोधन पाकर कितने ही क्षपकों ने सब कुछ त्याग कर अपनी आत्मा को कर्मों से हल्का कर अन्तिम यात्रा सानन्द सम्पन्न की है। ऐसे उपकारी गुरु-शिष्य के चरणों में कोटिशः नमन करते हुए... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-९७ ०५-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर विषयविषयी के भेद से परे आत्मभोग के योगी गुरुवर आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पादपद्मों में समर्पित नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! अब मैं आपको सन् १९६९ का आपका एवं आपके प्रिय शिष्य मेरे गुरु का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहा हूँ। यदि कोई भूलचूक हो जाए तो सबसे छोटे पोते शिष्य की अज्ञानता को क्षमा प्रदानकर अदृश्यदूत को भेज कर त्रुटियाँ सुधराते जाना। अब मैं अखबारों की कटिंग एवं उस समय के आपके भक्तों से मिली जानकारी के अनुसार उन-उन गाँव-नगरों के लोगों से जो निर्णीत किया सो लिख रहा हूँ- गुरु-शिष्य के साथ चला-वर्ष १९६९ इस प्रकार वर्ष १९६९, अन्तर्यात्री गुरु-शिष्य के पावन चरणों से लगभग १९१५५२ कदमों के द्वारा लगभग १४६ कि.मी. यात्रायित हुआ। यात्रित होते हुए उसने कई ऐतिहासिक दिन देखे। खट्टीमीठी स्मृतियों को संजोया है। जिसे आपके प्रत्यभिज्ञान के लिए हम क्रमशः भेज रहे हैं। यायावर गुरु-शिष्य के प्रगतिशील चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. पत्र क्रमांक-९६ ०४-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर निर्विकारता के परिचायक निस्पृही संत गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटिशः द्रव्य एवं भाव से नमस्कार करता हूँ... हे गुरुवर! आपने १९६८ अजमेर चातुर्मास कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को ससंघ उपवास रखकर समाप्त किया और उसी दिन पिच्छिका परिवर्तन का कार्यक्रम हुआ जिसके सम्बन्ध में अजमेर के इन्दरचंद जी पाटनी ने हमको बताया- प्रथम पिच्छिका परिवर्तन “०३-११-१९६८ को परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ का पिच्छिका परिवर्तन अजमेर में हुआ। तब पण्डित विद्याकुमार जी सेठी अजमेर, पण्डित चंपालाल जी-अध्यापक बाहुबली दिगम्बर जैन पाठशाला नसीराबाद, प्रा. निहालचंद जी एवं सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब के ओजस्वी सामयिक भाषण हुए। तत्पश्चात् श्रीमान् सर सेठ साहब द्वारा ज्ञानसागर जी महाराज को नवीन पिच्छिकाएँ भेट की गयीं और संघस्थ मुनिराज श्री विद्यासागर जी महाराज ने खड़े होकर गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को नमोऽस्तु करके उनके हाथों से नवीन पिच्छिका ग्रहण की और पुरानी पिच्छिका उन्हें दे दी। इसी प्रकार सभी क्षुल्लक महाराजों ने भी पिच्छिका ग्रहण की। विद्यासागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका कजौड़ीमल जी अजमेरा को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने प्रदान की और अन्य पिच्छियाँ भी भक्तों को प्रदान की थीं।” इस तरह मेरे गुरु आज तक पिच्छी परिवर्तन की परिपाटी का इसी प्रकार से प्रवर्तन करते आ रहे हैं। ऐसे गुरु चरणों में नमोऽस्तु करते हुए... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. पत्र क्रमांक-९५ ०३-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर विद्वानानुप्रिय पूज्य गुरूणां गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमस्कार करता हूँ... हे गुरुदेव! मैं आपको सन् १९६९ की बात लिखें उससे पहले मैं, ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बारे में कुछ और भी लिखना चाहता हूँ। ब्र. विद्याधर का लक्ष्य : ज्ञानाभ्यास-साधना-सेवा जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी आपके पास आए और आपकी कसौटी पर खरे उतरे तो आपने उन्हें हिन्दी, संस्कृत सिखाना शुरु किया और कुछ विद्वान् भी पढ़ाने के लिए लगाए थे, तब विद्याधर जी एक क्षण भी अपने समय को लक्ष्य से अलग अन्यत्र नहीं लगाते थे। हमें कई लोगों ने उस समय की बातें बतायीं जिसमें विद्याधर जी की दिनचर्या में स्वाध्याय साधना सेवा के अतिरिक्त कहीं भी किसी अन्य कार्य के लिए समय नहीं होता था। खोजबीन के दौरान मुझे ब्राह्मी-विद्या आश्रम, जबलपुर के पुस्तकालय से ब्र. विद्याधर जी एवं मुनि विद्यासागर जी की कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की छाया प्रति प्राप्त हुई । जिसे देखकर अचम्भित रह गया कि ज्ञान की जिजीविषा लिए जो पल-पल दीपकसम जल रहे थे। अपना हिन्दी का ज्ञान बढ़ाने के लिए एवं शुद्धलेख का अभ्यास करने के लिए प्रमेयरत्नमाला ग्रन्थ की चिन्तामणि हिन्दी व्याख्योपेता नामक टीका अपनी कॉपी में नोट करते थे- २४-०४-१९६८ नसीराबाद ८ पृष्ठों का लेखन किया। २५-०४-१९६८ नसीराबाद ५ पृष्ठों का लेखन किया। २६-०४-१९६८ नसीराबाद ७ पृष्ठों का लेखन किया। २७-०४-१९६८ नसीराबाद ५ पृष्ठों का लेखन किया। २८-०४-१९६८ नसीराबाद ६ पृष्ठों का लेखन किया। २९-०४-१९६८ नसीराबाद ५ पृष्ठों का लेखन किया। ३०-०४-१९६८ नसीराबाद ६ पृष्ठों का लेखन किया। ०१-०५-१९६८ नसीराबाद ४ पृष्ठों का लेखन किया। ०२-०५-१९६८ नसीराबाद ४ पृष्ठों का लेखन किया। इस तरह नसीराबाद में ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने ५० पृष्ठ लिखे तत्पश्चात् आपने विहार कर दिया तो आप जहाँ भी विहार में रुकते तो वहाँ भी विद्याधर जी अपना लेखन अभ्यास का कार्य शुरु कर देते | ०३-०५-१९६८ को १५ कि.मी. चलकर आप रामसर पहुँचे जहाँ मन्दिर नहीं है किन्तु विश्राम किया। वहाँ पर ब्रह्मचारी जी ने २ पृष्ठों का लेखन किया। ०४-०५-१९६८ को रामसर से मोराझड़ी ६ कि.मी. चलकर पहुँचे, जहाँ पर मन्दिर है, समाज है। वहाँ पर ब्रह्मचारी जी ने ६ पृष्ठों का लेखन कर प्रथम समुद्देश पूर्ण किया। ०५-०५-१९६८ को मोराझड़ी से मण्डावरिया ९ कि.मी. पदयात्रा हुई । जहाँ चैत्यालय है, कुछ जैन घर हैं। वहाँ पर द्वितीय समुद्देश प्रारम्भ किया और ७ पृष्ठों का लेखन किया। ०७-०५-१९६८ को मण्डावरिया में ६ पृष्ठों का लेखन किया। ०८-०५-१९६८ को मण्डावरिया में ९ पृष्ठों का लेखन किया। १२-०५-१९६८ को दादिया ७ कि.मी. चलकर पहुँचे, जहाँ मन्दिर है, समाज है। वहाँ ४ पृष्ठों का लेखन किया। १३-०५-१९६८ को दादिया में साढ़े पाँच पृष्ठों का लेखन किया। | १७-०५-१९६८ को दादिया में साढ़े दस पृष्ठों का लेखन किया एवं ३० माला णमोकार मंत्र जपा। १८-०५-१९६८ को दादिया में ५ पृष्ठों का लेखन किया एवं ३० माला णमोकार मंत्र जपा। १९-०५-१९६८ को दादिया में ११ पृष्ठों का लेखन किया एवं ३० माला णमोकार मंत्र जपा। २०-०५-१९६८ को भी ३० माला णमोकार मंत्र का जाप किया। ०१-०६-१९६८ को दादिया में ढाई पृष्ठों का लेखन किया। ०४-०६-१९६८ को दादिया में ३ पृष्ठों का लेखन किया। १४-०६-१९६८ को दादिया में एक पंक्ति का लेखन किया। ०१-०९-१९६८ को अजमेर में ६ पंक्तियों का लेखन किया। ०२-०९-१९६८ को अजमेर में १७ पंक्तियों का लेखन किया। इसी तरह संस्कृत सीखते समय अपने समझने के लिए कन्नड़ भाषा में भी लिखते थे। दादागुरु! आप सोच रहे होंगे कि मैं ये सब क्यों लिख रहा हूँ तो मैं बताना चाहता हूँ कि जन्मजात योगी और ज्ञान को प्रतिपल जीवनाचरण बनाने वाले प्रतिक्षण संचेतन, जागृत, अवबोधित मेरे गुरु की छोटी से छोटी जानकारी हम शिष्यों को ही नहीं वरन् लाखों-लाखों भक्त श्रद्धालु उनकी हर बात को जानना चाहते हैं अत: आपके निमित्त से सभी को यह जानकारी मिल सके इसलिए आपको प्रेषित कर रहा हूँ। आपकी अप्रत्यक्ष सत्संगति प्राप्त होती रहे इस भाव से नमोऽस्तु... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. पत्र क्रमांक-९४ ०२-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सत्यान्वेषी भेदविज्ञानी शुद्धशोधार्थी दादागुरु परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों की वंदना करता हूँ... ब्र. विद्याधर को गुरु से मिलाने वाले कौन ? हे गुरुवर! ब्र. विद्याधर जी आपके पास कब, किस दिन, कहाँ पर, कैसे पहुँचे इस सम्बन्ध में देश-विदेश के गुरुभक्तों, शोधार्थियों, पाठकों को जिज्ञासा बनी हुई है। यद्यपि हमने जो कुछ खोजा वह आपको ‘अन्तर्यात्री महापुरुष' नामक पत्रसंग्रह ग्रन्थ के माध्यम से प्रेषित किया था। उसको पढ़कर गुरुभक्तों की जिज्ञासा और बढ़ गई। ऐसी महती जिज्ञासा के समाधान की आवश्यकता को देखते हुए जब श्रीमान् अशोक जी पाटनी (आर. के. मार्बल) आचार्यश्री के दर्शनार्थ जा रहे थे तो हमने गुरु के पास पाटनी जी के हाथ से जिज्ञासा भेजी। तब गुरुदेव डिण्डोरी की ओर विहार कर रहे थे। ०९-०३-२०१८ को सुबह करंजिया ग्राम चेक पोस्ट पहुँचे। वहाँ पर अशोक जी पाटनी ने आचार्य श्री के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की ‘जैन गजट'-०५-०६-१९६७ के अखबार में लिखा है कि २९-०५-१९६७ को मुनि श्री ज्ञानसागर जी अजमेर पधारे और जैन गजट'-२६-०६-१९६७ में लिखा है २५-०६-१९६७ को मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के केशलोंच अजमेर में हुए, फिर ‘जैन गजट'-३१-०७-१९६७ में लिखा है कि २०-०७१९६७ को किशनगढ़ में मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चातुर्मास की स्थापना हुई इस समाचार के अन्दर संघपरिचय में ब्रह्मचारी विद्याधर जी का भी नाम है। तो आप पहुँचे कहाँ थे और कौन लेकर गया था? तब आचार्य श्री बोले-‘मैं जब अजमेर आया तो सीधे ब्र. विद्याकुमार जी सेठी के यहाँ गया था और वे ही मुझे दूसरे दिन गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास किशनगढ़ लेकर गए थे, फिर गुरु जी के साथ अजमेर आये थे। वहाँ पर २५-२७ दिन बाद गुरु जी के केशलोंच करने का सौभाग्य मिला था। फिर वहाँ से वापिस किशनगढ़ गए थे और वहाँ जाकर चातुर्मास हुआ था। उपरोक्त जिज्ञासा-समाधान से बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्र. विद्याधर जी २५-२६ मई को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास किशनगढ़ पहुँचे थे। इस तरह ५० वर्षीय रहस्य के ऊपर पड़ा पर्दा अब उठ गया। हे गुरुवर ! २१वीं सदी के कलिकाल सर्वज्ञ मेरे गुरु के स्वर्णिम इतिहास को सुरक्षित करने में आपका आशीर्वाद इसी प्रकार बना रहे। आपश्री के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...
  11. पत्र क्रमांक-९३ ०१-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सर्व विद्याविद्, सरस्वती पुत्र, ज्ञानदूत, परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटिशः प्रणति निवेदित करता हूँ। हे बुधेश! आपके श्रीचरणों की वन्दना से कलम का संकल्प अपनी मन्थर चाल से गुरुगुण बखान यात्रा को शनैः शनैः आगे बढ़ाने का पुरुषार्थ करता जा रहा है। यद्यपि पत्रों का प्रथम पुलन्दा २८ जून २०१७ को डोंगरगढ़ में पत्रोल्लिखित चरित्र नायक आपके अपने प्रिय शिष्य जो लाखों भक्तों के गुरु हैं, को समर्पित कर आप तक प्रेषित किया था तथापि हे क्षमाकोष! मुझे क्षमा प्रदान करें, प्रमाद एवं अनेक प्रभावनापूर्ण कार्यों की व्यस्तता के कारण आपको पत्र लिखने में विलम्ब हुआ/हो रहा है। मुझे खेद का अनुभव हो रहा है कि मैं अपने दादा गुरु को उनके अपने प्रिय शिष्य के बारे में जल्दी-जल्दी बताकर धर्म सुखानुभूति-आत्म आनन्दानुभूति नहीं करा पा रहा हूँ। इसमें मेरे कर्मों का ही दोष है। दूसरी बात यह भी है कि आपके इस पचास वर्षीय सर्वतोभद्र शिष्य पुत्र की विस्तृत महिमा को मुझ शक्तिहीन के द्वारा कैसे शब्दों में समेटा जाए। जो कुछ भी कर पा रहा हूँ या करूँगा वह सब आपकी कृपा एवं अपने गुरु के गुणों को संस्पर्श करने के पुण्य से ही सम्भव हो रहा है। जैसा कि आपने अपने अलबेले शिष्य को बताया, वही हमारे गुरु ने हम लोगों को बताया कि सच्चे शिष्य का ही कल्याण होता है। सच्चा शिष्य वही है जो गुरु की आज्ञा, संकेत, आदेश, उपदेश, शिक्षा, भाव को ग्रहण कर तदनुरूप प्रवृत्ति करता है। उपरोक्त लक्षण में हम शिष्यानुशिष्य कितने खरे उतर रहे हैं यह तो हमारे गुरु आपको बतायेंगे किन्तु आपने अपने प्रिय शिष्य को पल-पल परखा और वह आगम की कसौटी पर खरा उतरता गया तो आप ब्रह्मविद्या के सारे सूत्र बताते गए। आपकी ज्ञान अनी की प्रदीप्त ज्योति के प्रकाश में ब्र. विद्याधर जी, मुनि विद्यासागर जी, आचार्य विद्यासागर जी, निर्यापकाचार्य विद्यासागर जी धर्म के हर क्षेत्र में बढ़ते गए और श्रमण जीवन के सफलतम ५० वर्ष पूर्ण किए हैं। उनकी साधना की सफलता का प्रतीक हर क्षण प्रसन्नता है जो उनके मुखचन्द्र पर शुभ्रज्योत्स्ना के समान बिखरी रहती है। जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए वह सागर की बूंद की नई कलम की खिल्ली उड़ाता-सा लगता है। जिस प्रकार भानु की निद्रा जब खुलती है तो माँ धरती की गोद में करवटें बदलता सा उठता है। तब वह बाल भानु गुलाबी रूप में बड़ा ही सुन्दर लगता है। सबके मन को अपनी ओर आकर्षित करता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है तो उसका रंगरूप बदलता जाता है-चमक बढ़ती जाती है। माँ की गोद को छोड़कर अपने पुरुषार्थ के बल पर वह महाप्रतापी बनकर एक समय माँ धरती को ही चमकाने लगता है-प्रकाशित कर देता है और सबका जीवनदाता बन सबको खुशियाँ देता है। इसी प्रकार हे दादा गुरु! यह तो आप भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आपका जाया वह विद्याभानु बचपन से ही सबके 'जी' को चुराता था और जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया तो वह आपके निर्देशानुसार पुरुषार्थ करता गया एवं उसके चारित्र का रंग निखरता गया, तपस्या एवं ज्ञान-साधना की चमक बढ़ती गई और आपका वह प्रिय शिष्य महाप्रतापी बनकर आज श्रमण संस्कृति को प्रकाशित कर रहा है या यूँ कहूँ कि आपकी पहचान व श्रमण संस्कृति उन्नायक बनकर सबको खुशियाँ बाँट रहा है। ऐसे विद्याभानु की जीवनी के सन् १९६९ से सन् १९७३ तक के पन्ने पढ़े तो अचरज से मन भर गया कि कितने पवित्रभाव से दिव्य साधना में एक युवा मन लवलीन था। वैसे तो आप सब जानते हैं किन्तु फिर भी मैं आप तक पूर्व पत्रों से आगे के पत्र क्रमशः लिख भेज रहा हूँ ताकि दुनियाँ जान सके कि मेरे दादा गुरु का पुण्य कितना सातिशय था और उन्हें ऐसा“अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी'' शिष्य प्राप्त हुआ। हे महापूत ! दिव्यदृष्टिधारक दादागुरु! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मैं, जो शुद्धोपयोग का रसास्वादन कर रहे हैं ऐसे अपने गुरु का गुणगानकर शुभोपयोगमय साधना करता रहूँ। कोटिशः नमोऽस्तु के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  12. आभार "अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी" (खण्ड-२) कृति तैयार करने में जिन-जिन लोगों ने अपनी साक्षात् अनुभूतियों को लिखकर दिया है। वे सभी महानुभाव धर्मवृद्धि आशीर्वाद के पात्र हैं एवं तत्कालीन फोटोग्राफर पी. कुमार जैन (अजमेर), टांक स्टूडियो (अजमेर) के चित्र उपलब्ध करवाये श्री प्रमोद जी सोनी, श्री इन्दरचंद जी पाटनी, श्री सुबोध जी पाटनी, श्री पारस जी कासलीवाल, श्री नीरज जी (सोनी)। फोटोग्राफर श्री किशोर कुमार दरोगा किशनगढ़-रेनवाल के चित्रों को श्री गुणसागर ठोलिया ने उपलब्ध करवाये। अमर फोटो स्टूडियो (मदनगंज-किशनगढ़) के चित्र श्री मूलचंद जी लुहाड़िया, श्री रमेश जी गंगवाल, श्री दीपंचद जी चौधरी ने उपलब्ध करवाये। पदम आर्ट स्टूडियो नसीराबाद, मित्तल स्टूडियो नसीराबाद, श्री रामप्रसाद बंसल नसीराबाद के चित्रों को श्री चेतन सेठी, श्री प्रदीप जी गदिया, श्री नरेन्द्र जी सेठी, श्री भागचंद जी बिलाला, श्री रतनलाल दोसी ने उपलब्ध करवाये। श्री विमल जी फागीवाला गेलार्ड स्टूडियो ब्यावर, श्री चन्द्रेश जैन ब्यावर के चित्रों को श्री भरत जी बड़जात्या (फागीवाला), श्री पदम जी गंगवाल, श्री सुशील जी बड़जात्या, श्री कमल जी रिवका आदि ने उपलब्ध करवाये। सभी सहयोगियों को अनेकशः साधुवाद ।
  13. प्रस्तुति अन्तर्यात्री महापुरुष गुरु निर्देशन में साधना तप-ज्ञान-ध्यान-योग-साहित्य पठन-लेखनचिन्तन-मनन के क्षेत्र में शनैः-शनैः बढ़ते रहे। आध्यात्मिक वैभव बढ़ता गया। ज्यों-ज्यों ज्ञानमूर्ति आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज धर्म का ज्ञानामृत पिलाते गए, त्यों-त्यों आत्म अनुभूतियों का कोश भरता गया, समर्पण का सरगम बजता गया और महकती साधना की खुशबु फैलती गई। जैसे-जैसे चारित्रविभूषण गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज प्यार-वात्सल्य लुटाते गए, वैसे-वैसे अन्तर्यात्री की शुद्ध चेतना उमगते, उफनते उमड़ती गई, शिष्यत्व की चमक निखरती ही गई । तब जगत को दिखा ज्ञान का सागर-विद्यासागर बनते हुए, विद्यासागर-ज्ञान के सागर में ढलते हुए। ज्ञान सूर्य डूबकर भी डूब न सका, पर्यायवाची बन विद्याभानू के रूप में जग को प्रकाशित मिला। जिन्होंने ज्ञानसूर्य का प्रकाश देखा है, उन्हें विद्याभानू में सिर्फ तन का अन्तर दिखता है। अन्तर्यात्री महापुरुष के रूप में मनोज्ञमुनि श्री विद्यासागर जी ने ३० जून १९६८ को अन्तर्पथ पर कदम रखा और प्रारम्भ की अन्तर्यात्रा, तब से अब तक यात्रा सतत् जारी है। साधना की शुद्धि-विशुद्धि एवं जगत कल्याण के लिए गाँव-गाँव, नगर-नगर की बाह्य जगत यात्रा भी चलती रही। पचास वर्षीय अन्तर्यात्रा की उपलब्धि क्या रही यह तो अन्तर्यात्री गुरुवर ही जानते हैं किन्तु बाह्य यात्रा से समाज-संस्कृति-जन-जन को जो उपलब्धि हुई है, वह प्रत्यक्ष देखने/अनुभव में आ रही है। पचास वर्षीय विशाल व्यक्तित्व-कृतित्व को समेटना/एकत्रित करना एवं पाठकों के समक्ष रखना बड़ा ही कठिन, परिश्रम साध्य, ऐतिहासिक कार्य है किन्तु कठिन होते हुए भी गुरु श्रद्धा-सपर्मणभक्ति की शक्ति से सहज में ही हो जाता है। यही विश्वास कलम का सम्बल है। इस सम्बन्ध में अन्तर्यात्री महापुरुष ने कई बार अपने प्रवचनों में भी कहा है कि-“जो कुछ साधना-ज्ञानाराधना कर रहा हूँ, जो कुछ समाज को मिल रहा है, यह सब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के आशीर्वाद से सहज ही हो रहा है। अन्तर्यात्री महापुरुष के समग्र व्यक्तित्व को एक साथ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, अतः५-५ वर्ष के भाग बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। अन्तर्यात्री महापुरुष, अपराजेय साधक आचार्य श्री विद्यासागर जी गुरु महाराज की श्रमण यात्रा का सन् १९६९ से १९७३ का पंचवर्षीय युग बड़ा चुनौतिपूर्ण एवं गहन अनुभूतियों भरा रहा। हस्तावलम्बी ज्ञानमूर्ति गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का, भावी श्रमण संस्कृति उन्नायक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज को ब्रह्मचारी अवस्था २५ मई १९६७ से १ जून १९७३ तक २१९९ (लीप ईयर सहित) दिनों का पावन सान्निध्य प्राप्त हुआ। जिसमें गुरुवर के साथ लगभग १०३२५४४ कदम चलकर लगभग ७८७ कि.मी. का विहार किया। गुरु सन्निध्य में ५०६४७०२७ श्वासों को साधा है और २२७९११६२२ नाड़ी धड़कनों में गुरु की अनुभूतियों का अहसास किया है। गुरु समाधि का गुरुतर कर्तव्य निर्वहन के पश्चात् अन्तर्यात्री महापुरुष आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने गुरु की शिक्षाओं का अनुकरण करते हुए सन् १९७३ में २३८७८४ कदम चलकर १८२ कि.मी. के विहार में मोक्षमार्ग की प्रभावना की है। गुरु बिन २१३ दिन १७ घण्टे २८ मिनट में जिनकी ४९२४१०९ श्वासों ने गुरु नाम जपा । २२१५८४९० नाड़ी धड़कनों में गुरु की शिक्षाओं का अनुभवन किया है। अन्तर्यात्री महापुरुष ने गुरु सान्निध्य के एक-एक क्षण का उपयोग अपनी ज्ञानाराधना एवं आत्मसाधना में किया है। गुरु आशीष की छाया तले ब्रह्मचारी विद्याधर अवस्था में नमक, मीठे का आजीवन त्याग की साधना से कोई भी मनुहार डिगा न सकी। ब्रह्मचारी अवस्था में दो केशलोंच, दीक्षा के मंच पर एक, मुनि अवस्था में सत्रह, आचार्य बनने के बाद गुरु के समक्ष दो और ब्यावर चातुर्मास में दो। इस तरह कुल चौबीस केशलोंच १९७३ तक कर चुके हैं। ऐसे आत्मजयी साधक ने अपने गुरु की १५७ दिवसीय सल्लेखना में जो सेवा-शुश्रुषा-परिचर्या की है वह एक ऐतिहासिक मिसाल बन गई है। ऐसी अनेक विशेषताओं से भरा यह अन्तर्यात्री महापुरुष का द्वितीय खण्ड पाठकों को आह्लादित करेगा, प्रेरणाएँ देगा और उनके जीवन को संवारेगा। प्रकाशन योग्य कृति परमपूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज को दिखाई तो उन्होंने आवश्यक संशोधन करके प्रसन्नतापूर्ण आशीर्वाद प्रदान किया। इसके साथ ही मुनि श्री महासागर जी महाराज, मुनि श्री निष्कम्पसागर जी महाराज का भी आशीर्वाद प्राप्त हुआ तथा मेरे अग्रज क्षुल्लक गम्भीरसागर जी महाराज ने भी प्रोत्साहन दिया। संघ का वात्सल्य पाकर मैं सभी के प्रति कृतज्ञता से भर गया हूँ। इस खण्ड की पाण्डुलिपि के लेखन कार्य में भीलवाड़ा के भागचंद शाह (मास्टर), राहुल जैन शास्त्री (लाडनू), जिनेन्द्र जैन (शिवनगर, जबलपुर), राकेश अजमेरा (देवली) आदि साधुवाद के पात्र हैं और प्रकाशन के योग्य प्रति तैयार करने में अभिषेक जैन शास्त्री (सागर) ने अत्यधिक परिश्रम किया एवं पं. अरुण कुमार जी शास्त्री (ब्यावर), श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी), श्री मधुर जी (ललितपुर), ब्र. बहिन नीता-नीलम जी (ललितपुर), ब्र. राजेश जी वर्द्धमान (सागर) ने शोधनकार्य में सहयोग करके अन्तर्यात्री महापुरुष के प्रति अपनी विनयाञ्जली अर्पित की है। इस कृति के प्रकाशन में प्रसिद्ध दानवीर परिवार श्रीमान् रतनलाल कंवरलाल पाटनी आर. के मार्बल मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) की भावनाएँ अन्तर्यात्री महापुरुष परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में समर्पित हुईं हैं, ऐसे परिवार को जितना साधुवाद दिया जाए वह कम ही लगता है। अन्तर्यात्री महापुरुष का द्वितीय खण्ड-“अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी'' रूप पत्रों का पुलंदा गुरूणां गुरु-दादागुरु को प्रेषित करता हूँ। क्षुल्लक धैर्यसागर
  14. समर्पण शब्द-शब्द सार्थक महापुरुष को व्याख्यायित कर फिर भी मन कसकता है शब्दों की सीमाओं को देख... ऐसे असीम व्यक्तित्व के धनी अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी निर्माता को उनकी ही अपनी कृति समर्पित...
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