पत्र क्रमांक-९३
०१-०१-२०१८
ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
सर्व विद्याविद्, सरस्वती पुत्र, ज्ञानदूत, परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटिशः प्रणति निवेदित करता हूँ।
हे बुधेश! आपके श्रीचरणों की वन्दना से कलम का संकल्प अपनी मन्थर चाल से गुरुगुण बखान यात्रा को शनैः शनैः आगे बढ़ाने का पुरुषार्थ करता जा रहा है। यद्यपि पत्रों का प्रथम पुलन्दा २८ जून २०१७ को डोंगरगढ़ में पत्रोल्लिखित चरित्र नायक आपके अपने प्रिय शिष्य जो लाखों भक्तों के गुरु हैं, को समर्पित कर आप तक प्रेषित किया था तथापि हे क्षमाकोष! मुझे क्षमा प्रदान करें, प्रमाद एवं अनेक प्रभावनापूर्ण कार्यों की व्यस्तता के कारण आपको पत्र लिखने में विलम्ब हुआ/हो रहा है।
मुझे खेद का अनुभव हो रहा है कि मैं अपने दादा गुरु को उनके अपने प्रिय शिष्य के बारे में जल्दी-जल्दी बताकर धर्म सुखानुभूति-आत्म आनन्दानुभूति नहीं करा पा रहा हूँ। इसमें मेरे कर्मों का ही दोष है। दूसरी बात यह भी है कि आपके इस पचास वर्षीय सर्वतोभद्र शिष्य पुत्र की विस्तृत महिमा को मुझ शक्तिहीन के द्वारा कैसे शब्दों में समेटा जाए। जो कुछ भी कर पा रहा हूँ या करूँगा वह सब आपकी कृपा एवं अपने गुरु के गुणों को संस्पर्श करने के पुण्य से ही सम्भव हो रहा है। जैसा कि आपने अपने अलबेले शिष्य को बताया, वही हमारे गुरु ने हम लोगों को बताया कि सच्चे शिष्य का ही कल्याण होता है। सच्चा शिष्य वही है जो गुरु की आज्ञा, संकेत, आदेश, उपदेश, शिक्षा, भाव को ग्रहण कर तदनुरूप प्रवृत्ति करता है।
उपरोक्त लक्षण में हम शिष्यानुशिष्य कितने खरे उतर रहे हैं यह तो हमारे गुरु आपको बतायेंगे किन्तु आपने अपने प्रिय शिष्य को पल-पल परखा और वह आगम की कसौटी पर खरा उतरता गया तो आप ब्रह्मविद्या के सारे सूत्र बताते गए। आपकी ज्ञान अनी की प्रदीप्त ज्योति के प्रकाश में ब्र. विद्याधर जी, मुनि विद्यासागर जी, आचार्य विद्यासागर जी, निर्यापकाचार्य विद्यासागर जी धर्म के हर क्षेत्र में बढ़ते गए और श्रमण जीवन के सफलतम ५० वर्ष पूर्ण किए हैं। उनकी साधना की सफलता का प्रतीक हर क्षण प्रसन्नता है जो उनके मुखचन्द्र पर शुभ्रज्योत्स्ना के समान बिखरी रहती है। जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए वह सागर की बूंद की नई कलम की खिल्ली उड़ाता-सा लगता है।
जिस प्रकार भानु की निद्रा जब खुलती है तो माँ धरती की गोद में करवटें बदलता सा उठता है। तब वह बाल भानु गुलाबी रूप में बड़ा ही सुन्दर लगता है। सबके मन को अपनी ओर आकर्षित करता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है तो उसका रंगरूप बदलता जाता है-चमक बढ़ती जाती है। माँ की गोद को छोड़कर अपने पुरुषार्थ के बल पर वह महाप्रतापी बनकर एक समय माँ धरती को ही चमकाने लगता है-प्रकाशित कर देता है और सबका जीवनदाता बन सबको खुशियाँ देता है। इसी प्रकार हे दादा गुरु! यह तो आप भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आपका जाया वह विद्याभानु बचपन से ही सबके 'जी' को चुराता था और जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया तो वह आपके निर्देशानुसार पुरुषार्थ करता गया एवं उसके चारित्र का रंग निखरता गया, तपस्या एवं ज्ञान-साधना की चमक बढ़ती गई और आपका वह प्रिय शिष्य महाप्रतापी बनकर आज श्रमण संस्कृति को प्रकाशित कर रहा है या यूँ कहूँ कि आपकी पहचान व श्रमण संस्कृति उन्नायक बनकर सबको खुशियाँ बाँट रहा है।
ऐसे विद्याभानु की जीवनी के सन् १९६९ से सन् १९७३ तक के पन्ने पढ़े तो अचरज से मन भर गया कि कितने पवित्रभाव से दिव्य साधना में एक युवा मन लवलीन था। वैसे तो आप सब जानते हैं किन्तु फिर भी मैं आप तक पूर्व पत्रों से आगे के पत्र क्रमशः लिख भेज रहा हूँ ताकि दुनियाँ जान सके कि मेरे दादा गुरु का पुण्य कितना सातिशय था और उन्हें ऐसा“अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी'' शिष्य प्राप्त हुआ। हे महापूत ! दिव्यदृष्टिधारक दादागुरु! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मैं, जो शुद्धोपयोग का रसास्वादन कर रहे हैं ऐसे अपने गुरु का गुणगानकर शुभोपयोगमय साधना करता रहूँ। कोटिशः नमोऽस्तु के साथ...
आपका शिष्यानुशिष्य