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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 101 केसरगंज से विहार-नसीराबाद में आगवानी

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१०१

    ०९-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    असंख्य आत्मप्रदेश के ज्ञानयात्री गुरूणां गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...। हे गुरुवर ! जब आपने संघ सहित केसरगंज अजमेर से नसीराबाद की ओर विहार किया तब का आँखों देखा वर्णन पत्रकार के नजरिये से देखने वाले श्रीमान् इन्दरचंद जी पाटनी ने बताया-

     

    केसरगंज से विहार-नसीराबाद में आगवानी

    ‘‘लगभग २२ जनवरी १९६९ को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने विहार किया और ६ कि.मी. चलकर माखुपुरा में रुके वहाँ पाटनी परिवार द्वारा स्थापित एक चैत्यालय है, एक घर है। वहीं पर आहार हुआ और दूसरे दिन शाम को ६ कि.मी. चलकर बीरग्राम चौराहा पर एक अन्यधर्म की धर्मशाला में रुके, वहाँ पर तीसरे दिन बीरग्राम के और नसीराबाद के लोगों ने आहारचर्या करवायी। फिर वहाँ से शाम को ९ कि.मी. चलकर नसीराबाद पहुँचे। नसीराबाद में दो नसियाँ, दो मन्दिर, दो चैत्यालय हैं एवं ८५ दिगम्बर जैन घर हैं, सबने मिलकर भव्य आगवानी की। इस आगवानी की विशेषता यह रही कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी जब नसीराबाद में रहे तो जैन-अजैन सभी सुन्दर युवा ब्रह्मचारी को देखकर अचम्भित होते थे। आज जब वे दिगम्बर मुनि बनकर आ रहे थे तब उन्हें देखने के लिए जैन-अजैन युवा बच्चे महिला-पुरुष सभी उमड़ पड़े। इकहरा गौरवर्णी युवादेह में लिपटी दिगम्बरत्व की मूर्ति को देखा तो लोग देखते ही रह गए। सब जयकारों से आकाश को गुंजायमान कर रहे थे। इस तरह नवोदित मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को देख सब आकर्षित होते थे और उनसे बातें करना चाहते थे किन्तु मोहजन्य अभिनिवेश आसक्तियों से परे अपनी धुरी पर गतिमान गुरु चरणानुरागी विद्यासागर जी किसी की ओर मुखातिब नहीं होते। नसीराबादी प्रत्येक जैन श्रावक उन्हें अपने चौके में पड़गाहन करने को लालायित हो उठा, मानो उन्हें अपनत्व की मूर्ति अपना बेटा-सा अनुभूत होने लगा। यही कारण है कि नसीराबाद के वे दिन लोगों को त्योहार जैसे लगने लगे। हर घर में एक अलौकिक राग व्याप गया, तैयारियाँ होने लगीं इस कलिकाल के महाश्रमण के आतिथ्य की। आप तो वयानुसार आसपास के लोगों को धर्मलाभ देते किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी तो जवान पगों से नसीराबाद के ओर छोर पर निवासरत श्रद्धालुओं का आतिथ्य स्वीकार कर उन्हें दानपुण्य का आनन्द प्रदान करते। धन्य हैं...ऐसे पवित्र भावों को नमन करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

     


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