प्रस्तुति
अन्तर्यात्री महापुरुष गुरु निर्देशन में साधना तप-ज्ञान-ध्यान-योग-साहित्य पठन-लेखनचिन्तन-मनन के क्षेत्र में शनैः-शनैः बढ़ते रहे। आध्यात्मिक वैभव बढ़ता गया। ज्यों-ज्यों ज्ञानमूर्ति आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज धर्म का ज्ञानामृत पिलाते गए, त्यों-त्यों आत्म अनुभूतियों का कोश भरता गया, समर्पण का सरगम बजता गया और महकती साधना की खुशबु फैलती गई। जैसे-जैसे चारित्रविभूषण गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज प्यार-वात्सल्य लुटाते गए, वैसे-वैसे अन्तर्यात्री की शुद्ध चेतना उमगते, उफनते उमड़ती गई, शिष्यत्व की चमक निखरती ही गई । तब जगत को दिखा ज्ञान का सागर-विद्यासागर बनते हुए, विद्यासागर-ज्ञान के सागर में ढलते हुए। ज्ञान सूर्य डूबकर भी डूब न सका, पर्यायवाची बन विद्याभानू के रूप में जग को प्रकाशित मिला। जिन्होंने ज्ञानसूर्य का प्रकाश देखा है, उन्हें विद्याभानू में सिर्फ तन का अन्तर दिखता है।
अन्तर्यात्री महापुरुष के रूप में मनोज्ञमुनि श्री विद्यासागर जी ने ३० जून १९६८ को अन्तर्पथ पर कदम रखा और प्रारम्भ की अन्तर्यात्रा, तब से अब तक यात्रा सतत् जारी है। साधना की शुद्धि-विशुद्धि एवं जगत कल्याण के लिए गाँव-गाँव, नगर-नगर की बाह्य जगत यात्रा भी चलती रही। पचास वर्षीय अन्तर्यात्रा की उपलब्धि क्या रही यह तो अन्तर्यात्री गुरुवर ही जानते हैं किन्तु बाह्य यात्रा से समाज-संस्कृति-जन-जन को जो उपलब्धि हुई है, वह प्रत्यक्ष देखने/अनुभव में आ रही है।
पचास वर्षीय विशाल व्यक्तित्व-कृतित्व को समेटना/एकत्रित करना एवं पाठकों के समक्ष रखना बड़ा ही कठिन, परिश्रम साध्य, ऐतिहासिक कार्य है किन्तु कठिन होते हुए भी गुरु श्रद्धा-सपर्मणभक्ति की शक्ति से सहज में ही हो जाता है। यही विश्वास कलम का सम्बल है। इस सम्बन्ध में अन्तर्यात्री महापुरुष ने कई बार अपने प्रवचनों में भी कहा है कि-“जो कुछ साधना-ज्ञानाराधना कर रहा हूँ, जो कुछ समाज को मिल रहा है, यह सब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के आशीर्वाद से सहज ही हो रहा है।
अन्तर्यात्री महापुरुष के समग्र व्यक्तित्व को एक साथ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, अतः५-५ वर्ष के भाग बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। अन्तर्यात्री महापुरुष, अपराजेय साधक आचार्य श्री विद्यासागर जी गुरु महाराज की श्रमण यात्रा का सन् १९६९ से १९७३ का पंचवर्षीय युग बड़ा चुनौतिपूर्ण एवं गहन अनुभूतियों भरा रहा। हस्तावलम्बी ज्ञानमूर्ति गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का, भावी श्रमण संस्कृति उन्नायक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज को ब्रह्मचारी अवस्था २५ मई १९६७ से १ जून १९७३ तक २१९९ (लीप ईयर सहित) दिनों का पावन सान्निध्य प्राप्त हुआ। जिसमें गुरुवर के साथ लगभग १०३२५४४ कदम चलकर लगभग ७८७ कि.मी. का विहार किया। गुरु सन्निध्य में ५०६४७०२७ श्वासों को साधा है और २२७९११६२२ नाड़ी धड़कनों में गुरु की अनुभूतियों का अहसास किया है।
गुरु समाधि का गुरुतर कर्तव्य निर्वहन के पश्चात् अन्तर्यात्री महापुरुष आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने गुरु की शिक्षाओं का अनुकरण करते हुए सन् १९७३ में २३८७८४ कदम चलकर १८२ कि.मी. के विहार में मोक्षमार्ग की प्रभावना की है। गुरु बिन २१३ दिन १७ घण्टे २८ मिनट में जिनकी ४९२४१०९ श्वासों ने गुरु नाम जपा । २२१५८४९० नाड़ी धड़कनों में गुरु की शिक्षाओं का अनुभवन किया है। अन्तर्यात्री महापुरुष ने गुरु सान्निध्य के एक-एक क्षण का उपयोग अपनी ज्ञानाराधना एवं आत्मसाधना में किया है। गुरु आशीष की छाया तले ब्रह्मचारी विद्याधर अवस्था में नमक, मीठे का आजीवन त्याग की साधना से कोई भी मनुहार डिगा न सकी। ब्रह्मचारी अवस्था में दो केशलोंच, दीक्षा के मंच पर एक, मुनि अवस्था में सत्रह, आचार्य बनने के बाद गुरु के समक्ष दो और ब्यावर चातुर्मास में दो। इस तरह कुल चौबीस केशलोंच १९७३ तक कर चुके हैं। ऐसे आत्मजयी साधक ने अपने गुरु की १५७ दिवसीय सल्लेखना में जो सेवा-शुश्रुषा-परिचर्या की है वह एक ऐतिहासिक मिसाल बन गई है। ऐसी अनेक विशेषताओं से भरा यह अन्तर्यात्री महापुरुष का द्वितीय खण्ड पाठकों को आह्लादित करेगा, प्रेरणाएँ देगा और उनके जीवन को संवारेगा।
प्रकाशन योग्य कृति परमपूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज को दिखाई तो उन्होंने आवश्यक संशोधन करके प्रसन्नतापूर्ण आशीर्वाद प्रदान किया। इसके साथ ही मुनि श्री महासागर जी महाराज, मुनि श्री निष्कम्पसागर जी महाराज का भी आशीर्वाद प्राप्त हुआ तथा मेरे अग्रज क्षुल्लक गम्भीरसागर जी महाराज ने भी प्रोत्साहन दिया। संघ का वात्सल्य पाकर मैं सभी के प्रति कृतज्ञता से भर गया हूँ।
इस खण्ड की पाण्डुलिपि के लेखन कार्य में भीलवाड़ा के भागचंद शाह (मास्टर), राहुल जैन शास्त्री (लाडनू), जिनेन्द्र जैन (शिवनगर, जबलपुर), राकेश अजमेरा (देवली) आदि साधुवाद के पात्र हैं और प्रकाशन के योग्य प्रति तैयार करने में अभिषेक जैन शास्त्री (सागर) ने अत्यधिक परिश्रम किया एवं पं. अरुण कुमार जी शास्त्री (ब्यावर), श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी), श्री मधुर जी (ललितपुर), ब्र. बहिन नीता-नीलम जी (ललितपुर), ब्र. राजेश जी वर्द्धमान (सागर) ने शोधनकार्य में सहयोग करके अन्तर्यात्री महापुरुष के प्रति अपनी विनयाञ्जली अर्पित की है। इस कृति के प्रकाशन में प्रसिद्ध दानवीर परिवार श्रीमान् रतनलाल कंवरलाल पाटनी आर. के मार्बल मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) की भावनाएँ अन्तर्यात्री महापुरुष परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में समर्पित हुईं हैं, ऐसे परिवार को जितना साधुवाद दिया जाए वह कम ही लगता है। अन्तर्यात्री महापुरुष का द्वितीय खण्ड-“अन्तर्यात्री : गुरुचरणानुगामी'' रूप पत्रों का पुलंदा गुरूणां गुरु-दादागुरु को प्रेषित करता हूँ।
क्षुल्लक धैर्यसागर