पत्र क्रमांक-१०३
११-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अन्तःसाक्षी अन्तर्यात्रा निर्देशक गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु करता हूँ.... हे गुरुवर! आप तो संसार सागर से तिर ही रहे हैं, साथ ही संसार सागर से तिरने के लिए जिनजिन भव्यात्माओं ने सहारा माँगा उन्हें भी सहारा दे तैरना सिखाया। आप जैसे श्रेष्ठ अनुभवी समर्थ करुणावान निरीह तैराक ने जब नसीराबाद में दो डूबते संसारियों को तैरने के लिए पोशाक पहनायी। उस भव्य मुनि दीक्षा का आँखों देखा वर्णन रतनलाल जी गदिया ने ‘जैन गजट' फरवरी १९६९ एवं नसीराबाद से प्रकाशित जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा का मासिक प्रपत्र ‘वीरोदय' में ०८-०३-१९६९ को प्रकाशित कराया।वह लिख रहा हूँ-
भव्य मुनिदीक्षा का आँखों देखा वर्णन
‘नसीराबाद नगर में दिनांक ०७-०२-१९६९ को ऐतिहासिक मुनि दीक्षा समारोह सम्पन्न हुआ मरवा निवासी वासिम प्रवासी श्री लक्ष्मीनारायण जी छाबड़ा के वैराग्यपूर्ण भावों के कारण उन्होंने सांसारिक भोगों को त्यागते हुए निर्ग्रन्थ मुनि पद स्वीकार करना चाहा, ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज सा. ने श्री लक्ष्मीनारायण को मोक्षपथ पर अग्रसर करने हेतु मुनिरूप में दीक्षित किया। समारोह का कार्यक्रम आठ दिन के समय में कई चरणों में निम्न प्रकार से सम्पन्न हुआ-
३१-०१-१९६९ को अजमेर निवासी श्रीमान् कजौड़ीमल जी अजमेरा द्वारा छोल भरी गई। ०१-०२-१९६९ को पीसांगन निवासी श्रीमान् रिखबचंद जी पहाड़िया द्वारा आचार्य निमंत्रण पं. श्री चम्पालाल जी द्वारा चारित्र शुद्धि मण्डल विधान प्रारम्भ कराया गया। रात्रि में श्रीमान् पाथूलाल जी प्रेमचंद जी बड़जात्या द्वारा शोभायात्रा सम्पन्न कराई गयी। ०२-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन। रात्रि में चौकड़ी मोहल्ला नसीराबाद के सर्व बन्धुओं द्वारा शोभायात्रा का आयोजन किया गया। ०३-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन । रात्रि में श्रीमान् सेठ जतनलाल जी टीकमचंद । जी गदिया द्वारा शोभायात्रा का आयोजन किया गया।
०४-०२-१९६९ को दिन में मण्डल विधान पूजन । रात्रि में श्रीमान् कनकमल जी मोतीलाल जी सेठी द्वारा शोभायात्रा। ०५-०२-१९६९ को मध्याह्न में मण्डल विधान व रात्रि में छप्या वालों की तरफ से शोभायात्रा। ०६-०२-१९६९ को विधान पूजन, शान्ति विसर्जन व शान्तिधारा। रात्रि में दिगम्बर जैन पंचायतनसीराबाद की तरफ से विशाल शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें भगवान के पंचकल्याणक का प्रदर्शन हजारों नर-नारियों ने उत्साहपूर्वक देखा। ०७-०२-१९६९ प्रातः रथ यात्रा दिन में १२:00 बजे से मुनिदीक्षा ग्रहण कार्यक्रम विशाल पाण्डाल में १५-२० हजार नर-नारियों की उपस्थिति में प्रारम्भ हुआ। जैन पाठशाला की छात्राओं द्वारा मंगलाचरण तथा अजमेर के वकील श्री प्रभुदयाल जी द्वारा मंगलगान किया गया। श्री मनोहर लाल जी जैन प्रधानाचार्य अभिनव प्रशिक्षण केन्द्र, चिड़ावा के भाषणोपरान्त दीक्षा सम्बन्धी क्रियाएँ प्रारम्भ की गयीं, श्री लक्ष्मीनारायण जी को निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा तथा क्षुल्लक श्री सन्मतिसागर जी को ऐलक दीक्षा प्रदान की गई। नवदीक्षित मुनि श्री १०८ विवेकसागर जी तथा मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी के प्रवचनोपरान्त श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब अजमेर का सामयिक भाषण हुआ। सर सेठ सा. जयपुर में अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर इस समारोह में सम्मलित होने के लिए पधारे थे। श्रीमान् माणकचंद जी गदिया, एडव्होकेट द्वारा व स्थानीय दिगम्बर जैन समाज की रुचि अनुसार ज्ञानमूर्ति तपस्वी मुनि श्री ज्ञानसागर जी महराज को संघ का आचार्य पद प्रदान करने हेतु प्रस्ताव किया गया जिसका चतुर्विध संघ सहित उपस्थित सभी २० हजार नर-नारियों ने एक स्वर से हर्ष ध्वनि व जयघोष के साथ समर्थन किया। आचार्य श्री के आध्यात्मिक प्रवचन के पश्चात् स्थानीय दिगम्बर जैन समाज ने सभी आगन्तुक महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद दिया तथा समारोह समापन किया। समारोह की व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित तथा समयानुकूल की गई थी। स्थानीय जैन समाज की ओर से सभी आगन्तुक सज्जनों को प्रीतिभोज दिया गया। दीक्षा समारोह समिति के अध्यक्ष श्रीमान् सुमेरचन्द जी जैन B.A. Govt. Contractor का योगदान बहुत ही प्रशंसनीय रहा। श्री सुमेरचंद जी साहब न केवल एक योग्य सामाजिक कार्यकर्ता है, वरन् उदार दानी तथा धर्म प्राण व्यक्ति हैं। जैन संस्कृति तथा समाज के लिए आप की सेवाएँ हर समय उपलब्ध रहती हैं।
श्री १०८ विवेकसागर जी महाराज का दीक्षोपरान्त प्रथम प्रवचन
‘‘जय बोलो श्री आदिनाथ भगवान की... जय... जय बोलो श्री शान्तिनाथ भगवान की... जय... जय बोलो श्री महावीर भगवान की... जय... परमपूज्य चारित्रविभूषण श्री ज्ञानसागर जी महाराज, श्री विद्यासागर जी महाराज तथा अन्य त्यागी गण? आज मुझे बहुत प्रसन्नता है, कि बहुत समय से चाही हुई मुनि दीक्षा मुझे गुरु महाराज की कृपा से तथा आप लोगों के हार्दिक सहयोग से उत्साहपूर्वक वातावरण के मध्य प्राप्त हुई है सबसे पहले मैं आचार्यों द्वारा प्ररूपित गाथा का स्मरण करना आवश्यक समझता हूँ-
खम्मामि सव्वजीवाणां सव्वे जीवा खमंतु मे।।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि ॥
जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक मेरे निमित्त से ज्ञातभाव या अज्ञातभाव से किसी भी प्रकार की विराधना हुई है उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। मैं स्वयं भी सब प्राणियों को क्षमा करता हूँ, प्राणी मात्र के प्रति मेरा मैत्री भाव है। अनादिकाल से यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता हुआ बड़ी कठिनाई से इस मनुष्य गति के अन्तर्गत जैनधर्म को पालन करने का अधिकारी हुआ। आदर्श गृहस्थ का कर्तव्य पूर्ण करके संयम धारण करना वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। दूसरी कोई गति ऐसी नहीं है, जिसमें प्राणी अनन्तकाल के दूषित संस्कारों को दूरकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सके। वे धन्य हैं जो चढ़ती हुई जवानी में ही संयम धारण करके गुरुओं के अगाध ज्ञान को प्राप्त करके दिगम्बर जैन श्रमणसंघ की-संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं। कुटुम्बी वर्ग की भी मैं प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने मेरे संयम धारण के आवश्यक कार्य में बाधक नहीं बनकर साधक का ही कार्य किया है। परमपूज्य पिता जी श्री सुगनचन्द जी, भाई सुखदेव जी, भाई उम्मेदमल जी, श्री कजोड़ीमल जी अजमेरा, ब्र. प्यारेलाल जी बड़जात्या, पं. विद्याकुमार जी सेठी अजमेर, पं. चम्पालाल जी नसीराबाद आदि ने हर तरह से मेरे उत्साह को बढ़ाया है।
इस नगर के भाईयों के धार्मिक उत्साह को भी मैं नहीं भुला सकता जिन्होंने तन, मन, धन से इस कार्य में पूर्ण सहयोग दिया है। मुझे इतना ही कहना है कि आपने जैसी बिन्दौरी आदि में अपनी उमंग प्रदर्शित की है। ऐसी ही उमंग अपने उपेक्षित भाईयों की रक्षा में, अकाल पीड़ित दुखियों की रक्षा में, संस्कृति की रक्षा में तथा अन्य आवश्यक कार्य में भी बनाये रखें और अन्त में स्वयं संयम को धारणकर मानव जीवन को सार्थक करें। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। पुनः श्री दीक्षागुरु, वयोवृद्ध ज्ञान के सागर, संघ के शिरोमणि ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल नमोऽस्तु करता हुआ अन्य त्यागियों को समाधिर्भवतु का आशीर्वाद देता हुआ, धार्मिक प्राणियों की धर्मवृद्धि चाहता हुआ तथा पापियों के भी पापक्षय की भावना करता हुआ श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करता हूँ कि मेरी संयम में उत्तरोत्तर भावना बढ़ती रहे और मैं अपने रत्नत्रय में कुशलता प्राप्त करता हुआ, अपनी आत्मा के स्थायी रूप को प्राप्त कर सकूँ।"
नवदीक्षित मुनि श्री विवेकसागर जी के प्रवचन के उपरान्त मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने भी अपने ज्ञानचक्षुओं की अनुभूति प्रकट की जिसे पं. चंपालाल जी जैन विशारद ने जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा नसीराबाद के मासिक प्रपत्र ‘वीरोदय' में दिनांक ०८-०३-१९६९ को प्रकाशित कराया जो इस प्रकार है।
मुनि विद्यासागर जी के प्रवचनांश
‘‘जैन धर्म के मूल प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ हुए हैं। जिसका उल्लेख वेदों में आदि कर्ता नाम से देखने को मिलता है। ऋषभनाथ जी का उपदेश तीनों त्याग मार्ग को लेकर के ही नहीं था बल्कि साथ-साथ पूर्व अवस्था में पद के अनुसार भोग लेते हुए अर्थात् धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों के साथ अपने जीवन को आदर्शमय बनाते हुए अर्थात् सदाचार व मानवता को अपनाते हुए, गृहस्थाश्रम की परिपाटी चलाते हुए, जबकि संतान में स्वयं अपने पैर पर खड़े होने की शक्ति आ जावे, तब ऊपर बताए हुए तीनों पुरुषार्थों को छोड़कर, चतुर्थ मोक्ष पुरुषार्थ को अवश्य ही अपना लेना चाहिए। जैन दर्शन की विशेषता यही है, कि यह त्याग को प्रधानता देता है, अन्य दर्शनों में भोग की तो पुष्टि मिलती है, मगर त्याग का उपदेश नगण्य-सा ही देखने को मिलता है। अतः उनसे आत्मा की तृप्ति व शान्ति सम्भव कैसे हो? इस प्रकार ऋषभनाथ भगवान ने स्वयं तीन पुरुषार्थों का आचरण करते हुए तेरासी लाख पूर्व वर्ष गृहस्थाश्रम में व्यतीत किए, अन्त में चौथे पुरुषार्थ को अपना कर मोक्ष को प्राप्त हुए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभू स्तोत्र में कहा है-
प्रजापति र्यः प्रथमं जिजीविषुः,
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः।
प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ,
ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः॥२॥
इससे यह विदित होता है कि मानव को तीनों पुरुषार्थों में पारंगत होकर के शारीरिक शक्ति रहते हुए चौथे मोक्ष पुरुषार्थ की साधना करनी चाहिए।"
हे गुरुवर! आप यह देखकर कितने खुश होते होंगे कि कन्नड़ भाषा भाषी शिष्य दो वर्ष में हिन्दी पर कितना अधिक अधिकार बना चुका है। जो आगम ज्ञान को शुद्ध और पूर्ण क्रिया में परिणत कर धर्म के मर्म को धारा प्रवाह हिन्दी भाषा में ऐसे बोल रहा है जैसे इनकी मातृभाषा हिन्दी हो। आपको अपने होनहार मेधावी सत्यान्वेषी मधुरभाषी शिष्य को पाकर गौरव का अनुभव होता होगा। ऐसे शिष्य मेरे गुरु ने आपसे जो सीखा और जो पाया वह आज तक सभी को दे रहे हैं। जिसके बारे में मैं आपको आगे लिखता रहूँगा। आपके उपकारों को स्मरण करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य