जैन श्रावक की पहचान के तीन चिह्न कहे गये हैं। उसमें सर्वप्रथम प्रतिदिन देव दर्शन, दूसरा रात्रि भोजन त्याग और तीसरा छान कर पानी पीना है।
रात्रि भोजन त्याग का अर्थ – सूर्य अस्त होने के पश्चात् चारों प्रकार के आहार (भोजन) का त्याग करना है। वे चार प्रकार के आहार-
- खाद्य - दाल, रोटी भात आदि।
- स्वाद - इलायची, लौंग, सौंफ आदि।
- लेय - रवड़ी, लपसी, दही आदि।
- पेय - जल, रस, दूध आदि।
जो श्रावक रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है उसे एक वर्ष में छह महीने के उपवास का फल मिलता है।
दिन का बना भोजन रात में करने से अथवा रात में बना भोजन रात में करने से रात्रि भोजन का दोष तो लगता ही है किन्तु रात में बना भोजन दिन में करने से भी रात्रि भोजन का दोष लगता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार - सूर्य के प्रकाश में अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड नाम की अदृश्य किरणें होती हैं। इन किरणों के धरती पर पड़ते ही अनेक सूक्ष्म जीव यहाँ - वहाँ भाग जाते हैं अथवा उत्पन्न ही नहीं होते, किन्तु सूर्य अस्त होते ही वे कीटाणु बाहर निकल आते हैं, उत्पन्न हो जाते हैं। रात्रि में भोजन करने पर वे असंख्यात सूक्ष्म त्रस जीव जो भोजन में मिल गए थे मरण को प्राप्त हो जाते हैं अथवा पेट में पहुँचकर अनेक रोगों को जन्म देते हैं। चिकित्सा शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने से तीन घंटे पूर्व तक भोजन कर लेना चाहिए। रात्रि में भोजन करते समय यदि चींटी पेट में चले जाये तो बुद्धि नष्ट हो जाती है, जुआ से जलोदर रोग उत्पन्न हो जाता हैं, मक्खी से वमन हो जाता है, मकड़ी से कुष्ट रोग उत्पन्न हो जाता है तथा बाल गले में जाने से स्वर भंग एवं कंटक आदि से कण्ठ में (गले में)पीड़ा आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है। अत: स्वास्थ्य की रक्षा हेतु भी रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य है।
धार्मिक दृष्टिकोण - रात्रि में बल्व आदि का प्रकाश होने पर भी जीव हिंसा के दोष से बच नहीं सकते, बरसात के दिनों में साक्षात् देखने में आता है कि रात्रि में बल्व जलाते ही सैकड़ों कीट - पंतगे उत्पन्न हो जाते हैं, जो कि दिन में बल्व (लट्टू)जलाने पर उत्पन्न नहीं होते। सूक्ष्म जीव तो देखने में ही नहीं आते। तथा रात्रि के अंधकार में भोजन करने पर सैकड़ों जीवों का घात होना संभव हैं अत: धर्म, स्वास्थ्य तथा कुल परम्परा की रक्षा हेतु रात्रि भोजन का त्याग नियम से करना चाहिए।
रात्रि भोजन से उत्पन्न पाप के फलस्वरूप जीव उल्लू, कौआ, विलाव, गृद्ध पक्षी, सूकर, गोह आदि अत्यन्त पाप रूप अवस्था दुर्गति को प्राप्त होता है तथा मनुष्य अत्यन्त विद्रुप शरीर वाला, विकलांग, अल्पायु वाला और रोगी होता है एवं भाग्य हीन, आदर हीन होता हुआ नीच कुलों में उत्पन्न होकर अनेक दु:खों को भोगता है।
जल गालन - जल स्वयं जलकायिक एकेन्द्रिय जीव है एवं उस जल में अनेक त्रस जीव पाए जाते हैं। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि नग्न आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। वैज्ञानिकों ने सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से देखकर एक बूंद जल में 36,450 जीव बताए हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार उक्त जीवों की संख्या काफी अधिक (असंख्यात) है। ऐसा कहा जाता है कि एक जल की बूंद में इतने जीव पाए जाते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उड़े तो पूरे जम्बूद्वीप को व्याप्त कर लें। उक्त जीवों के बचाव के लिए पानी छानकर ही पीना चाहिए।
जल को अत्यन्त गाढ़े (जिससे सूर्य का विम्ब न दिखे) वस्त्र को दुहरा करके छानना चाहिए। छन्ने की लंबाई, चौड़ाई से डेढ़ गुनी होनी चाहिए।
छना हुआ जल एक मुहूर्त (४८ मिनट) तक, सामान्य गर्म जल छह (६) घंटे तक तथा पूर्णत: उबला जल चौबीस (२४) घंटे तक उपयोग करना चाहिए। इसके बाद उसमें त्रस जीवों की पुन: उत्पत्ति की संभावना रहने से उनकी हिंसा का दोष लगता हैं।
छने हुए जल में लौंग, इलायची आदि पर्याप्त मात्रा में (जिससे पानी का स्वाद व रंग परिवर्तित हो जाए) डालने पर वह पानी प्रासुक हो जाता है एवं उसकी मर्यादा छह घंटे की मानी गई हैं।