मनुष्य गति नामकर्म के उदय से 'मैं मनुष्य हूँ" ऐसा अनुभव करते हैं वे जीव मनुष्य कहलाते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य दो प्रकार के हैं। कर्मभूमिज मनुष्य और भोगभूमिज मनुष्य।
- कर्मभूमिज मनुष्य - जो मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते है, शुभ-अशुभ कर्म करते हुए सद्गति-दुर्गति को प्राप्त होते है। असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा और वाणिज्य रूप षट्कर्मों के द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं। जो जीव कर्म काट कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते है, कर्मभूमिज मनुष्य कहलाते हैं।
- भोगभूमिज मनुष्य - जो मनुष्य दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का भोग करते हैं। सदा भोगों में लीन सुखमय जीव व्यतीत करते हैं तथा मरणकर नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। भोग भूमिज मनुष्य कहलाते हैं।
आर्य व म्लेच्छ के भेद से भी मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। जो गुणों से सहित हो अथवा गुणवान लोग जिनकी सेवा करें उन्हें आर्य कहते हैं। इसके विपरीत, गुणों से रहित, धर्महीन आचरण करने वाले, निर्लज वचन बोलने वाले म्लेच्छ होते हैं।
कर्मभूमिज मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व वर्ष प्रमाण है एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। भोग भूमिज मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य एवं जघन्य आयु एक पूर्व कोटी है।
भद्र मिथ्यात्व, विनीत स्वभाव, अल्प आरम्भ अल्प परिग्रह के परिणाम, सरल व्यवहार, हिंसादिक दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागत तत्परता, कम बोलना, ईर्षारहित परिणाम, अल्प संक्लेश, देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि, दान शीलता, कापोत पीत लेश्या रूप परिणाम, मरण काल में संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि मनुष्य आयु के आस्रव तथा मनुष्य गति में ले जाने के कारण है।
मनवांछित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। वे दस प्रकार के होते हैं
- पानाङ्ग - मधुर, सुस्वादु छ: रसों से युक्त बतीस प्रकार के पेय को दिया करते हैं।
- तूर्याडू - अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र देने वाले होते हैं।
- भूषणाङ्ग - कंगन, कटिसूत्र, हार, मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं।
- वस्त्राङ्ग - अच्छी किस्म (सुपर क्वालिटी) के वस्त्र देने वाले हैं।
- भोजनाङ्ग - अनेक रसों से युक्त अनेक व्यञ्जनों को प्रदान करते हैं।
- आलयाङ्ग - रमणीय दिव्य भवन प्रदान करते हैं।
- दीपाङ्ग - प्रकाश देने वाले होते हैं।
- भाजनाङ्ग - सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित भाजन और आसनादि प्रदान करते हैं।
- मालाङ्ग - अच्छी-अच्छी पुष्पों की माला प्रदान करते हैं।
- तेजाङ्ग - मध्य दिन के करोड़ों सूर्य से भी अधिक प्रकाश देने वाले इनके प्रकाश से सूर्य, चन्द्र का प्रकाश कांतिहीन हो जाता है।
पानाङ्ग जाति के कल्पवृक्ष को मद्याङ्ग भी कहते हैं। ये अमृत के समान मीठे रस देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों का एक प्रकार का रस है, जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं, किन्तु यहाँ पर अर्थात् कर्मभूमि में जो मद्य पायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशीला होता है और अन्त:करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।
सुपात्र की आहार दान देते समय की जाने वाली नवधा भक्ति
१. पडुगाहन २. उच्चासन ३. पाद-प्रक्षालन ४. पूजन ५. नमोस्तु६. मन शुद्धि७. वचन शुद्धि८. काय शुद्धि९. आहार-जल शुद्धि