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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 6अ - दुःख के पाँच साधन - पाप

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    पाप का स्वरूप -

    जिन कार्यों को करने से जीव दुर्गति का पात्र बनता है, उसे इस लोक में व परलोक में निन्दा तथा धिक्कार के साथ-साथ अनेक कष्टों को सहन करना पड़ता है, उसे पाप कहते हैं।

     

    पाप के भेद -

    पाँच पाप -१. हिंसा, २. झूठ ३. चोरी ४. कुशील (अब्रह्म) और ५. परिग्रह है।

     

    हिंसा पाप –

    प्रमाद के कारण किसी दूसरे जीव के अथवा स्वयं के प्राणों का घात करना हिंसा पाप कहलाता है। इस पाप को करने वाले हिंसक, क्रूर, निर्दयी, हत्यारे कहलाते हैं। किसी को मार-पीट कर दुखी करना, धर्म मानकर पशु आदि की बलि चढ़ाना, पुतला जलाना, मिठाई आदि में पशु का आकार बनाकर काटना, खाना, वीडियों गेम में चिड़िया आदि मारना हिंसा पाप है।

     

    हिंसा से बचने के उपाय -

    1. राग-द्वेष बढ़ाने वाले कुटिल विचारों को छोड़ना चाहिए।
    2. चलते समय नीचे देखकर चलना चाहिए।
    3. वस्तुओं को उठाते रखते समय सावधानी रखना चाहिए।
    4. रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए अर्थात् सूर्य प्रकाश में ही भोजन-पान करना चाहिए।
    5. त्रस जीवों की रक्षा का शक्त्यानुसार संकल्प लेना चाहिए।
    6. हिंसा परिणामों को उत्पन्न करने वाले सिनेमा आदि नहीं देखना चाहिए।
    7. बिना प्रयोजन घूमना नहीं, पानी फेंकना नहीं एवं पेड़ पौधो, फूल, पत्ती आदि तोड़ना नहीं चाहिए।

     

    झूठ पाप –

    जिस बात या जिस घटना को जैसा सुना अथवा देखा हो वैसा न कहकर अन्य प्रकार से कहना'झूठ पाप' कहलाता है। जिन वचनों के कहने से किसी अन्य पर विपत्ति आ जावे, किसी के प्राणों का घात हो जावे, ऐसा सत्य वचन भी झूठ कहलाता है।

     

    झूठ के अन्य रूप -

    मर्मप्छदा वचन, कठार वचन, उद्वगकारा वचन, बरात्पादक, कलहकारा वचन, भयात्पादक तथा अवज्ञाकारा वचनइस प्रकार के अप्रिय वचन, हास्य, भीति, लोभ, क्रोध, द्वेष इत्यादि कारणों से बोले जाने वाले वचन सब असत्य भाषण (झूठ) है। झूठ, अनृत, असत्य ये एकार्थ वाची हैं। झुठ पाप से बचने हेतु निम्न कार्य करना चाहिए।

    1. हमेंशा सत्य बोलना चाहिए क्योंकि एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ और बोलना पड़ता है।
    2. क्रोध और लोभ का त्याग करना चाहिए क्योंकि इन कारणों से भी व्यक्ति झूठ बोलता है।
    3. हमेशा निर्भय रहना चाहिए।
    4. व्यर्थ की हँसी - मजाक, वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।
    5. आगम के अनुसार हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए।
    6. तू मूर्ख है, अज्ञानी है इत्यादि कठोर वचन, तू अंधा है लगड़ा हैं, इत्यादि कठोर वचन नहीं बोलना चाहिए।
    7. झूठा उपदेश देना, पत्र पत्रिकाओं में गलत बात छापना, दूसरों की निन्दा इत्यादि कार्य नहीं करना चाहिए।

     

    चोरी पाप –

    बिना दिए किसी की गिरी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा उठाकर किसी को दे देना चोरी पाप है।

     

    चोरी महापाप –

    धन को मनुष्य का बारहवां प्राण कहा है जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने में दु:ख होता है वैसा ही दु:ख धन के नाश हो जाने पर होता है। आचार्यों ने सुअर का घात करने वाले, मृगादिक को पकड़ने वाले तथा परस्त्री गमन करने वाले से भी अधिक पापी 'चोर' को कहा है।

     

    चोरी के अन्य रूप -

    चोरी करने के उपाय बताना, चोरी का माल खरीदना, राज्य नियमों के विरुद्ध कालाबजारी करना, टेक्स चुराना, मापने व तौलने के उपकरणों में कमती बढ़ती रखना, मिलावट करना, अन्याय पूर्वक धन कमाना इत्यादि चोरी पाप के ही अन्य रूप है।

     

    चोरी से बचने हेतु निम्न कार्य करना चाहिए -

    1. बिना पूछे, आज्ञा लिए किसी के स्वामित्व की वस्तु नहीं लेना।
    2. आवश्यकता से अधिक वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
    3. विक्रय कर, आय कर, बिजली पानी आदि के बिल का भुगतान करना।
    4. दूसरे की वस्तु पर अपना स्वामित्व नहीं जमाना।
    5. सधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना।

     

    कुशील पाप –

    जिनका आपस में विवाह संबंध हुआ हो, ऐसे स्त्री पुरुषों का एक दूसरे को छोड़कर अन्य किसी पुरुष अथवा स्त्री से संबंध रखने को (रमण करने को) कुशील पाप कहते हैं। स्त्री पुरूष की राग जन्य चेष्टा, गाली बकना, बुरा आचरण करना अथवा विवाह के पूर्व लड़के-लड़कियों का वासना की दृष्टि से एक-दूसरे को मित्र बनाना, छूना, हाथ पकड़ना, गले में हाथ डालना, चुम्बन लेना, देखना इत्यादि कुशील पाप है।

     

    कुशील पाप के कारण -

    स्त्री संबंधी विषयों की अभिलाषा रखना, अनंग क्रीड़ा, शरीर को संस्कारित करना, राग वर्धक गंदे चित्र, फिल्म, नाटक आदि देखना, वेश्या गमन करना इत्यादि अब्रह्म पाप के कारण है।

     

    कुशील पाप के बचने के उपाय -

    अब्रह्म पाप से बचने के लिए निम्न उपाय हैं।

    1. वृद्धा, बाला और यौवन अवस्था वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर माता, पुत्री, बहन समान समझ स्त्री सम्बन्धी कथादि का अनुराग छोड़ना। एवं इसी प्रकार स्त्रियों द्वारा पुरुष में रागवर्धक वार्ता को छोड़ना।
    2. शरीर की मलिनता, क्षणभंगुरता का विचार करना।
    3. इष्ट एवं गरिष्ट पदार्थों का सेवन नहीं करना।
    4. जो स्व को इष्ट हो परन्तु शिष्ट जनों के द्वारा धारण करने योग्य नहीं हैं ऐसे विचित्र प्रकार के वस्त्र, वेशभूषा, आभरण आदि का त्याग करना।
    5. व्यभिचारी एवं कामी पुरुषों की संगति नहीं करना।

     

    परिग्रह पाप –

    जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल, इत्यादि पदार्थों के प्रति मूच्छा (आसक्ति) रूप परिणाम रखना, 'यह मेरा है मैं इसका स्वामी हूँ।' इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है।

    परिग्रह के दो भेद है। १. बाहय परिग्रह एवं २. अंतरंग परिग्रह

     

    बाहय परिग्रह दस प्रकारका है – क्षेत्र (खेतादि), वास्तु (मकानादि), हिरण्य (चाँदी), सुवर्ण(सोना), धन (गौ आदि पशु), धान्य (गेहूँ आदि), दासी, दास, कुष्य (वस्त्र, किराना आदि), भाण्ड (बर्तनादि)

    अंतरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है – मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नंपुसक वेद।

    परिग्रह के अन्य रूप –

    आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना, सत् कार्यों में धन का उपयोग नहीं करना, दिन रात धन इकट्ठा करने की चिंता करना इत्यादि सब परिग्रह पाप के ही कारण समझना चाहिए।

    परिग्रह पाप से बचने के निम्न उपाय है -

    1. परिग्रह परिमाण व्रत ग्रहण कर संतोष धारण करना।
    2. अपनी इच्छाओं, पंचेन्द्रिय के विषयों को सीमित करना।
    3. धन के कारण उत्पन्न दु:ख, विपत्ति आदि का चिन्तन करना।
    4. जीवन, धन, यौवन की नश्वरता के विषय में सोचना।
    5. पंचेन्द्रिय के अच्छे बुरे विषयों में राग-द्वेष नहीं करना।
    6. जिन सूत्र - जिनवाणी का अध्ययन, स्वाध्याय करना।
    7. अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वो के दिन गृह त्याग, पूर्ण परिग्रह त्याग रूप व्रत को स्वीकारना।

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    रतन लाल

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    जैन सिद्धांत पर विवेचना

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