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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 4अ - संसार के प्रमुख पात्र : जीव - अजीव

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    जिसमें चेतना पाई जावे अर्थात् जो सुख दु:ख का संवेदन करता हो उसे जीव कहते हैं। जीव ही संसार में सुख दु:खों को भोगता है एवं जीव ही कर्मों को क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है। जो चेतना शून्य, सुख दु:ख के संवेदन से रहित, जड़ अज्ञानी हो उसे अजीव कहते है। हमारे आस-पास जो कुछ भी हम देखते हैं वह अजीव है जैसे पुस्तक, पेन कॉपी, कुर्सी, टेबिल, घड़ी इत्यादि। अजीव के मुख्य रूप से पाँच भेद जैनाचार्यों ने कहे हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से पुद्गल ही हमें देखने में आता है शेष नहीं। धर्मादि का वर्णन आगे के अध्याय में किया जावेगा।

     

    जीव के मुख्य रूप से दो भेद हैं -

    (१) संसारी जीव

    (२) मुक्त जीव

     

    जिन्होंने ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का क्षय (नष्ट) कर दिया हैं, ऐसे जीव मुक्त जीव कहलाते हैं। सिद्ध परमेष्ठी ही मुक्त जीव हैं। जिन्होंने कर्मों का क्षय नहीं किया तथा चारों गतियों में भ्रमण कर रहे हैं, उन्हें संसारी जीव कहते हैं।

     

    त्रस व स्थावर जीव

    संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जो कष्टों से भयभीत हो भागते हैं, चलते फिरते हैं उन्हें त्रस जीव कहते हैं। जिनके दो से लेकर पांच तक इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें त्रस जीव कहते हैं। उदाहरण - देव, मनुष्य, हाथी, मक्खी, चीटीं, इल्ली आदि। जो प्राय: एक ही स्थान पर रहते हैं दु:खों से भयभीत हो भाग नहीं सकते उन्हें स्थावर जीव कहते हैं। इनके एक मात्र स्पर्शन इंद्रिय ही होती है। उदाहरण - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। संसारी जीव समनस्क और अमनस्क के भेद से भी दो प्रकार के हैं। मन सहित जीव समनस्क कहे जाते हैं इन्हें संज्ञी भी कहा जाता है। मन रहित जीव अमनस्क होते हैं। इन्हें असंज्ञी कहते हैं।

     

    पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में कुछ संज्ञी व कुछ असंज्ञी होते हैं। देव, मनुष्य व नारकी नियम से संज्ञी ही होते हैं। आत्मा के प्रकार - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की अपेक्षा से भी जीव के तीन भेद कहे हैं। जो अपने देह व पर के देह को ही आत्मा मानता हैं बहिरात्मा कहलाता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव, आत्मा और देह के भेद को जानते हैं वे अन्तरात्मा है। आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त जीव परमात्मा कहलाते हैं।

     

    भव्य-अभिव्य जीव

    जो जीव मोक्ष प्राप्त करने की अर्थात् भगवान बनने की क्षमता रखते हैं उन्हें भव्य जीव कहते हैं। पेड़-पौधे, निगोदिया जीव भी भव्य हो सकते हैं। भव्य कभी अभव्य एवं अभव्य कभी भव्य नहीं बन सकता। जो जीव मोक्ष प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखते उन्हें अभव्य जीव कहते हैं। महाव्रतों को धारण करने वाले मुनि भी अभव्य हो सकते हैं। अभव्य जीव मुनिव्रतों को धारण कर नवमें ग्रेवेयक (स्वर्ग) तक जन्म ले सकता है किन्तु मोक्ष नहीं जा सकता। भव्य, अभव्य परिणामिक भाव है अत: उन्हें हम तुम नहीं जान सकते मात्र केवलज्ञानी ही जान सकते हैं कि कौन सा जीव भव्य हैं और कौन सा जीव अभव्य।

     

    भव्य जीव भी आसन्न भव्य, दूर भव्य, दूरान्दूर भव्य की अपेक्षा से तीन प्रकार के होते हैं।

    1. जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है एवं शीघ्र ही मुक्ति का लाभ प्राप्त करेंगे वे आसन्न भव्य हैं इन्हें निकट भव्य भी कहते हैं।
    2. जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, किन्तु भविष्य में प्राप्त करेंगे और मुक्ति का लाभ प्राप्त करेंगे वे दूर भव्य हैं।
    3. जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, न ही भविष्य में प्राप्त कर पायेंगे, किन्तु क्षमता तो है, वे दूरान्दूर भव्य हैं इन्हें अभव्यसम भव्य भी कहते हैं।

     

    संसारी जीवो में सबसे उत्कृष्ट आत्मा को, कर्म कलंक से रहित आत्मा को परमात्मा कहते है। शरीर सहित अहन्त तो सकल परमात्मा हैं। शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    जैनागम के अनुसार जीव विज्ञान

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