ज्ञानावरणादि कर्मों का तथा रागादि दोषों का जिनमें अभाव पाया जावे वे देव हैं। अरिहंत देव क्षुधादि अठारह दोषों से रहित, वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं निम्नलिखित अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं -
- क्षुधा रहित - आहारादि की इच्छा, भूख का अभाव।
- तृषा रहित - पानी की इच्छा, प्यास का अभाव।
- भयरहित - किसी भी प्रकार का डर उत्पन्न नहीं होना।
- राग रहित - प्रेम, स्नेह, प्रीति रूप परिणामों का अभाव।
- द्वेष रहित - द्वेष, शत्रुता रूप परिणामों का अभाव।
- मोह रहित - गाफिलता, विपरीत ग्रहण करने रूप भावों का अभाव।
- चिन्ता रहित — मानसिक तनाव का नहीं होना।
- जरा रहित - दीर्घ काल तक जीवित रहने पर भी बुढ़ापा नहीं आना।
- रोग रहित - शारीरिक व्याधियों का अभाव।
- मृत्यु रहित पुनर्जन्म कराने वाले मरण का अभाव।
- खेद रहित - मानसिक पीड़ा/ पश्चाताप का नहीं होना।
- स्वेद रहित - पसीना आदि मलों का शरीर में अभाव।
- मदरहित - अहंकारपने का अभाव, गर्व, घमंड रहितता।
- अरति रहित - किसी भी प्रकार की पीड़ा/दु:ख नहीं होना।
- जन्म रहित - पुनर्जन्म, जीवन धारण नहीं करना।
- निद्रा रहित - प्रमाद, थकान जन्य शिथिलता का न होना।
- विस्मय रहित - आश्चर्य रूप भावों का नहीं होना।
- विषाद रहित - उदासता रूप भावों का अभाव।
इन राग -द्वेष रूप अशुभ परिणामों के क्षय हो जाने पर जीव वीतरागीवीतद्वेषी कहा जाता है। जिन्होंने सभी प्रकार के धन-धान्य, सोना-चाँदी, घरपरिवार, दुकान, आभूषण, वस्त्रादि का त्याग कर दिया है। जो षट्काय के जीवों की विराधना के कारण भूत किसी भी प्रकार का 'सावद्य-कार्य" नहीं करते तथा जिन्होंने अपने आत्म तत्व की उपलब्धि हेतु जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित मोक्षमार्ग को स्वीकार किया है, ऐसे निग्रन्थ श्रमण भी वीतरागता के उपासक होने से वीतरागी कहे जाते हैं।
हमें वीतरागी भगवान को ही नमस्कार करना चाहिए। उनकी ही स्तुति, वंदना, पूजन करनी चाहिए। अन्य रागी-द्वेषी देवी-देवता हमारें आराध्य नहीं हो सकते, इनकी आराधना घोर-संसार का कारण एवं अति दु:ख का कारण है। भगवान हमारे लिए आदर्श, पथ-प्रदर्शक हुआ करते हैं। उनके दर्शन से हमें अपने शुद्ध स्वरूप, स्वभाव का ज्ञान होता है यदि भगवान कहे जाने वाले भी सामान्य मनुष्यों के समान ही विषय-भोगों में लीन है, स्त्रियों से सहित है, दूसरों की हिंसा करने में रत है, नानाआभूषणों से श्रृंगारित हैं, अस्त्र-शस्त्र अपने पास रखते हैं तो हममें और उनमें क्या विशेष अंतर रहा, हम उनके दर्शनों से क्या प्राप्त कर सकते हैं? कुछ भी नहीं। यदि आप कहें इससे उनका शक्तिशाली होना, ऐश्वर्यता, स्वामीपना प्रगट होता है वे हमें भी सुखी बना सकते है, हमारे दु:खों को दूर कर सकते हैं तो फिर राजा-महाराजा, धनपति सेठ आदि भी भगवान माने जायेंगे उनकी भी पूजा करनी पड़ेगी वह ठीक नहीं किन्तु जो हमारे पास है ऐसे राग-द्वेष, धनादि से रहित वीतरागी प्रभु के दर्शन से ही आत्मिक शांति की उपलब्धि दु:खों का नाश एवं सत्य का ज्ञान हो सकता है।
सर्वज्ञ - ज्ञानावरणादि चार घातियाँ कर्मों के क्षय से जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है जिनके ज्ञान में तीन लोक के समस्त चराचर पदार्थ युगपत हाथ में रखी स्फटिक मणी के समान झलकते हैं, वे सर्वज्ञ कहलाते हैं।
हितोपदेशी - पूर्ण ज्ञानी होकर संसार के प्राणियों के आत्म कल्याणार्थ हित-मित-प्रिय वचनों के माध्यम से उपदेश देने वाले प्रभु हितोपदेशी कहलाते हैं। सच्चे शास्त्र - वीतरागी श्रमणों द्वारा रचित ग्रन्थ सम्यक्रमोक्ष मार्ग का कथन करने वाले, प्राणी मात्र के हित का जिसमें उपदेश हो ऐसे ग्रन्थ सच्चे शास्त्र कहलाते हैं।
सच्चे गुरु - विषयों की आशाओं से अतीत, निरारम्भी, निष्परिग्रही, ज्ञान, ध्यान, तप में लीन, दिगम्बर मुद्रा धारी मुनि सच्चे गुरु कहलाते हैं।
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