Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. लेखनी लिखती है कि - बंद कमरे में दम घुटने लगता है तो अचानक आकर कोई खिड़की के मजबूत कपाट खोलता है तब शीतल हवायें तरोताजा कर देतीं कक्ष को प्रकाश से भर देतीं तब आगंतुक लगता है मीत-सा ऐसा ही जीवन जब घिर जाता है पापोदय से सुख का द्वार तब बंद हो जाता है दुख से मन छटपटाने लगता है सारे तन के रिश्ते कुछ काम नहीं आते धन के अंबार से सुख कहाँ पाते? तभी धीरे से आकर कोई हृदय भवन में आनंद के बंद द्वार खोल देता है शांति की शीतल हवाओं से तब अपूर्व ताजगी वह पाता है। धीरे-धीरे अंतर्मन से जब वह निहारता है मानवाकृति के रूप में उसे गुरु दिखाई देता है, गुरु के दिव्य प्रकाश में ही शिष्य पाता है गुरु का दर्शन दीप के उजाले में ही दीप का होता है दर्शन। सच है गुरु-कृपा बिन गुरु का मिलन संभव नहीं, और गुरु मिलन बिन निज से निज का मिलन संभव नहीं। इसीलिए सर्वस्व सौंपकर शिष्य रहता मात्र दर्शक गुरु ही उसके पथ प्रदर्शक, वर्तमान में श्रीविद्यासिंधु गुरुवर को बना लेना है अपना निर्देशक। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  2. लेखनी लिखती है कि- जो सुविधा दे वो हो सकता है लौकिक गुरु पर सुविधा को छुड़ा दे वही है सद्गुरु प्रथम भूमिका में हो सकती है पीड़ा खाने ही वाला होता है बच्चा झपट कर माँ छीन लेती है वह कीड़ा बच्चा रोता है माँ पर क्रोध करता है पर माँ जानती है बेटा मर सकता है इसीलिए माँ के क्रोध में छिपा है प्यार बेटे के क्रोध की नहीं, जीवन की उसे है परवाह सब कुछ सहकर भी करती है उपकार ऐसा ही होता है गुरु का उपहार। छुड़ा देते हैं वह भी गेह औरों के प्रति दैहिक नेह यहाँ तक कि स्वयं से भी मोह करने देते नहीं शिष्य से अपनी प्रशंसा चाहते नहीं, सबसे जब वह छूट जाता है तभी शिष्य स्वयं के समीप आता है। गुरु अद्भुत कार्य कर दिखाते हैं शिष्य का जीवन गढ़ने में स्वयं को भी दूर रखते हैं लगता है कि- टाँकी चल रही है पर चलाने वाला नहीं दिखता घट बन रहा है पर घड़ने वाला नहीं दिखता दुग्ध से घृत बन रहा है पर बनाने वाला नहीं दिखता शिष्य होता है उन्नत पर गुरु स्वयं को कर्ता नहीं मानता मान गये गुरु की होती अनुपम परिणत यदि सुधारना है अपनी गति तो गुरु श्रीविद्यासिंधु के चरणों में सौंप दो अपनी मति। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  3. लेखनी लिखती है कि- गुरु को इष्ट मानना भी है यह मात्र उपचार ही गुरु प्रेरणा देते हैं कि तेरा इष्ट तू ही है पर को इष्ट मानने में कष्ट है जब इष्ट का संयोग होता तब वियोग भी अवश्य होता। संयोग के वियोग का अटल है नियम पर वियोग होने पर पुनः संयोग का नहीं है नियम संयोगों में सुख जो ढूँढ़ता जैसे आग में चाह रहा शीतलता, क्या विषधर कभी मुख से अमृत को उगलता? तो सुख-दुख के वेदन में प्रसन्नता, खिन्नता क्यों ? दृष्टि में अनुकूलता-प्रतिकूलता क्यों ? तत्त्व दृष्टि से समझाते हैं गुरु- तेरे आत्मदेश में किसी पर का संयोग नहीं जब संयोग ही नहीं तो वियोग भी नहीं अपने उपयोग को योग से भी दूर करना है योगी नहीं अयोगी बनना है। संयोग स्वाधीन नहीं निजाराधना स्वाधीन है अनंतकाल से पर के संयोग-वियोग में उपयोग तेरा लीन है। ध्यान रखें जितना पर का स्मरण होगा निजातम का विस्मरण होगा पर में रुचि, आत्म अरुचि का काल होगा। इसीलिए अंतर की बात अंदर से समझना है माना राग क्रमशः छूटता है पर राग की रुचि एक समय में छोड़ना है, नश्वर पर्याय दृष्टि हटाकर शाश्वत द्रव्य दृष्टि रखना है, ऐसा निश्चयात्मक जीवन बनाने गुरु के रूप में आचार्य श्रीविद्यासागरजी को चुनना है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  4. लेखनी लिखती है कि- गुरु मात्र सत्पथ के प्रदर्शक हैं मार्ग तो स्वयं के भीतर ही है बाह्य दृष्टि में सुख कभी नहीं अंदर में झाँके तो अभी ही है। गुरु कहते हैं कि - मेरा भी विकल्प मत करना विकल्पों का फल मात्र आकुलता है, निर्विकल्प हो पथ पर चलना फिर तो अनंतकाल तक निराकुलता है। विकल्प करके आखिर क्या पायेगा पर का परिणमन क्या तेरे आधीन होगा? गुरु कहते-हे शिष्य! स्वयं में ही संतुष्ट हो जा अपने गुणों में ही तृप्त हो जा मैं स्वयं देख रहा अपनी ओर तू भी देख निजातम की ओर यही गुरु-चरण का अनुकरण है अपनी परिधि में रहना केन्द्र स्वरूप शुद्धातम का अनुभवन है। पर की महिमा को ध्येय न बनाओ अन्य से उदासीन स्व में आसीन हो जाओ शिष्य करता है कर जोड़ निवेदन- यद्यपि निश्चयनय का यही कहना है पर व्यवहारी जीवों को व्यवहार का शरणा है ज्ञायक की महिमा बताने वाला यदि परम ज्ञायक स्वरूप गुरु नहीं होगा तो सत्य का बोध कौन करायेगा? इसीलिए प्रथम श्रीविद्यासागरजी गुरु की शरण पाना है फिर शुद्धात्म शरण में रहना है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  5. लेखनी लिखती है कि- गुरु स्मरण ही शिष्य का जीवन है सद्गुरु कहते हैं कि- स्वभाव का विस्मरण ही मरण है शिष्य कहता है गुरु आपमें तृप्ति है गुरु कहते हैं स्वरूप में तृप्ति है पर में तो तपन है किसी अन्य की आवश्यकता नहीं तुझे अपने आप में ही तू परिपूर्ण है। जब तक पर का आलंबन लेता रहेगा दीनहीन होता रहेगा सहानुभूति औरों से चाहेगा तो स्वानुभूति का आस्वादन कब होगा? व्यवहार में मुक्तिपथ गुरु के अनुकरण से मिलता है पर निश्चय से निजानुभवन से प्रगटता है जब परम गुरु और प्रभु भी छूट जायेंगे तब आत्मदेव के दर्शन होंगे। इसीलिए पर की ओर तो दूर पर्याय की ओर भी मत देख क्षणभंगुर से दृष्टि हटा ले अविनश्वर पर दृष्टि टिका ले। यह मत सोचना कि गुरु तेरी रक्षा करेगा संकटों से तुझे बचायेगा, स्वभाव का सच्चा ज्ञान ही तेरा रक्षक है सम्यक् बोध ही तेरा शिक्षक है तेरा आतम ही तेरे लिए कल्पवृक्ष है जो चाहे वो देने में सक्षम है। आनंद से झूमकर कहता है शिष्यात्मा दुर्लभ है ऐसे महान् गुरु का मिलना जब तक मोक्ष न हो तब तक हे संत शिरोमणि गुरुवर ! आप ही मेरे पथ दर्शक रहना। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  6. लेखनी लिखती है कि- गुरु कहते हैं यदि तू मुझे कहता है नायक तो मैं तुझे कहता ज्ञायक नायक कुछ समय के लिए ही होता ज्ञायक पहले था, है, आगे भी सदा रहता। यदि तू करता इस गुरु पर्याय का आदर तो यह व्यवहार में उचित है, किंतु अन्य से अपना आदर अनादर मानना निश्चय से यह अनुचित है। स्वभाव सम्मुख होना ही आत्मा का आदर है विभाव रूप परिणमन ही अनादर है निज गृह में रहना ही स्वयं का आदर है पर घर भ्रमना ही निज का अनादर है स्व गृह में निर्विकल्प होने पर ही प्रवेश मिलेगा जितना उपयोग पर में भटकेगा विकल्पों से थकेगा, अस्वस्थ होगा। ज्यों नीम से मीठा स्वाद आ नहीं सकता अग्नि से शीतलता का अनुभव हो नहीं सकता विषधर अमृत उगल नहीं सकता त्यों विकल्पों से सुख का संवेदन हो नहीं सकता। इसीलिए सुख पथ प्रदर्शक गुरु का कहना है कि- मेरा भी विकल्प तुम्हें नहीं करना विकल्प रूप परावलंबन से सुख की कल्पना करना मिथ्या है विकल्पों का भी विकल्प नहीं करना पर के विकल्प की बात तो दूर अपना भी विकल्प तजना यही निश्चय रूप चर्या है। परम गुरु श्रीविद्यासागरजी यतिवर पहले ऐसा करते हैं पश्चात् अपने शिष्यों से कहते हैं तभी तो ऐसे सच्चे गुरु के दर्शन को सब तरसते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  7. लेखनी लिखती है कि- शिष्य के अनेक उलझे प्रश्नों को गुरु बिना सुने ही समझ लेते हैं फिर बिना मुख से कहे ही अपने पवित्र आचरण से समाधान कर देते हैं। शर्त यह है कि शिष्य चाहता हो वास्तव में समाधान अन्यथा जगत् में अपनी विद्वत्ता दिखाने को ही चाह रहा हो समाधान। जो प्यास में ही हो गया तृप्त वह बुझाने का प्रयत्न नहीं करेगा उसके मन का खुरापात गुरु समझ ही लेगा। जो अपनी शंका का समाधान चाहते हैं अपनी इच्छानुसार उन्हें अपात्र मानकर देते नहीं गुरु ज्ञान का उपहार, शिष्य के आंतरिक जान लेते हैं गुरुवर विचार देखकर उसका व्यवहार। चाहे कोई कितनी ही बात घुमाए चौमुखी होती दृष्टि गुरु की वे तो जान ही लेते हैं, बिना पूछे ही प्रश्नों का अनायास उत्तर दे ही देते हैं। समीप रहकर भी अज्ञ गुरु से कुछ पा नहीं सकते कोसों दूर रहकर भी जो हृदय में गुरु को धरते वे अवश्य ही समाधान पाते हर प्रश्नों के समाधान हैं गुरुवर ज्ञान के समंदर मेरे गुरु श्रीविद्यासागर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  8. लेखनी लिखती है कि- परीक्षा गुरु लेता है शिष्य को परीक्षा लेने का अधिकार नहीं जो स्वयं पढ़ा नहीं वह परीक्षा क्या लेगा? जो स्वयं निर्धन है वह औरों को धन क्या देगा? इसीलिए देखो अपना हृदय पात्र, यदि भरा है इसमें विकारों का मैला जल तो उसमें डाल भी दें अमृत हो जायेगा विष हलाहल। अज्ञ शिष्य स्वयं को देखता नहीं दोष गुरु को दे बैठता है सशिष्य गुरु-दर्पण में स्वयं के दोष देखकर मिटाता है। प्रज्ञ शिष्य 'मैं' की भाषा बोलता नहीं मैं ही गुरु का प्रिय शिष्य हूँ यह मान करता नहीं मैं के मान से मार्ग भूल जाता है अहं भाव से अहँ से दूर हो जाता है। गुरु-आज्ञा को मानता जो प्रभु का संदेश भूलकर भी गुरु के समक्ष देता नहीं किसी को उपदेश वरना उसका सारा ज्ञान नष्ट होता जाता है लेकिन गुरु-आज्ञा होने पर वह हठी नहीं बनता है। जो अपने पुण्य के प्रभाव में गुरु का महत्त्व समझ नहीं पाता है कुछ दिन भले ही भोग ले पुण्य का विपाक फिर तो असाता ही असाता है। ऐसे शिष्य बनकर जीवन बिताना नहीं, तुच्छ स्वार्थवृत्ति के लिए पारमार्थिक गुरु श्रीविद्यासागरजी को छोड़ और कहीं जाना नहीं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  9. लेखनी लिखती है कि- प्रकृति पुरुष हैं गुरु प्रकृति की पावन कृति हैं गुरु संकेत पाते ही इनके आज्ञाकारिणी शिष्या की तरह प्रकृति कार्य करना कर देती है शुरु। वह देती है जीवन उपयोगी सब कुछ पर बदले में लेती नहीं कुछ जगाने को मुर्गा भी देता है बाँग पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद खेत खलिहान से मिल जाता धान्य पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद पादप भी देता है फल पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद धरा देती है सबको आधार पर बदले में नहीं चाहा धन्यवाद आकाश देता सभी को अवगाह पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद प्राण वायु देता है समीर पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद कूप ,वापिका ,सरिता पिलाते मीठा नीर पर बदले में नहीं चाहते धन्यवाद। माना ये सब दाता हैं नश्वर तन के त्राता हैं पर गुरु तो अपूर्व दाता हैं जिनका अविनश्वर चेतन से नाता है। प्रभु होने तक देते रहते हैं, ज्यों लोग पीपल को देवता कहते हैं; क्योंकि वह पत्ते-पत्ते से उँडेलता है ऊर्जा पर गुरु तो तन मन समग्र चेतन से चिन्मय ज्ञान उँडेलते हैं इसीलिए गुरु को परम देवता कहते हैं। अंबर की ऊँचाई नापना है आसान समंदर की गहराई नापना है आसान पर मन की मलिनता, चेतन की शालीनता नाप नहीं सकते बुद्धि से तब गुरु ही ज्ञानमापक यंत्र से मापकर जान लेते अपनी सुबुद्धि से ऐसे प्रज्ञावान गुरुवर हैं आचार्यश्री विद्यासागरजी जिनके सद् शिष्य होने के लिए साधना चाहिए बरसों की। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  10. लेखनी लिखती है कि- गुरु नहीं चाहते कि शिष्य मेरा ही मेरा नाम रटे जो कुछ करे, मेरे लिए ही करे मेरे ही नाम के गीत गाये। बल्कि गुरु तो चाहते हैं कि मेरा नाम ही भूल जाये जगत् के सारे काम ही छूट जायें बन जाये निष्काम, वंदक और वंद्य-भाव ही न रहे कर्तापन की गंध ही न रहे हो जाये कृतकाम, नहीं सोचते गुरु कि शिष्य मेरा ही ध्यान रखे सोचते वे कि शुद्धातम का ध्यान करे पा जाये शिवधाम। नहीं विचारते सच्चे संत कि मेरे अनुयायियों की संख्या कहीं कम न हो जाये वे तो अंतर्मुख होकर विचारते कि विभाव से प्रभावित होकर मेरे स्वाभाविक गुण कहीं कम न हो जाये। विचारों की भीड़ से दूर अविचारी संत जनता की भीड़ क्या चाहेंगे? पुण्य भी हेय लगा जिन्हें वे पाप के पंक में क्या फँसेंगे? जो कर्म तक को दोषी नहीं ठहराते वे क्या किसी नोकर्म को दोष देंगे? गुरु अपने अशुभ उपादान को शुद्ध कर शीघ्र स्वयं को ध्रुवधाम पहुँचा देंगे लेकिन प्रश्न फिर रह गया शेष कि हम क्या करेंगे? शिष्य हृदय यही कहेगा जो गुरु श्रीविद्यासागरजी कहेंगे वही करेंगे। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
×
×
  • Create New...