लेखनी लिखती है कि-
जो सुविधा दे वो हो सकता है लौकिक गुरु
पर सुविधा को छुड़ा दे वही है सद्गुरु
प्रथम भूमिका में हो सकती है पीड़ा
खाने ही वाला होता है बच्चा
झपट कर माँ छीन लेती है वह कीड़ा
बच्चा रोता है माँ पर क्रोध करता है
पर माँ जानती है बेटा मर सकता है
इसीलिए माँ के क्रोध में छिपा है प्यार
बेटे के क्रोध की नहीं, जीवन की उसे है परवाह
सब कुछ सहकर भी करती है उपकार
ऐसा ही होता है गुरु का उपहार।
छुड़ा देते हैं वह भी गेह
औरों के प्रति दैहिक नेह
यहाँ तक कि स्वयं से भी मोह करने देते नहीं
शिष्य से अपनी प्रशंसा चाहते नहीं,
सबसे जब वह छूट जाता है
तभी शिष्य स्वयं के समीप आता है।
गुरु अद्भुत कार्य कर दिखाते हैं
शिष्य का जीवन गढ़ने में
स्वयं को भी दूर रखते हैं
लगता है कि-
टाँकी चल रही है पर चलाने वाला नहीं दिखता
घट बन रहा है पर घड़ने वाला नहीं दिखता
दुग्ध से घृत बन रहा है पर बनाने वाला नहीं दिखता
शिष्य होता है उन्नत पर गुरु स्वयं को कर्ता नहीं मानता
मान गये गुरु की होती अनुपम परिणत
यदि सुधारना है अपनी गति
तो गुरु श्रीविद्यासिंधु के चरणों में
सौंप दो अपनी मति।