लेखनी लिखती है कि-
गुरु कहते हैं यदि तू मुझे कहता है नायक
तो मैं तुझे कहता ज्ञायक
नायक कुछ समय के लिए ही होता
ज्ञायक पहले था, है, आगे भी सदा रहता।
यदि तू करता इस गुरु पर्याय का आदर
तो यह व्यवहार में उचित है,
किंतु अन्य से अपना आदर अनादर मानना
निश्चय से यह अनुचित है।
स्वभाव सम्मुख होना ही आत्मा का आदर है
विभाव रूप परिणमन ही अनादर है
निज गृह में रहना ही स्वयं का आदर है
पर घर भ्रमना ही निज का अनादर है
स्व गृह में निर्विकल्प होने पर ही प्रवेश मिलेगा
जितना उपयोग पर में भटकेगा
विकल्पों से थकेगा, अस्वस्थ होगा।
ज्यों नीम से मीठा स्वाद आ नहीं सकता
अग्नि से शीतलता का अनुभव हो नहीं सकता
विषधर अमृत उगल नहीं सकता
त्यों विकल्पों से सुख का संवेदन हो नहीं सकता।
इसीलिए सुख पथ प्रदर्शक गुरु का कहना है कि-
मेरा भी विकल्प तुम्हें नहीं करना
विकल्प रूप परावलंबन से
सुख की कल्पना करना मिथ्या है
विकल्पों का भी विकल्प नहीं करना
पर के विकल्प की बात तो दूर
अपना भी विकल्प तजना
यही निश्चय रूप चर्या है।
परम गुरु श्रीविद्यासागरजी यतिवर पहले ऐसा करते हैं
पश्चात् अपने शिष्यों से कहते हैं
तभी तो ऐसे सच्चे गुरु के
दर्शन को सब तरसते हैं।