लेखनी लिखती है कि-
परीक्षा गुरु लेता है
शिष्य को परीक्षा लेने का अधिकार नहीं
जो स्वयं पढ़ा नहीं वह परीक्षा क्या लेगा?
जो स्वयं निर्धन है वह औरों को धन क्या देगा?
इसीलिए देखो अपना हृदय पात्र,
यदि भरा है इसमें विकारों का मैला जल
तो उसमें डाल भी दें अमृत
हो जायेगा विष हलाहल।
अज्ञ शिष्य स्वयं को देखता नहीं
दोष गुरु को दे बैठता है
सशिष्य गुरु-दर्पण में
स्वयं के दोष देखकर मिटाता है।
प्रज्ञ शिष्य 'मैं' की भाषा बोलता नहीं
मैं ही गुरु का प्रिय शिष्य हूँ यह मान करता नहीं
मैं के मान से मार्ग भूल जाता है
अहं भाव से अहँ से दूर हो जाता है।
गुरु-आज्ञा को मानता जो प्रभु का संदेश
भूलकर भी गुरु के समक्ष देता नहीं किसी को उपदेश
वरना उसका सारा ज्ञान नष्ट होता जाता है
लेकिन गुरु-आज्ञा होने पर
वह हठी नहीं बनता है।
जो अपने पुण्य के प्रभाव में
गुरु का महत्त्व समझ नहीं पाता है
कुछ दिन भले ही भोग ले पुण्य का विपाक
फिर तो असाता ही असाता है।
ऐसे शिष्य बनकर
जीवन बिताना नहीं,
तुच्छ स्वार्थवृत्ति के लिए
पारमार्थिक गुरु श्रीविद्यासागरजी को छोड़
और कहीं जाना नहीं।