लेखनी लिखती है कि-
गुरु मात्र सत्पथ के प्रदर्शक हैं
मार्ग तो स्वयं के भीतर ही है
बाह्य दृष्टि में सुख कभी नहीं
अंदर में झाँके तो अभी ही है।
गुरु कहते हैं कि -
मेरा भी विकल्प मत करना
विकल्पों का फल मात्र आकुलता है,
निर्विकल्प हो पथ पर चलना
फिर तो अनंतकाल तक निराकुलता है।
विकल्प करके आखिर क्या पायेगा
पर का परिणमन क्या तेरे आधीन होगा?
गुरु कहते-हे शिष्य!
स्वयं में ही संतुष्ट हो जा
अपने गुणों में ही तृप्त हो जा
मैं स्वयं देख रहा अपनी ओर
तू भी देख निजातम की ओर
यही गुरु-चरण का अनुकरण है
अपनी परिधि में रहना
केन्द्र स्वरूप शुद्धातम का अनुभवन है।
पर की महिमा को ध्येय न बनाओ
अन्य से उदासीन स्व में आसीन हो जाओ
शिष्य करता है कर जोड़ निवेदन-
यद्यपि निश्चयनय का यही कहना है
पर व्यवहारी जीवों को व्यवहार का शरणा है
ज्ञायक की महिमा बताने वाला
यदि परम ज्ञायक स्वरूप गुरु नहीं होगा
तो सत्य का बोध कौन करायेगा?
इसीलिए प्रथम श्रीविद्यासागरजी गुरु की शरण पाना है
फिर शुद्धात्म शरण में रहना है।