Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • लेखनी लिखती है - 89

       (0 reviews)

    166.jpg

     

    लेखनी लिखती है कि-

    गुरु को इष्ट मानना भी

    है यह मात्र उपचार ही

    गुरु प्रेरणा देते हैं कि

    तेरा इष्ट तू ही है

    पर को इष्ट मानने में कष्ट है

    जब इष्ट का संयोग होता

    तब वियोग भी अवश्य होता।

     

    संयोग के वियोग का अटल है नियम

    पर वियोग होने पर पुनः संयोग का नहीं है नियम

    संयोगों में सुख जो ढूँढ़ता

    जैसे आग में चाह रहा शीतलता,

    क्या विषधर कभी मुख से

    अमृत को उगलता?

    तो सुख-दुख के वेदन में

    प्रसन्नता, खिन्नता क्यों ?

    दृष्टि में अनुकूलता-प्रतिकूलता क्यों ?

     

    तत्त्व दृष्टि से समझाते हैं गुरु-

    तेरे आत्मदेश में किसी पर का संयोग नहीं

    जब संयोग ही नहीं तो वियोग भी नहीं

    अपने उपयोग को योग से भी दूर करना है

    योगी नहीं अयोगी बनना है।

     

    संयोग स्वाधीन नहीं

    निजाराधना स्वाधीन है

    अनंतकाल से पर के संयोग-वियोग में

    उपयोग तेरा लीन है।

     

    ध्यान रखें

    जितना पर का स्मरण होगा

    निजातम का विस्मरण होगा

    पर में रुचि, आत्म अरुचि का काल होगा।

     

    इसीलिए अंतर की बात अंदर से समझना है

    माना राग क्रमशः छूटता है

    पर राग की रुचि एक समय में छोड़ना है,

    नश्वर पर्याय दृष्टि हटाकर

    शाश्वत द्रव्य दृष्टि रखना है,

    ऐसा निश्चयात्मक जीवन बनाने

    गुरु के रूप में आचार्य श्रीविद्यासागरजी को चुनना है।

     

    आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...