लेखनी लिखती है कि-
प्रकृति पुरुष हैं गुरु
प्रकृति की पावन कृति हैं गुरु
संकेत पाते ही इनके
आज्ञाकारिणी शिष्या की तरह
प्रकृति कार्य करना कर देती है शुरु।
वह देती है जीवन उपयोगी सब कुछ
पर बदले में लेती नहीं कुछ
जगाने को मुर्गा भी देता है बाँग
पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद
खेत खलिहान से मिल जाता धान्य
पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद
पादप भी देता है फल
पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद
धरा देती है सबको आधार
पर बदले में नहीं चाहा धन्यवाद
आकाश देता सभी को अवगाह
पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद
प्राण वायु देता है समीर
पर बदले में नहीं चाहता धन्यवाद
कूप ,वापिका ,सरिता पिलाते मीठा नीर
पर बदले में नहीं चाहते धन्यवाद।
माना ये सब दाता हैं
नश्वर तन के त्राता हैं
पर गुरु तो अपूर्व दाता हैं
जिनका अविनश्वर चेतन से नाता है।
प्रभु होने तक देते रहते हैं,
ज्यों लोग पीपल को देवता कहते हैं;
क्योंकि वह पत्ते-पत्ते से उँडेलता है ऊर्जा
पर गुरु तो तन मन समग्र चेतन से
चिन्मय ज्ञान उँडेलते हैं
इसीलिए गुरु को परम देवता कहते हैं।
अंबर की ऊँचाई नापना है आसान
समंदर की गहराई नापना है आसान
पर मन की मलिनता, चेतन की शालीनता
नाप नहीं सकते बुद्धि से
तब गुरु ही ज्ञानमापक यंत्र से
मापकर जान लेते अपनी सुबुद्धि से
ऐसे प्रज्ञावान गुरुवर हैं आचार्यश्री विद्यासागरजी
जिनके सद् शिष्य होने के लिए
साधना चाहिए बरसों की।