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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अपराजेय साधक अन्तर्यात्री महापुरुष दिगम्बराचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महामुनिराज का 50वां संयम स्वर्ण महोत्सव दिनांक 15 अप्रैल को देश की राजधानी नई दिल्ली में आचार्य श्री के आज्ञानुवर्ती शिष्यों के सान्निध्य में भव्य तरीके से मनाया गया। कार्यक्रम के मंगल प्रेरणा स्त्रोत मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज तथा मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज थे। सी बी डी ग्राउंड, करकरडूमा में आयोजित इस कार्यक्रम में आचार्य श्री के शिष्य मुनिश्री प्रणम्य सागर जी महाराज, मुनिश्री चंद्र सागर जी महाराज, मुनि श्री वीर सागर जी महाराज, मुनि श्री विशाल सागर जी महाराज तथा मुनि श्री धवल सागर जी महाराज द्वारा सान्निध्य प्रदान किया गया। श्री सुधा-प्रमाण प्रभावना संघ, दिल्ली द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का शुभारंभ श्री अशोक जी जैन पाटनी श्रीमती सुशीला जी जैन पाटनी, आर के मार्बल्स द्वारा ध्वजारोहण द्वारा किया गया। संयम स्वर्ण महोत्सव कार्यक्रम में समारोह अध्यक्ष के रूप में श्री राजेन्द्र के गोधा, संपादक - समाचार जगत उपस्थित थे तथा मुख्य अतिथि के रूप में श्री प्रदीप जैन आदित्य, झांसी, श्री हुक़ूमसहन्द जैन काका, कोटा, श्री प्रमोद जैन कोयले वाले, श्री पंकज जैन पारस चैनल, श्री महावीर जी अष्टगे, आदि गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। मंगलाचरण के पश्चात आचार्य श्री की नृत्य एवं संगीतमय पूजन की गई जिसमें दिल्ली के विभिन्न स्थलों से आये महिला मंडल एवं बच्चों द्वारा प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में नवीन शाहदरा के महिला मंडल "जैन अपनापन फाउंडेशन" द्वारा मुख्य भूमिका निभाई गई। युवा साथी श्री सचिन जैन, श्री आशीष जैन तथा श्री नीरज जैन की अथक प्रयासों ने कार्यक्रम को चार चांद लगा दिए। कार्यक्रम का संचालन भैया प्रदीप जैन "सुयश" तथा गौरव जैन छाबड़ा द्वारा किया गया तथा नीलेश जैन व पंकज जैन ने अपनी स्वर लहरियों से पूरे कार्यक्रम को बांधे रखा। मुनिश्री वीरसागर जी महाराज ने अपने प्रवचन में आचार्य श्री के गुणों की चर्चा करते हुए कहा कि गुरुवर में अपने पूर्ववर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिवसागर जी तथा आचार्य ज्ञानसागर जी के गुणों को एकसाथ देखा जा सकता है। मुनिश्री प्रणम्य सागर जी महाराज ने गुरुवर के प्रति कविताओं के माध्यम से विनयांजलि प्रस्तुत की। नई दिल्ली में संयम स्वर्ण महोत्सव का आयोजन अपने आप में ऐतिहासिक रहा और दिल्ली जैन समाज में इस कार्यक्रम ने जबरदस्त छाप छोड़ी। CA गौरव छाबड़ा ---------- जैसे ही आचार्य भगवंत के आशीर्वाद से पांच ऋषिराजो का जो अपनी तप संयम की साधना में कथंचित किसी भी तरह का दोष नही लगाते निर्दोष मुनि चर्या के पॉलक और वह भी अल्प उम्र के बाल ब्रह्मचारी मुनि जिनकी चेहरे की चमक देखते ही युवाओ की टोलियां की टोलियां उनके दर्शनार्थ आने लगी व्यस्को ने तो जैसे बगैर बोल सुने ही सब कुछ समझ लिया जैसे एक नवजात बच्चा अपनी माँ के अनकहे शब्दो की भली भांति समझने लगता है बृद्ध भी अपने आप को गौरवशाली मानने लगे कि चलो अंत समय ही सही सद ज्ञान और सच्चे वीतरागी श्रमण के दर्शन का सौभाग्य तो मिला ऐसे ऋषिराजो के सानिध्य में सचिन आशीष और नीरज तीन युवाओ ने जगत पूज्य मुनि पुंगव सुधासागर जी महाराज एवं मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के आशीर्वाद एवं निर्देशन में आचार्य भगवंत के संयम स्वर्ण महोत्सव का एक भव्यातिभव्य आयोजन को रखा चूंकि आयोजन दिल्ली की सर जमी पर था और सानिध्य था पाँच पाँच मुनिराजों का जो अपनी साधना के लिये प्रख्यात है सो आयोजको को समन्वय करने भी खाशी दुबिधा हो रही थी एक तरफ तो भीषण गर्मी थी दूसरी और संघ के साधुगण किसी भी तरह से पंखों का इस्तेमाल हवा के लिये नही करते है सो पांडाल में भी उसी तरह के माहौल को बनाया गया ताकि आने वाले देख कर अंदाजा लगा सके कि गर्मी में बगैर पंखे के बैठना भी साधना है ना कि वातानुकूलित कमरों में बैठ कर जप आदि करना जैसे ही आयोजन प्रारम्भ हुआ भीड़ से पांडाल खचाखच भर गया और जब तक आयोजन चलता रहा मजाल था कि भीड़ में से कुछ भी व्यक्ति बाहर निकले हो अथार्त सभी व्यक्ति अंत अंत तक सभी मुनि राजो के मुँह से आचार्य भगवंत की दीक्षा के कुछ संस्मरणों को सुनने में ही लगे रहे जो कि दिल्ली जैसे शहर में एक नए इतिहास के बराबर है मुनि श्री चंद्र सागर जी महाराज ने कहा कि मुझे तो उम्मीद भी नही थी जिस शहर के आदमी पिच्छी लगवाने को आतुर रहते यानि आश्रीवाद तो पिच्छी का ही मान है उस भौतिक चकाचौंध वाली नगरी के सभी लोग आज पीछे पीछे भागे आ रहे है मुनिराजों के मंगल आशीष को सुन कर बीच बीच मे पांडालके बैठे श्रावको ने बार बार उत्साह पूर्वक तालियों से समर्थन किया जब यह कहा गया कि आप ने अभी जो परीक्षा दी है आप उसमे पास हो गए है यदि ऐसी ही ललक आप सभी में बनी रही तो पक्का है एक दिन आचार्य भगवंत स्वयं साक्षात दिल्ली आएंगे आयोजन में शहर के बाहर से पधारे भक्तों ने भी दिल्ली शहर में होने वाले इस अविस्मरणीय आयोजन की खूब खूब तारीफ की मात्र कुछ ही दिनों में इतने बड़े आयोजन को करना ऐसे ही सम्भव तो नही किन्तु इस असम्भव कार्य को संभव किया एक टीम भावना से काम करने वाली कुछ महिलाओं के संघटन ने जिनका नाम जैन अपनापन फाउंडेशन था श्री सुधा प्रमाण संघ के इन युवाओ ने जो महती प्रभावना पूर्ण कार्य को अंजाम दिया उसमे आने वाले सभी रहवासियों ने मुनिराजों की साधना का जमकर दीदार किया और प्रशंसा में खूब कसीदे कहे अब लगता है वह दिन दूर नही जब दिल्ली से एक दो नही वरन सैकड़ों लोग आचार्य भगवंत के दर्शनों को इस भावना से करने अवश्य आये कि-- जिसकी कृति है इतनी सुंदर वो कितना सूंदर होगा आयोजन समिति के सभी सदशयो को बार बार साधुवाद देते हुए उनके द्वारा किये गए इस अभूतपूर्व कार्य की सराहना करता हु और वीर प्रभु से अनुरोध करता हु कि मुनिराजों के द्वारा मनाए गए इस आयोजन की धूम से जैन धर्म का विस्तार हो और आचार्य भगवंत की जगत में जय जय कार हो आचार्य भगवंत के चरणों मे सत सत नमन श्रीश ललितपुर --------------------------
  2. आर्यिका मां 105 पूर्णमति माताजी को शत शत नमन । आइयें सब एक साथ मिलकर माता जी को वन्दामी लिखें |
  3. कल्प - वृक्ष से अर्थ क्या? कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल अब, सन्मति मिले समर्थ ।।१।। तीर उतारो, तार दो, त्राता! तारक वीर। तत्त्व - तंत्र हो तथ्य हो, देव, देवतरु धीर ।।२।। पूज्यपाद गुरु पाद में, प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य ।।३।। भार रहित मुझ, भारती! कर दो सहित सुभाल। कौन सँभाले माँ बिना, ओ माँ! यह है बाल ।।४।। सर्वोदय इस शतक का, मात्र रहा उद्देश । देश तथा पर देश भी, बने समुन्नत देश ।।५।। पंक नहीं पंकज बनू, मुक्ता बनूं न सीप। दीप बनूं जलता रहूँ, प्रभु-पद-पद्म-समीप ।।६।। प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार | प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ।।७।। एक नजर तो मोहिनी, जिससे निखिल अशान्त। एक नजर तो डाल दो, प्रभु! अब सब हो शान्त ।।८।। भास्वत मुख का दरस हो, शाश्वत सुख की आस। दासक-दुख का नाश हो, पूरी है अभिलाष ।।९।। दृष्टि मिली पर कब बनूँ द्रष्टा सब का धाम | सृष्टि मिली पर कब बनूँ सृष्टा निज का राम ।।१०।। गुण ही गुण , पर में सदा, खोजें निज में दाग। दाग मिटे बिन गुण कहाँ, तामस मिटते, राग! ।।११।। सुने वचन कटु पर कहाँ, श्रमणों को व्यवधान। मस्त चाल से गज चले, रहे भोंकते श्वान ।।१२।। मत डर, मत डर मरण से, मरण मोक्ष - सोपान। मत डर, मत डर चरण से, चरण मोक्ष सुख - पान ।।१३।। सागर का जल क्षार क्यों, सरिता मीठी सार। बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार ।।१४।। देख सामने चल अरे, दीख रहे अवधूत। पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत ।।१५।। पद पंखों को साफ कर, मक्खीं उड़ती बाद। सर्व - संग तज ध्यान में, डूबो तुम आबाध ।।१६।। अँधेर कब दिनकर तले? दिया तले वह होत। दुखी अधूरे हम सभी, प्रभु - पूरे सुख स्रोत ।।१७।। यथा दुग्ध में घृत तथा, रहता तिल में तैल। तन में शिव है ज्ञात हो, अनादि का यह मेल ।।१८।। हुआ प्रकाशित मैं छुपा, प्रभु हैं प्रकाश पुंज। हुआ सुवासित, महकते। तुम पद विकास कुंज ।।१९।। निरे निरे जग - धर्म है, निरे - निरे जग कर्म। भले बुरे कुछ ना अरे ! हरे, भरे हो नर्म ।।२०।। विषयों से क्यों खेलता, देता मन का साथ। बॉमी में क्या डालता? भूल कभी निज - हाथ ।।२१।। खेत, क्षेत्र में भेद इक, फलता पुण्यापुण्य। क्षेत्र करे सबका भला, फलता सुख अक्षुण्ण ।।२२।। ऐसा आता भाव हैं, मन में बारम्बार। पर दुख को यदि ना मिटा सकता जीवन भार ।।२३।। पल भर पर दुख देख भी सकते ना जिनदेव। तभी दृष्टि आसीन है, नासा पर स्वयमेव ।।२४।। सूखे परिसर देखते, भोजन करते आप। फिर भी खुद को समझते, दयामूर्ति - निष्पाप ।।२५।। हाथ देख मत देख लो, मिला बाहुबल पूर्ण। सदुपयोग बल का करो, सुख पाओ संपूर्ण ।।२६।। उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर | आत्मबोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर ।।२७।। दया रहित क्या धर्म है? दया रहित क्या सत्य? दया रहित जीवन नहीं, जल बिन मीन असत्य ।।२८।। पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास। मृग मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास ।।२९।। कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप - मंडूक। बरसाती मेंढक नहीं, बरसो घन बन मूक ।।३०।। अग्रभाग पर लोक के, जा रहते नित सिद्ध। जल में ना, जल पर रहे, घृत तो ज्ञात प्रसिद्ध ।।३१।। साधं गृही सम ना रहे, स्वाश्रित - भाव समृद्ध। बालक - सम ना नाचते, मोदक खाते वृद्ध ।।३२।। तत्व दृष्टि तज बुध नहीं, जाते जड़ की ओर। सौरभ तज मल पर दिखा, भ्रमर भ्रमित कब और ? ।।३३।। दया धर्म के कथन से, पूज्य बने ये छन्द। पापी तजते पाप हैं, दृग पा जाते अन्ध ।।३४।। सिद्ध बने बिन शुद्ध का, कभी न अनुभव होय। दुग्ध पान से स्वाद क्या, घृत का सम्भव होय? ।।३५।। स्वर्ण बने वह कोयला, और कोयला स्वर्ण। पाप पुण्य का खेल है, आतम में ना वर्ण ।।३६।। सब में वह ना योग्यता, मिले न सब को मोक्ष। बीज सीझते सब कहाँ, जैसे टर्रा मोट ।।३७।। सब गुण मिलना चाहते, अन्धकार का नाश। मुक्ति स्वयं आ उतरती, देख, दया का वास ।।३८।। व्यर्थ नहीं वह साधना, जिस में नहीं अनर्थ। भले मोक्ष हो देर से, दूर रहे अघ - गर्त ।।३९।। जिलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल। दयाधर्म में तुम सनों, नहीं पाप में भूल ||४०|| संग्रह पर का तब बने, जब हो मूर्च्छा-भाव। प्रभाव शनि का क्यों पड़े? मुनि में मोहाभाव ||४१।। किस किस का कर्ता बनूँ, किस किस का मैं कार्य। किस किस का कारण बनूँ, यह सब क्यों कर आर्य? ।।४२।। पर का कर्ता मैं नहीं, मैं क्यों पर का कार्य। कर्ता कारण कार्य हूँ, मैं निज का अनिवार्य ।।४३।। लघु-कंकर.भी डूबता, तिरे काष्ठ भी स्थूल। "क्यों" मत पूछो, तर्क से स्वभाव रहता दूर ।।४४।। फूल फलों से ज्यों लदे, घनी छाँव के वृक्ष। शरणागत को शरण दे, श्रमणों के अध्यक्ष ।।४५।। थकता, रुकता कब कहाँ, ध्रुव में नदी प्रवाह। आह वाह परवाह बिन, चले सूरि-शिव राह ।।४३।। बूँद बूँद के मिलन से, जल में गति आ जाय। सरिता बन सागर मिले, सागर बूँद समाय ।।४७।। कंचन - पावन आज पर, कल खानों में वास। सुनो अपावन चिर रहा, हम सब का इतिहास ।।४८।। किस किस को रवि देखता, पूँछे जग के लोग। जब जब देखूँ देखता, रवि तो मेरी ओर ।।४९।। सत्कार्यों का कार्य हैं, शांति मिले सत्कार। दुष्कार्यों का कार्य है, दुस्सह दुख दुत्कार ।।५०।। बनो तपस्वी तप करो, करो न ढीला शील। भू-नभ-मण्डल जब तपे, बरसे मेघा नीर ।।५१।। घुट घुट कर क्यों जी रहा, लुट लुट कर क्यों दीन। अन्तर्घट में हो जरा, सिमट सिमट कर लीन ।।५२।। बाहर श्रीफल कठिन ज्यों, भीतर से नवनीत। जिन - शासक आचार्य को, विनमूँ नमूँ विनीत ।।५३।। सन्त पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप। उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप ? ।।५४।। ओर छोर शुरुआत ना, घनी अँधेरी रात। विषयों की बरसात हैं, युगों युगों की बात ।।५५।। गात्र प्राप्त था गात्र है, आत्म-गात्र ना प्राप्त। आत्मबोध क्यों ज्ञात हो, युगों युगों की बात ।।५६।। क्या था क्या हूँ क्या बनूँ? रे मन ! अब तो सोच। वरना मरना वरण कर, बार बार अफसोस ।।५७।। माना मनमाना करे, मन का धर्म गरूर। मान-तुंग के स्मरण से, मानतुंग हो चूर ।।५८।। संग रहित बस ! अंग है, यथाजात शिशु ढंग। श्रमंण जिन्हें मम नमन हो, मानस में न तरंग ।।५९।। अंत किसी का कब हुआ? अनंत सब हे सन्त पर ! सब मिटता सा लगे, पतझड़ पुनः बसन्त ।।६०।। क्रूर भयानक सिंह भी, फना उठाते नाग। तीर्थ जहाँ पर शान्त हो, लपटों वाली आग ।।६१।। बिना मूल के चूल ना, चूल बिना फल फूल। रे! बिन विधि अनुकूल ये, सभी धूल मत भूल ।।६२।। प्रभु दर्शन फिर गुरु कृपा, तदनुसार पुरुषार्थ। दुर्लभ जग में तीन ये, मिले सार परमार्थ ।।६३।। सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास-विलास। दर्पण रोया कब हँसा? कैसा यह संन्यास? ।।६४।। बादल दलदल यदि करे दलदल धोवन - हार। और कौन सा दल रहा? धरती पर दिलदार ।।६५।। तरंग कम से चल रही, पल पल प्रति पर्याय। ध्रुव पदार्थ में पूर्व का, व्यय होता, फिर आय ! ।।६६।। रहस्य खुलता आप जब, सहज मिटे संघर्ष। वस्तु-धर्म के दरस से, विषाद क्यों हो हर्ष ? ।।६७।। आस्था का बस विषय हैं, शिव-पथ सदा अमूर्त । वायु यान पथ कब दिखा, शेष सभी पथ मूर्त ।।६८।। किये जा रहे जोश से, विश्व शान्ति की घोष। दोषों के तो कोष हैं। कहाँ किसे है होश? ।।६९।। सुना, सुनाता तुम सुनो, सोना “सो” ना प्राण। प्राण जगााते झट जगो, प्राणों का हो त्राण ।।७०।। सब को मिलता कब कहाँ? अपार श्रुत का पार। पर ! श्रुत पूजन से मिले, अपार भवदधि पार ।।७१।। उपादान की योग्यता, निमित्त की भी छाप। स्फटिक मणी में लालिमा गुलाब बिन ना आप ।।७२।। पाप त्याग के बाद भी, स्वल्प रहे संस्कार। झालर बजना बन्द हो, किन्तु रहे झंकार ।।७३।। राम रहे अविराम निज - में रमते अभिराम। राम नाम लेता रहूँ, प्रणाम आठों याम ।।७४।। चन्दन घिसता चाहता, मात्र गन्ध का दान। फल की बांछा कब करें, मुनिजन जनकल्याण ।।७५।। धर्म - ध्यान ना, शुक्ल से, मोक्ष मिले आखीर। जितना गहरा कूप हो, उतना मीठा नीर ।।७६।। आकुल व्याकुल कुल रहा, मानव संकुल कूल। मिला न अब तक क्यों मिले, प्रतीति जब प्रतिकूल ।।७७।। खून ज्ञान, नाखून से, खून रहित नाखून। चेतन का संधान तन, तन चेतन से न्यून ।।७८।। आत्मबोध घर में तनक, रागादिक से पूर। कम प्रकाश अति धूम्र ले, जलता अरे कपूर ।।७९।। लंगड़ा भी सुरगिरि चढ़े, चील उड़े इक पांख। जले दीप, बिन तेल ना, ना घर में अक्षय आँख ।।८०।। लगाम अंकुश बिन नहीं, हय, गय देते साथ। व्रत श्रुत बिन मन कब चले, विनम्र कर के माथ ।।८१।। भटकी अटकी कब नदी? लौटी कब अधबीच? रे मन! तू क्यों भटकता? अटका क्यों अघकीच? ।।८२।। भले कूर्मगति से चलो, चलो कि ध्रुव की ओर। किन्तु कूर्म के धर्म को, पालो पल पल और ।।८३।। भक्त लीन जब ईश में, यूँ कहते ऋषि लोग। मणि - कांचन का योग ना, मणि-प्रवाल का योग ।।८४।। खुला खिला हो कमल वह, जब लौं जल संपर्क। छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क ।।८५।। मन्द मन्द मुस्कान ले, मानस हंसा होय। अंश अंश प्रति अंश में, मुनिवर हंसा मोय ।।८६।। गोमाता के दुग्घसम, भारत का साहित्य। शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य ।।८७।। उन्नत बनने नत बनो, लघु से राघव होय। कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय ।।८८।। पुन भस्म पारा बने, मिले खटाई योग। बनो सिद्ध पर-मोह तज, करो शुद्ध उपयोग ।।८६।। माध्यस्था हो नासिका, प्रमाणिका नय आँख। पूरक आपस में रहे, कलह मिटे अघ-पाक ।।९०।। तन की गरमी तो मिटे, मन की भी मिट जाय। तीर्थ जहाँ पर उभय - सुख, अमिट अमित मिल जाय ।।९१।। अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल - माल बन जाय। दया मूर्ति के दरस से, “क्या का क्या” बन जाय ।।९२।। सुचिर काल से हो रहा, तन का करता राग। ऊषा सम नर जन्म है, जाग सके तो जाग ।।९३।। पूर्ण पुण्य का बन्ध हो, पाप - मूल मिट जात। दलदल पल में सब धुले, भारी हो बरसात ।।९४।। कुछ पर - पीड़ा दूर कर, कुछ पर को दे पीर। सुख पाना जन (जब) चाहते, तरह तरह तासीर ।।९५।। दुर्जन से जब भेंट हो, सज्जन की पहचान। ग्रहण लगे जब भानु को तभी राहु का भान ।।९६।। तीरथ जिसमें अघ घुले, मिलता भव का तीर। कीरत जग भर में घुले, मिटती भव की पीर ।।९७।। सत्य कार्य, कारण सही, रही अहिंसा-मात। फल का कारण फूल हैं, फूल बचाओ भ्रात! ।।९८।। अर्कतूल का पतन हो, जल - कण का पा संग। कण या मन के संग से, रहे न मुनि पासंग ।।९९।। जिसके उर में प्रभु लसे, क्यों न तजे जड़ राग। चन्द्र मिले फिर ना करें, चकवा, चकवी त्याग ? ।।१००।। स्थल एवं समय-संकेत उदय नर्मदा का जहाँ, आम्र-कूट की मोर। सर्वोदय का शतक का, उदय हुआ है भोर ।।१०१।। गगन-गन्ध-गति-गोत्र की, अक्षय तृतिया पर्व, पूर्ण हुआ शुभ सुखद है, पढ़े सुने हम सर्व ।।१०२।।
  4. बिन तन बिन मन वचन बिन, बिना करण बिन वर्ण। गुण गण गुम्फन घन नमूँ, शिवगण को बिन स्वर्ण ।।१।। पाणि-पात्र के पाद में, पल-पल हो प्रणिपात। पाप खपा, पा, पार को, पावन पाऊँ प्रान्त ।।२।। शत-शत सुर-नर-पति करें, वंदन शत-शत बार। जिन बनने जिन-चरण रज, लूँ मैं शिर पर सार ।।३।। सुर-नर-यति-पति पूजते, सुध-बुध सभी बिसार। गुरु गौतम गुणधर नमूँ, उमंग से उर धार ।।४।। नमूँ, भारती तारती, उतारती उस तीर। सुधी उतारें आरती, हरती खलती-पीर ।।५।। तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीश ।।६।। कौरव रव-रव में गये, पाण्डव क्यों शिव-धाम। स्वार्थ तथा परमार्थ का, और कौन परिणाम? ।।७।। पारसमणि के परस से, लोह हेम बन जाय। पारस के तो दरस से, मोह क्षेम बन जाय ।।८।। एक साथ लो! बैल दो, मिल कर खाते घास। लोकतन्त्र पा क्यों लड़ो? क्यों आपस में त्रास ।।९।। दिखा रोशनी रोष ना, शत्रु, मित्र बन जाय। भावों का बस खेल है, शूल, फूल बन जाय ।।१०।। उच्च-कुलों में जन्म ले, नदी निम्नगा होय। शांति, पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय ।।११।। सूर्योदय से मात्र ना ऊष्मा मिले प्रकाश। सूर दास तक को मिले, दिशा-बोध अविनाश ।।१२।। मानव का कलकल नहीं, कल-कल नदी निनाद। पंछी का कलरव रुचे, मानव! तज उन्माद ।।१३।। भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग। निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग ।।१४।। कब तक कितना पूछ ना, चलते चल अविराम। रुको रुको यूँ सफलता, आप कहे यह धाम ।।१५।। जिनवर आँखें अध-खुलीं, जिन में झलके लोक। आप दिखे सब, देख ना! स्वस्थ रहे उपयोग ।।१६।। ऊधम से तो दम मिटे, उदयम से दम आय। बनो दमी हो आदमी कदम-कदम जम जाय ।।१७।। दोष रहित आचरण से, चरण-पूज्य बन जाय। चरण-धूल तक शिर चढ़े मरण-पूज्य बन जाय ।।१८।। तन से मन से वचनसे, चेतन में अब डूब। डूबा अब तक खूब है, तन से अब तो ऊब ।।१९।। एक साथ सब कर्म का, उदय कभी ना होय। बूंद-बूंद कर बरसते, घन, वरना सब खोय ।।२०।। नदी बदलती पथ नहीं, जब तक मिले अनन्त। मानव पथ क्यों बदलता, बनकर भी हे सन्त ! ।।२१।। आत्मामृत तज विषय में, रमता क्यों यह लोक? खून चूसता दुग्ध तज, गो थन में क्यों जोंक।।२२।। मदन मान का मूल मन, मूल मिटा प्रभु आप। मदन जयी, जित मान हो, पावन अपने आप ।।२३।। देह गेह का नेह तज, आतम हो अनुभूत। स्नेह जले दीपक तभी, करे उजाला पूत ।।२४।। ज्ञान तथा वैराग्य ये, शिव-पथ-साधक दोय। खड्ग ढाल ले भूप ज्यों, श्री यश धारक होय ।।२५।। नाम बने परिणाम तो, प्रमाण बनता मान। उपसर्गों से क्यों डरा? पार्श्व बने भगवान ।।२६।। प्रभु चरणों में हार कर, शस्त्र डाल कर काम। विनीत हो पूजक बना, झुक झुक करे प्रणाम ।।२७।। तभी शूल सब फूल हो, पूजन साधन सार। सत्-संगति का फल मिले, भव-सागर का पार ||२८।। काया का कायल नहीं, काया में हूँ आज। कैसे - काया कल्प हो, ऐसा कर तप - काज ।।२९।। छुप - छुपकर क्यों छापते, निश्छल छवि पर छाप। ताप - पाप संताप के, रूप उघड़ते आप ||३०।। पेटी भर ना पेट भर, खेती कर, नाऽऽ खेट। लोकतन्त्र में लोक का, संग्रह हो भरपेट ।।३१।। नम्र बनो मानी नहीं, जीवन वर ना मौत। वेत बनो ना वट बनों फिर सुर-शिव-सुख का स्रोत ।।३२।। अलख जगा कर देख ले, विलख, विलख मत हार। निरख, निरख निज को जरा, हरख, हरख इस बार ।।३३।। चल, चल जिस पर विभु हुये, चल, चल तू उस पन्थ। चल, चल वरना बीच से, चल चल होगा सन्त! ।।३४।। वश में हों सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ।।३५।। फड़ - फड़ - फड़ - फड़ बन्द कर, पक्ष-पात के पाँख। सुदूर खुद में उतर आ, एक - बार तो झाँक ।।३६।। शील, नसीले द्रव्य के, सेवन से नश जाय। संत - शास्त्र - संगति करे, और शील कस जाय ।।३७।। जठरानल अनुसार हो, भोजन का परिणाम। भावों के अनुसार ही, कर्म - बन्ध - फल - काम ।।३८।। नस नस मानस - रस नसे, नसे, मोह का वंश। लसे हृदय में बस भले, जिनोपासना अंश ।।३६।। यम - संयम - दम - नियम ले, कर आगम अभ्यास। उदास जग से, दास बन - प्रभु का सो संन्यास ।।४०।। गुरु-चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास। अक्षय - सुख के विषय में, संशय का हो नाश ।।४१।। स्वयं तिरे, ना तारती - कभी अकेली नाव। पूजा नाविक की करो, बने पूज्य तब नाव ||४२।। नहीं व्यक्ति को पकड़ तू, वस्तु - धर्म को जान। मान तथा बहुमान दे, विराटता का गान ||४३।। वर्ण - लाभ वरदान है, संकर से हो दूर। नीर - दूध में ले मिला, आक - दूध ना भूल ||४४।। गगन चूमते शिखर हैं, भू-स्पर्शी क्यों द्वार? बता जिनालय ये रहे, नत बन, मत मद धार ।।४५।। सार सार का ग्रहण हो, असार को फटकार। नहीं चालनी तुम बनो, करो सूप-सत्कार ||४६।। नयन - नीर लख नयन में, आता यदि ना नीर। नीर पोंछना पूछना, उपरिल उपरिल पीर ।।४७।। बड़े बड़े ना पाप हों, बड़ी बड़ी ना भूल। चमडी दमडी के लिए, पगड़ी पर क्यों धूल? ||४८।। एक तरफ से मित्रता, सही नहीं वह मित्र। अनल पवन का मित्र ना, पवन अनल का मित्र ||४९।। विगत अनागत आज का, हो सकता श्रद्धान। शुद्धातम का ध्यान तो, घर में कभी न मान ।।५०।। मात्रा मौलिक कब रही, गुणवत्ता अनमोल। जितना बढ़ता ढोल हैं, उतना बढ़ता पोल ||५१।। चाव - भाव से धर्म कर, उज्ज्वल कर ले भाल। माल नहीं पर-भाव से, बन तू मालामाल ||५२।। मोही जड़ से भ्रमित हो, ज्ञानी तो भ्रम खोय। नीर उष्ण हो अनल से, कहाँ उष्ण हिम होय ||५३।। सागर का जल तप रहा, मेघ-बरसते नीर। बह बह वह सागर मिले, यही नीर की पीर ||५४।। न्यायालय में न्याय ना, न्यायशास्त्र में न्याय। झूठ छूटता, सत्य पर टूट पड़े अन्याय ।।५५।। सीमा तक तो सहन हो, अब तो सीमा पार | पाप दे रहा दण्ड है, पड़े पुण्य पर मार ।।५६।। सौ सौ कुम्हडे लटकते, बेल भली बारीक। भार नहीं अनुभूत हो, भले संघ गुरु ठीक ।।५७।। जिसके स्वामीपन रहे, नहीं लगे वह भार। निजी काय भी भार क्या? लगता कभी कभार ||५८।। कर्तापन की गन्ध बिन, सदा करे कर्तव्य। स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव - पर हो मन्तव्य ।।५९।। सन्तों के आगमन से सुख का रह न पार। सन्तों का जब गमन हो, लगता जगत असार ।।६०।। सुन, सुन गुरु उपदेश को, बुन बुन मत अघजाल। कुन कुन कर परिणाम तू, पुनि पुनि पुण्य सँभाल ।।६१।। निर्धनता वरदान है, अधिक धनिकता पाप। सत्य तथ्य की खोज में, निर्गुणता अभिशाप ।।६२।। नीर नीर है क्षीर ना, क्षीर क्षीर ना नीर। चीर चीर है जीव ना, जीव जीव, ना चीर ।।६३।। कर पर कर धर करणि कर, कल कल मत कर और वरना कितना कर चुका कर मरना ना छोर ।।६४।। यान करे बहरे इधर, उधर यान में शान्त। कोरा कोलाहल यहाँ, भीतर तो एकान्त ।।६५।। सूरज दूरज हो भले, भरी गगन में धूल। सर में पर नीरज खिले, धीरज हो भरपूर ।।६६।। बान्धव रिपू को सम गिनो, संतों की यह बात। फूल चुभन क्या ज्ञात है? शूल चुभन तो ज्ञात ।।६७।। क्षेत्र काल के विषय में, आगे पीछे और ऊपर नीचे ध्यान दूँ, ओर दिखे ना छोर ।।६८।। स्वर्ण - पात्र में सिंहनी, दुग्ध टिके नान्यत्र। विनय पात्र में शेष भी, गुण टिकते एकत्र ।।६९।। परसन से तो राग हो, हर्षण से हो दाग। घर्षण से तो आग हो, दर्शन से हो जाग ।।७०।। माँग सका शिव माँग ले, भाग सका चिर भाग। त्याग सका अघ - त्याग ले, जाग सका चिर जाग ।।७१।। साधुसन्त कृत शास्त्र का, सदा करो स्वाध्याय। ध्येय, मोह का प्रलय हो, ख्याति लाभ व्यवसाय ।।७२।। आप अधर मैं भी अधर, आप स्व-वश हो देव। मुझे अधर में लो उठा, परवश हूँ दुर्दैव ।।७३।। मंगल में दंगल बने, पाप कर्म दे साथ। जंगल में मंगल बने, पुण्योदय में भ्रात! ।।७४।। धोओ मन को धो सको , तन को धोना व्यर्थ। खोओ गुण में खो सको, धन में खोना व्यर्थ ।।७५।। त्रिभुवन जेता काम भी, दोनों घुटने टेक। शीश झुकाते दिख रहा, जिन - चरणों में देख ।।७६।। तोल तुला मैं अतुल हूँ पूरण वर्तुल - व्यास। जमा रहूँ बस केन्द्र में, बिना किसी आयास ।।७७।। व्यास बिना वह केन्द्र ना, केन्द्र बिना ना व्यास | परिधि तथा उस केन्द्र का, नाता जोड़े व्यास ||७८।। केन्द्र रहा सो द्रव्य है, और रहा गुण व्यास। परिधि रही पर्याय है, तीनों में व्यत्यास ||७९।। व्यास केन्द्र या परिधि को, बना यथोचित केन्द्र। बिना हठाग्रह निरख तू, निज में यथा जिनेन्द्र ।।८०|| वृषभ चिंह को देखकर, रमरण वृषभ का होय। वृषभ-हानि को देख कर, कृषक-धर्म अब रोय ।।८१।। काला पड़ता जा रहा, भारत का गुरु भाल। भारी बढ़ता जा रहा, भारत का ऋण भार ||७२।। वर्णो का दर्शन नहीं, वर्षों तक ही वर्ण। चार वर्ण के थान पर, इन्द्र - धनुष से वर्ण ।।८३।। वर्ण - लाभ से मुख्य है, स्वर्ण-लाभ ही आज। प्राण बचाने जा रहे, मनुज बेच कर लाज ।।८४।। विषम पित्त का फल रहा, मुख का कडुवा स्वाद। विषम वित्त से चित्त में, बढ़ता है उन्माद ।।८५।। कानों से तो हो सुना, आँखों देखा हाल। फिर भी मुख से ना कहे, सज्जन की यह ढाल ।।८६।। दीप कहाँ दिनकर कहाँ, इन्दु कहाँ खदयोत। कूप कहाँ सागर कहाँ, यह तोता प्रभु पोत ।।८७।। धर्म - धनिकता में सदा, देश रहे बल जोर। भवन वही बस चिर टिके, नींव नहीं कमजोर ।।८८।। बाल गले में पहुँचते, स्वर का होता भंग। बाल, गेल में पहुँचते, पथ-दूषित हो संघ ।।८९।। बाधक शिव - पथ में नहीं पुण्य - कर्म का बन्ध। पुण्य - बन्ध के साथ भी। शिव पथ बढे अमन्द ||९०|| पुण्य-कर्म अनुभाग को, नहीं घटाता भव्य। मोह-कर्म की निर्जरा, करता है कर्त्तव्य ।।९१।। तभी मनोरथ पूर्ण हो, मनोयोग थम जाय। विद्यारथ पर रूढ हो, तीन - लोक नम जाय ।।९२।। हुआ पतन बहुबार है, पा कर के उत्थान। वही सही उत्थान है, हो न पतन सम्मान ।।९३।। सौरभ के विस्तार हो, नीरस ना रस कूप। नमूँ तुम्हें तुम तम हरो, रूप दिखाओ धूप ।।९४।। नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना भी परमार्थ। देख गिरे को, हम जगें, सही करें पुरुषार्थ ।।९५।। गगन गहनता गुम गई. सागर का गहराव। हिला हिमालय दिल विभो! देख सही ठहराव ।।९६।। निरखा प्रभु को, लग रहा, बिखरा सा अघ-राज। हलका सा अब लग रहा, झलका सा कुछ आज ।।९७।। ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिए अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग ।।९८।। हृदय मिला पर सदय ना, अदय बना चिर-काल। अदया का अब विलय हो, चाहूँ दीन दयाल! ।।९९।। चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव। चेतन की फिर हार क्यों? भाव हुआ दुर्भाव ।।१००।। चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर। लोक हितैषी बस बनूँ , सदा लोक से पूर ।।१०१।। स्थान एवं समय-संकेत रामटेक में, योग से, दूजा वर्षायोग। शान्तिनाथ की छाँव में, शोक मिटे, अघ रोग ।।१०२।। गगन - गन्ध - गति गौत्र का, भादों - पूनम् - योग। “पूर्णोदय” पूरण हुआ, पूर्ण करे उपयोग ।।१०३।।
  5. प्रकाश अदावन शाहगढ़ - महामुनिराज आचार्य विद्यासागर महाराज सत्संग का पदार्पण सोमवार को हीरापुर में हुआ। पपौरा की ओर बढ़ रहे महामुनिराज की आगवानी और उनके चरणों का पाद प्रक्षालन करने सभी समुदाय के लालायित लोग झलक और उनका आशीर्वाद पाने के लिए हजारों की संख्या में महिलाएं पुरुष एकत्रित हुए। हीरापुर के मुख्य बाजार में बनाए गए मंच पर विराजमान महामुनिराज ने अपनी मंगल वाणी में शाहगढ़ के हीरापुर की खूबिया गिनाकर गांव की प्रशंसा की। आचार्य श्री ने कहा कि गांव के बने मकानों में अभी भी झुककर अंदर जाना पड़ता है लेकिन वर्तमान युग बदल रहा है जीवन मैं सिद्धांत नहीं बदलते गांव में अभी भी सिद्धांत नहीं बदले। आचार्य श्री ने कहा कि हीरापुर मैं हीरे की बात करना चाहिए यहां पर वैज्ञानिक भी अपनी खोज करने आते हैं हीरापुर विश्व के नक्शा में तो आ गया लेकिन इस गांव को भगवान महावीर के नक्शा पटल में लाने का प्रयास करना होगा। आचार्य श्री ने कहा कि वर्तमान परिवेश में परिवर्तन खाने पीने में होता जा रहा है फास्ट फूड खाने वाला कभी स्वस्थ नहीं रह सकता उन्होंने पदमपुराण मैं लेख एक दृष्टांत को सुनाया जिसमें बताया गया कि चौदह वर्ष के वनवास पर जंगल में गए राम सीता लक्ष्मण ने फल ही खाएं। फल की खोज में गए लक्ष्मण ने सीता को सीताफल दिए और हनुमान ने रामफल लाकर दिया। आपको पता होगा कि गांव में प्राप्त होने वाले फलों का बड़े-बड़े शहरों में निर्यात हो रहा है और वर्तमान में फास्ट फूड का चलन शुरु हो गया है। जिसका कोई अता-पता नहीं वह चीज कहां से आ रही है लेकिन आपके बच्चे खा रहे हैं। रामराज लाने के लिए हमें अभक्ष्य से बचना होगा खिचड़ी तो बीमारी में काम आएगी लेकिन फास्ट फूड की खिचड़ी आपको बीमारी ही देगी। आचार्य श्री ने कहा कि बुंदेलखंडी में बोले जाने वाला हव शब्द अच्छाई में ही उपयोग करें। अच्छा खान-पान ही धर्म की रक्षा और अखंड देश की रक्षा कर सकता है। विधायक ने दिए गौसेवा को साड़े पांच लाख - आचार्य श्री की आहार चर्या हीरापुर में सांधेलिया परिवार के यहां हुई। पाद प्रक्षालन मुकेश जैन हीरापुर और क्षेत्रीय विधायक हरवंश सिंह राठौर ने गौसेवा के लिए साडे पांच लाख तथा अभय जैन पूर्व जनपद सदस्य ने नौ हथकरघा प्रदान किए जाने की घोषणा की। वहीं शाहगढ़ सहित विभिन्न जिलों से आए समाज के लोगों ने श्रीफल भेंट कर अपने-अपने गांव पधारने का निवेदन किया। तथा आचार्य श्री के दर्शनार्थ पहुंचे पूर्व विधायक नारायण प्रजापति नगर परिषद शाहगढ़ से गोकल राय आदि कई जनप्रतिनिधियों और बड़ी संख्या में पहुँचे भक्तों ने आशीर्वाद लिया सायंकालीन बेला समय के उपरांत आचार्य ससंघ सभी का मंगल विहार बंमनोरा की ओर हो गया। रात्रि विश्राम के बाद मंगलवार की सुबह मंगल विहार होगा। और आचार्य श्री की आहार चर्या घुवारा में होने की संभावना जताई जा रही है। आहारचर्या के बाद बमनौरा की ओर हुआ मंगल बिहार।
  6. सागर - दमोह से जैन तीर्थक्षेत्र पपौरा जी की ओर बिहार कर रहे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की हीरापुर में हजारों लोगों ने भव्य अगवानी की और उन्हें श्रीफल अर्पित कर आशीर्वाद लिया मुनि सेवा समिति के सदस्य मुकेश जैन ढाना ने बताया कि आचार्य श्री का 30 मार्च से लगातार बिहार डिंडोरी जबलपुर दमोह होकर चल रहा है आचार्य श्री अब तक लगभग 350 किलोमीटर का पदबिहार कर चुके हैं हीरापुर में सुबह 8:30 बजे आचार्य संघ की आगवानी की गई। इस अवसर पर क्षेत्रीय भाजपा विधायक हरवंश राठौर, पूर्व विधायक नारायण प्रजापति, जिला पंचायत सदस्य गुलाबचंद गोलन, अशोक जैन ठेकेदार, अभय जैन ठेकेदार, भाजपा नेता मुकेश जैन हीरापुर आदि सहित छतरपुर ललितपुर टीकमगढ़ सागर बंडा शाहगढ़ बक्सवाहा बड़ा मलहरा घुवारा सहित छोटे छोटे कस्बों से आचार्य संघ की एक झलक पाने के लिए लोग उत्साहित थे इस अवसर पर आचार्य श्री के पाद प्रक्षालन अवसर भाजपा नेता मुकेश जैन हीरापुर गजाधर जैन,संजय जैन बाँदा के परिवार को प्राप्त हुआ आचार्य संघ की आहारचर्या अभय सांदेलिया ठेकेदार के चौके में हुई इस अवसर पर आचार्य श्री ने प्रवचन के दौरान कहा कि फास्ट फूड खाओगे तो दुनिया से जल्दी निकल जाओगे अब समय फास्ट फूड खाने का नहीं है घरों में भी बहुत अच्छे-अच्छे व्यंजन बनते हैं लेकिन लोगों को फास्ट फूड अब सब कुछ लगने लगा है फास्ट फूड से छोटे-छोटे बच्चों को अभी से दूर कीजिए ताकि भविष्य में कोई इससे जुड़ ना पाए आचार्य श्री जी ने कहा इस ग्राम का नाम हीरापुर जरूर है क्योंकि इस क्षेत्र में हीरे की खदानें भी हैं हथकरघा राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरे रोजगार के साधन ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ेंगे और पुनर्वास की व्यवस्था भी होगी हथकरघा से निर्मित होने वाला कपड़ा अहिंसा के वस्त्र के रुप में जाना जाएगा धीरे धीरे हथकरघा योजना पूरे देश में अपना एक अलग परचम फहरायेगी इस अवसर पर सागर जैन समाज की ओर से आचार्यश्री को श्रीफल अर्पित कर वर्षा कालीन चातुर्मास सागर में हो ऐसा निवेदन सागर समाज की ओर से महेश बिलहरा मुकेश जैन ढाना राकेश जैन पिडरुआ, पी सी नायक, पप्पू पड़ा, ऋषभ जैन, राजेश जैन रोड लाइंस, सट्टू जैन कर्रापुर, श्रीकांत जैन सहित बड़ी संख्या में सागर से गए समाज के लोगों ने किया इस अवसर पर भोपाल के पत्रकार रविंद्र जैन ने भी भोपाल में कमला पार्क में बनने वाले Ⓜकीर्ति स्तंभ की रूपरेखा आचार्य श्री को बताईⓂ आचार्य श्री का दोपहर बाद बिहार इंदौरा की ओर हो गया। 17 अप्रेल को आचार्यसंघ की आहारचर्या घुबारा में होगी। आचार्य संघ 18 अप्रैल कि शाम या 19 अप्रैल को सुबह जैन तीर्थ क्षेत्र पपौरा जी टीकमगढ़ मे प्रवेश करेगा।यहां पर आचार्यश्री के आशीर्वाद से चौथी प्रतिभास्थली की स्थापना हो रही है उल्लेखनीय लड़कियों की संस्कारित शिक्षा हेतु आचार्यश्री के आशीर्वाद से जबलपुर डोंगरगढ़ और रामटेक के बाद क्षेत्र में इसकी स्थापना की जा रही है ⓂⓂⓂⓂⓂⓂⓂⓂ बंडा शाहगढ़ की गौशाला के लिए बंडा विधायक निधि 5 लाख रूपये की घोषणा सागर हीरापुर में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के दर्शन करने पहुंचे बंडा क्षेत्र के युवा भाजपा विधायक हरवंश राठौर ने आचार्य श्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद लिया और विधायक निधि से बंडा शाहगढ़ में स्थापित गौशाला के लिए ₹5 लाख रुपए देने की उन्होंने घोषणा की एमड़ी न्यूज़ सागर 16 अप्रेल 2018
  7. निगोद में रचा पचा, कोई भी भव न बचा, तथापि सुख का न शोध, हुआ रहा मैं अबोध ।।१।। प्रभो! सुकृत उदित हुआ, फलतः मैं मनुज हुआ, दुर्लभ सत्संग मिला, मानो यही सिद्धशिला ।।२।। फिर गुरु उपदेश सुना, जागृत हुआ सुन गुना, ज्ञात हुआ स्व - पर भेद, व्यर्थ करता था खेद ।।३।। विदित हुआ मैं चेतन, ज्ञान - गुण का निकेतन, किन्तु तन, मन अचेतन, जिन्हें न निज का सम्वेदन ।।४।। चेत चेतन चकित हो, स्वचिन्तन वश मुदित हो, यों कहता मैं भूला, अब तक पर में फूला ।।५।। अब सर्वत्र उजाला, शिव - पथ मिला निराला, किस बात का मुझे डर, जब जा रहा स्वीय घर ।।६।। यह है समकित प्रभात, न रही अब मोह रात, बोध - रवि - किरण फूटी, टली भ्रम - निशा झूठी ।।७।। समता अरुणिमा बढ़ी, उन्नत शिखर पर चढ़ी, निज - दृष्टि निज में गड़ी, धन्यतम है यह घड़ी ।।८।। अनुकम्पा - पवन भला सुखद पावन बह चला, विषमता - कण्टक नहीं, शिव - पथ अब स्वच्छ सही ।।९।। यह सुख की परिभाषा, रहे न मन में आशा, ऐसी हो प्रतिभासा, परितः पूर्ण प्रकाशा ।।१०।। कुछ नहीं अब परवाह, जब मिटी सब कुछ चाह, दुख टला, निज - सुख मिला, मम उर दृगपद्य खिला।।११।। "विद्या" अविद्या छोड़, कषाय कुम्भ को फोड़, कर रहा उससे प्यार, भजो सचेतना नार।।१२।। मुनि वशी निरभिमानी, निरत निज में विज्ञानी, जिसे नहिं निज का ज्ञान, वह करता मुधा मान ।।१३।। सुन - सुन मानापमान, दुखदायक अध्यवसान, सुधी बस उन्हें तजकर, निजानुभव करें सुखकर।।१४।। विषय - कषाय वश सदा, दुःख सहता मूढ़ मुधा, निज निजानुभव का स्वाद, बुधजन लेते अबाध ।।१५।। यह योगी का विचार, हैं ज्ञान के भण्डार, सभी संसारी जीव, द्रव्य - दृष्टि से सदीव ।।१६।। रखें नहिं सुधी परिग्रह, करें सदा गुण - संग्रह, नमें निज निरञ्जन को, तजे विषय - रजन को ।।१७।। पर - परिणति को लखकर, जड़मति बिलख - हरख कर। कर्मो से है बंधता, वृथा भव - वन भटकता।।१८।। मुनि ज्ञानी का विश्वास, मम हो न कभी विनाश, और हूँ नहीं रोगी, फिर व्यथा किसे होगी ।।१९।। मैं वृद्ध, युवा न बाल, ये हैं जड़ के बबाल, इस विधि सुधी जानता, सहज निज सुख साधता ।।२०।। पुष्पहार से नहिं तोष, करे न विषधर से रोष, पीता निशिदिन ज्ञानी, शुचिमय समरस पानी ।।२१।। अबला सबला नहिं नर, ना मैं नपुंसक वानर। नहिं हृष्ट, पुष्ट, कुरूप, हूँ इन्द्रियातीत अरूप ।।२२।। ललित लता सी जाया, है संध्या की छाया। औ सुभग यह काया, केवल जड़ की माया ।।२३।। पावन ज्ञान - धन • धाम, अनन्त गुणों का ग्राम। स्फटिक सम निर्विकार, नित निज में मम विहार ।।२४।। पर - द्रव्य पर अधिकार, नहिं हो इस विध विचार, जानना तेरा काम, कर तू निज में विश्राम ।।२५।। योग - मार्ग बहुत सरल, भोगमार्ग निश्चय, गरल। स्वानुभावामृत तज कर, विषय-विष-पान मत कर।।२६।। क्यों भटकता तू मुधा, क्यों दुख सहता बहुधा। तब मिटेगी यह क्षुधा जब मिलेगी निज सुधा ।।२७ ।। क्यों बनता तू बावला, सोच अब निज का भला। यह मनुज में ही कला, अतः उर में समभाव ला ।।२८ ।। यदि पर संग सम्बन्ध, रखता, तो करम बन्ध, फिर भवकूल, किनारा, न मिले तुझे सहारा ।।२९।। परन्तु मूढ भूल कर, स्व को नहिं मूल्य कर। पर को हि अपना रहा, मृषा दुःख उठा रहा ।।३० ।। तू तजकर मोह - तृषा, अरे! कर निज पर कृपा। होगा न सुखी अन्यथा, यह बात सत्य सर्वथा ।।३१।। अरे! लक्ष्यहीन तव प्रवास, तुझको दे रहा त्रास। मति सुधारनी होगी, चाल बदलनी होगी।।३२।। राग नहीं मम स्वभाव, द्वेष है विकार भाव। यों समझ उनको त्याग, बन जिन - सम वीतराग ।।३३।। कर अब आतम अनुभव, फलतः हो सुख सम्भव। मिट जाये दुख सारा मिल जाये शिव प्यारा।।३४ || दृग - विद्या - व्रत, रत्नत्रय। करे प्रकाशित जगत्त्रय। जो इनका ले आश्रय, अमर बनता है अभय ।।३५।। आत्मा कभी न घटता, मिटता, कभी न बढ़ता। परन्तु खेद, यह बात, मूढ़ को नहिं है ज्ञात ।।३६।। मूढ गूढ स्वतत्व भूल, पर में दिन - रात फूल। दुःख का वह सूत्रपात, कर रहा निज का घात ।।३७।। मुख से निकले न बोल, मन में अनेक कल्लोल। नित मूर्ख करता रोष, निन्द्यतम अघ का कोष ।।३८।। स्मरण - शक्ति चली गई, लोचन - ज्योति भी गई। पर जिसकी विषय - चाह भभक - भभक उठी दाह ।।३९।। देह जरा - वश जर्जरित, हुआ मुख - कमल मुकुलित। तथा समस्त मस्तक पलित, जड़ की तृष्णा द्विगुणित ||४०।। यह सब जड़ का बबाल, मैं तो नियमित निहाल। जिसको पर विदित नहीं कि यह मम परिणति नहीं ।।४१।। मोह - कर्दम में फँसा, उल्टी मूढ़ की दशा। रखता न स्व - पर विवेक, सहता कष्टातिरेक ।।४२।। है स्व - पर की पहिचान, शिवसदन का सोपान। पर को अपना कहना, केवल भव - दुःख सहना ।।४३।। यदि हो स्व - पर बोध, फिर उठे नहिं उर क्रोध। मूर्ख ही क्रोध करता, पुनि - पुनि तन गह; मरता ।।४४ ।। जब हो आत्मानुभूति, निश्चिन्त सुख की चिन्मूर्ति, मिलती सहज चिन्मूर्ति, धुतिमय शुचिमय विभूति ।।४५।। स्वयं से परिचित नहीं, भटकता भव में वही। पग - पग दुःख उठाता, पाप - परिपाक पाता ।।४६।। विद्या बिन, चारित्र वृथा, जिससे न मिटती व्यथा। फिर सहज शुद्ध समयसार, क्यों मिले फिर विश्वास ।।४७।। कभी मिला सुर - विलास, तो कभी नरक - निवास पुण्य - पाप का परिणाम, न कभी मिलता विश्राम ।।४८।। मूढ़ पाप से डरता, अतः पुण्य सदा करता। तो संसार बढ़ाता, भव - वन चक्कर खाता ||४९।। पाप तज पुण्य करोगे, तो क्या नहीं मरोगे। भले हि स्वर्ग मिलेगा, भव - दुख नहीं मिटेगा ।।५०।। प्रवृत्ति का फल संसार, निवृत्ति सुख का भण्डार। पहली अहो पराश्रिता, दूजी पूज्य निजाश्रिता ।।५१।। मत बन किसी का दास, पर बन; पर से उदास। फलतः कर्मों का नाश, उदित हो बोध - प्रकाश।।५२।। अतः मेरा सौभाग्य, मुझको हुआ वैराग्य। पुण्य - पाप है नश्वर, शुद्धातम वर ईश्वर ।।५३।। सुख - दुःख में समान मुख, रहे; तब मिले शिव - सुख। अन्यथा बस दुस्सह दुख, ऊर्ध्व, अधो, पार्श्व, सम्मुख ।।५४।। स्नान स्वानुभव सर में, यदि हो, तो पल भर में। तन - मन निर्मलतम बने, अमर बने मोद घने ।।५५।। सब पर भव - परम्परा, यों लख तू स्वयं जरा। निज में धन अमित भरा, जो है अविनश्वर और खरा ।।५६।। आलोकित लोकालोक, करता नहीं आलोक। जो तुझ में अव्यक्त रूप, व्यक्त हो, तो सुख अनूप ।।५७।। क्यों करता व्यर्थ शोक, निज को जान, मन रोक। बाहर दिखती पर्याय, आभ्यन्तर द्रव्य सुहाये ||५८|| विद्या - रथ पर बैठकर, मनोवेग निरोध कर। अब शिवपुर है जाना, लौट कभी नहिं आना ।।५९।। झर - झर झरता झरना, कहता चल - चल चलना। उस सत्ता से मिलना, पुनि - पुनि पड़े न चलना ।।६०।। लता पर मुकुलित कली, कभी - कभी खुली, खिली। कभी गिरी, परी मिली, सब में वही सत् ढली ।।६१।। सकल पदार्थ अबाधित, पल - पल तरल प्रवाहित। होकर भी ध्रुव त्रिकाल, जीवित शाश्वत निहाल ।।६२।। रवि से जन, जल जलता, वही वाष्प में ढलता। जलद बन, पुनि पिघलता, सतत है सत् बदलता ।।६३।। गुण वश प्रभु, तुम - हम सम, पर पृथक्, हम भिन्नतम। दर्पण में कब दर्पण, करता निजपन अर्पण ।।६४।। राम - राम, श्याम - श्याम, इस रटन से विश्राम। रहे न काम से काम, बन जाऊँ मैं निष्काम ।।६५।। क्षणिक सत्ता को मिटा, महासत्ता में मिला। आर - पार तदाकार, निराकार मात्र सार ।।६६।। मन पर लगा लगाम, निज दीप जला ललाम। सकल परमार्थ पदार्थ, प्रतिभासित हो यथार्थ ।।६७।। बन्द कर नयन - पुट को, लखता अन्तर्घट को। दिखती फैली लाली, न निशा मैली काली ।।६८।। इच्छा नहिं कि कुछ लिखें। जड़ार्थ मुनि हो बिकूँ। जो कुछ होता लखना, लेखक बन नहिं लिखना।।६९।। स्मृति में कुछ भी लाना, ज्ञान को बस सताना। लेखनी लिखती रहे, आत्मा लखती रहे ।।७०।। दृग, चरण गुण अनमोल, निस्पन्द अचल अलोल। मत इन्हें जड़ पर तोल, अमृत में विष मत घोल ।।७१।। अमूर्त की मृदुता में, सिमिट - सिमिट रहता मैं। धवल कमल की मृदुता, नहिं रुचती अब जड़ता ।।७२।। सरस - विरस से ऊपर, उठकर, रसगुण चखकर। मम रसना जीवित है, प्रमुदित उन्मीलित है ।I७३।। लाल लाल युगलगाल, साम्य के सरस रसाल। चूस - चूस तुष्ट हुई, रसना सम्पुष्ट हुई ।।७४।। मति - मती मम नासिका, ध्रुव गुण की उपासिका। न दुर्गन्ध - सुगन्ध से, प्रभावित है गन्ध से ।।७५।। रूप विरूप को लखा, चिर तृषित नयनों चखा। पर अनुपम रूप यहाँ, जग में सुख - कूप कहाँ? ।।७६।। सप्त - स्वरों से अतीत, सुन रहा हूँ संगीत। मनो वीणा का तार, तुन - तुन ध्वनित अपार ।।७७।। अमूर्त के आकाश में, विलीन ज्यों प्रकाश में। प्रकाश नाश विकास में, सत् चिन्मय विलास में ।।७८।। आलोक की इक किरण, पर्याप्त चलते चरण। पथिक! सुदूर भले ही, गन्तव्य पर मिले ही ।।७६।। आसीन सहज मानस, तट पर यह मम मानस। हंस सानन्द क्रीड़ा, कर रहा भूल पीड़ा ।।८०।। विगत सब विस्मरण में, अनागत कब मरण में - ढल चुका, विदित नहिं है, स्व - संवेदन बस यही है ।।८१।। विमल समकित विहंगम, दृश्य का हुआ संगम। नयनों से हृदयंगम, किया मम मन विहंगम ।।८२।। समकित सुमन की महक, गुण - विहंगम की चहक। मिली, साम्य उपवन में, नहिं! नहिं! नन्दन वन में ।।८३।। भय नहीं विषय - विष से, नहिं प्रीति पीयूष से। अजर अमर अविनाशी, हूँ चूँकि ध्रुव विकासी ।।८४।। हर सत् में अवगाहित, हूँ प्रतिष्ठित अबाधित। समर्पित सम्मिलित हूँ, हूँ तभी शुचि मुदित हूँ ।।८५।। ज्ञात तथ्य सत्य हुआ, जीवन कृतकृत्य हुआ। हुआ आनन्द अपार, हुआ वसन्त संचार ||८६।। फलतः परितः प्लावित, पुलकित पुष्पित फुल्लित। मृदु शुचि चेतन - लतिका, गा रही गुण - गीतिका ||८७।। जलद की कुछ पीलिमा, मिश्रित सघन नीलिमा। चीर, तरुण अरुण भाँति, बोध - रवि मिटा भ्रान्ति ।।८८।। हुआ जब से वह उदित, खिली लहलहा प्रमुदित। सचेतना सरोजिनी, मोदिनी मनमोहिनी ।।८९।। उद्योत इन्दु प्रभु सिन्धु, खद्योत मैं लघु बिन्दु। तुम जानते सकल को, मैं स्व-पर के शकल को ।।९०।। मैं. पराश्रित, निजाश्रित, तुम हो, पै तुम आश्रित - हो, यह रहस्य सूंघा, सम्प्रति अवश्य गूंगा ।।९१।। प्रकृति से ही रही प्रकृति भोग्या जड़मती कृति। भोक्ता पुरुष सनात, नव - नवीन अधुनातन ।।९२।। पुरुष पुरुष से न प्रभावित, हुआ, प्रकृति से बाधित। हुआ, पुरुषार्थ वंचित, विवेक रखे न किंचित् ।।९३।। रहा प्रकृति से सुमेल, रखता, खेलता खेल। स्वभाव से दूर रहा, विभाव से पूर रहा ।।१४।। सुधाकर सम सदा से, पूरित बोध - सुधा से। होकर भी राग केतू, भरित है चित् सुधा से तू ।।९५।। उस ओर मौन तोड़ा, विवाद से मन जोड़ा। पुरुष नहीं बोलेंगे, मौन नहीं खोलेंगे ।।९६।। प्रमाद की इन तानें - बाने सुन सम ताने। मौन मुझे जब लखकर, चिड़कर खुलकर मुड़कर ।।९७।। प्रेम क्षेत्र में अब तक, चला किन्तु यह कब तक। मेरे साथ ए नाथ! होगा विश्वासघात ।।९८।। समता से मम ममता, जब से तन क्षमता। अनन्त ज्वलन्त प्रकटी, प्रमाद - प्रमदा पलटी ।।९९।। कुछ - कुछ रिपुता रखती, रहती मुझको लखती। अरुचिकर दृष्टि ऐसी, प्रेमी आप ! प्रेयसी ।।१००।। मुझ पर हुआ पविपात, कि आपद माथ, गात। विकल पीड़ित दिन - रात, चेतन जड़ एक साथ ।।१०१।। अब चिरकाल अकेली, पुरुष के साथ केली। पिलापिला अमृतधार, मिलामिला सस्मित प्यार ।। करूँगी खुश करूंगी, उन्हें जीवित नित लखूंगी ।।१०२।।
  8. कुछ सामाजिक व्यवस्थाओं को लेकर चर्चा चल रही थी तब आचार्य महाराज ने कहा - छोटे-बड़े लोगों को मिलाना, उनमें एकता कराना बहुत सरल होता है। वे एक-दूसरे के पूरक बनकर कार्य करते हैं। एक-दूसरे से सलाह लेकर विचार-विमर्श करके कार्य करते हैं उनमें सामञ्जस्य अच्छा बना रहता है लेकिन जो समकक्ष होते हैं, उनको मिलाना, उनमें एकता लाना बड़ा ही कठिन कार्य है। वह उसी प्रकार कठिन है जैसे रेल की पटरी या यूँ कहो दो समानांतर रेखाओं को मिलाना।
  9. प्रथमानुयोग में कृष्ण जी के बारे में एक प्रसंग आता है कि- देवों ने उनकी गुण ग्राही दृष्टि की प्रशंसा सुनकर परीक्षा लेने के लिए एक श्वान का रूप बनाया और रास्ते में मृतप्राय होकर लेट गया, जिसमें से ऐसी दुर्गंध आ रही थी कि उसके आस-पास के परिसर में दूर-दूर तक लोग नहीं दिख रहे थे। श्रीकृष्णजी ने देखा तब उसी समय साथी ने कहा - कैसी दुर्गंध आ रही है, चलो यहाँ से। तब श्रीकृष्ण, जो कि गुणग्राही तो थे ही उन्होंने दुर्गध रूपी दोष को गौण करते हुये कहा - देखो, इस कुत्ते के दाँत कितने श्वेत हैं, कितने अच्छे चमक रहे हैं। यह सुनकर देवता श्रीकृष्ण के चरणों को नमस्कार कर कहने लगे धन्य है ! आपकी गुणग्रहण की दृष्टि। ठीक वैसी ही गुण ग्रहण की दृष्टि पूज्य गुरुदेव में देखने को मिलती है। बीना बारहा जी चातुर्मास (2005) में आत्मानुशासन ग्रंथ की कक्षा चल रही थी उस समय एक कुत्ता मंच पर पहुँच गया और गुरुदेव जिस तखत पर विराजमान थे उसके नीचे जाकर बैठ गया तब सभी श्रावकगण इस दृश्य को देखकर हँसने लगे। आचार्यश्री जी ने कहा - उसे देखकर क्यों हँस रहे हो, छी-छी क्यों कर रहे हो ? उसे कोषकारों ने कृतज्ञ की उपमा दी है। कुत्ता थोड़ा भोजन करता है, थोड़ी नींद लेता है लेकिन मालिक के प्रति बड़ा बफादार होता है। उसके रहते घर में कोई चोर घुस नहीं सकता। वह मालिक के मारने-डांटने के बाद भी उनके सामने पूँछ हिलाता रहता है, बड़ी ही कृतज्ञता ज्ञापित करता है, इसलिए कोषकारों ने अन्य किसी मनुष्य या पशु को कृतज्ञ की उपमा नहीं दी मात्र कुत्ते को ही कृतज्ञ कहा है। गुरुदेव के इस प्रसंग से हम सभी को भी यही शिक्षा लेना चाहिए कि हम भी व्यक्ति में, प्रकृति में दोष न देखकर गुणों को ही खोजा करें। और, उन गुणों को ग्रहण करें तभी हमारा जीवन महान बन सकता है। संसार में ऐसा कोई मकान नहीं है जिसमें एक न एक खिड़की या दरवाजा न हो ठीक वैसे ही संसार में ऐसा कोई व्यक्ति और पदार्थ नहीं है जिसमें एक न एक गुण न हो। बस शर्त इतनी सी है कि उसे पहचानने की दृष्टि, देखने की दृष्टि हमारे पास होनी चाहिए। ये किसने कहा कि भले में बुराई नहीं होती.. और बुरे में भलाई नहीं होती...... देखो तो चमकती हुई आग में धुआँ पैदा होता है और गंदे कीचड़ में भी कमल खिलता है.....।
  10. वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन के 8 अंगों में प्रधान अंग माना जाता है अंगों में हृदय की प्रधानता होती है वैसे ही सम्यग्दर्शन के 8 अंगों में वात्सल्य अंग प्रधान है। आचार्यों ने इसे हृदय की उपमा दी है। गाय जैसे अपने बछड़े के प्रति प्रेम करती है साधर्मियों के प्रति प्रेम रखना सो वात्सल्य माना जाता है। आचार्य गुरुदेव वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति हैं। उनके रग-रग से करुणा वात्सल्य रस टपकता है इसे बस वही जान सकता है जिसने वात्सल्य पाया हो, उनके चरण सान्निध्य में रहकर उनका करुणा पात्र बना हो। गन्ने का रस भी उन गुरुदेव के वात्सल्य रस को पीछे छोड़ देता है, गन्ने का रस तो मात्र रसना इन्द्रिय को तृप्त कर सकता है, लेकिन गुरु के वात्सल्य रस को पाने वाला जीवन भर के लिए तृप्त हो जाता है। ईयपथ भक्ति में प्रत्याख्यान लेते समय एक मुनि महाराज जी ने कहा - आचार्य श्री जी! कल छ: रसों का त्याग (छः रस - मीठा, नमक, तेल, घी, दही, दूध)। आचार्य श्री जी ने कहा-हरी सब्जी फल को भी रस ही मानना चाहिए। सभी फल-सब्जियाँ रसदार ही हुआ करती हैं। आचार्य भगवन्ने विषय को आगे बढ़ाते हुए हास्यपुट के साथ कहा कि - एक सज्जन मेरे पास आये और बोले - आचार्य श्री जी! आपका सभी रसों का त्याग है आप तो नमक, मीठा, मेवा, रस, फल, सब्जी आदि कुछ भी नहीं लेते, लेकिन आप वात्सल्य रस अवश्य ही लेते-देते हैं। आप काव्य रचना में भी श्रृंगार आदि नौ रसों का प्रयोग भी करते है....सभी लोग हँस पड़े। सच बात है यह बात किसी से भी छुपी नहीं है कि गुरुदेव अपने प्रति, साधना के प्रति कठोर वज़ के समान हैं और दूसरों के दुःख देखकर मोम की तरह पिघल जाते हैं। सम्यग्दृष्टि का यही तो लक्षण है कि वह अपने दुःख के लिए वज़ का हो जाता है और दूसरे के दुःख को देखकर नवनीत की तरह पिघल जाता है। पर दुःख कातरता ही उनका गुण होता है। इस प्रसंग से हमें भी यह शिक्षा लेनी चाहिए कि- हम भी राग-द्वेग छोड़कर आपस में वात्सल्य प्रेम के साथ जीना सीखें। क्योंकि यदि व्यवहार में आते ही वात्सल्य को नहीं अपनाया जायेगा तो व्यवहार अभिशाप सिद्ध होगा। (अतिशय क्षेत्र पनागर)
  11. आज चला चली की दुनियां में चल सम्पत्ति का महत्व ज्यादा हो गया है, अचल सम्पत्ति की ओर किसी का ध्यान नहीं है। चल सम्पत्ति रूपया पैसा, मुद्राएँ मानी जाती हैं और अचल सम्पत्ति जमीन, मकान आदि मानी जाती है। पहले मंदिर जी के नाम से अचल संपत्ति रहती थी, हजारों एकड़ जमीन मंदिर की होती थी। अब ऐसा नहीं रह गया मात्र 2-5 लाख का बैंक वैलेन्स ही मिलता है। परम पूज्य आचार्यश्री ने बताया कि पहले मंदिरों के नाम अचल सम्पत्ति हुआ करती थी। जैसे आज भी कुण्डलपुर क्षेत्र, बीनाजी क्षेत्र के नाम से अचल सम्पत्ति है। यही सम्पत्ति सही सम्पत्ति मानी जाती है इसे चोर आदि चुरा नहीं सकते। इस ओर आज समाज का ध्यान जाना चाहिये कि प्रत्येक मंदिर के नाम पर कुछ न कुछ अचल सम्पत्ति अवश्य होना चाहिए ताकि मंदिर के रख-रखाव की व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके, इससे क्षेत्र आत्मनिर्भर हो जाते हैं किसी के सामने चंदा आदि उगाने नहीं जाना पड़ेगा। (पथरिया पञ्चकल्याणक, 12 मार्च 2007)
  12. संसार में तीन प्रकार के लोग हुआ करते हैं - एक वो जो जघन्य प्रकृति के होते हैं, वे विघ्न आने के डर से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते। दूसरे मध्यम प्रकृति के होते हैं जो कार्य तो प्रारंभ कर देते हैं लेकिन विघ्न आने पर छोड़ देते हैं, पूर्ण नहीं कर पाते। तीसरे उत्तम प्रकृति के लोग होते हैं जो कार्य प्रारंभ कर देते है विघ्न आने पर भी विचलित नहीं होते कार्य पूर्ण करके ही चैन की श्वांस लेते हैं। महान पुरुषों की उत्तम प्रकृति ही हुआ करती है यह प्रकृति ही जीवन में अनुकरणीय हुआ करती है। उत्तम प्रकृति वाले व्यक्ति संकल्प के धनी हुआ करते हैं। आचार्य श्री भी संकल्प के धनी हैं वे जो सोच लेते हैं, मन में संकल्प कर लेते हैं तो उस कार्य को पूर्ण करके ही रहते हैं। चाहे कितनी ही विपत्तियों का सामना क्यों न करना पड़े। वैसे भी देखा जाये तो वे हमेशा परीषह और उपसर्गों को सहन करते रहते हैं। गर्मियों में चलाकर ऐसे स्थानों पर रुकते हैं जहाँ ज्यादा गर्मी पड़ती हो, जैसे-कुण्डलपुर। वर्षा और सर्दी के समय ऐसे स्थानों पर रुकते हैं जहाँ ज्यादा सर्दी और बारिश होती है, जैसे अमरकण्टक। यह उनकी कठोर साधना एवं संकल्प शक्ति के जीवंत उदाहरण हैं। एक बार विहार, गमनागमन की चर्चा चल रही थी तब आचार्यश्री जी ने बताया कि- हमारे साथ झल्लक श्री मणिभदसागर जी महाराज थे। राजस्थान की बात है. वैसे भी वहाँ पर गर्मी अधिक पड़ती है। महावीर जयंती के आसपास का समय था। चलने का संकल्प ले लिया, हमारी और क्षुल्लक श्री मणिभद्र जी की पैदल यात्रा लगातार 5 घण्टे चलती रही पूरा 33 कि.मी. बिना कहीं विश्राम के चलते रहे, गन्तव्य पर पहुँचकर ही सामायिक के उपरान्त ही आहारचर्या को उठे थे। आज भी हम साक्षात् देखते हैं जो वह सोच लेते हैं उसे पूर्ण करके ही रहते हैं, ऐसे ऐसे महान कार्य जिनके बारे में सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता वह कार्य उनकी उपस्थिति मात्र से निर्विघ्न सानंद संपन्न होते हैं। कुण्डलपुर के बड़े बाबाजी को नए मंदिर में स्थापित करने की बात जो कि आश्चर्यपूर्ण थी उसे भी समय आने पर सभी भारतवासियों ने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेव की उपस्थिति में बड़े बाबा पुराने मंदिर से नये मंदिर में पधार गये। इस शुभ कार्य में अनेक प्रकार की रुकावट एवं विरोध भी आये लेकिन कार्य रुका नहीं, पूर्ण होकर ही रहा। धर्म प्रेमी बंधुओं को भी धर्म के क्षेत्र में ऐसे ही संकल्पवान् बनना चाहिये। गुरु महाराज से यह शिक्षा हमें भी ग्रहण करनी चाहिए।क्योंकि धर्म हमारा प्रिय मित्र है यदि उसकी मित्रता में प्राण भी देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए।
  13. दुनियाँ में जितने भी पद हैं सभी पद दुःखास्पद हैं। अर्थात् दुःख के कारण हैं मात्र एक ही पद है वह है आत्मा का पद जो सुखास्पद है, सुख का स्थान है। सभी पद नश्वर हैं। मात्र एक मोक्षपद ही शाश्वत पद है, उसे पाने के लिए ही मुनि पद धारण किया जाता है। क्योंकि मुनि पद धारण किये बिना मोक्षपद प्राप्त नहीं किया जा सकता। आचार्य कुंदकुंद भगवान अष्ट पाहुड़ ग्रंथ में कहते हैं कि - णवि सिज्झइ वत्थ धरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो वि मोक्ख मग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ सूत्र पाहुड़ 23॥ अर्थात् - जिनशासन में ऐसा कहा है कि- वस्त्रधारी यदि तीर्थंकर भी हो तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। एक नग्न वेष ही मोक्षमार्ग है बाकी सब उन्मार्ग हैं। आचार्य पद आदि व्यवस्था के लिए योग्यतानुसार प्रदान किये जाते हैं। अंत में ये पद छोड़कर सामान्य साधु के पद पर रहकर समाधिपूर्वक देह का त्याग किया जाता है। आचार्य परमेष्ठी योग्य शिष्य को अपना आचार्य पद प्रदान कर विकल्परहित हो जाते हैं। क्योंकि, आधि-व्याधि और उपाधि से रहित होती है समाधि। या यूँ कहो विकल्पों की शून्यता का नाम समाधि है। प्रसंगानुसार हम आपका ध्यान उस ओर ले जाना चाहते हैं जो घटना नसीराबाद नगर में 22 नबम्बर सन् 1972 में घटित हुई थी। जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने अपने आचार्य पद का त्याग किया और अपने ही सुयोग्य शिष्य मुनि श्री 108 विद्यासागर जी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। अपने ही शिष्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। वह घटना कितनी अदभुत होगी, वह क्षण कितने महत्वपूर्ण होंगे जब एक गुरु अपने शिष्य को गुरु के रूप में स्वीकृत कर रहे हों - मानो लगा आज जैसे आसमान धरती को छू रहा हो, अपने मान को चूर-चूर कर रहा हो, अपने ही शिष्य का शिष्यत्व स्वीकार कर अपना गुरुतम भार शिष्य को सौंप खुद भार से रहित हो रहा हो। और आगमोक्त विधि के अनुसार अपने जीवन का उपसंहार कर रहा हो, मानो लगा आज जैसे आसमान धरती को छू रहा हो, अपने मान को चूर-चूर कर रहा हो। आचार्य पद प्रदान करने के बाद आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के चेहरे पर मुस्कान थी। वे हँस रहे थे तो दूसरी ओर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी हँस रहे थे। तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से पूँछा - आप क्यों हँस रहे हैं? तो उन्होंने कहा - जैसे आपने हँसते हँसते आचार्य पद का त्याग किया है। वैसे ही मैं भी एक दिन हँसते-हँसते इस आचार्य पद का त्याग करूगा, यह विचार कर हँस रहा हूँ। ऐसे ही विकल्प रहित उत्साह पूर्वक जीवन का उपसंहार करूंगा। इस प्रसंग से हम सभी साधु एवं श्रावकों को शिक्षा ले लेना चाहिए कि-हमें भी सभी प्रकार के पद आदि विकल्पों का त्याग कर अंत में आत्मपद में स्थिर होकर समाधिमरण पूर्वक जीवन का उपसंहार करना चाहिए। जैसे कि अमृतचंद्राचार्य महाराज समयसार कलश ग्रंथ में कहते हैं। एकमेव हि तत्त्स्वाद्यं, विपदामपदंपदम्। आपदान्येव भासन्ते, पदान्यन्यानि यत्पुरः।। अर्थात् जिस पद में आपत्तियाँ नहीं हैं उसी एक आत्मा के शुद्ध पद का स्वाद लेना चाहिए जिससे सहज सुख हो इसके सामने और सब पद अयोग्य पद दिखते हैं।
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