कल्प - वृक्ष से अर्थ क्या?
कामधेनु भी व्यर्थ।
चिन्तामणि को भूल अब,
सन्मति मिले समर्थ ।।१।।
तीर उतारो, तार दो,
त्राता! तारक वीर।
तत्त्व - तंत्र हो तथ्य हो,
देव, देवतरु धीर ।।२।।
पूज्यपाद गुरु पाद में,
प्रणाम हो सौभाग्य।
पाप ताप संताप घट,
और बढ़े वैराग्य ।।३।।
भार रहित मुझ, भारती!
कर दो सहित सुभाल।
कौन सँभाले माँ बिना,
ओ माँ! यह है बाल ।।४।।
सर्वोदय इस शतक का,
मात्र रहा उद्देश ।
देश तथा पर देश भी,
बने समुन्नत देश ।।५।।
पंक नहीं पंकज बनू,
मुक्ता बनूं न सीप।
दीप बनूं जलता रहूँ,
प्रभु-पद-पद्म-समीप ।।६।।
प्रमाण का आकार ना,
प्रमाण में आकार |
प्रकाश का आकार ना,
प्रकाश में आकार ।।७।।
एक नजर तो मोहिनी,
जिससे निखिल अशान्त।
एक नजर तो डाल दो,
प्रभु! अब सब हो शान्त ।।८।।
भास्वत मुख का दरस हो,
शाश्वत सुख की आस।
दासक-दुख का नाश हो,
पूरी है अभिलाष ।।९।।
दृष्टि मिली पर कब बनूँ
द्रष्टा सब का धाम |
सृष्टि मिली पर कब बनूँ
सृष्टा निज का राम ।।१०।।
गुण ही गुण , पर में सदा,
खोजें निज में दाग।
दाग मिटे बिन गुण कहाँ,
तामस मिटते, राग! ।।११।।
सुने वचन कटु पर कहाँ,
श्रमणों को व्यवधान।
मस्त चाल से गज चले,
रहे भोंकते श्वान ।।१२।।
मत डर, मत डर मरण से,
मरण मोक्ष - सोपान।
मत डर, मत डर चरण से,
चरण मोक्ष सुख - पान ।।१३।।
सागर का जल क्षार क्यों,
सरिता मीठी सार।
बिन श्रम संग्रह अरुचि है,
रुचिकर श्रम उपकार ।।१४।।
देख सामने चल अरे,
दीख रहे अवधूत।
पीछे मुड़कर देखता,
उसको दिखता भूत ।।१५।।
पद पंखों को साफ कर,
मक्खीं उड़ती बाद।
सर्व - संग तज ध्यान में,
डूबो तुम आबाध ।।१६।।
अँधेर कब दिनकर तले?
दिया तले वह होत।
दुखी अधूरे हम सभी,
प्रभु - पूरे सुख स्रोत ।।१७।।
यथा दुग्ध में घृत तथा,
रहता तिल में तैल।
तन में शिव है ज्ञात हो,
अनादि का यह मेल ।।१८।।
हुआ प्रकाशित मैं छुपा,
प्रभु हैं प्रकाश पुंज।
हुआ सुवासित, महकते।
तुम पद विकास कुंज ।।१९।।
निरे निरे जग - धर्म है,
निरे - निरे जग कर्म।
भले बुरे कुछ ना अरे !
हरे, भरे हो नर्म ।।२०।।
विषयों से क्यों खेलता,
देता मन का साथ।
बॉमी में क्या डालता?
भूल कभी निज - हाथ ।।२१।।
खेत, क्षेत्र में भेद इक,
फलता पुण्यापुण्य।
क्षेत्र करे सबका भला,
फलता सुख अक्षुण्ण ।।२२।।
ऐसा आता भाव हैं,
मन में बारम्बार।
पर दुख को यदि ना मिटा
सकता जीवन भार ।।२३।।
पल भर पर दुख देख भी
सकते ना जिनदेव।
तभी दृष्टि आसीन है,
नासा पर स्वयमेव ।।२४।।
सूखे परिसर देखते,
भोजन करते आप।
फिर भी खुद को समझते,
दयामूर्ति - निष्पाप ।।२५।।
हाथ देख मत देख लो,
मिला बाहुबल पूर्ण।
सदुपयोग बल का करो,
सुख पाओ संपूर्ण ।।२६।।
उगते अंकुर का दिखा,
मुख सूरज की ओर |
आत्मबोध हो तुरत ही,
मुख संयम की ओर ।।२७।।
दया रहित क्या धर्म है?
दया रहित क्या सत्य?
दया रहित जीवन नहीं,
जल बिन मीन असत्य ।।२८।।
पानी भरते देव हैं,
वैभव होता दास।
मृग मृगेन्द्र मिल बैठते,
देख दया का वास ।।२९।।
कूप बनो तालाब ना,
नहीं कूप - मंडूक।
बरसाती मेंढक नहीं,
बरसो घन बन मूक ।।३०।।
अग्रभाग पर लोक के,
जा रहते नित सिद्ध।
जल में ना, जल पर रहे,
घृत तो ज्ञात प्रसिद्ध ।।३१।।
साधं गृही सम ना रहे,
स्वाश्रित - भाव समृद्ध।
बालक - सम ना नाचते,
मोदक खाते वृद्ध ।।३२।।
तत्व दृष्टि तज बुध नहीं,
जाते जड़ की ओर।
सौरभ तज मल पर दिखा,
भ्रमर भ्रमित कब और ? ।।३३।।
दया धर्म के कथन से,
पूज्य बने ये छन्द।
पापी तजते पाप हैं,
दृग पा जाते अन्ध ।।३४।।
सिद्ध बने बिन शुद्ध का,
कभी न अनुभव होय।
दुग्ध पान से स्वाद क्या,
घृत का सम्भव होय? ।।३५।।
स्वर्ण बने वह कोयला,
और कोयला स्वर्ण।
पाप पुण्य का खेल है,
आतम में ना वर्ण ।।३६।।
सब में वह ना योग्यता,
मिले न सब को मोक्ष।
बीज सीझते सब कहाँ,
जैसे टर्रा मोट ।।३७।।
सब गुण मिलना चाहते,
अन्धकार का नाश।
मुक्ति स्वयं आ उतरती,
देख, दया का वास ।।३८।।
व्यर्थ नहीं वह साधना,
जिस में नहीं अनर्थ।
भले मोक्ष हो देर से,
दूर रहे अघ - गर्त ।।३९।।
जिलेबियाँ ज्यों चासनी,
में सनती आमूल।
दयाधर्म में तुम सनों,
नहीं पाप में भूल ||४०||
संग्रह पर का तब बने,
जब हो मूर्च्छा-भाव।
प्रभाव शनि का क्यों पड़े?
मुनि में मोहाभाव ||४१।।
किस किस का कर्ता बनूँ,
किस किस का मैं कार्य।
किस किस का कारण बनूँ,
यह सब क्यों कर आर्य? ।।४२।।
पर का कर्ता मैं नहीं,
मैं क्यों पर का कार्य।
कर्ता कारण कार्य हूँ,
मैं निज का अनिवार्य ।।४३।।
लघु-कंकर.भी डूबता,
तिरे काष्ठ भी स्थूल।
"क्यों" मत पूछो, तर्क से
स्वभाव रहता दूर ।।४४।।
फूल फलों से ज्यों लदे,
घनी छाँव के वृक्ष।
शरणागत को शरण दे,
श्रमणों के अध्यक्ष ।।४५।।
थकता, रुकता कब कहाँ,
ध्रुव में नदी प्रवाह।
आह वाह परवाह बिन,
चले सूरि-शिव राह ।।४३।।
बूँद बूँद के मिलन से,
जल में गति आ जाय।
सरिता बन सागर मिले,
सागर बूँद समाय ।।४७।।
कंचन - पावन आज पर,
कल खानों में वास।
सुनो अपावन चिर रहा,
हम सब का इतिहास ।।४८।।
किस किस को रवि देखता,
पूँछे जग के लोग।
जब जब देखूँ देखता,
रवि तो मेरी ओर ।।४९।।
सत्कार्यों का कार्य हैं,
शांति मिले सत्कार।
दुष्कार्यों का कार्य है,
दुस्सह दुख दुत्कार ।।५०।।
बनो तपस्वी तप करो,
करो न ढीला शील।
भू-नभ-मण्डल जब तपे,
बरसे मेघा नीर ।।५१।।
घुट घुट कर क्यों जी रहा,
लुट लुट कर क्यों दीन।
अन्तर्घट में हो जरा,
सिमट सिमट कर लीन ।।५२।।
बाहर श्रीफल कठिन ज्यों,
भीतर से नवनीत।
जिन - शासक आचार्य को,
विनमूँ नमूँ विनीत ।।५३।।
सन्त पुरुष से राग भी,
शीघ्र मिटाता पाप।
उष्ण नीर भी आग को,
क्या न बुझाता आप ? ।।५४।।
ओर छोर शुरुआत ना,
घनी अँधेरी रात।
विषयों की बरसात हैं,
युगों युगों की बात ।।५५।।
गात्र प्राप्त था गात्र है,
आत्म-गात्र ना प्राप्त।
आत्मबोध क्यों ज्ञात हो,
युगों युगों की बात ।।५६।।
क्या था क्या हूँ क्या बनूँ?
रे मन ! अब तो सोच।
वरना मरना वरण कर,
बार बार अफसोस ।।५७।।
माना मनमाना करे,
मन का धर्म गरूर।
मान-तुंग के स्मरण से,
मानतुंग हो चूर ।।५८।।
संग रहित बस ! अंग है,
यथाजात शिशु ढंग।
श्रमंण जिन्हें मम नमन हो,
मानस में न तरंग ।।५९।।
अंत किसी का कब हुआ?
अनंत सब हे सन्त
पर ! सब मिटता सा लगे,
पतझड़ पुनः बसन्त ।।६०।।
क्रूर भयानक सिंह भी,
फना उठाते नाग।
तीर्थ जहाँ पर शान्त हो,
लपटों वाली आग ।।६१।।
बिना मूल के चूल ना,
चूल बिना फल फूल।
रे! बिन विधि अनुकूल ये,
सभी धूल मत भूल ।।६२।।
प्रभु दर्शन फिर गुरु कृपा,
तदनुसार पुरुषार्थ।
दुर्लभ जग में तीन ये,
मिले सार परमार्थ ।।६३।।
सब कुछ लखते पर नहीं,
प्रभु में हास-विलास।
दर्पण रोया कब हँसा?
कैसा यह संन्यास? ।।६४।।
बादल दलदल यदि करे
दलदल धोवन - हार।
और कौन सा दल रहा?
धरती पर दिलदार ।।६५।।
तरंग कम से चल रही,
पल पल प्रति पर्याय।
ध्रुव पदार्थ में पूर्व का,
व्यय होता, फिर आय ! ।।६६।।
रहस्य खुलता आप जब,
सहज मिटे संघर्ष।
वस्तु-धर्म के दरस से,
विषाद क्यों हो हर्ष ? ।।६७।।
आस्था का बस विषय हैं,
शिव-पथ सदा अमूर्त ।
वायु यान पथ कब दिखा,
शेष सभी पथ मूर्त ।।६८।।
किये जा रहे जोश से,
विश्व शान्ति की घोष।
दोषों के तो कोष हैं।
कहाँ किसे है होश? ।।६९।।
सुना, सुनाता तुम सुनो,
सोना “सो” ना प्राण।
प्राण जगााते झट जगो,
प्राणों का हो त्राण ।।७०।।
सब को मिलता कब कहाँ?
अपार श्रुत का पार।
पर ! श्रुत पूजन से मिले,
अपार भवदधि पार ।।७१।।
उपादान की योग्यता,
निमित्त की भी छाप।
स्फटिक मणी में लालिमा
गुलाब बिन ना आप ।।७२।।
पाप त्याग के बाद भी,
स्वल्प रहे संस्कार।
झालर बजना बन्द हो,
किन्तु रहे झंकार ।।७३।।
राम रहे अविराम निज -
में रमते अभिराम।
राम नाम लेता रहूँ,
प्रणाम आठों याम ।।७४।।
चन्दन घिसता चाहता,
मात्र गन्ध का दान।
फल की बांछा कब करें,
मुनिजन जनकल्याण ।।७५।।
धर्म - ध्यान ना, शुक्ल से,
मोक्ष मिले आखीर।
जितना गहरा कूप हो,
उतना मीठा नीर ।।७६।।
आकुल व्याकुल कुल रहा,
मानव संकुल कूल।
मिला न अब तक क्यों मिले,
प्रतीति जब प्रतिकूल ।।७७।।
खून ज्ञान, नाखून से,
खून रहित नाखून।
चेतन का संधान तन,
तन चेतन से न्यून ।।७८।।
आत्मबोध घर में तनक,
रागादिक से पूर।
कम प्रकाश अति धूम्र ले,
जलता अरे कपूर ।।७९।।
लंगड़ा भी सुरगिरि चढ़े,
चील उड़े इक पांख।
जले दीप, बिन तेल ना,
ना घर में अक्षय आँख ।।८०।।
लगाम अंकुश बिन नहीं,
हय, गय देते साथ।
व्रत श्रुत बिन मन कब चले,
विनम्र कर के माथ ।।८१।।
भटकी अटकी कब नदी?
लौटी कब अधबीच?
रे मन! तू क्यों भटकता?
अटका क्यों अघकीच? ।।८२।।
भले कूर्मगति से चलो,
चलो कि ध्रुव की ओर।
किन्तु कूर्म के धर्म को,
पालो पल पल और ।।८३।।
भक्त लीन जब ईश में,
यूँ कहते ऋषि लोग।
मणि - कांचन का योग ना,
मणि-प्रवाल का योग ।।८४।।
खुला खिला हो कमल वह,
जब लौं जल संपर्क।
छूटा सूखा धर्म बिन,
नर पशु में ना फर्क ।।८५।।
मन्द मन्द मुस्कान ले,
मानस हंसा होय।
अंश अंश प्रति अंश में,
मुनिवर हंसा मोय ।।८६।।
गोमाता के दुग्घसम,
भारत का साहित्य।
शेष देश के क्या कहें,
कहने में लालित्य ।।८७।।
उन्नत बनने नत बनो,
लघु से राघव होय।
कर्ण बिना भी धर्म से,
विजयी पाण्डव होय ।।८८।।
पुन भस्म पारा बने,
मिले खटाई योग।
बनो सिद्ध पर-मोह तज,
करो शुद्ध उपयोग ।।८६।।
माध्यस्था हो नासिका,
प्रमाणिका नय आँख।
पूरक आपस में रहे,
कलह मिटे अघ-पाक ।।९०।।
तन की गरमी तो मिटे,
मन की भी मिट जाय।
तीर्थ जहाँ पर उभय - सुख,
अमिट अमित मिल जाय ।।९१।।
अनल सलिल हो विष सुधा,
व्याल - माल बन जाय।
दया मूर्ति के दरस से,
“क्या का क्या” बन जाय ।।९२।।
सुचिर काल से हो रहा,
तन का करता राग।
ऊषा सम नर जन्म है,
जाग सके तो जाग ।।९३।।
पूर्ण पुण्य का बन्ध हो,
पाप - मूल मिट जात।
दलदल पल में सब धुले,
भारी हो बरसात ।।९४।।
कुछ पर - पीड़ा दूर कर,
कुछ पर को दे पीर।
सुख पाना जन (जब) चाहते,
तरह तरह तासीर ।।९५।।
दुर्जन से जब भेंट हो,
सज्जन की पहचान।
ग्रहण लगे जब भानु को
तभी राहु का भान ।।९६।।
तीरथ जिसमें अघ घुले,
मिलता भव का तीर।
कीरत जग भर में घुले,
मिटती भव की पीर ।।९७।।
सत्य कार्य, कारण सही,
रही अहिंसा-मात।
फल का कारण फूल हैं,
फूल बचाओ भ्रात! ।।९८।।
अर्कतूल का पतन हो,
जल - कण का पा संग।
कण या मन के संग से,
रहे न मुनि पासंग ।।९९।।
जिसके उर में प्रभु लसे,
क्यों न तजे जड़ राग।
चन्द्र मिले फिर ना करें,
चकवा, चकवी त्याग ? ।।१००।।
स्थल एवं समय-संकेत
उदय नर्मदा का जहाँ,
आम्र-कूट की मोर।
सर्वोदय का शतक का,
उदय हुआ है भोर ।।१०१।।
गगन-गन्ध-गति-गोत्र की,
अक्षय तृतिया पर्व,
पूर्ण हुआ शुभ सुखद है,
पढ़े सुने हम सर्व ।।१०२।।
- 1
- 1