वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन के 8 अंगों में प्रधान अंग माना जाता है अंगों में हृदय की प्रधानता होती है वैसे ही सम्यग्दर्शन के 8 अंगों में वात्सल्य अंग प्रधान है। आचार्यों ने इसे हृदय की उपमा दी है। गाय जैसे अपने बछड़े के प्रति प्रेम करती है साधर्मियों के प्रति प्रेम रखना सो वात्सल्य माना जाता है।
आचार्य गुरुदेव वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति हैं। उनके रग-रग से करुणा वात्सल्य रस टपकता है इसे बस वही जान सकता है जिसने वात्सल्य पाया हो, उनके चरण सान्निध्य में रहकर उनका करुणा पात्र बना हो। गन्ने का रस भी उन गुरुदेव के वात्सल्य रस को पीछे छोड़ देता है, गन्ने का रस तो मात्र रसना इन्द्रिय को तृप्त कर सकता है, लेकिन गुरु के वात्सल्य रस को पाने वाला जीवन भर के लिए तृप्त हो जाता है।
ईयपथ भक्ति में प्रत्याख्यान लेते समय एक मुनि महाराज जी ने कहा - आचार्य श्री जी! कल छ: रसों का त्याग (छः रस - मीठा, नमक, तेल, घी, दही, दूध)। आचार्य श्री जी ने कहा-हरी सब्जी फल को भी रस ही मानना चाहिए। सभी फल-सब्जियाँ रसदार ही हुआ करती हैं। आचार्य भगवन्ने विषय को आगे बढ़ाते हुए हास्यपुट के साथ कहा कि - एक सज्जन मेरे पास आये और बोले - आचार्य श्री जी! आपका सभी रसों का त्याग है आप तो नमक, मीठा, मेवा, रस, फल, सब्जी आदि कुछ भी नहीं लेते, लेकिन आप वात्सल्य रस अवश्य ही लेते-देते हैं। आप काव्य रचना में भी श्रृंगार आदि नौ रसों का प्रयोग भी करते है....सभी लोग हँस पड़े। सच बात है यह बात किसी से भी छुपी नहीं है कि गुरुदेव अपने प्रति, साधना के प्रति कठोर वज़ के समान हैं और दूसरों के दुःख देखकर मोम की तरह पिघल जाते हैं। सम्यग्दृष्टि का यही तो लक्षण है कि वह अपने दुःख के लिए वज़ का हो जाता है और दूसरे के दुःख को देखकर नवनीत की तरह पिघल जाता है। पर दुःख कातरता ही उनका गुण होता है।
इस प्रसंग से हमें भी यह शिक्षा लेनी चाहिए कि- हम भी राग-द्वेग छोड़कर आपस में वात्सल्य प्रेम के साथ जीना सीखें। क्योंकि यदि व्यवहार में आते ही वात्सल्य को नहीं अपनाया जायेगा तो व्यवहार अभिशाप सिद्ध होगा।
(अतिशय क्षेत्र पनागर)