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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. एक गाँव से विहार करते हुए चले जा रहे थे। मेरा अंतराय होने की वजह से मैं धीरे-धीरे चल रहा था। तभी पीछे से आचार्य महाराज एवं कुछ महाराज जी आ गये, मुझे हाथ का सहारा देते हुए कहते हैं क्यों कैसी है गाड़ी। मैंने कहा - आपका हाथ लगते ही ठीक हो गयी बैटरी चार्ज हो गयी। आचार्य श्री ने पूँछा (हँसकर) फिर भी कैसी है, तो मैंने कहा कम्पनी तो वही है (आपकी) भले लूना है। तो आचार्य श्री जी ने कहा- वह भी मैंने सोच समझ कर दी है। तब मैंने हाथ जोड़कर कहा - चला भी तो रहा हूँ बिना पेट्रोल के और पंचर भी है (अंतराय भी था और पैर में छाले भी)। हम तो आपकी गाड़ी को देखकर चलते रहते हैं। क्योंकि आचार्य श्री आपकी गाड़ी तो गेटर पर चल रही है। आचार्य श्री ने कहा - हाँ, आप लोगों के तो ट्यूब टायर नये हैं। हमने कहा - इसके अलावा एक और आश्चर्य की बात है कि इस ट्यूब में आपकी हवा भरी हुई है..... सभी लोग हँस पड़े। यह संवाद उनके वात्सल्य का प्रतीक है इतने महान शुद्धोपयोगी गुरु भी अपने शिष्यों पर गौ वच्छ समान वात्सल्य रखते हैं। उनकी असीम कृपा ही है जो मुझे यहाँ तक ले आयी। इसे मात्र अनुभव किया जा सकता है। सीमित शब्दों के द्वारा अभिव्यक्ति करण नहीं किया जा सकता।
  2. पहले आज के युग के समान भौतिक साधनों का अभाव था, यातायात के साधन एवं सड़कें भी सही ढंग से उपलब्ध नहीं थीं। आज विज्ञान की देन है जो इतने सब भौतिक साधन उपलब्ध हो गये। जैसे - मोबाइल, घड़ियाँ, कम्प्यूटर आदि। लेकिन, इन भौतिक सुविधाओं का उपयोग सावधानी पूर्वक न किया गया तो ये दुविधा ही उत्पन्न करेंगी। सुख का नहीं दुःख का ही हेतु सिद्ध होंगी और वर्तमान में यह देखने को भी मिल रहा है। एक दिन शाम को वैयावृत्ति के समय गुरुदेव के चरणों में बैठकर आधुनिक युग के भौतिक साधनों की चर्चा कर रहे थे। मैंने कहा-गुरुदेव ! आज ऐसे-ऐसे यंत्र आ गये हैं कि घर बैठे ही सब कुछ देख, सुन सकते हैं। यंत्रों से ही देश-विदेश की सारी गतिविधियाँ जान सकते हैं। तभी एक महाराज जी ने कहा - आचार्य श्री! हमने कभी अमृतधारा नहीं देखी थी संघ में आकर ही श्रावकों के पास देखी है। दूसरे महाराज जी ने कहा - हमने मध्यम क्वालिटी का घड़ी का सेल कभी नहीं देखा था। सब अपनी-अपनी बात बता रहे थे ताकि आचार्य महाराज के बचपन की बातें सुनने को मिल सकें इतने में आचार्य गुरुदेव ने कहा - हमने भी कभी डामर की पक्की सड़क नहीं देखी थी। पिकनिक के लिए सदलगा से चिक्कोडी तालुका जा रहे थे तो बैलगाड़ियों से उतरकर उस पक्की चिकनी सड़क को हाथ से स्पर्श करके देखते थे और फिर स्तवनिधि क्षेत्र के दर्शन करने गये तो वहाँ पर बैंगलोर पूना हाइवे पर अच्छी बसें चलती थीं तो उनको बस हम लोग देखते ही रह जाते थे........ सभी लोग हँसने लगे। ये हैं गुरुदेव की बचपन की यादें।
  3. मोहनीय एक ऐसा कर्म है जिसे कर्मों का राजा कहा जाता है। संसारी प्राणी अनादिकाल से इस मोह रूपी राजा के वश में होकर नाना क्रियाएँ करता रहता है। इसे जीत पाना सरल काम नहीं है। मोह को मदिरा की उपमा भी दी गयी है। जैसे कोई व्यक्ति शराब पी लेता है तो अपना विवेक खो बैठता है। कुछ का कुछ उसे दिखाई देने लगता है, कुछ का कुछ बोलने लगता है। अनर्गल चेष्टाएँ करने लगता है ठीक उसी प्रकार मोही प्राणी वस्तु स्वरूप को ठीक-ठीक नहीं जान पाता। इसलिए पर-पदार्थ को अपना मानकर उसके संयोग में सुखी और वियोग में दुःखी होता रहता है वह संसार में कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता। किसी सज्जन ने आचार्यश्री से पूँछा कि- हम बहुत कोशिश करते हैं महाराज लेकिन यह मोह छूटता क्यों नहीं? तब आचार्य भगवन्त ने कहा - ये मोह आपके घर में कब से है ? सुनो ! जब से आप हो, तब से है। मोह कहता है मुझे घर से बाहर कैसे निकाल सकते हो। जब 40 साल तक आपके घर में रहने वाला किरायेदार मालिक जैसा बन जाता है बारबार कहने पर भी मकान खाली नहीं करता, फिर अनादिकाल से जो तुम्हारे घर में रहने वाला मोह है वह एक बार कहने से थोड़े ही बाहर निकल जावेगा। आपको उसे निकालने के लिए बार-बार प्रयास करना पड़ेगा। तभी वह थोड़ा बहुत हिलेगा। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि- हमें हमेशा मोह को कम करने का प्रयास करते रहना चाहिए वरना हम गुलामी की जंजीरों से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। यदि इस संसार से पार होना है तो मोह को कम करना ही होगा। मोह के महल से निकलना बहुत कठिन है जो इस महल से निकल वन में चले गये उन्हें मेरा नमन् है।
  4. सात्विक जीवन अपने आप में महत्वपूर्ण जीवन माना जाता है। चक्रवर्ती भी आष्टाह्निका पर्व में सात्विकता से रहते हैं वैसे भी सम्यग्दृष्टि जीव का जीवन सात्विक ही होता है। जीवन में धन भी कमाओ तो सात्विक ही, क्योंकि सात्विक धन ही सही धन माना जाता है। व्यापार भी सात्विक ही होना चाहिए जिसमें ज्यादा हिंसा न हो। जिसमें संकल्पी हिंसा का दोष लगता हो या जिस धंधे में संकल्पी हिंसा होती हो ऐसे धंधे का, धन का त्याग कर देना चाहिए, कभी भी उसे अपनाना नहीं चाहिए। सात्विक धन से ही जीवन में सात्विक संस्कार आ सकते हैं क्योंकि जो धन जिस प्रक्रिया से आता है वह उसी प्रक्रिया से खर्च भी हो जाता है। इसलिए धन कमाने से पहले उसके सदुपयोग की बात सोच लेना चाहिए। धनवान बनने से पहले ये सोचिये कि आखिर धन क्या है ? परिग्रह पाप है तो क्या आप पापवान/पापी होना/बनना चाहेंगे? नहीं, तो सुनिये :- आचार्य गुरुदेव ने आत्मानुशासन ग्रंथ की 29 वीं गाथा (बीना बारहा चातुर्मास में) का व्याख्यान करते हुए कहा - जो आप लोग अपने धन को बैंक में जमा करते हो, वह धन बैंक से मांस निर्यात/उत्पादन और नशीले पदार्थों के उत्पादन के लिए जा रहा है, इसके बारे में आप लोग कुछ विचार कीजिए। वरना पाप में लगा हुआ धन अनर्थ का कारण बनता है इसमें आप लोग भी दोषी माने जायेंगे। यदि इस दोष से बचना चाहते हो और सात्विक धन का सात्विक कार्य में उपयोग करना चाहते हो तो अपनी समाज की एक बैंक खोलिये और इसका नियम होना चाहिए कि इसका पैसा मात्र सात्विक कार्यों में ही उपयोग किया जावेगा। उस बैंक का नाम आप अहिंसा बैंक रख सकते हैं। इसके माध्यम से धन के दुरुपयोग से बच सकते हो। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 2005)
  5. एक दिन मोह के विषय में चर्चा चल रही थी। गुरुदेव ने कहा - मोहमार्ग और मोक्षमार्ग दोनों आपस में विपरीत मार्ग हैं। मोक्षमार्ग में मोह का कहीं भी स्थान नहीं है। इसे शराब की उपमा दी गई है। जैसे आप लोग शराब पीने से बचते हो, शराबी की संगति से भी बचते हो वैसे ही मोक्षमार्ग के साधक को मोह करने से बचना चाहिए और मोही प्राणियों से भी दूर रहना चाहिए। यह संसार समुद्र है इसमें तैरने वाले ज्ञानी पुरुष को मोह रूपी मगरमच्छ के जबाड़ (मुख) में जाने से बचना चाहिए। यह प्रौढ़ साधना मानी जाती है। यात्रा करने वाले यात्री को मार्ग में अटकना नहीं चाहिए बल्कि दुनियाँ को एक नाटक समझ कर आगे मंजिल की ओर कदम बढ़ाते रहना चाहिए तभी यात्रा सानंद, समय पर पूर्ण होगी। संसार में किसी से रिश्ता मत बनाओ क्योंकि बिना मोह के रिसे यह रिश्ता चलता ही नहीं है। संसार वृक्ष सूखती हैं पत्तियाँ, टहनियाँ फिर, तना भी सूख जाता है जड़े फिर भी सलामत हैं.... न जाने स्रोत कहाँ से हैं। जो जड़े गहराई में जाकर सोख लेती हैं। अपने में उस पानी को विषयों के रस को कि कभी तो सुख का सावन आवेगा इस जहाँ में इस आशा से ये जड़े फिर भी सलामत हैं....
  6. चरण, शरण, आचरण ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। वैसे इन पर चिंतन किया जाये और अमल किया जाये तो मरण सार्थक हो सकता है। चरण हर किसी के पूज्य नहीं होते, निर्दोष आचरण से चरण पूज्य हो जाते हैं और उन पूज्य चरणों से आचरण का संकेत मिलता है। सम्यग्दृष्टि जीव गुरु के चरण छूता है, उनकी शरण में रहता है एवं उनके आचरणों को भी स्वीकार करता है। क्योंकि, गुरु के चरण सान्निध्य में वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है जो जीवन में प्राप्तव्य होता है। गुरु चरण, गुणों की खान हुआ करते हैं। एक बार एक सज्जन गुरुदेव से बोले कि - मैं आपके चरण छू सकता हूँ। तो आचार्य भगवन् मुस्कुरा कर बोले - चरण ही क्यों तुम तो आचरण भी छू सकते हो। वह सज्जन यह सुनकर गुरुदेव की ओर एकटक देखते ही रह गये मानो गुरुदेव ने उसे सब कुछ दे दिया हो। सच है - गुरु चरणों से संकेत मिलता आचरण का गुरु, चरण छूने से नहीं बल्कि आचरण छूने से खुश होते हैं और हमेशा जीवन में सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। कभी-कभी विनोद भाव से कही गयी बात भी हमारे जीवन को बदल देती है और साधन से साध्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है। इन गुरु की कृपा का हम वर्णन नहीं कर सकते जो जीवन भर जिनवाणी का अध्ययन करते और कराते हैं। आचरण का पालन स्वयंकरते हैं और दूसरों को कराते हैं। गुरु-चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास। अक्षय-सुख के विषय में, संशय का हो नाश।।
  7. सुबह-सुबह की बात है। उन्हें ऊपर पर्वत की ओर जाते हुए देखा, मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। शौच क्रिया से निवृत्त होकर प्रतिदिन की भांति आज भी वे बड़े बाबा की चरण वन्दना करने लगे। उनके पास में ही मैं भी खड़ा होकर वन्दना करने लगा। ऐसा लग रहा था मानो आज दो ईश्वरों का मिलन देख रहा हूँ लेकिन उस ईश्वर के प्रति अदभुत भक्ति देखकर मन ही मन प्रफुल्लित हो उठा। थोड़ी देर बाद देखा, गुरुदेव बड़े बाबा के चरणों की वंदना कर वहीं बैठ गये। हम लोगों को लगा शायद गरुदेव अभी नीचे ज्ञान-साधना केन्द्र में जाकर बैठेगे, लेकिन आज वहीं बड़े बाबा के चरणों में बैठ गये और हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से बोले - प्रभु पदों में पहले बैठ तो लूँ फिर बनूंगा। अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ऐसा लग रहा था जैसे वे उपदेश दे रहे हों कि भक्त बने बिना भगवान नहीं बना जा सकता। यदि भगवान बनना है तो भगवान के चरणों में आकर बैठो, उनकी भक्ति आराधना करो यही प्रथम रास्ता है - 'प्रभु' बनने का। बात देखने में छोटी-सी लगती है लेकिन यदि गुरुदेव की बात को गहराई से सोचा जाये तो मालूम पड़ता है इसमें कितना रहस्य भरा हुआ है। आखिर हैं तो बड़े महाराज की बात, उसमें बहुत बड़ा राज तो छुपा ही होगा। आज कुछ लोग भक्त नहीं भगवान बनेंगे, ऐसी धारणा बनाकर बैठे हैं। लेकिन, ध्यान रखना भक्त बने बिना आज तक कोई भगवान नहीं बना, और न ही बन सकता है। भक्त लीन जब ईश में, यूँ कहते ऋषि लोग। मणि-कांचन का योग ना, मणि-प्रवाल का योग।। (कुण्डलपुर)
  8. जिस व्यक्ति का शरीर दुर्बल है लेकिन मन मजबूत है वह मोक्षमार्ग पर बढ़ सकता है लेकिन, जिसका मन दुर्बल हो और तन तगड़ा भी हो तो वह मोक्षमार्ग पर नहीं बढ़ सकता। क्योंकि, किसी ने कहा भी है - मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। "मन एव मनुष्याणांकारणंबन्ध मोक्षयोः" अर्थात् मनुष्य का मन ही संसार के बंधन का एवं मन ही मोक्ष का कारण है। आचार्य श्री जी ने मोक्षमार्ग की चर्चा करते हुए कहा कि - मानसिकता ही है जो मोक्षमार्ग में प्रधान है। यूँ कहो कि मानसिकता ही मोक्षमार्ग में प्राण है। तब पास में ही बैठे पंडित जी ने कहा - आचार्य श्री जी! यदि मन चाहता हो मोक्षमार्ग पर बढ़े लेकिन शरीर साथ नहीं देता हो तो क्या करें? चुपचाप आचार्यश्री ने इस बात को सुना और मुस्कुरा कर बोले सुनो पंडित जी, आत्मा के पास अनंत शक्ति है। वह अनंत शक्ति कब काम में आवेगी, उसका विश्वास के साथ उद्घाटन करो। शरीर तो आराम चाहता है उसे ज्यादा आराम मत दो। थोड़ा उसे पड़ोसी बनाकर तो देखो तब आत्मा का आनंद प्राप्त कर सकोगे। जो पर है, उसे पड़ोसी कहा जाता है। परः + असि = परोऽसि। इसलिए शरीर पर द्रव्य है उसे पड़ोसी समझोगे तभी आत्म घर की रक्षा कर सकते हो वरना उसी की रक्षा में जीवन गुजर जावेगा, हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। सच है गुरुदेव हमेशा आत्मा में जागृति रखते हैं एवं औरों को भी आत्मजागृति की प्रेरणा देते हैं। हमें भी गुरुदेव के इस प्रेरक प्रसंग से शिक्षा लेना चाहिए कि हम भी कुछ क्षणों के लिए शरीर को पड़ोसी बनाकर आत्म ध्यान करें। संयम का पालन करें। शरीर से ममत्व भाव त्यागें।
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