संसार में तीन प्रकार के लोग हुआ करते हैं - एक वो जो जघन्य प्रकृति के होते हैं, वे विघ्न आने के डर से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते। दूसरे मध्यम प्रकृति के होते हैं जो कार्य तो प्रारंभ कर देते हैं लेकिन विघ्न आने पर छोड़ देते हैं, पूर्ण नहीं कर पाते। तीसरे उत्तम प्रकृति के लोग होते हैं जो कार्य प्रारंभ कर देते है विघ्न आने पर भी विचलित नहीं होते कार्य पूर्ण करके ही चैन की श्वांस लेते हैं। महान पुरुषों की उत्तम प्रकृति ही हुआ करती है यह प्रकृति ही जीवन में अनुकरणीय हुआ करती है। उत्तम प्रकृति वाले व्यक्ति संकल्प के धनी हुआ करते हैं।
आचार्य श्री भी संकल्प के धनी हैं वे जो सोच लेते हैं, मन में संकल्प कर लेते हैं तो उस कार्य को पूर्ण करके ही रहते हैं। चाहे कितनी ही विपत्तियों का सामना क्यों न करना पड़े। वैसे भी देखा जाये तो वे हमेशा परीषह और उपसर्गों को सहन करते रहते हैं। गर्मियों में चलाकर ऐसे स्थानों पर रुकते हैं जहाँ ज्यादा गर्मी पड़ती हो, जैसे-कुण्डलपुर। वर्षा और सर्दी के समय ऐसे स्थानों पर रुकते हैं जहाँ ज्यादा सर्दी और बारिश होती है, जैसे अमरकण्टक। यह उनकी कठोर साधना एवं संकल्प शक्ति के जीवंत उदाहरण हैं।
एक बार विहार, गमनागमन की चर्चा चल रही थी तब आचार्यश्री जी ने बताया कि- हमारे साथ झल्लक श्री मणिभदसागर जी महाराज थे। राजस्थान की बात है. वैसे भी वहाँ पर गर्मी अधिक पड़ती है। महावीर जयंती के आसपास का समय था। चलने का संकल्प ले लिया, हमारी और क्षुल्लक श्री मणिभद्र जी की पैदल यात्रा लगातार 5 घण्टे चलती रही पूरा 33 कि.मी. बिना कहीं विश्राम के चलते रहे, गन्तव्य पर पहुँचकर ही सामायिक के उपरान्त ही आहारचर्या को उठे थे।
आज भी हम साक्षात् देखते हैं जो वह सोच लेते हैं उसे पूर्ण करके ही रहते हैं, ऐसे ऐसे महान कार्य जिनके बारे में सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता वह कार्य उनकी उपस्थिति मात्र से निर्विघ्न सानंद संपन्न होते हैं। कुण्डलपुर के बड़े बाबाजी को नए मंदिर में स्थापित करने की बात जो कि आश्चर्यपूर्ण थी उसे भी समय आने पर सभी भारतवासियों ने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेव की उपस्थिति में बड़े बाबा पुराने मंदिर से नये मंदिर में पधार गये। इस शुभ कार्य में अनेक प्रकार की रुकावट एवं विरोध भी आये लेकिन कार्य रुका नहीं, पूर्ण होकर ही रहा।
धर्म प्रेमी बंधुओं को भी धर्म के क्षेत्र में ऐसे ही संकल्पवान् बनना चाहिये। गुरु महाराज से यह शिक्षा हमें भी ग्रहण करनी चाहिए।क्योंकि धर्म हमारा प्रिय मित्र है यदि उसकी मित्रता में प्राण भी देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए।