दुनियाँ में जितने भी पद हैं सभी पद दुःखास्पद हैं। अर्थात् दुःख के कारण हैं मात्र एक ही पद है वह है आत्मा का पद जो सुखास्पद है, सुख का स्थान है। सभी पद नश्वर हैं। मात्र एक मोक्षपद ही शाश्वत पद है, उसे पाने के लिए ही मुनि पद धारण किया जाता है। क्योंकि मुनि पद धारण किये बिना मोक्षपद प्राप्त नहीं किया जा सकता।
आचार्य कुंदकुंद भगवान अष्ट पाहुड़ ग्रंथ में कहते हैं कि -
णवि सिज्झइ वत्थ धरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो वि मोक्ख मग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ सूत्र पाहुड़ 23॥
अर्थात् - जिनशासन में ऐसा कहा है कि- वस्त्रधारी यदि तीर्थंकर भी हो तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। एक नग्न वेष ही मोक्षमार्ग है बाकी सब उन्मार्ग हैं। आचार्य पद आदि व्यवस्था के लिए योग्यतानुसार प्रदान किये जाते हैं। अंत में ये पद छोड़कर सामान्य साधु के पद पर रहकर समाधिपूर्वक देह का त्याग किया जाता है। आचार्य परमेष्ठी योग्य शिष्य को अपना आचार्य पद प्रदान कर विकल्परहित हो जाते हैं। क्योंकि, आधि-व्याधि और उपाधि से रहित होती है समाधि। या यूँ कहो विकल्पों की शून्यता का नाम समाधि है।
प्रसंगानुसार हम आपका ध्यान उस ओर ले जाना चाहते हैं जो घटना नसीराबाद नगर में 22 नबम्बर सन् 1972 में घटित हुई थी। जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने अपने आचार्य पद का त्याग किया और अपने ही सुयोग्य शिष्य मुनि श्री 108 विद्यासागर जी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। अपने ही शिष्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। वह घटना कितनी अदभुत होगी, वह क्षण कितने महत्वपूर्ण होंगे जब एक गुरु अपने शिष्य को गुरु के रूप में स्वीकृत कर रहे हों -
मानो लगा आज जैसे
आसमान धरती को छू रहा हो,
अपने मान को चूर-चूर कर रहा हो,
अपने ही शिष्य का शिष्यत्व स्वीकार कर
अपना गुरुतम भार
शिष्य को सौंप
खुद भार से रहित हो रहा हो।
और आगमोक्त विधि के अनुसार
अपने जीवन का उपसंहार कर रहा हो,
मानो लगा आज जैसे
आसमान धरती को छू रहा हो,
अपने मान को चूर-चूर कर रहा हो।
आचार्य पद प्रदान करने के बाद आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के चेहरे पर मुस्कान थी। वे हँस रहे थे तो दूसरी ओर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी हँस रहे थे। तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से पूँछा - आप क्यों हँस रहे हैं? तो उन्होंने कहा - जैसे आपने हँसते हँसते आचार्य पद का त्याग किया है। वैसे ही मैं भी एक दिन हँसते-हँसते इस आचार्य पद का त्याग करूगा, यह विचार कर हँस रहा हूँ।
ऐसे ही विकल्प रहित उत्साह पूर्वक जीवन का उपसंहार करूंगा। इस प्रसंग से हम सभी साधु एवं श्रावकों को शिक्षा ले लेना चाहिए कि-हमें भी सभी प्रकार के पद आदि विकल्पों का त्याग कर अंत में आत्मपद में स्थिर होकर समाधिमरण पूर्वक जीवन का उपसंहार करना चाहिए। जैसे कि अमृतचंद्राचार्य महाराज समयसार कलश ग्रंथ में कहते हैं।
एकमेव हि तत्त्स्वाद्यं, विपदामपदंपदम्।
आपदान्येव भासन्ते, पदान्यन्यानि यत्पुरः।।
अर्थात् जिस पद में आपत्तियाँ नहीं हैं उसी एक आत्मा के शुद्ध पद का स्वाद लेना चाहिए जिससे सहज सुख हो इसके सामने और सब पद अयोग्य पद दिखते हैं।