निगोद में रचा पचा,
कोई भी भव न बचा,
तथापि सुख का न शोध,
हुआ रहा मैं अबोध ।।१।।
प्रभो! सुकृत उदित हुआ,
फलतः मैं मनुज हुआ,
दुर्लभ सत्संग मिला,
मानो यही सिद्धशिला ।।२।।
फिर गुरु उपदेश सुना,
जागृत हुआ सुन गुना,
ज्ञात हुआ स्व - पर भेद,
व्यर्थ करता था खेद ।।३।।
विदित हुआ मैं चेतन,
ज्ञान - गुण का निकेतन,
किन्तु तन, मन अचेतन,
जिन्हें न निज का सम्वेदन ।।४।।
चेत चेतन चकित हो,
स्वचिन्तन वश मुदित हो,
यों कहता मैं भूला,
अब तक पर में फूला ।।५।।
अब सर्वत्र उजाला,
शिव - पथ मिला निराला,
किस बात का मुझे डर,
जब जा रहा स्वीय घर ।।६।।
यह है समकित प्रभात,
न रही अब मोह रात,
बोध - रवि - किरण फूटी,
टली भ्रम - निशा झूठी ।।७।।
समता अरुणिमा बढ़ी,
उन्नत शिखर पर चढ़ी,
निज - दृष्टि निज में गड़ी,
धन्यतम है यह घड़ी ।।८।।
अनुकम्पा - पवन भला
सुखद पावन बह चला,
विषमता - कण्टक नहीं,
शिव - पथ अब स्वच्छ सही ।।९।।
यह सुख की परिभाषा,
रहे न मन में आशा,
ऐसी हो प्रतिभासा,
परितः पूर्ण प्रकाशा ।।१०।।
कुछ नहीं अब परवाह,
जब मिटी सब कुछ चाह,
दुख टला, निज - सुख मिला,
मम उर दृगपद्य खिला।।११।।
"विद्या" अविद्या छोड़,
कषाय कुम्भ को फोड़,
कर रहा उससे प्यार,
भजो सचेतना नार।।१२।।
मुनि वशी निरभिमानी,
निरत निज में विज्ञानी,
जिसे नहिं निज का ज्ञान,
वह करता मुधा मान ।।१३।।
सुन - सुन मानापमान,
दुखदायक अध्यवसान,
सुधी बस उन्हें तजकर,
निजानुभव करें सुखकर।।१४।।
विषय - कषाय वश सदा,
दुःख सहता मूढ़ मुधा,
निज निजानुभव का स्वाद,
बुधजन लेते अबाध ।।१५।।
यह योगी का विचार,
हैं ज्ञान के भण्डार,
सभी संसारी जीव,
द्रव्य - दृष्टि से सदीव ।।१६।।
रखें नहिं सुधी परिग्रह,
करें सदा गुण - संग्रह,
नमें निज निरञ्जन को,
तजे विषय - रजन को ।।१७।।
पर - परिणति को लखकर,
जड़मति बिलख - हरख कर।
कर्मो से है बंधता,
वृथा भव - वन भटकता।।१८।।
मुनि ज्ञानी का विश्वास,
मम हो न कभी विनाश,
और हूँ नहीं रोगी,
फिर व्यथा किसे होगी ।।१९।।
मैं वृद्ध, युवा न बाल,
ये हैं जड़ के बबाल,
इस विधि सुधी जानता,
सहज निज सुख साधता ।।२०।।
पुष्पहार से नहिं तोष,
करे न विषधर से रोष,
पीता निशिदिन ज्ञानी,
शुचिमय समरस पानी ।।२१।।
अबला सबला नहिं नर,
ना मैं नपुंसक वानर।
नहिं हृष्ट, पुष्ट, कुरूप,
हूँ इन्द्रियातीत अरूप ।।२२।।
ललित लता सी जाया,
है संध्या की छाया।
औ सुभग यह काया,
केवल जड़ की माया ।।२३।।
पावन ज्ञान - धन • धाम,
अनन्त गुणों का ग्राम।
स्फटिक सम निर्विकार,
नित निज में मम विहार ।।२४।।
पर - द्रव्य पर अधिकार,
नहिं हो इस विध विचार,
जानना तेरा काम,
कर तू निज में विश्राम ।।२५।।
योग - मार्ग बहुत सरल,
भोगमार्ग निश्चय, गरल।
स्वानुभावामृत तज कर,
विषय-विष-पान मत कर।।२६।।
क्यों भटकता तू मुधा,
क्यों दुख सहता बहुधा।
तब मिटेगी यह क्षुधा
जब मिलेगी निज सुधा ।।२७ ।।
क्यों बनता तू बावला,
सोच अब निज का भला।
यह मनुज में ही कला,
अतः उर में समभाव ला ।।२८ ।।
यदि पर संग सम्बन्ध,
रखता, तो करम बन्ध,
फिर भवकूल, किनारा,
न मिले तुझे सहारा ।।२९।।
परन्तु मूढ भूल कर,
स्व को नहिं मूल्य कर।
पर को हि अपना रहा,
मृषा दुःख उठा रहा ।।३० ।।
तू तजकर मोह - तृषा,
अरे! कर निज पर कृपा।
होगा न सुखी अन्यथा,
यह बात सत्य सर्वथा ।।३१।।
अरे! लक्ष्यहीन तव प्रवास,
तुझको दे रहा त्रास।
मति सुधारनी होगी,
चाल बदलनी होगी।।३२।।
राग नहीं मम स्वभाव,
द्वेष है विकार भाव।
यों समझ उनको त्याग,
बन जिन - सम वीतराग ।।३३।।
कर अब आतम अनुभव,
फलतः हो सुख सम्भव।
मिट जाये दुख सारा
मिल जाये शिव प्यारा।।३४ ||
दृग - विद्या - व्रत, रत्नत्रय।
करे प्रकाशित जगत्त्रय।
जो इनका ले आश्रय,
अमर बनता है अभय ।।३५।।
आत्मा कभी न घटता,
मिटता, कभी न बढ़ता।
परन्तु खेद, यह बात,
मूढ़ को नहिं है ज्ञात ।।३६।।
मूढ गूढ स्वतत्व भूल,
पर में दिन - रात फूल।
दुःख का वह सूत्रपात,
कर रहा निज का घात ।।३७।।
मुख से निकले न बोल,
मन में अनेक कल्लोल।
नित मूर्ख करता रोष,
निन्द्यतम अघ का कोष ।।३८।।
स्मरण - शक्ति चली गई,
लोचन - ज्योति भी गई।
पर जिसकी विषय - चाह
भभक - भभक उठी दाह ।।३९।।
देह जरा - वश जर्जरित,
हुआ मुख - कमल मुकुलित।
तथा समस्त मस्तक पलित,
जड़ की तृष्णा द्विगुणित ||४०।।
यह सब जड़ का बबाल,
मैं तो नियमित निहाल।
जिसको पर विदित नहीं
कि यह मम परिणति नहीं ।।४१।।
मोह - कर्दम में फँसा,
उल्टी मूढ़ की दशा।
रखता न स्व - पर विवेक,
सहता कष्टातिरेक ।।४२।।
है स्व - पर की पहिचान,
शिवसदन का सोपान।
पर को अपना कहना,
केवल भव - दुःख सहना ।।४३।।
यदि हो स्व - पर बोध,
फिर उठे नहिं उर क्रोध।
मूर्ख ही क्रोध करता,
पुनि - पुनि तन गह; मरता ।।४४ ।।
जब हो आत्मानुभूति,
निश्चिन्त सुख की चिन्मूर्ति,
मिलती सहज चिन्मूर्ति,
धुतिमय शुचिमय विभूति ।।४५।।
स्वयं से परिचित नहीं,
भटकता भव में वही।
पग - पग दुःख उठाता,
पाप - परिपाक पाता ।।४६।।
विद्या बिन, चारित्र वृथा,
जिससे न मिटती व्यथा।
फिर सहज शुद्ध समयसार,
क्यों मिले फिर विश्वास ।।४७।।
कभी मिला सुर - विलास,
तो कभी नरक - निवास
पुण्य - पाप का परिणाम,
न कभी मिलता विश्राम ।।४८।।
मूढ़ पाप से डरता,
अतः पुण्य सदा करता।
तो संसार बढ़ाता,
भव - वन चक्कर खाता ||४९।।
पाप तज पुण्य करोगे,
तो क्या नहीं मरोगे।
भले हि स्वर्ग मिलेगा,
भव - दुख नहीं मिटेगा ।।५०।।
प्रवृत्ति का फल संसार,
निवृत्ति सुख का भण्डार।
पहली अहो पराश्रिता,
दूजी पूज्य निजाश्रिता ।।५१।।
मत बन किसी का दास,
पर बन; पर से उदास।
फलतः कर्मों का नाश,
उदित हो बोध - प्रकाश।।५२।।
अतः मेरा सौभाग्य,
मुझको हुआ वैराग्य।
पुण्य - पाप है नश्वर,
शुद्धातम वर ईश्वर ।।५३।।
सुख - दुःख में समान मुख,
रहे; तब मिले शिव - सुख।
अन्यथा बस दुस्सह दुख,
ऊर्ध्व, अधो, पार्श्व, सम्मुख ।।५४।।
स्नान स्वानुभव सर में,
यदि हो, तो पल भर में।
तन - मन निर्मलतम बने,
अमर बने मोद घने ।।५५।।
सब पर भव - परम्परा,
यों लख तू स्वयं जरा।
निज में धन अमित भरा,
जो है अविनश्वर और खरा ।।५६।।
आलोकित लोकालोक,
करता नहीं आलोक।
जो तुझ में अव्यक्त रूप,
व्यक्त हो, तो सुख अनूप ।।५७।।
क्यों करता व्यर्थ शोक,
निज को जान, मन रोक।
बाहर दिखती पर्याय,
आभ्यन्तर द्रव्य सुहाये ||५८||
विद्या - रथ पर बैठकर,
मनोवेग निरोध कर।
अब शिवपुर है जाना,
लौट कभी नहिं आना ।।५९।।
झर - झर झरता झरना,
कहता चल - चल चलना।
उस सत्ता से मिलना,
पुनि - पुनि पड़े न चलना ।।६०।।
लता पर मुकुलित कली,
कभी - कभी खुली, खिली।
कभी गिरी, परी मिली,
सब में वही सत् ढली ।।६१।।
सकल पदार्थ अबाधित,
पल - पल तरल प्रवाहित।
होकर भी ध्रुव त्रिकाल,
जीवित शाश्वत निहाल ।।६२।।
रवि से जन, जल जलता,
वही वाष्प में ढलता।
जलद बन, पुनि पिघलता,
सतत है सत् बदलता ।।६३।।
गुण वश प्रभु, तुम - हम सम,
पर पृथक्, हम भिन्नतम।
दर्पण में कब दर्पण,
करता निजपन अर्पण ।।६४।।
राम - राम, श्याम - श्याम,
इस रटन से विश्राम।
रहे न काम से काम,
बन जाऊँ मैं निष्काम ।।६५।।
क्षणिक सत्ता को मिटा,
महासत्ता में मिला।
आर - पार तदाकार,
निराकार मात्र सार ।।६६।।
मन पर लगा लगाम,
निज दीप जला ललाम।
सकल परमार्थ पदार्थ,
प्रतिभासित हो यथार्थ ।।६७।।
बन्द कर नयन - पुट को,
लखता अन्तर्घट को।
दिखती फैली लाली,
न निशा मैली काली ।।६८।।
इच्छा नहिं कि कुछ लिखें।
जड़ार्थ मुनि हो बिकूँ।
जो कुछ होता लखना,
लेखक बन नहिं लिखना।।६९।।
स्मृति में कुछ भी लाना,
ज्ञान को बस सताना।
लेखनी लिखती रहे,
आत्मा लखती रहे ।।७०।।
दृग, चरण गुण अनमोल,
निस्पन्द अचल अलोल।
मत इन्हें जड़ पर तोल,
अमृत में विष मत घोल ।।७१।।
अमूर्त की मृदुता में,
सिमिट - सिमिट रहता मैं।
धवल कमल की मृदुता,
नहिं रुचती अब जड़ता ।।७२।।
सरस - विरस से ऊपर,
उठकर, रसगुण चखकर।
मम रसना जीवित है,
प्रमुदित उन्मीलित है ।I७३।।
लाल लाल युगलगाल,
साम्य के सरस रसाल।
चूस - चूस तुष्ट हुई,
रसना सम्पुष्ट हुई ।।७४।।
मति - मती मम नासिका,
ध्रुव गुण की उपासिका।
न दुर्गन्ध - सुगन्ध से,
प्रभावित है गन्ध से ।।७५।।
रूप विरूप को लखा,
चिर तृषित नयनों चखा।
पर अनुपम रूप यहाँ,
जग में सुख - कूप कहाँ? ।।७६।।
सप्त - स्वरों से अतीत,
सुन रहा हूँ संगीत।
मनो वीणा का तार,
तुन - तुन ध्वनित अपार ।।७७।।
अमूर्त के आकाश में,
विलीन ज्यों प्रकाश में।
प्रकाश नाश विकास में,
सत् चिन्मय विलास में ।।७८।।
आलोक की इक किरण,
पर्याप्त चलते चरण।
पथिक! सुदूर भले ही,
गन्तव्य पर मिले ही ।।७६।।
आसीन सहज मानस,
तट पर यह मम मानस।
हंस सानन्द क्रीड़ा,
कर रहा भूल पीड़ा ।।८०।।
विगत सब विस्मरण में,
अनागत कब मरण में -
ढल चुका, विदित नहिं है,
स्व - संवेदन बस यही है ।।८१।।
विमल समकित विहंगम,
दृश्य का हुआ संगम।
नयनों से हृदयंगम,
किया मम मन विहंगम ।।८२।।
समकित सुमन की महक,
गुण - विहंगम की चहक।
मिली, साम्य उपवन में,
नहिं! नहिं! नन्दन वन में ।।८३।।
भय नहीं विषय - विष से,
नहिं प्रीति पीयूष से।
अजर अमर अविनाशी,
हूँ चूँकि ध्रुव विकासी ।।८४।।
हर सत् में अवगाहित,
हूँ प्रतिष्ठित अबाधित।
समर्पित सम्मिलित हूँ,
हूँ तभी शुचि मुदित हूँ ।।८५।।
ज्ञात तथ्य सत्य हुआ,
जीवन कृतकृत्य हुआ।
हुआ आनन्द अपार,
हुआ वसन्त संचार ||८६।।
फलतः परितः प्लावित,
पुलकित पुष्पित फुल्लित।
मृदु शुचि चेतन - लतिका,
गा रही गुण - गीतिका ||८७।।
जलद की कुछ पीलिमा,
मिश्रित सघन नीलिमा।
चीर, तरुण अरुण भाँति,
बोध - रवि मिटा भ्रान्ति ।।८८।।
हुआ जब से वह उदित,
खिली लहलहा प्रमुदित।
सचेतना सरोजिनी,
मोदिनी मनमोहिनी ।।८९।।
उद्योत इन्दु प्रभु सिन्धु,
खद्योत मैं लघु बिन्दु।
तुम जानते सकल को,
मैं स्व-पर के शकल को ।।९०।।
मैं. पराश्रित, निजाश्रित,
तुम हो, पै तुम आश्रित -
हो, यह रहस्य सूंघा,
सम्प्रति अवश्य गूंगा ।।९१।।
प्रकृति से ही रही प्रकृति
भोग्या जड़मती कृति।
भोक्ता पुरुष सनात,
नव - नवीन अधुनातन ।।९२।।
पुरुष पुरुष से न प्रभावित,
हुआ, प्रकृति से बाधित।
हुआ, पुरुषार्थ वंचित,
विवेक रखे न किंचित् ।।९३।।
रहा प्रकृति से सुमेल,
रखता, खेलता खेल।
स्वभाव से दूर रहा,
विभाव से पूर रहा ।।१४।।
सुधाकर सम सदा से,
पूरित बोध - सुधा से।
होकर भी राग केतू,
भरित है चित् सुधा से तू ।।९५।।
उस ओर मौन तोड़ा,
विवाद से मन जोड़ा।
पुरुष नहीं बोलेंगे,
मौन नहीं खोलेंगे ।।९६।।
प्रमाद की इन तानें -
बाने सुन सम ताने।
मौन मुझे जब लखकर,
चिड़कर खुलकर मुड़कर ।।९७।।
प्रेम क्षेत्र में अब तक,
चला किन्तु यह कब तक।
मेरे साथ ए नाथ!
होगा विश्वासघात ।।९८।।
समता से मम ममता,
जब से तन क्षमता।
अनन्त ज्वलन्त प्रकटी,
प्रमाद - प्रमदा पलटी ।।९९।।
कुछ - कुछ रिपुता रखती,
रहती मुझको लखती।
अरुचिकर दृष्टि ऐसी,
प्रेमी आप ! प्रेयसी ।।१००।।
मुझ पर हुआ पविपात,
कि आपद माथ, गात।
विकल पीड़ित दिन - रात,
चेतन जड़ एक साथ ।।१०१।।
अब चिरकाल अकेली,
पुरुष के साथ केली।
पिलापिला अमृतधार,
मिलामिला सस्मित प्यार ।।
करूँगी खुश करूंगी,
उन्हें जीवित नित लखूंगी ।।१०२।।
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