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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गृहकार्य से निवृत्त हो कई बार दिन में सुनाती लोरी एक दिन माँ बोली “तू वृषभनाथ-सा बनना विद्यासागर-सा बनना मेरे विद्या जन-जन को देना ज्ञान रे, तू ज्ञानानंद स्वरूपी तू अनंत सुख स्वरूपी मेरे लाला तू करना स्वातम ध्यान रे” ध्यान से सुनते ही भरने लगा हुंकार… नयन विस्फारित हो बोल पड़ी वह समझ रहे हो मेरी बात? फिर से मुँह खोलकर गले से ‘हूँ’ शब्द से दे दी स्वीकृति... झूले में झूलते-झूलते बार-बार अधमींची आँखों से... देख रहा था माँ को और माँ देख रही थी वत्स को पल भर लगा उसे कि विद्या कह रहा है कुछ… इसी तरह शुभोपयोग से शुद्धोपयोग का प्रवृत्ति से निवृत्ति का समिति से गुप्ति का झूला मुझे झूलना है, स्व के सिवा सब कुछ भूलना है... और पल में ही सो गया लगा कि अपने में ही खो गया… यह क्या! आज पहली बार सोकर उठते ही चुपचाप हौले-हौले घुटने से चलकर आकर बैठ गया, नयन मूँद कर बैठी जाप करती माँ को निहारने लगा... धार्मिक क्रिया करते समय कभी माँ को परेशान नहीं करना यह तो उसने ठान लिया था बचपन से ही।
  2. शनि लग्न में होने से दृढ़ निश्चयी महान त्यागी हृष्ट-पुष्ट शरीर का योग रहेगा साथ ही तृतीय तथा एकादश भाव में सूर्य और राहु के पावन योग में होने से जातक होगा संयमी और बुद्धिमान तार्किक और प्रतिष्ठावान। किंतु शनि की प्रबलता से वस्त्रहीन दिगम्बर मुनि होने का योग लेकर जन्मा है, अपनी बंद मुट्टियों में अंतर आत्म वैभव और नाजुक लाल पगतलियों में जग का जड़-वैभव ठुकराने की क्षमता लेकर आया है। अनसुने अनजाने गाँव सदलगा को पहचान देगा एक दिन समूचे जगत में गाँव का नाम रोशन करेगा एक दिन कौन जानता था इसे? देखते ही बोल पड़ी तुमको पाकर आज फिर माँ होने का गौरव मुझे अति आनंद दे रहा है जो इतना पहले नहीं था। अदभुत हैं प्रकृति के कृत्य लगते हैं दृश्यमान पर हैं अदृश्य... कहाँ पढ़ पाती हैं सामान्य मानव की आँखें इसकी अदृश्य लिपि को! कहाँ समझ पाता है इसके अबूझ संकेतों को! मानव मेधा के वश की बात ही नहीं यह। अक्किवाट के भट्टारक मुनि विद्यासागर जी का श्रद्धा से स्मरण कर ज्यों ही पहली बार पुकारा माँ ने बड़े प्यार से- बेटा विद्याधर! बड़ी-बड़ी आँखों से निहारता रहा, मानो कह रहा हो विद्यासागर ही कह दो ना एक बार...। दिन पर दिन बीतने लगे लो, आ गया प्रथम बार जिन दर्शन करने का अवसर.. शिशु को नवीन वस्त्र पहनाकर किया माँ ने तैयार ऐसा लगने लगा मानो बाल कामदेव हो, घुँघराले बाल, लाल अधर नपा तुला देह संस्थान जगत की सारी रूप राशि इसके सामने फीकी पड़ गई, मंदिर जाते-जाते हर महिला ने अपने हाथों में लिया और अंत में श्रीमंति की प्रिय सखी ‘पद्मा’ चुप न रह पाई... बोल ही पड़ी... कई जन्मों का एक साथ पुण्य उदय में आया है पूर्व जन्म की तपस्या का फल पाया है, तभी तो तूने 'बाहुबली'- सा लाल पाया है। इसी वार्तालाप में ज्यों ही पहुँचे मंदिर ‘विद्याधर’ माँ के हाथों से फिसलने लगा, धरती पर लिटाते ही प्रभु की ओर मुख कर लिया, सीधी दृष्टि पड़ी प्रभु पर मानो कोई पूर्व भव की स्मृति छलक आई सो नयन विस्फारित कर मुस्कान उभर आयी अधर पर सभी नारियों का मन आश्चर्य से भर गया...। यह कोई सामान्य नहीं होनहार व्यक्तित्व का धनी है, तभी तो शांत होकर इसने ‘णमोकार मंत्र' की ध्वनि सुनी है। इस तरह... जन-जन का मन प्रफुल्लित करता वह ‘पीलू’ कहलाने लगा। देह की धवलता चेहरे की सरलता अदभुत सौन्दर्य के साथ पैर का अँगूठा चूसने का पराक्रम दिखाना लोगों के मन भा गया, आबाल वृद्ध उसे छूने को मचल गया। इस तरह... जन्म की खुशियाँ मल्लप्पाजी के आँगन में सावन की बूंदों की तरह बरस कर हृदय को आह्लादित करने लगीं। चार माह के पीलू को मंदिर ले गयी माँ तभी उसने दिखाया अजब करिश्मा लेटा-लेटा उस दिन, नन्हें-नन्हें दो नाजुक हाथों को समानता से जोड़कर उल्टा हो गया, झुका लिया सिर मानो कर रहा हो प्रभु की उपासना निकट भविष्य में होने वाला था जो सबका उपास्य... दे रहा था जग को जीवंत संदेश कि जिन पद में झुके बिना सिद्धालय तक पहुँचा नहीं जाता। स्वात्म विरह के दुख का अनुभव ही अनंत सुख तक पहुँचाता है पर से विमुख हो दृष्टि तभी तो निज का अनुभव आता है।
  3. तभी बाह्य चन्द्रमा से बाल चन्द्रमा का अंतर्विवाद हो गया... गगन चन्द्र बोला पहले मैं अमृत बाँटूगा जन-जन को तृप्त करूंगा। इतने में ही बोल पड़ा... रहस्य में बैठा बाल शिशु चन्द्र... तू जड़ अमृत बाँटने की बात करता है जिसे कोई देख भी नहीं पाता है और न ही अनुभूत होता है वह, यदि तू बाँटता अमृत? तो अमर क्यों नहीं दिखता कोई वसुंधरा पर... किंतु मैं हर आत्म तत्त्व के प्यासे को संतुष्ट कर दूँगा चैतन्य अमृत पिलाकर। इसीलिए तू नहीं पहले मैं जाऊँगा, यह कहकर बारह बजने से पूर्व ही आश्विन माह की शरद पूनम को जगतजननी, सौभाग्यशालिनी ‘श्रीमंति' की कोख से उतर आया रवि, शशि-सा सपूत सदलगा की पुण्य धरा पर। प्रकृति का कण-कण प्रसन्नता से गाने लगा... धर्मरूपी वृक्ष की धारिणी धरित्री माँ श्रीमंति तुम धन्य हो, धन्य हो माँ! तुम धन्य हो। जन्म लेते ही चिक्कोड़ी उपचारालय में ले जाया गया शिशु बहुत सुंदर है मनोज्ञ और स्वस्थ है, यह समाचार चिकित्सक ने शीघ्र ही माता-पिता को सुनाया द्वितीय होकर भी अद्वितीय है, यह सुन माँ फूली नहीं समायी शिशु को देखने लालायित हो गयी “एकः चंद्रः तमो हन्ति” युक्ति यह चरितार्थ हो आयी। शरद पूर्णिमा की मध्य निशा से भोर के आगमन तक प्रकृति के प्रांगण से गूंजता रहा अदभुत नाद, और होते ही भोर अपनी ज्योति समेट ज्योत्स्ना कर गई प्रस्थान अज्ञात पथ की ओर... तभी विशाल गगन के उस छोर से अपनी नैसर्गिक छटा ले स्नेहिल चाल से उतर रही थी वसुंधरा के प्रांगण में... सूरज की एक से एक सुंदर सुहागिनी बेटियाँ रश्मियाँ कह गईं उन्हें कि - लो! सम्हालो, इस बाल लाल ज्ञान सूर्य को द्वितीय पुत्र के रूप में अद्वितीय दिवाकर को।
  4. ढलती शाम को खेत से लौटकर मल्लप्पाजी ने पुलकित मनवाली। श्वेतवर्णी मृगनयनी काले घने केश वाली प्रफुल्लित वदनी अर्दांगिनी श्रीमति को बड़े गौर से देखा और पूछा प्रिये! आज चेहरे पर अपूर्व चमक कैसी? क्या कुछ विशिष्ट उपलब्धि हुई है? यदि नहीं तो दीपक की लौ-सी यह मुख पर रौनक कैसी? सुनते ही सहज भाव से मुखरित हुई माँ जिनवाणी का ही यह अनंत उपकार है, आज स्वाध्याय में मानो हुआ स्वयं से साक्षात्कार है या यूँ कहूँ यह आप ही की सन्निधि का परिणाम है, आपकी सात्विकता नैतिकता से ही हुआ यह काम है। जो आपने धर्म के लिए मुझे सदा स्वतंत्रता दी, गृह में ही स्वर्ग-सी शांति और अच्छे मित्र-सी निकटता दी। फिर भला चेहरे पर रौनक क्यों नहीं आयेगी! चंदा है तो चाँदनी क्यों नहीं छायेगी! अपने लिए प्रशंसात्मक शब्द सुनकर ग्रीवा नीची किये बैठे ही थे कि प्रश्नायित आँखों से पूछ लिया स्वामी! आने वाली संतान को दया अहिंसा के पथ पर जन हितकारी निज उपकारी आत्मोन्नति के सोपान पर क्या चलने की प्रेरणा दोगे? मुनि, आर्यिका होने में पथ प्रदर्शक बनोगे? कहीं उसके राग में रागी होकर उसे विचलित करने का प्रयास तो नहीं करोगे? सुनते ही बोले वह यति बनने की नियति को भला कौन थाम सकता है... समय और समुद्र की लहरों को भला कौन बाँध सकता है! उसी प्रकार... मरण और वैराग्य को कौन रोक सकता है!! फिर भी मोही को मोह भाव आता है, भविष्य ही बतायेगा कौन क्या करता है। कहकर यह धीरे से दूसरे कक्ष में जाकर बैठ गये... प्रातः होते ही आया एक सौदागर हाथ में एक झूला लेकर सुंदर गूँथे हैं जिसमें छोटे-बड़े आकर्षक मोती नगों की लटकती लड़ी बीच-बीच में घूँघरू देखता ही रहे एकटक जिसे शिशु मंगल का सूचक है यह पुण्य पुरुष के जन्म का प्रतीक है यह। आज दोपहर से ही वदन पर हल्की -सी वेदना की रेखाएँ हैं, प्रसव काल निकट जानकर श्रीमंती के मन में अनेकों कल्पनाएँ हैं, किंतु चेतना में वेदना के क्षणों में भी शुभ रूप भावनाएँ हैं। प्रतिकूल पलों में भी पवित्र विचार बनाये रखने की अदभुत क्षमता पल-पल मन की प्रसन्नता जन्मजात ही पाई है। पूर्व भव से पुण्य की सौगात लेकर ही यह आई है। तभी तो इन्हीं के गर्भ में अवतरित हुआ यह पावन पूत… वैसे, अनेकों स्त्रियों ने उस पल गर्भ धारण किया था पर, यह सौभाग्य किसी और को क्यों नहीं मिल पाया था? क्योंकि जिस जनक-जननी के आचार-विचार शुद्ध होते हैं उन्हें ही ऐसे सुयोग प्राप्त होते हैं। आज कमलबंधु अपने दैनिक कार्य को शीघ्र ही पूर्ण कर छिपना चाहता है, उज्ज्वल धवल-सी चाँद की चाँदनी से भयभीत-सा लगता है। तभी तो स्वयं को प्रभावहीन देख अपने प्रताप और प्रकाश इन दो पुत्रों को साथ ले चला जा रहा है... उसे आभास हुआ कि आज अर्द्धनिशा में एक और भास्कर प्रकाशित होने वाला है, मैं तो बाहर में ही कुछ देश में ही फैलाता हूँ प्रकाश, किंतु वह तन-मन के पार चेतन के असंख्य प्रदेशों में भरने वाला है चैतन्य ज्ञान प्रकाश। यह जानकर कहीं मेरा और मेरे अंश का उपहास न हो जाए, इस शंका से झटपट भाग रहा है अस्ताचल की ओर...। तभी निशा के चमकते गाल देख ज्ञानधारा की एक लहर ने पूछा कि आज तुम इतनी दीप्तिमान क्यों दिख रही हो? उल्लसित अधरों से उमंगायित वचनों से बोली वह… “यह जो धुति तुम्हें दिखाई दे रही है वह आगत का स्वागत करते समय उसी की कांति का पड़ा प्रभाव है, यद्यपि अभी वह प्रगट नहीं हुआ है फिर भी उसके प्रगटन के चिह्नों का मुझे कुछ आभास हुआ है तभी तो मन ही मन मैंने उसका स्वागत किया है।” देश जकड़ा है परतंत्रता की बेड़ियों में परदेशियों का ही चल रहा इन दिनों प्रशासन क्रूरता से कर रहे जन-जन पर शासन पीड़ित है जनता सिसक रही है मानवता औरों के लिए जीने की उसके दुख दर्द पीने की कहाँ है फुर्सत उन्हें? तभी तो भारत की धरा ने दर्दीले मन से पुकारा है गुलामी का दर्द अब सहा नहीं जा रहा है आओ, कोई तो आओ! सुनकर वेदना का स्वर... अवतरित हुआ है दयासिंधु करुणा का सागर। विश्वास है जन्मते ही उसके अहिंसक पावन पगतलियों के स्पर्श से भारत हो जायेगा स्वतंत्र। ज्यों-ज्यों निशा गहराती जा रही है चन्द्र-चाँदनी की धवलता त्यों-त्यों बढ़ती जा रही है, नयनों से नींद दूर होती जा रही है क्योंकि प्रसव पीड़ा बढ़ती जा रही है, किंतु पीड़ा में भी चल रही है ईडा अधरों के स्पंदन से वह जाप कर रही है, वैखरी से उपांशु उपांशु से मानस की ओर आते हुए सूक्ष्म जाप में लीन हो गई और चन्द्र विमान के चैत्यालय में स्थापित बिंबो के चिंतन में खो गई।
  5. इधर खेलते-खेलते ज्येष्ठ पुत्र महावीर स्नेहभरी माँ की गोद में आ बैठ गये, लेकिन माँ की आँखें अभी भी मूँदी हैं कौन गोद में है कौन कोख में है पलभर सब कुछ भूली है वह तो अपने आप में ही खोई है। इतने में ही सखी ने आ आवाज़ लगाई अरी! क्या सोच रही हो? आगंतुक कौन है बेटा है या बेटी? यह विचार रही हो ना आखिर तुम क्या चाह रही हो? गुलाब की पाँखुरियों-सी हौले-हौले खुले नयनों से निहार सखी से कहने लगी- बेटा हो या बेटी क्या फर्क पड़ता है पर्यायों को नहीं आने वाली पवित्र आत्मा को देखना है, देहाकृति को नहीं, देह के भीतर वैदेही चेतना को निरखना है। और सखी जाते-जाते कहने लगी- तुम्हारे गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से होने वाले सद् विचार से मैं अति प्रभावित हूँ। ऐसी ही पवित्र दृष्टि मेरी भी हो यही भावना भाते हुए उल्लसित हूँ।
  6. इस तरह दिन-रात गुजरते-गुजरते गर्भभार बढ़ता गया, किंतु माँ हलकी होती गयी। एक दिन अचानक महसूस किया अपूर्व स्पंदन को मानो यह कह रहा हो मुझे शीघ्र बाहर बुला लो; क्योंकि बाहर आये बिना भीतर जा नहीं पाऊँगा और आपके स्वप्नों को साकार रूप दे नहीं पाऊँगा। वह जननी शिशु की परोक्ष वार्ता एकतान हो सुन रही थी... तरह-तरह की कल्पना के ताने-बाने से उसके सुखद भविष्य को आनंद विभोर हो बुन रही थी…| आज स्वाध्याय के समय ‘पद्मपुराण’ में श्रीराम के जीवन से कुछ विशेष उद्बोधन हुआ- अपने ही भीतर विराजित आतमराम का अनुभवन हुआ राम भवन से वन की ओर गये भगवन् बन गये जब यह ज्ञात हुआ तो मन चिंतन में डूब गया। अहो चेतना! तुम्हारा ऐसा शुभ अवसर कब आयेगा? जड़ तन को तजकर कब अक्षय अविनाशी पूर्ण ज्ञानधाम में निवास होगा? सहृदय हुआ यह चिंतन सजल हो आये नयन गौर वर्ण का मुखमण्डल लाल-लाल गुलाब-सी आभा ले और... चमकने लगा, अंतर की विशुद्धि से चिंतन लब्धि से मन की शांति से प्रभावित हो शरीर दमकने लगा। ग्रंथ का शब्द-शब्द कर्णकुहरों में गूँजने लगा, और यही चिंतन का आनंद कोख में पलने वाले शिशु को आनंदित करने लगा।
  7. शिशु की पवित्र वर्गणाओं का प्रभाव जननी की देह पर स्पष्ट दिखने लगा कल की कमनीयता को बढ़ाने लगा, तनय की तन-रश्मियाँ माँ के तन पर कांति बिखेरने लगीं जैसे सूर्य की किरणें नूतन मेघ पर बिखर गई हों, परिवार में कुशल क्षेम का वातावरण छा गया, जनक सोचने लगे आखिर कौन पुण्यात्मा गर्भ में आ गया। तभी दंपत्ति चल पड़े अक्किवाट की ओर... लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व यहाँ चिन्मयचेता मोहजेता “भट्टारक मुनि विद्यासागर” नामक महान साधक ने सल्लेखना ले भेदज्ञान पूर्वक समाधि ग्रहण की थी। हाथ जुड़ गये, शीश झुक गया अनायास दोनों के मुख से शब्द फूट पड़े हे मुनिवर! यदि प्रसव सुखपूर्वक हो गया। तो बालक को यहाँ लायेंगे और एक स्वर्ण का दीपक अवश्य जलायेंगे। उन्हें यह अज्ञात रहस्य कहाँ ज्ञात था कि यह दीपक तो बुझ जायेगा, मगर होनहार बालक ज्ञान का सागर बन अपने चेतन गृह में अनबुझ विद्या का दीप जलायेगा, जिसकी लौ के संपर्क से अनेकों दीप जलते रहेंगे सदियों-सदियों तक... और घटाटोप मिथ्यातम छँटकर प्रकाश बढ़ता ही जायेगा जिनशासन का प्रवाह और गतिमान होता ही जायेगा।
  8. वह पवित्र भावों में डूबी ह्रदय की गहराई में खोयी मन ही मन प्रभु से करने लगी प्रार्थना हे अतीन्द्रिय सुख भोक्ता! मेरे जीवन के यह भोगों का परिणाम अनंत भोग को उपलब्ध करने वाले जीव के जन्म का कारण बने मेरी कोख से एक ऐसा कमल खिले जिसकी सुंगध से जगत का वातावरण धर्म से महक उठे। इस तरह... प्रार्थना के प्रभाव से गर्भावस्था के प्रथम मास में एक ‘शुद्धात्म तत्त्व' की विशुद्धि छलकने लगी, द्वितीय मास में राग-द्वेष से रहित होने की भावना जगी, फिर क्रमशः नौ माह तक ‘रत्नत्रय' अंगीकार कर ‘चउ आराधना' आराधने की भावना हुई, ‘पंचम गति' को पाने के लिए साधु के ‘षट् आवश्यक’ पालन करने की लौ लगी, सातवें माह में विशेष रूप से सप्तम तत्त्व ‘मोक्ष' को जानने की भावना जगी, अष्ट द्रव्यों से कामदेव बाहुबली भगवान की पूजा करने की तीव्र इच्छा रूप दोहला उत्पन्न हुआ। और... अंदर ही अंदर कोख में पल रहा लाल कामदेव-सा कमनीय होगा यह दोहले से एहसास हुआ। अप्रगट शिशु ने माँ से प्रभु पूजा करवाई ऐसा प्रतीत हुआ मानो भविष्य में पूज्य होने की प्रामाणिकता प्रगटाई। नवदेवता की आराध्या के उर में क्षायिक नौ लब्धियों की प्यास जगी, और भावी मुक्तात्मा के निमित्त से अखंड पद को पाने की आस लगी, ज्यों-ज्यों गर्भ में वृद्धि होती गई त्यों-त्यों विचारों में विशुद्धि बढ़ती गई, लेकिन लेखनी दिग्मूढ़-सी हो गई कि संस्कारित कर रही है माँ बालक को या बालक माँ को? सामान्य बालक को माँ के माध्यम से मिलते हैं संस्कार, किंतु तीर्थंकरादि जैसी महान आत्माओं के गर्भस्थ होते ही माता को मिलते हैं संस्कार...। रत्नों के कारण ही अथाह जल को कहते हैं रत्नाकर, रश्मियों के कारण ही रवि को कहते हैं प्रभाकर। जैनदर्शन कहता है कि- एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, किंतु यह एकांत नहीं है उपादान दृष्टि से अकर्त्ता होते हुए भी निमित्त दृष्टि से अकर्त्ता नहीं है, वरना दिनकर के आते ही सरवर में कमल खिलते हैं क्यों? और बसंत के आते ही तरुवर पर फल फलते हैं क्यों? ज्यों हीरा-पन्नादि रत्नों को अपने गर्भ में समेटती धरा रत्नगर्भा कहलाती है, त्यों ही अनेक गुण संपन्न शिशु को गर्भ में धरती... माँ, पूतगर्भा कहलाती है। तीर्थंकर के गर्भ कल्याणक पर बरसे रत्न अभी दिखें या ना दिखें, किंतु अनेकों को रत्नत्रय देने वाला अदभुत दिव्यरत्न ‘श्रीमंती ने कोख में पा लिया।’
  9. श्रीक्षेत्र श्रवणबेलगोला द्वितीय दिवस - 7 जून, 2018 श्रुतपंचमी महोत्सव प्रारम्भ - श्रवणबेलगोला में आज दिनांक 7 जून को दोपहर 2 बजे 12 दिवसीय श्रुतपंचमी महोत्सव प्रारम्भ हो गया। स्वस्तिश्री चारुकीर्ति भट्टारक महास्वामीजी की प्रेरणा और निर्देशन में विद्वानों को सम्मानित किया गया और उनकी भव्य शोभायात्रा निकाली गई। तत्पश्चात् आचार्यश्री वर्धमान सागर जी महाराज एवं समस्त मुनि-आर्यिका संघ के सानिध्य में शास्त्री परिषद् का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। इस सत्र में प्राचार्य ब्र. अनिल भैया, अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्वान डॉ. हम्पाना, गणिनी आर्यिका माताजी एवं मुनिश्री उत्तम सागर जी सहित तीन मुनिराजों और आचार्यश्री वर्धमान सागर जी एवं आचार्यश्री वासुपूज्य सागर जी ने सम्बोधित किया। संयुक्त मंत्री पं. विनोद कुमार जैन रजवांस ने शास्त्री परिषद् बुलेटिन के "संयम स्वर्ण विशेषांक" का विमोचन आचार्यश्री वर्धमान सागर जी, स्वस्तिश्री भट्टारक स्वामीजी एवं डॉ. श्रेयांस कुमार जी से करवाया। सभा का संचालन परिषद् के महामंत्री ब्र. जय कुमार जैन 'निशान्त' ने किया। रात्रिकालीन सत्र में विद्वानों की सभा में परम पूज्य स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति महास्वामीजी ने गोमट्टसार ग्रंथ का स्वाध्याय किया। उन्होंने तथा डॉ. श्रेयांस कुमार जी ने विद्वानों की अनेक जिज्ञासाओं का समाधान किया।
  10. जबलपुर में निःशुल्क योग ध्यान शिविर सभी धर्म अनुयाइयों के लिए सनिध्य योगाचार्य डॉ नवीन जी 21 मई से 21 जून तक स्थान सुबह शिव नगर 5:45 6:45 लाखा भवन। 7:00 8:00 शाम हनुमान ताल 4: 00 5: 00 जुडी तलैया 7:00 8:00 संगम कालोनी 8:15 9:00 संपर्क 9837636708 7987500805
  11. (वसन्ततिलका छन्द) सन्तों नमस्कृत सुरों बुध मानवों से, ये हैं जिनेश्वर नमूँ मन वाक्तनों से। पश्चात् करूँ स्तुति निरंजन की निराली, मेरा प्रयोजन यही कि मिटे भवाली॥१॥ स्वामी! अनन्त-गुण-धाम बने हुए हो, शोभायमान निज की घुति से हुए हो। मृत्युंजयी सकल-विज्ञ विभावनाशी, वंदूँ तुम्हें, जिन बनूँ सकलावभासी ॥२॥ सच्चा निजी पद निरापद सम्पदा है, तो दूसरा पद घृणास्पद आपदा है। है। भव्यकंजरवि! यों तुमने बताया, शुद्धात्म से प्रभव वैभवभाव पाया ॥३॥ जो चाहता शिव सुखास्पद सम्पदा है, वो पूजता तव पदाम्बुज सर्वदा है। पाना जिसे कि धन है अयि ‘वीर’ देवा! क्या निर्धनी धनिक की करता न सेवा? ॥४॥ सत् तेज से मदन को तुमने जलाया, अन्वर्थ नाम फलरूप ‘महेश' पाया। नीराग से अमित सन्मति विज्ञ प्यारे, स्वामी मदीय मन को तुम ही सहारे॥५॥ हे! देव दो नयन के मिस से तुम्हारे, हैं वस्तु को समझने नय मुख्य प्यारे। यों जान, मान, हम लें उनका सहारा, पायें अवश्य भवसागर का किनारा ॥६॥ उत्पाद ध्रोव्य व्यय भाव सुधारता हूँ, चैतन्यरूप वसुधातल पालता हूँ। पाते प्रवेश मुझमें तुम हो इसी से, स्वामी! यहाँ अमित सागर में शशी से ॥७॥ जो आपमें निरत है सुख लाभ लेने, आते न पास उसके विधि कष्ट देने। क्या सिंह के निकट भी गज झुण्ड जाता? जाके उसे भय दिखाकर क्या सताता ? ॥८॥ हे! शुद्ध! बुद्धमुनिपालक! बोधधारी!, है कौन सक्षम कहे महिमा तुम्हारी ? ऐसा स्वयं कह रही तुम भारती है, शास्त्रज्ञ पूज्य गणनायक भी व्रती हैं ॥९॥ है आपने स्वतन की ममता मिटादी, सच्चेतना सहज से निज में बिठादी। लो! देह में इसलिए कनकाभ जागी, मोह्मन्धकार विघटा, निज, ज्योति जागी ॥१०॥ श्रीपाद ये कमल-कोमल लोक में हैं, ये ही यहाँ शरण पंचम काल में हैं। है भव्य कंज खिलता, इन दर्श पाता, पूजें अतः हृदय में इनको बिठाता ॥११॥ लोहा बने कनक पारस संग पाके, मैं शुद्ध किन्तु तुमसा तुम संग पाके। वो तो रहा जड़, रहे तुम चेतना हो, कैसा तुम्हें जड़ तुला पर तोलना हो? ॥१२॥ सानन्द भव्य तुम में लवलीन होता, पाता स्वधाम सुख का, गुणधाम होता। औ देह त्याग कर आत्मिक वीर्य पाता, संसार में फिर कभी नहिं लौट आता ॥१३॥ काले घने भ्रमर से शिर में तुम्हारे, ये केश हैं नहि विभो! जिनदेव प्यारे। ध्यानाग्नि से स्वयं को तुमने जलाया, लो! सान्द्र थूम मिस बाहर राग आया ॥१४॥ लो! आपके सुभग-सौम्य-शरीर द्वारा, दोषी शशी अयशधाम नितान्त हारा। वो आपके चरण की नख के बहाने, सेवा तभी कर रहा यश कान्ति पाने॥१५॥ लो आपकी सुखकरी कविता विभा से, मोहान्धकार मिटता अविलम्बता से। ज्योतिर्मयी अरुण है जब जाग जाता, कैसे कहूँ कि तम है कब भाग जाता ? ॥१६॥ सौंदर्य पान कर भी मुख का तुम्हारे, प्यासा रहा मन तभी, तुम यों पुकारे। पीयूष पी निज, तृषा यदि है बुझाना, बेटा! तुझे सहज शाश्वत शांति पाना ॥१७॥ मूँगे समा अधर पे स्मित सौम्य रेखा, है प्रेम से कह रही मुझ को सुरेखा। आनन्द वार्थि तुम में लहरा रहा है, पूजें तुम्हें, बन दिगम्बर, भा रहा है ॥१८॥ नक्षत्र है गगन के इक कोन में ज्यों, आकाश है दिख रहा तुम बोध में त्यों। ऐसी अलौकिक विभा तुम ज्ञान की है, मन्दातिमन्द पड़ती धुती भानु की है ॥१९॥ है एक साथ तुममें यह विश्व सारा, उत्पन्न हो मिट रहा ध्रुव भाव धारा। कल्लोल के सम सरोवर में न स्वामी! पै ज्ञेय ज्ञायकतया, शिवपंथगामी ॥२०॥ मैं रागत्याग तुझमें अनुराग लाके, होता सुखी कि जितना लघु ज्ञान पाके। तेरी बृहस्पति सुभक्ति करें, तथापि, से स्वर्ग में नहिं सुखी उतना कदापि ॥२१॥ ज्यों ही मदीय मन है तव स्पर्श पाता, त्यों ही त्वदीय सम भासुर हो सुहाता। रागी विराग बनता तव संघ में हैं, लो ! नीर, दूध बनता गिर दूध में है ॥२२॥ मानूँ तुम्हें तुम शशी तुम में भरी हैं, सच्ची सुधा गुणमयी मन को हरी है। ऐसा न हो, मम मनोमणि से भला यों, सम्यक्त्वरूप झरना, झर है रहा क्यों? ॥२३॥ सम्मोह से भ्रमित हो जग पाप पाता, पै आपका मन नहीं अघ ताप पाता। लोहा स्वभाव तजता जब जंग खाता, हो पंक में कनक पै सब को सुहाता ॥२४॥ हो केवली तुम बली शुचि शान्त शाला, ऐसा तुम्हें कब लखें अघ दृष्टि वाला। हो पीलिया नयन रोग जिसे हमेशा, पीला शशी नियम से दिखता जिनेशा ॥२५॥ ऐसी कृपा यह हुई मुझपे तुम्हारी, आस्था जगी कि तुममें मम निर्विकारी। संसार भोग फलतः रुचते नहीं हैं, प्रत्यक्ष मात्र तुम हो जड़ गौण ही है ॥२६॥ स्वामी! निवास करते मुझमें सुजागा, आत्मानुराग फलतः पर राग भागा। लो दूध में जब कि माणिक ही गिरेगा, क्या लाल लाल तब दूध नहीं बनेगा? ॥२७॥ वैराग्य से तुम सुखी भज के अहिंसा, होता दुखी जगत है कर राग हिंसा। सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती, दुःसाधना दुखमयी विष से पिलाती ॥२८॥ श्रद्धा समेत तुम में रममान होता, वो ओज तेज तुम सा स्वयमेव ढोता। काया हि कंचन बने कि अचेतना हो, आश्चर्य क्या? धुतिमई यदि चेतना से ॥२९॥ जैसा कि वृक्ष फल फूल ला सुहाता, माथा, धरा जननि के पद में झुकाता। ऐसे लगे कि गुण भार लिए हुए हो, चैतन्यरूप-जननी पद में झुके हो ॥३०॥ छत्रादि स्वर्णमय वैभव पा लिए हो, स्वामी! न किन्तु उनसे चिपके हुए हो। तेरी अपूर्व गरिमा गणनायकों से, जाती कसै न फिर क्या? हम बालकों से ॥३१॥ विज्ञानरूप रमणी तुममें शिवाली, जैसी लसी अमित अव्यय कांतियाली। वैसी नहीं शशिकला शशि में निराली, अत्यन्त चूँकि कुटिला व्यय-शीलवाली ॥३२॥ देखा विभामय विभो मुख आपका है, ऐसा मुझे सुख मिला नहिं नाप का है। जैसा यहाँ गरजता लख मेघ को है, पाता मयूर सुख भूलत खेद को है ॥३३॥ सर्वज्ञ हो इसलिए विभु हो कहाते, निस्संग हो इसलिए सुख चैन पाते। मैं सर्वसंग तजके तुम संग से हैं, आश्चर्य आत्म सुख लीन अनंग से हूँ ॥३४॥ आकाश में उदित हो रवि विश्वतापी, संतप्त त्रस्त करता जग को प्रतापी। पै आप कोटि रवि तेज स्वभाव पाये, बैठे मदीय उर में न मुझे जलाये ॥३५॥ वे कामधेनु सुरपादप स्वर्ग में ही, सीमा लिए दुख घुले सुख दें, विदेही! पै आपका स्तवन शाश्वत मोक्ष-दाता, ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ॥३६॥ जो आपकी स्तुति सरोवर में घुली है, मेरी खरी श्रमणता शुचि हो चुली है। तो साधु स्तुत्य मम क्यों न सुचेतना हो? औ शीघ्र क्यों न कल-केवल-केतना हो? ॥३७॥ तल्लीन नित्य निज में तुम हो खुशी से, नीरादि से परम शीतल से इसी से। पा अग्नि योग जल है जलता जलाता, कर्माग्नि से तुम नहीं, यह साधु गाथा ॥३८॥ लो आपकी रमणि एक गुणावली है, दूजी सती विशदकीर्तिमयी भली है। पै एक तो रम रही नित आप में है, कैसा विरोध यह? एक दिगंत में है ॥३९॥ देवाधिदेव मुनिवन्छ कुकाम वैरी, पाती प्रवेश तुम में मति हर्ष मेरी। जैसी नदी अमित सागर में समाती, लेती सुखी मिलन से दुख भूल जाती ॥४०॥ उत्फुल्ल नीरज खिले तुम नेत्र प्यारे, हैं शोभते करुण केशर पूर्ण धारें। मेरा वहीं पर अतः मन स्थान पाता, जैसा सरोज पर जा अलि बैठ जाता ॥४१॥ हैं आप दीनजनरक्षक, साधु माने, दावा प्रचण्ड विधि कानन को जलाने। पंचेंद्रि-मत्त-गज-अंकुश हैं सुहाते, हैं मेघ विश्वमदताप-तृषा बुझाते ॥४२॥ चारों गती मिट गयी तुम ईश! शम्भू, से ज्ञान पूर निजगम्य अतः स्वयम्भू। ध्यानाग्नि दीप्त मम हो तुम बात हो तो, संसार नष्ट मम हो तुम हाथ हो तो ॥४३॥ ले आपको नमन तो सघना अघाली, पाती विनाश पल में दुखशील वाली। फैला पयोद दल हो नभ में भले ही, थोड़ा चले पवन तो बिखरे उड़े ही ॥४४॥ श्रीपाद मानस सरोवर आपका है, होते सुशोभित जहाँ नख मौक्तिका हैं। स्वामी! तभी मनस हंस मदीय जाता, प्रायः वहीं विचरता चुग मोति खाता ॥४५॥ लो! आपके चरण में भवभीत मेरा, विश्रान्त है अभय पा मन है अकेला। माँ का उदारतम अंक अवश्य होता, निःशंक से शरण पा शिशु चूँकि सोता ॥४६॥ हो वर्धमान गतमान प्रमाणधारी, क्यों ना सुखी तुम बनो जब निर्विकारी। स्वात्मस्थ से अभय हो मन अक्षजेता, हो दुःख से बहुत दूर निजात्मवेत्ता ॥४७॥ सन्मार्ग पे विचरता मुनि से अकेला, स्वामी! हुआ बहुत काल व्यतीत मेरा। मेरै थके पग अभी कितना विहारा, बोलो कि दूर कितना तुम धाम प्यारा ॥४८॥ स्वामी अपूर्व रवि से द्युति धाम प्यारे, ये तेज सैन रवि सन्मुख हो तुम्हारे। मानों नहीं स्वयं को रवि है विरागी! क्यों अग्नि है मम तपो मणि में सुजागी? ॥४९॥ हे ईश धीश मुझमें बल बोधि डालो! कारुण्य धाम करुणा मुझमें दिखा लो। देहात्म में बस विभाजन तो करूंगा, शीघ्रातिशीघ्र सुख भाजन तो बनूँगा ॥५०॥ विज्ञान से शमित की रति की निशा है, पाया प्रकाश तुमने निज की दशा है। तो भी निवास करते मुझमें विरागी! आलोक धाम तुम हो, तम मैं सरागी ॥५१॥ शुद्धात्म में तुम सुनिश्चय से बसे हो, जो जानते जगत को व्यवहार से हो। होती सदा सहजवृत्ति सुधी जनों की, इच्छामयी विकृतवृत्ति कुधी जनों की ॥५२॥ संसार को निरखते न यथार्थ में हैं, लो आप केवल निजीय पदार्थ में हैं। संसार ही झलकता दुग में तथा हैं, नाना पदार्थ दल दर्पण में यथा हैं ॥५३॥ स्वादी तुम्हीं समयसार स्वसम्पदा के, आदी कुधी सम नहीं जड़ सम्पदा के। औचित्य है अमर जीवन उच्च जीता, मक्खी समा मल न, पुष्य पराग पीता ॥५४॥ है वस्तुतः जड़ अचेतन ही तुम्हारी, वाणी तथापि जग पूज्य प्रमाण प्यारी। है एक हेतु इसमें तुमने निहारा, विज्ञान के बल अलोक त्रिलोक सारा ॥५५॥ सम्यक्त्व आदिक निजी बल मोक्षदाता, वे ही अपूर्ण जब लौं सुर सौख्यधाता। औचित्य वस्त्र बनता निज तन्तुओं से, ऐसा कहा कि तुमने मित सत् पदों से ॥५६॥ होता विलीन भवदीय उपासना में, तो भूलता सहज ही सुख याचना मैं । जो डूबता जलधि में मणि ढूँढ लाने, क्या मांगता जलधि से मणि दे! सयाने ॥५७॥ औचित्य है प्रथम अम्बर को हटाया, पश्चात् दिगम्बर विभो! मन को बनाया। रे! धान का प्रथम तो छिलका उतारो, लाली उतार, फिर भात पका, उड़ालो ॥५८॥ शंका न मृत्यु भय ने सबको हराया, संसार ने तब परिग्रह को सजाया। है सेव्य है अभय सेवक मैं विरागी, मैं भी बनूँ अभय जो सब ग्रन्थत्यागी ॥५९॥ जो देह नेह मद को तजना कहाता ! स्वामी ! अतीन्द्रिय वही सुख है सुहाता। तेरे सुशान्त मुख को लख ले रहा है, ऐसा विबोध, मन का मल धो रहा है ॥६०॥ गंभीर सागर नहीं शशि दर्श पाता, गांभीर्य त्याग तट बाहर भाग आता। गंभीर आप रहते निज में इसी से, लेते प्रभावित नहीं जग में किसी से ॥६१॥ है चाहता अबुध ही तुम पास आना, धारे बिना नियम संयम शील बाना। धीमान कौन वह है। श्रम देख रोये, चाहे यहाँ सुफल क्या बिन बीज बोये ॥६२॥ शुद्धात्म में रुचि बिना शिवसाधना है, रे निर्विवाद यह आत्मविराधना है। हो आत्मघात शिर से गिरि फोड़ने से, तेरा यही मत इसे सुख मानने से ॥६३॥ ना आत्म तृप्ति उदयागत पुण्य में है, वो शांति की लहर ना शशिबिम्ब में है। जो आपके चरण का कर स्पर्श पाया, आनन्द ईदृश कही अब लौ न पाया ॥६४॥ स्वामी! निजानुभवरूप समाधि द्वारा, पाया, मिटी-भव-भवाब्धि, भवाब्धि पारा। ये धैर्य धार बुध साधु समाधि साधे, साधे अतः सहज को निज को अराधे ॥६५॥ है वज्र, कर्म-धरणीधर को गिराता, दावा बना कुमत कानन को जलाता। ऐसा रहा सुखद शासन शुद्ध तेरा, पाथेय पंथ बन जाय सहाय मेरा ॥६६॥ से तेज भानु भवसागर को सुखाने, गंगा तुम्हीं तृषित की कुतृषा बुझाने। से जाल इंद्रियमयी मछली मिटाने, मैं भी, तुम्हें सुबुध भी, इस भाँति मानें ॥६७॥ मेरी मती स्तुति सरोवर में रहेगी, हेगी मदाग्नि मुझमें, ह क्या करेगी। पीयूष सिंधु भर में विषबिन्दु क्या है? अस्तित्व में पर प्रभाव दबाव क्या है?॥६८॥ स्याद्वादरूप मत में, मत अन्य खारे, ज्यों ही मिले मधुर से बन जाएँ प्यारे। मात्रानुसार यदि भोजन में मिलाओ, खारा भले लवण हे अति स्वाद पाओ ॥६९॥ ले आपकी प्रथम मैं स्तुति का सहारा, पश्चात् नितांत निज में करता विहारा। ज्यों बीच बीच निज पंख विहंग फैला, फैला विहार करता नभ में अकेला ॥७०॥ मिथ्यात्व से भ्रमित चित्त सही नहीं है, तेरे उसे वचन ये रुचते नहीं हैं। मिश्री मिला पय से रुचता कहाँ है? जो दीन पीड़ित दुखी ज्वर से अहा है ॥७१॥ लालित्य पूर्ण कविता लिख के तुम्हारी, होते अनेक कवि हैं कवि नामधारी। मैं भी सुकाव्य लिख के कवि तो हुआ हूँ, आश्चर्य तो यह निजानुभवी हुआ हूँ ॥७२॥ श्रद्धासमेत तुमको यदि जानता है, शुद्धात्म को वह अवश्य पिछानता है। धूवाँ दिखा अनल का अनुमान होता, है तर्क शास्त्र पढ़ते दृढ़ बोध होता ॥७३॥ मोहादि कर्म मल को तुमने मिटाया, स्वामी स्वकीय पद शाश्वत सौख्य पाया। लेता सहार मुनि से अब मैं तुम्हारा, तोता जहाज तज कुत्र उड़े विचारा ॥७४॥ त्यों आपके स्तवन की किरणावली है, पाती प्रवेश मुझमें सुखदा भली है। ज्यों ज्योति पुंज रवि की प्रखरा प्रभाली, से रंध में सदन के घुसती निराली ॥७५॥ कामारिरूप तुम में मन को लगाता, है वस्तुतः मुनि मनोभव को मिटाता। हो जाय नाश जब कारण का तथापि, क्या कार्य का जनम से जग में कदापि ॥७६॥ स्वामी तुम्हें न जिसने रुचि से निहारा, देता उसे न ‘दृग' दर्शन है तुम्हारा। जो अन्ध है, विमल दर्पण क्या करेगा, क्या नेत्र देकर कृतार्थ उसे करेगा? ॥७७॥ वाणी सुधा सदृश सज्जन संगती से, तेरी, बने कलुष दुर्जन संगती से। औचित्य मेघ जल है गिरता नदी में, तो स्वाद्य पेय बनता, विष से अही में ॥७८॥ जैसा सुशान्त रस वो मम आत्म से है, धारा प्रवाह झरता इस काव्य से है। वैसा कहाँ झर रहा शशि बिंब से है, पूजें तुम्हें तदपि दूर सुवृत्त से है ॥७९॥ संसार के विविध वैभव भोग पाने, पूजें तुम्हें बस कुधी जड़, ना सयाने। ले स्वर्ण का हल, कृषि करता कराता, वो मूर्ख ही कृषक है जग में कहाता ॥८०॥ है मोह नष्ट तुममें फिर अन्न से क्या? त्यागा असंयम, सुसंयम भार से क्या? मारा कुमार तुमने फिर वस्त्र से क्या? हैं पूज्य ही बन गये, पर पूज्य से क्या? ॥८१॥ मेरा जभी मन बना शिवपंथगामी, संसार भोग उसको रुचते न स्वामी। धीमान कौन वह है घृत छोड़ देगा, क्या! मान के परम नीरस छाछ लेगा ॥८२॥ मेरी भली विकृति पै मति चेतना है, चैतन्य से उदित है जिन-देशना है। कल्लोल के बिन सरोवर तो मिलेगा, कल्लोल वो बिन सरोवर क्या मिलेगा? ॥८३॥ लो! आपके स्तवन से बहु निर्जरा हो, स्वामी! तथापि विधिबंधन भी जरा हो। अच्छी दुकान चलती धन खूब देती, तो भी किराय कम से कम क्या न लेती? ॥८४॥ वो आपकी सकल वस्तुप्रकाशिनी है, नासा प्रमाणमय, विभ्रम-नाशिनी है। नासाग्र पे इसलिए तुम साम्यदृष्टि, आसीन है सतत शाश्वत शान्ति सृष्टि ॥८५॥ हैं आप नम्र गुरु चूँकि भरे गुणों से, हैं पूज्य राम निज में रमते युगों से। पी, पी, पराग निजबोधन की सुखी हैं, नीराग हैं, पुरुष हैं, प्रकृती तजीं हैं ॥८६॥ हो धीर वीर तुम चूँकि निजात्म जेता, मारा कुमार तुमने शिव साधु नेता। सर्वज्ञ हो इसलिए तुम सर्वव्यापी, बैठे मदीय मन में अणु हो तथापि ॥८७॥ साता नहीं उदय में जब हो असाता, मैं आपके भजन में बस डूब जाता। है चन्द्र को निरखता सघनी निशा में, जैसा चकोर रुचि से न कभी दिवा में ॥८८॥ धाता तुम्हीं अभय दे जग को जिलाते, नेता तुम्हीं सहज सत्पथ भी दिखाते। मृत्युंजयी बन गये भगवान् कहाते, सौभाग्य है, कि मम मन्दिर में सुहाते ॥८९॥ ऐसी मुझे दिख रही तुम भाल पे है, जो बाल की लटकती लद गाल पे है। तालाब में कमल पे अलि भा रहा हो, संगीत ही गुनगुना कर गा रहा हो ॥९०॥ काले घने कुटिल चिक्कण केश प्यारे, ऐसे मुझे दिख रहे शिर के तुम्हारे। जैसे कहीं मलयचन्दन वृक्ष से ही, हो कृष्ण नाग लिपटे अयि दिव्य देही! ॥९१॥ चाहूँ न राज सुख मैं सुरसम्पदा भी, चाहूँ न मान यश देह नहीं कदापि। है ईश गर्दभ समा तन भार ढोना, कैसे मिटे, कब मिटे, मुझको कहो ना ! ॥९२॥ मेरी सुसुप्त उस केवल की दशा में, ये आपकी सहज तैर रहीं दशायें। यों आपका कह रहा श्रुत सत्य प्यारा, मैंने उसे सुन गुना रुचि संग धारा ॥९३॥ संसार से विरत हूँ तुम ज्योति में हैं, निस्तेज कर्म मुझमें जब होश में हूँ। बैठा रहे निकट नाग कराल काला, टूटा हुआ, कि जिसका विषदन्त भाला ॥९४॥ विज्ञान से अति सुखी बुध वीतरागी, अज्ञान से नित दुखी मद-मत्त, रागी। ऐसा सदा कह रहा मत आपका है, धर्मात्म का सहचरी, रिपु पाप का है ॥९५॥ हो आज सीमित भले मम ज्ञान आरा, होगी असीम तुम आश्रय पा अपारा। प्रारम्भ में सरित हो पतली भले ही, पै अन्त में अमित सागर में ढले ही ॥९६॥ लो आपके सुखमयी पदपंकजों में, श्रद्धासमेत नत हैं तब लौं विभो मैं। विज्ञानरूप रमणी मम सामने आ, ना नाच गान करती जब लौं न नेहा ॥९७॥ स्वामी तुम्हें निरख सादर नेत्र दोनों, आरूढ़ मोक्षपथ हों मम पैर दोनों। ले ईश नाम रसना, शिर तो नती से, यों अंग अंग हुरषे तुम संगती से ॥९८॥ हो मृत्यु से रहित अक्षर हो कहाते, हो शुद्ध जीव जड़ अक्षर हो न ततै। तो भी तुम्हें न बिन अक्षर जान पाया, स्वामी अतः स्तवन अक्षर से रचाया ॥९९॥ चाहूँ कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी, पीऊँ सुधारस स्वकीय बनूँ न कामी। पा ज्ञानसागर सुमंथन से सुविद्या, विद्यादिसागर बनँ तज हैं अविद्या ॥१००॥
  12. ?? कार्यक्रम सूचना ?? संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के 50वें संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष के अंतर्गत आचार्य श्री ससंघ के मंगल आशीर्वाद से दिनांक 9 जून 2018 को श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पपौरा जी में सायं 7•30 बजे भक्तामर पाठ का आयोजन होने जा रहा है। जिसकी प्रस्तुति प्रतिभास्थली (जबलपुर) की छात्राएं सुश्री विधि जैन, निष्ठा जैन तथा श्री विद्यासागर यात्रा संघ, जयपुर द्वारा दी जाएगी।
  13. आगंतुक ध्रुवपथगामी का कर रहा है सम्मान। गर्भ में आते ही विद्याभा से गर्भस्थल मानो ज्ञानकक्ष में बदल गया। पवित्रता का वातावरण छा गया। सदविचारों के वातायन से। दूर...सुदूर तक, शांति... शांति... शांति... शब्द ध्वनित होने लगा...। माँ को सुखद सुमधुर-सा एहसास हुआ मानो कोई शांतिदूत के आगमन का आभास हुआ। गर्भस्थ की पुण्य रश्मियों से जननी का शरीर चमकने लगा आँखों की कोर-कोर में आनंद रस झरने लगा, ओष्ठ की अरुणिमा और गहराती गई देह की क्रियाशीलता बढ़ती गई नवीन मंजरियों से लदी। रसालसी देह पांडुर-सी हुई, मुख पर उगते दिन की स्वर्णाभा दीपित हो उठी अगों में अपूर्व-सा भार और निखार है। अंतस् के सघन आनंद से गांभीर्य का प्रकाश बाहर में फूट रहा है। यह पूर्वकृत् सुकृत् का ही। अद्भुत उपहार है। आत्मिक सुख-समृद्धि से आनत श्रीमति जब चलती हैं। तो पैरों के नीचे की धरती गर्व से डोल उठती है, अदृष्ट भावी विश्वास के सहारे अमंद आनंद धारा में अहर्निश आप्लावित रहती है। वह निरालसी हो धर्मानुष्ठान में उल्लसित मन से प्रभु में खोने लगी, रोम-रोम में धर्म की धुन बजने लगी। तभी... ज्ञानधारा से फूटी एक शब्दातीत ध्वनि...। आज के इस वासना के दौर में आधुनिकता से दुर्वासित भौतिक युग में कौन नारियाँ जागृति पूर्वक करती हैं गर्भ धारण? नशे में होकर चूर भोगती हैं इन्द्रिय सुख और उस वासना की देहोशी में ही हो जाता है गर्भ धारण...। पता चलते ही कई बार हो जाता है गर्भ में ही संहार! वह हत्यारी क्या जाने कैसा होता है। ममतामयी माँ का प्यार? क्या होती है गर्भ की क्रिया। सत्पुत्रों को जन्म देने के लिए प्रस्तुत कर रही है उदाहरण श्रीमति जैसी माँ! जो होशपूर्वक करती है गर्भधारण परिवार की वृद्धि के लिए नहीं अपितु सच्चा जो सिद्धों का परिवार है। उसकी वृद्धि के लिए...।
  14. रात के गहन सन्नाटे में सुखद रात्रि के अंतिम प्रहर में, घूमते हुए चक्र की आवाज़ जरूर कोई तो छिपा है राज़... चक्र का दू...र से आना। आकर सहसा कक्ष में ठहर जाना, मेघों के पीछे से दो तीर्थंकर दिखना और उनके पीछे हौले-हौले आते दिखना दो मुनि ऋद्धिधारी जगत हितकारी, परम उपकारी। स्वप्न में ही झुक गया माथ आहार देने की ज्यों ही बढ़े हाथ, इतने में ही सुमधुर जय-जय की ध्वनि से हो गया आज का सुप्रभात...। इसी रात मल्लप्पाजी ने भी देखा एक शुभ स्वप्न... वे बैठे हैं खेत में आम्र तरु के नीचे इतने में, दहाड़ता हुआ आया एक सिंह आते ही निगल गया उन्हें यह स्वप्न भी था मंगलसूचक मल्लप्पा जी के वीर मरण का प्रतीकात्मक। मराठी में कहावत है-“ मनी बसे स्वप्ने दिसे'' जैसे मन के भाव रहते हैं वैसे स्वप्न दिखते हैं। इधर...स्वप्न का फल ज्ञात हुआ कि यह पुण्यधर संसारचक्र में फँसेगा नहीं प्रभु-पथ का अनुगामी बन । मोह-माया के बंधन से मुक्त हो गृह में रहेगा नहीं। कोख में समाया है व्यक्तित्व महान वर्तमान के मानो वर्धमान, उसी के अदभुत प्रभाव से आज का मंगलमय प्रभात रवि को दे रहा है अपूर्व प्रकाश। तभी तो...आज दिनकर हर दिन की अपेक्षा अत्यधिक है धुतिमान, आगंतुक ध्रुवपथगामी का कर रहा है सम्मान।
  15. (ज्ञानोदय छन्द) है जिनवर! तव चरण समागम, सुर-सुख शिव-सुख शान्त रहा, तव गुणगण का सतत स्मरण ही, परमागम निर्भ्रान्त रहा। विषय-रसिक हैं, कुधी रहे हैं, अनुपम-अधिगम नहीं मिले, विरहित रति से रहूँ इसी से, बोध-कला उर सही खिले॥१॥ नभ में रवि-सम यतनशील हैं, यति-नायक सुखकारक हैं, ज्ञान-भाव से भरित-झील हैं, श्रुतिकारक-दुखहारक हैं। सकल विश्व को सकल ज्ञान से, जान रहै शिवशंकर हैं, गति-मति-रति से रहित रहे हैं, हम सब उनके किंकर हैं॥२॥ दुख में, सुख में तथा अशुभ-शुभ में नियमित रखते समता, शुचितम चेतन को नमते हैं श्रमण, श्रमणता से ममता। यम-संयम-दम-शम भावों का लेता सविनय शरण अतः, विभाव-भावों दुर्भावों का क्षरण शीघ्र हो, मरण स्वतः॥३॥ मृदुल विषयमय लता जलाती शीतलतम हिमपात वही, शान्त शारदा, शरण उसी की ले जीता दिन-रात सही। ‘शतक परीषह-जय' कहता बस मुनिजन, बुधजन मन हरसे, मूल सहित सब अघ संघर से ज्ञान-मेघ फिर झट बरसे॥४॥ उदय असाता का जब होता, उलटी दिखती सुखदा है, प्रथम भूमिका में ही होती, क्षुधावेदना दुखदा है। समरस-रसिया ऋषि समता से, सब सहता, निज-ज्ञाता है, सब का सब यह विधि फल तो है ‘समयसार' सुन! गाता है॥५॥ क्षुधा-परीषह सुधीजनों को देता सद्गति-सम्पद है, और मिटाता नियमरूप से दुस्सह विधिफल आपद है। कुधीजनों को किन्तु पटकता कुगतिकुण्ड में कष्ट रहा, विषय-रसिक हो दुखी जगत है सुखी जगत कह स्पष्ट रहा॥६॥ कनक, कनकपाषाण नियम से, अनल योग से जिस विध है, क्षुधा-परीषह सहते बनते, शुचितम मुनिजन उस विध है। क्षुधा विजय सो काम विजेता मुनियों से भी वन्दित है, शिव-पथ पर पाथेय रहा है जिन-मत से अभिनन्दित है ॥७॥ आगम के अनुकूल किया यदि, किसी साधु ने अनशन है, असमय में फिर अशन त्याज्य है, अशन-कथा तक अशरण है। वीतराग सर्वज्ञदेव ने, आगम में यों कथन किया, श्रवण किया कर सदा उसी का, मनन किया कर, मथन जिया॥८॥ स्वर्णिम, सुरभित, सुभग, सौम्यतन, सुर-पुर में वर सुरसुख है, उन्हें शीघ्र से मिलता शुचितम, शाश्वत, भास्वत-शिवसुख है। वीतराग-विज्ञान सहित जो, क्षुधा-परीषह सहते हैं, दूर पाप से हुए आप हैं, बुधजन जग को कहते हैं ॥९॥ पाप-ताप का कारण तन की, ममता का बस वमन किया, शमी-दमी, मतिमान मुनी ने, समता के प्रति नमन किया। विमल बोधमय, सुधा चाव से, तथा निरन्तर पीता है, उसे तृषा फिर नहीं सताती, सुखमय जीवन जीता है ॥१०॥ कषाय रिपु का शमन किया है, सने स्व-रस में गुणी बने, नग्न नीत, भवभीत रीत हो अघ से, तप के धनी बने। मुक्ति-रमा आ जिनके सम्मुख, नाच नाचती मुदित हुई, मनो इसी से तृषा जल रहीं, ईर्ष्या करती कुपित हुई॥११॥ निरालम्ब हो, स्वावलम्ब हो, जीवन जीते मुनिवर हैं, कभी तृषा या अन्य किसी वश, कुपित बनें ना, मतिवर हैं। श्वान भौंकते सौ-सौ मिलकर, पीछे-पीछे चलते हैं, विचलित कब हो गजदल आगे ललित चाल से चलते हैं॥१२॥ व्यय-उद्भव-ध्रुव-लक्षण से जो, परिलक्षित है खरा रहा, चिन्मय गुण से रचा गया है, सम-रस से है भरा रहा। मनो कभी मुनि तृषित हुआ हो, निज में तब अवगाहित हो, जैसा सागर में शशि होता, निश्चित सुख से भावित हो॥१३॥ रव-रव नरकों में वे नारक, तृषित हुए हैं, व्यथित हुए, सदय हृदय नहीं अदय बने हैं, प्राण कण्ठगत मथित हुए। उस जीवन से निज जीवन की, तुलना कर मुनि कहते हैं, वहाँ सिन्धु-सम दुःख रहा तो, यहाँ बिन्दु हम सहते हैं॥१४॥ शीत-शील का अविरल-अविकल, बहता जब है अनिल महा, ऐसा अनुभव जन-जन करते, अमृत मूल्य का अनल रहा। पग से शिर तक कपड़ा पहना, कप-कप कपता जगत रहा, किन्तु दिगम्बर मुनिपद से नहिं, विचलित हो मुनि-जगत रहा ॥१५॥ तरुण-अरुण की किरणावलि भी, मन्द पड़ी कुछ जान नहीं, शिशिर वात से ठिठुर शिथिल हो, भानु उगा पर, भान नहीं। तभी निशा वह बड़ी हुई है, लघुतम दिन भी बना तभी, पर परवश मुनि नहीं हुआ है, सो मम उर में ठना अभी ॥१६॥ यम-दम-शम-सम से मुनि का मन, अचल हुआ है विमल रहा, महातेज हो धधक रहा है, जिसमें तप का अनल महा। बाधा क्या फिर बाह्य गात पे, होता हो हिमपात भले, जीवन जिनका सुखित हुआ हम, उन पद में प्रणिपात करें॥१७॥ भय लगता है नभ में काले, जल वाले घन डोल रहे, बीच-बीच में बिजली तड़की, घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे। वज्रपात से चूर हो रहै अचल, अचल भी चलित हुए, फिर भी निश्चल मुनि रहते हैं, शिव मिलता, सुख फलित हुए॥१८॥ चण्ड रहा मार्तण्ड ग्रीष्म में, विषयी-जन को दुखद रहा, आत्मजयी ऋषिवशीजनों को, दुखद नहीं, शिव सुखद रहा। प्रखर, प्रखरतर किरण प्रभाकर, की रुचिकर ना कण-कण को, कोमल-कोमल कमलदलों को खुला खिलाती क्षण-क्षण को॥१९॥ सरिता, सरवर सारे सूखे, सूरज शासन सक्त रहा, सरसिज, जलचर कहाँ रहे फिर?, जीवन साधन लुप्त रहा। इतनी गरमी घनी पड़ी पर, करते मुनि प्रतिकार नहीं, शान्ति सुधा का पान करें नित, तन के प्रति ममकार नहीं॥२०॥ सुरमा, काजल, गंगा का जल, मलयाचल का चन्दन है, शरद चन्द्र की शीतल किरणें मणि माला, मनरंजन है। मन में लाते तक ना इनको, शान्त बनाने तन-मन को, मुनि कहलाते पून्य हमारे जिनवर कहते भविजन को ॥२१॥ महाप्रतापी, भू-नभ तापी, अभिशापी रवि बना रहा, वन हारे, तरु सारे, खारे पत्र फूल के बिना अहा! किन्तु पराजित नहीं मुनीश्वर, जित-इन्द्रिय हो राजित हैं, हृदय-कमल पर उन्हें बिठाऊँ, त्रिभुवन से आराधित हैं ॥२२॥ तन से, मन से और वचन से, उष्ण परीषह सहते हैं, निरीह तन से हो निज ध्याते, बहाव में ना बहते हैं। परम तत्त्व का बोध नियम से, पाते यति जयशील रहे, उनकी यशगाथा गाने में, निशिदिन यह मन लीन रहे ॥२३॥ विषयों को तो त्याग-पत्र दे, व्रतधर शिवपथगामी हैं, मत्कुण मच्छर काट रहे अहि, दया-धर्म के स्वामी हैं। कभी किसी प्रतिकूल दशा में, मुनि-मानस नहिं कलुषित हो, शुचितम मानस सरवर-सा है, सदा निराकुल विलसित हो ॥२४॥ चराचरों से मैत्री रखते, कभी किसी से वैर नहीं, निलय दया के बने हुए हैं, नियमित चलते स्वैर नहीं। तन से, मन से और वचन से, करें किसी को व्यथित नहीं, सुबुध जनों से पूजित होते, मान-गान से सहित सही॥२५॥ मत्कुण आदिक रुधिर पी रहे, पी लेने दो, जीने दो, तव शुभ स्तुत की सुधा चाव से, मुझे पेट भर पीने दो। तीन लोक के पूज्य पितामह!, इससे मुझको व्यथा नहीं, यथार्थ चेतन पदार्थ मैं हूँ, तन से 'पर' मम कथा यही॥२६॥ दंश मसक ये कीट पतंगे, पल भर भी तो सुखित नहीं, पाप पाक से पतित पले हैं, क्षुधा तृषा से दुखित यहीं। कब तो इनका भाग्य खुले, कब निशा टले, कब उषा मिले, सन्त सदा यों चिंतन करते, दिशा मिले, निज दशा मिले ॥२७॥ निरा, निरापद, निजपद दाता, यही दिगम्बर पद साता, पाप-प्रदाता आपद-धाता, शेष सभी पद गुरु गाता। हुए दिगम्बर अम्बर तजकर, यही सोच कर मुनिवर हैं, शिवपथ पर अविरल चलते हैं, है जिनवर! तव अनुचर हैं ॥२८॥ अपने ऊपर पूर्ण दया कर, विषय-वासना त्याग दिया, नग्न परीषह सहते तजकर वस्त्र, निजी में राग किया। अनुपम, अव्यय वैभव पाते, लौट नहीं भव में आते, वस्त्र, वासना जो ना तजते, भ्रमते भव-भव में तातैं ॥२९॥ यहाँ अचेतन पुद्गल आदिक, निज-निज गुण के केतन हैं, आदि मध्य औ अन्त रहित हैं, ज्ञान-निलय हैं, चेतन हैं। यथार्थ में तो पदार्थ-दल से, भरा जगत् यह शाश्वत है, निरावरण है, निरा दिगम्बर, स्वयं आप 'बस' भास्वत हैं ॥३०॥ बिना घृणा के नग्नरूप धन, मुनिवर प्रमुदित रहते हैं, भवदुखहारक, शिवसुखकारक, दुस्सह परिषह सहते हैं। लालन-पालन, लाड़-प्यार से, सुत का करती ज्यों जननी, कुलदीपक यदि बुझता है तो, रुदन मचाती है गुणिनी ॥३१॥ इन्द्रिय जिनसे चंचल होती, उन विषयों से विरत हुए, इन्द्रियविजयी, विजितमना हैं, निशिदिन निज में निरत हुए अविरति रति से मौन हुए हैं, अरति परीषह जीत रहें, जिनवर वाणी करुणा कर-कर, कहती यों भवभीत रहें ॥३२॥ सड़ा-गला शव मरा पड़ा जो, बिना गड़ा, अधगडा जला, भीड़ चील की चीर-चीरकर, जिसे खा रही हिला-हिला। दृश्य भयावह लखते-सुनते, गजारिगर्जन मरघट में, किन्तु ग्लानि-भय कभी न करते, रहते मुनिवर निज घट में ॥३३॥ विषय-वासना जिनसे बढ़ती, उन शास्त्रों से दूर रहें, विराग बढ़ता जिनसे उनको, पढ़े साम्य से पूर रहें। विगत काल के भुक्त भोग को, कभी न मन में लाते हैं, प्राप्तकाल सब सुधी बिताते, निजी रमन में तातैं हैं ॥३४॥ आगम के अनुकूल साधु हो, अरति परीषह सहते हैं, कलुषित मन की भाव-प्रणाली, मिटती गुरुवर कहते हैं। प्रतिफल मिलता दृढ़तम, शुचितम, दिव्यदृष्टि झट खुलती है, नियमरूप से शिवसुख मिलता, ज्योत्स्ना जगमग जलती है ॥३५॥ विशाल विस्फारित मंजुलतम, चंचल लोचन वाली हो, कामदेव के मार्दव मानस, को भी लोभन वाली हो। मुख पर ले मुस्कान मन्दतम, गजसम गमनाशीला हो, उस प्रमदा के वश मुनि ना हो, अदभुत चिन्मय लीला हो ॥३६॥ सदा मुक्त-उन्मुक्त विचरती, मत्त स्वैरिणी मोहित है, तभी कहाती प्रमदा जग में, बुधजन से अनुमोदित है। वन में, उपवन में, कानन में, स्मित वदना कुछ बोल रही, निर्विकार यति बने रहे वे, उनकी दृग अनमोल रही ॥३७॥ लाल कमल की आभा-सी तन वाली हैं सुर वनिताएँ, नील कमल-सम विलसित जिनके, लोचन हैं सुख-सुविधाएँ। किन्तु स्वल्प भी विषय-वासना, जगा न सकती मुनि मन में, सुखदा, समता, सती, छबीली, क्योंकि निवसती है उनमें ॥३८॥ शीलवती है, रूपवती है, दुर्लभतम है वरण किया, समता रमणी से निशिदिन जो, श्रमण बना है रमण किया। फिर किस विध वह नश्वर को जो भवदा दुखदा वनिता है, कभी भूलकर क्या चाहेगा? पूछ रही यह कविता है ॥३९॥ कठिन कार्य है खरतर तपना, करने उन्नत तपगुण को, पूर्ण मिटाने भव के कारण, चंचल मन के अवगुण को। दया वधू को मात्र साथ ले, वाहन बिन मुनि पथ चलते, आगम को ही आँख बनायें, निर्मद जिनके विधि हिलते ॥४०॥ सभी तरह के पाद त्राण तज, नग्न पाद से ही चलते, चलते-चलते थक जाते पर, निज पद में तत्पर रहते। कंकर, कंटक चुभते-चुभते, लहुलुहान पद लोहित हो, किन्तु यही आश्चर्य रहा है, मुनि का मन ना लोहित हो ॥४१॥ कोमल-कोमल लाल-लालतर, युगल पादतल कमल बने, अविरल, अविकल चलते-चलते, सने रुधिर में तरल बने। मन में ला सुकुमार कथा को, अशुचि काय में मत रचना, मार मार कर महा बनो तुम, यह कहती रसमय रचना ॥४२॥ बोधयान पर बैठ, कर रहे, यात्रा यतिवर यात्री हैं, त्याग चुके हैं, भूल चुके हैं, रथवाहन, करपात्री हैं। पथ पर चलते तन को केवल, देख रहे पथ दर्शाते, सदा रहें जयवन्त सन्त वे, नमूँ उन्हें मन हर्षाते ॥४३॥ आत्मबोध से पूज्य साधु ने, चंचल मन को अचल किया, मोह लहर भी शान्त हुई है, मानस सरवर अमल जिया। बहुविध दृढ़तम आसन से ही, तन को संयत बना लिया, जीव दया का पालन फलतः, किस विध होता जना दिया ॥४४॥ संयम बाधक चरित मोह को, पूर्ण मिटाने लक्ष बना, बिना आलसी बने निजी को, पूज्य बनाने दक्ष बना। सरिता, सागर, सरवर तट पर, दृढ़तम आसन लगा दिया, त्याग वासना, उपासनारत, 'ऋषि की जय' तम भगा दिया ॥४५॥ आसन परिषह का यह निश्चित, अनुपम अदभुत सुफल रहा, हुए, हो रहे, होंगे जिनवर, इस बिन, सब तप विफल रहा। बुधजन, मुनिजन से पूजित जिन!, अहोरात तव मत गाता, अतः आज भी भविकजनों ने, धारा उसको नत माथा ॥४६॥ भय लगता है यदि तुझको अब विषयी जन में प्रमुख हुआ, यह सुन ले तू चिर से शुचितम निज अनुभव से विमुख हुआ। दृढ़तम आसन लगा आप में होता अन्तर्धान वहीं, ऋषिवर भी आ उन चरणों में नमन करें गुणगान यही ॥४७॥ श्रुतावलोकन आलोड़न से मुनि का मन जब थक जाता, खरतर द्वादशविध तप तपते साथी तन भी रुक जाता। आगम के अनुसार निशा में शयन करै श्रम दूर करे, फलतः हे जिन! तव सम अतिशय पावे सुख भरपूर खरे ॥४८॥ भू पर अथवा कठिन शिला पर काष्ठ फलक पर या तृण पे, शयन रात में अधिक याम तक, दिन में नहिं, संयम तन पे। ब्रह्मचर्य व्रत सुदृढ़ बनाने यथाशक्ति यह व्रत धरना, जितनिद्रक हो हितचिन्तक हो अतिनिद्रा मुनि मत करना ॥४९॥ मुनि पर यदि उपसर्ग कष्ट हो हृदय शून्य उन मानव से, धर्म-भाव से रहित, सहित हैं वैर-भाव से दानव से। किन्तु कभी वे निशि में उठकर गमन करें अन्यत्र नहीं, अहो अचल दृढ़ हृदय उन्हीं का दर्शन वह सर्वत्र नहीं ॥५०॥ सप्तभयों से रहित हुआ है जितनिद्रक है श्रमण बना, शय्या परिषह वही जीतता दमनपना पा शमनपना। निद्राविजयी बनना यदि है इच्छित भोजन त्याग करो, इन्द्रियविजयी बनो प्रथम तुम रसतज निज में राग करो ॥५१॥ यथासमय जो शयन परीषह तन रति तजकर सहता है, निद्रा को ही निद्रा आवे मुनि मन जागृत रहता है। समुचित है यह प्रमाद तज रवि उदयाचल पर उग आता, पता नहीं कब कहाँ भागकर उडुदल गुप लुपछुप जाता ॥५२॥ असभ्य पापी निर्दय जन वे करते हों उपहास कभी, किन्तु न होता मुनि के मन की उज्वलता का नाश कभी। तुष्ट न होते समता-धारक सुधीजनों के वन्दन से, रुष्ट न होते शिष्ट साधुजन कुधीजनों के निन्दन से ॥५३॥ क्रोध जनक हैं कठोर, कर्कश, कर्ण कटुक कुछ वचन मिले, विहार वेला में सुनने को अपने पथ पर श्रमण चले। सुनते भी पर बधिर हुए-से आनाकानी कर जाते, सहते हैं आक्रोश परीषह अबल, सबल होकर भाते ॥५४॥ इन्द्रियगण से रहित रहा हूँ, मल से रस से रहित रहा, रहा इसी से पृथक् वचन से, चेतन बल से सहित रहा। निन्दन से फिर हानि नहीं है, विचार करता इस विध है, प्रहार करता जड़विधि पे मुनि, निहारता निज बहुविध है ॥५५॥ सही मार्ग से भटक चुके हैं चलते-चलते त्रस्त हुए, भील, लुटेरों, मतिमन्दों से घिरे हुए दुखग्रस्त हुए। उनको न प्रतीकार तथापि करते यति जयवन्त रहे, समता के हैं धनी-गुणी हैं पापों से भयवन्त रहे ॥५६॥ मोह-भाव से किया हुआ था, पाप पाक यह उदित हुआ, पर का यह अपराध नहीं है, उपादान खुद घटित हुआ। पर का इसमें हाथ रहा हो, निमित्त वह व्यवहार रहा, अविरति-हन्ता नियमनियन्ता, कहते जिनमतसार रहा ॥५७॥ काया लाली रही उषा की, अशुचिराशि है लहर रही, भवदुखकारण, कारण भ्रम का, शरण नहीं है जहर रही। इसका यदि वध हो तो हो, पर इससे मेरा नाश कहाँ? बोध-धाम हूँ चरण सदन हूँ, दर्शन का अवकाश यहाँ ॥५८॥ बहुविध विधि का संवर होने में हित निश्चित निहित रहा, पापास्रव में कारण होता शिवपथ में वह अहित रहा। अन्ध मन्दमति! वधक नहीं ये बाह्यरूप में साधक हैं, पाप पुण्य के भेद जानते कहते मुनिगण-चालक हैं ॥५९॥ अशन वसतिकादिक की ऋषिगण नहीं याचना करते हैं, तथा कभी भी दीन-हीन बन नहीं पारणा करते हैं। निजाधीनता फलतः निश्चित लुटती है यह अनुभव है, पराधीनता किसे इष्ट है वही पराभव, भव-भव है ॥६०॥ निज पद गौरव तज यदि यति हो मनो-याचना करते हैं, दर्पण सम उज्वल निज पद को पूर्ण कालिमा करते हैं। शुचितम शशि भी योग केतु का पाकर ही वह शाम बने, यही सोचकर साधु सदा ये निज में ही अविराम तने ॥६१॥ बिना याचना, कर्म उदय से यह घटना निश्चित घटती, कभी सफलता, कभी विफलता भेद-भाव बिन बस बटती। इसीलिए मत याचक बनना भूल कभी बन भ्रान्त नहीं, याचक बनता नहीं जानता कर्मों का सिद्धान्त सही ॥६२॥ यांचा परिषह विजयी वह मुनि-समाज में मुनिराज बने, स्वाभिमान से मंडित जिस विध हो वन में मृगराज तने। यांचा विरहित यदि ना बनता, जीवन का उपहास हुआ, विरत हुआ पर बुध कहते वह, गुरुता का सब नाश हुआ ॥६३॥ अनियत विहार करता फिर भी, निर्बल सा ना दीन बने, तथा किया उपवास तथापि, परवश ना! स्वाधीन बने। भोजन पाने चर्या करता, पर भोजन यदि नहिं मिलता, विषाद करता नहिं पर, भोजन मिला हुआ-सा मुख खिलता ॥६४॥ इष्ट मिष्ट रस-पूरित भोजन, मिलने पर हो मुदित नहीं, अनिष्ट नीरस मिलने पर भी, दुखित नहीं हो कुश्चित नहीं। सहित रहा संवेग भाव से, सर्व रस से विरत बना, चिंतन करता यह सब विधिफल, साधु गुणों से भरित बना ॥६५॥ करते श्रुतमय सुधापान हैं, द्वादशविध तप अशन दमी, दमन कर रहे इन्द्रिय तन का, कषायदल का शमन शमी। केवल दिखते बाहर से ही, क्षीणकाय हो दुखित रहे, भीतर से संगीत सुन रहे, जीत निजी को सुखित रहे ॥६६॥ जनन जरा औ मरण रोग से श्वास-श्वास पर डरता है, जिसके चरणों में आकर के नमन विज्ञ दल करता है। दुष्कृत फल है दुस्सह भी है महा भयानक रोग हुआ, प्रभु पदरत मुनि नहिं डरता है धरता शुचि उपयोग हुआ ॥६७॥ सभी तरह के रोगों से जो मुक्त हुए हैं बता रहे, कर्मों के ये फल हैं सारे, खारे जग को सता रहे। रोगों का ही मन्दिर तन है अन्दर कितने पता नहीं, उदय रोग का, कर्म मिटाता ज्ञानी को कुछ व्यथा नहीं ॥६८॥ सुगन्ध चन्दन तैलादिक से तन का कुछ संस्कार नहीं, वसनाभूषण आभरणों से किसी तरह श्रृंगार नहीं। फिर भी तन में रोग उगा हो पाप कर्म का उदय हुआ, उसे मिटाने प्रासुक औषध मुनि ले सकता सदय हुआ ॥६९॥ रोग परीषह प्रसन्न मन से जो मुनि सहता ध्रुव ज्ञाता, सुचिरकाल तक सुरसुख पाता अमिट अमित फिर शिव पाता। अधिक कथन से नहीं प्रयोजन मरण भीति का नाश करो, सादर परिषह सदा सहो बस! निजी नीति में वास करो ॥७०॥ तृण कंटक पद में वह पीड़ा सतत दे रहे दुखकर हैं, गति में अंतर तभी आ रहा रुक-रुक चलते मुनिवर हैं। उस दुस्सह वेदन को सहते-सहते रहते शान्त सदा, उसी भाँति मैं सहूँ परीषह शक्ति मिले, शिव शान्ति सुधा ॥७१॥ खुले खिले हों डाल-डाल पर फूल यथा वे हँसते हैं, जिनकी पराग पीते अलि-दल चुम्बन लेते लसते हैं। विषम, विषमतर शूल तृणों से आहत हैं पर तत्पर हैं, निज कार्यों में बिना विफल हो कहते हमसे तन पर है ॥७२॥ कठिन-कठिनतर शयनासन में कंटक पथ पर विचरण में, सुख ही सुख अवलोकित होता मुनियों के आचरणन में। भीतर से बाहर आने को शम सुख सागर मचल रहा, दुखित जगत को सुखित बनाने यतन चल रहा सकल रहा ॥७३॥ कभी-कभी आकुलता यदि हो मन में तन में वेदन हो, प्रतिफल हो, फल कर्मचेतना चेतन में पर खेद न हो। बिना वेदना प्रथम दशा में कर्मों का वह क्षरण नहीं, समयसार का गीत रहा यह औ सब बाधक शरण नहीं ॥७४॥ निज भावों से भावित भाता भासुर गुणगण शाला है, परिमल पावन पदार्थ प्यारा अनुभवता रस प्याला है। फिर यह तन तो स्वभाव से ही मल है मल से प्यार वृथा, मुनियों से जो वंदित है सुन! शुद्ध-वस्तु की सार कथा ॥७५॥ स्वभाव से ही रहा घृणास्पद रहा अचेतन यह तन है, पल से मल से भरा हुआ है क्यों फिर इसमें चेतन है? तन से निशिदिन झरती रहती अशुचि, सुनो जिनश्रुति गाती, देह राग से श्रमणों की वह विराग छवि ही क्षति पाती ॥७६॥ तपन-ताप से तप्त हुआ तन स्वेद कणों से रंजित हो, रज कण आकर चिपके फलतः स्नान बिना मल संचित हो। मल परिषह तब साधु सह रहा सुधा पान वे सतत करें, नीरस तरु सम तन है जिनका हम सब का सब दुरित हरें ॥७७॥ कंचन काया बन सकती है ऋद्धि-सिद्धि से युक्त रहा, तन का मल मुनि नहीं हटाता मल से तन अतिलिप्त रहा। चेतन मैं हूँ, चेतन मैं हूँ यथार्थ मल तो मल में है, कहता जाता कमल कमल में कहने भर को जल में है ॥७८॥ अविरत जन या व्रती पुरुष यदि अपने से विपरीत बने, आदर ना दे, करे अनादर यदि बनते अविनीत तने। किन्तु मुनीश्वर लोकेषण से दूर हुए भवभीत हुए, विकास विरहित ललाट उनका रहता वे जग मीत हुए ॥७९॥ अमल, समल हैं सकल जीव ये ऊपर, भीतर से प्यारे, अगणित गुणगण से पूरित सब ‘समान’ शीतल शुचि सारे। मैं गुरु तू लघु फिर क्या बचता परिभव-परिषह बुध सहते, आर्य देव अनिवार्य यही तव मत गहते सुख से रहते ॥८०॥ कभी प्रशंसा करे प्रशंसक विनय समादर यदि करते, नहीं मान-मद मन में लाते, मन को कलुषित नहिं करते। प्रत्युत अन्दर घुस कर बैठा मान-कर्म के क्षय करने, साधु निरंतर जागृत रहते निज को शुचि अतिशय करने ॥८१॥ निरालसी यति समिति गुप्ति में जब हो रत मन शमन करें, गणधर आदिक महामना भी उनको मन से नमन करें। मानी मुनिजन नमनादिक यदि नहिं करते मत करने दो, अर्थ नहीं उसमें, जिन कहते यह परिषह अघ हरने दो ॥८२॥ जिन श्रुत में हैं पूर्ण विशारद सम्मानित हैं बुधगण में, भाग्य मानकर सदा शारदा रहती जिनके आनन में। मानहीन हैं, स्वार्थहीन हैं दुखी जगत को अमृत पिला, परमत तारकदल में शीतलशशि हैं यश की अमिट शिला ॥८३॥ अन्तराय का अन्त नहीं हो अतुल अमिट बल मुदित नहीं, जब तक तुममें अनन्त अक्षय पूर्ण ज्ञान हो उदित नहीं। ज्ञान क्षेत्र में तब तक निज को लघुतम ही स्वीकार करो, तन-मन-वच से ज्ञान-मान का प्रतिपल तुम धिक्कार करो ॥८४॥ अवलोकन-अवलोडून करते जिनश्रुत के अनुवादक हैं, वादीजन को स्याद्दवाद से जीते पथ प्रतिपादक हैं। ज्ञान परीषह सहते मुख से कभी न कहते हम ज्ञानी, ज्ञान कहाँ है तुममें इतना महा अधम हो अज्ञानी ॥८५॥ नग्न भाव से ज्ञान परीषह जीत-जी रहे मतिवर हैं, तत्त्व ज्ञान से मत्त चित्त को किया नियंत्रित यतिवर हैं। प्रभु पद में रत हुए मुझे भी होने सन्मति दान करें, निलयगुणों के जय हो गुरु की मम गति का अवसान करें ॥८६॥ सहो सदा अज्ञान परीषह नियोग है यह शिव मिलता, अल्पज्ञान पर्याप्त रहा यदि निज अनुभवता भव टलता। बहुत दिनों का पड़ा हुआ है सुमेरु सम तृण ढेर रहा, एक अनल की कणिका से बस! जल मिटता, क्षण देर रहा ॥८७॥ सत्पथ चलता महाव्रती हो प्रचुर समय वह बीत गया, इन्द्रिय योगों को वश करके गाता आतम गीत जिया। किन्तु अभी तक जगी न मुझमें बोध भानु की किरण कहीं, यूँ न सोचता, मुनिवर तजता समता की वह शरण नहीं ॥८८॥ महा मूढ़ है, साधु बना है, शुभकृत जीवन किया नहीं, भविकजनों को सदुपदेश दे उपकृत अब तक किया नहीं। महा मलिन मति चिर से तेरी ज्ञान-नीर से धुली नहीं, सहे वचन यूँ व्यर्थ साधुता अभी आँख तव खुली नहीं ॥८९॥ बच करके अशुभोपयोग से जब शुभ शुचि उपयोग धरूँ, अक्षय सुख देने वाले मुनि-गुण-गण का उपभोग करूँ। किस विध फिर मैं हो सकता हूँ कुधी, कभी नहिं हो सकता, सहता यूँ अज्ञान परीषह मन का मल वह धो सकता ॥९०॥ ज्ञानावरणादिक से चिर से भला-बोध बल मलिन वही, सहने से अज्ञान परीषह निश्चित होता विमल सही। उड़-उड़कर आ रज-कण चिपके धूमिल फलतः दर्पण हो, जल से शुचि हो जिनमत गाता इसे सदा नति अर्पण हो ॥९१॥ चिर से दीक्षित हुआ अभी तक, ऋद्धि नहीं कुछ सिद्धि नहीं, तथा गुणों में ज्ञानादिक में लेश मात्र भी वृद्धि नहीं। ऐसा मन में विचार कर मुनि उदासता का दास नहीं, होकर परवश कभी त्यागता जिनमत का विश्वास नहीं ॥९२॥ जिन शासन से शासित होकर व्रत पालू अविराम सही, किन्तु हुआ ना ख्यात जगत में यश फैला ना नाम कहीं। रहित रहा हो अतिशय गुण से जिन दर्शन यह लगता है, समदर्शन युत मुनि मन में ना ऐसा संशय जगता है ॥९३॥ अल्प मात्र भी ऐहिक सुख औ इन्द्रिय सुख वह मिला नहीं, फिर, किस विध निर्वाण अमित सुख मुझे मिलेगा भला कहीं। मुनि हो ऐसा कहता नहिं जिन-मत का गौरव नहिं खोता, रहा अदर्शन यही परीषह-विजयी होता सुख-जोता॥९४॥ जिन मत की उन्नति में जिनका जीवन तत्पर लसता है, उजल सलिल से भरा सरित-सा जिन में दर्शन हँसता है। रहा अदर्शन परिषहजय यह प्रमुख रहा मुनि यतियों का, उनके चरणों में नित नत हूँ विनशन हो चहुँगतियों का ॥९५॥ पद-पूजन संपद संविद पा पद-पद होते सुखित नहीं, निन्दन, आपद, अपयश में फिर साधु कभी हो दुखित नहीं। दुस्सह सब परिषह सहने में सक्षम ऋषिवर धीर सभी, आत्म ध्यान के पात्र, ध्यान कर पाते हैं भव तीर तभी ॥९६॥ दुष्कर तप से नहीं प्रयोजन संयम से यदि रहित रहा, परिषहजय बिन नहीं सफलता यद्यपि व्रत से सहित रहा। यम-दम-शम-सम सकल व्यर्थ हैं समदर्शन यदि ना होता, पाप पंक से लिपा कलंकित जीवन मौलिक नहिं, थोथा ॥९७॥ शीत परीषह, उष्ण परीषह एक समय में कभी न हों, चर्य्या, शय्या तथा निषद्या एक साथ ये सभी न हों। ऐसा जिनवर का आगम है हम सबको यह बता रहा, अनुभव कहता, स्ववश परीषह सही सही, फिर व्यथा कहाँ ॥९८॥ एक साथ उन्नीस परीषह मुनि जीवन में हो सकते, समता से यदि सहो साधु हो विधिमल पल में धो सकते। सन्त साधुओं तीर्थंकरों ने सहे परीषह सिद्ध हुए, सहूँ निरन्तर उन्नत तप हो समझूँ निज गुण शुद्ध हुए ॥९९॥ पुण्य-पाक है सुरपद संपद सुख की मन में आस नहीं, आतम का नित अवलोकन हो दीर्घ काल से प्यास रही। तन से, मन से और वचन से तजूँ अविद्या हाला है, ‘ज्ञान-सिन्धु’ को मथकर पीऊँ समरस ‘विद्या’, प्याला है ॥१००॥
  16. जय जिनेन्द्र?? आप सभी को सूचित किया जाता है कि आज दिनांक 6 जून 2018 को शाम 6 बजे नाटक अन्तर्यात्री-महापुरुष का विधिवत मुहूर्त समाज श्रेष्ठी गणेश राणा जी व राजेन्द्र के. गोधा जी (समाचार जगत) व अन्तर्यात्री-महापुरुष के सभी कलाकारों द्वारा महावीर स्कूल,सी-स्किम में किया जाएगा। अतः आप सभी से विनम्र आग्रह है??? की आप सभी समय पर पधार कर इस अति भव्य प्रस्तुती का आग़ाज़ करे। व मुहूर्त को सफल बनायें। आप सभी के सहयोग की अपेक्षा की प्रतिक्षा में...... धन्यवाद। टीम अरिहन्त नाट्य संस्था संयम-स्वर्ण महोत्सव समिति,जयपुर द्वारा आयोजित होने वाला नाटक अन्तर्यात्री - महापुरुष दिगम्बर जैन सन्त "संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज" की जीवनी पर आधारित है,जिसमे आचार्य श्री के जीवन को दर्शाया जाएगा। अन्तर्यात्री-महापुरुष का मुहूर्त *संयम-स्वर्ण महोत्सव समिति के अद्यक्ष प्रमुख समाज श्रेष्ठी व उद्योगपति श्री गणेश राणा व * महामंत्री समाज भूषण श्री राजेन्द्र के. गोधा द्वारा दीप प्रज्वलन किया गया साथ ही जे के जैन ,प्रदीप जैन, राकेश गोधा, नेमी चंद जैन, अशोक जैन, राजेश चौधरी व समस्त कलाकारों द्वारा नाटक के पोस्टर व स्क्रिप्ट का विमोचन महावीर स्कूल,सी-स्किम में शाम 7 बजे किया गया। नाटक अन्तर्यात्री-महापुरुष का लेखन किया है "क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज" ने एवं नाट्य रूपांतरण किया है "श्री किरण प्रकाश जैन" ने तथा निर्देशन युवा रंगकर्मी"अजय जैन,आशीष गुप्ता" कर रहे है। नाटक का मंचन संयम-स्वर्ण महोत्सव के अंतर्गत संयम-स्वर्ण महोत्सव समिति,जयपुर द्वारा आयोजित व अरिहन्त नाट्य संस्था,जयपुर द्वारा जुलाई माह में प्रस्तुत किया जाएगा। इस नाटक में जयपुर थियेटर के 100 से अधिक आर्टिस्ट अभिनय करते नज़र आएंगे।
  17. (ज्ञानोदय छन्द) चिन्मय-धन के धनिक रहे हैं, शिवसुख के जो जनक बने। विरागता के सदन जिन्हें हो, नमन सदा यह कनक बने॥ लिखी गई यह अल्प ज्ञान से, नीतिशतक की रचना है। रोग शोक ना रहे धरा पर, ध्येय पाप से बचना है ॥१॥ नया वस्त्र हो मूल्यवान हो, मल से यदि वह समल रहा। प्रथम बार तो छू नहिं सकता जल को, जले हो विमल अहा॥ उपदेशामृत सन्तों से सुन, करता आना कानी है | शास्त्रों का व्यवसाय चल रहा जिसका, बुध जो मानी है ॥२॥ शिवसुखकारक भवदुखहारक मुनि का मुनिपन विमल घना। देहाश्रित कुल-जात पात से सुनो! कभी ना समले बना॥ यही समझ में सब को आता कृष्ण-वर्ण की गायें हों। किन्तु दूध क्या? काला होता दूध अवल ही पायें ओ!॥३॥ यद्यपि वय से वृद्ध हुए हैं संयम से अति ऊब रहे। विषयरसिक हैं विरति विमुख हैं विषयों में अति डूब रहे॥ उनकी संगति से शुचिचारित मुनियों का वह समल बने। वृद्ध-साथ हो युवा चले यदि युवा चरण भी विकल बने ॥४॥ ज्ञानवृद्ध औ तपोवृद्ध यदि पक्षपात से सहित तना। उभय लोक में सुख से वंचित निज पर का वह अहित बना॥ सज्जन पीते पेय रहा है पावन पय का प्याला है। छेटी सी भी लवण-डली यदि गिरती, फिर क्या? हाला है॥५॥ पाप पंक में फंसे हुए हैं, विषय-राग को सुख जाने। मोह पाश से कसे हुए हैं वीतराग को दुख माने॥ सत्य रहा यह, कर्म-योग से जिनको होता रोग यहाँ। पथ्य कहाँ वह रुचता उनको अपथ्य रुचता भोग महा॥६॥ मानभूत के वशीभूत हो धनिक दान खुद करते हैं। मान तथा धन की आशा से ज्ञान-दान बुध करते हैं। प्रायः ऐसा प्रभाव प्रचलित कलियुग का है विदित रहे। वीतराग-मय पूज्य धर्म से इसीलिए ये स्खलित रहे॥७॥ काल रूप ले लोभ अनल वह जीवन में जब खिलता है। सुधी जनों का व्रती जनों को अपनापन ही जलता है॥ भीतर में नहिं भले बाह्य में भेष-गात्र वह भार रहो। निगला गज ने केंथ निकलता शेष मात्र बस बाहर औ॥८॥ भव भव में नव तन का कारण यही परिग्रह माना है। वैर-कलह का जनक रहा है यही परिग्रह बाना है। यही परिग्रह राजमार्ग है जिस पर शनि का विचरण हो। अतः परिग्रह तजता यह मुनि जिससे इसका सुमरण हो ॥९॥ साक्षर होकर जीवन जिसका मोहादिक से शोभित है। ज्ञान, ज्ञानपन से वंचित है संयम से नहिं शोधित है॥ शूकर के केशों को देखो कहाँ ललित हैं जटिल कहाँ? स्पर्शनीय या दर्शनीय या कोमल-कोमल कुटिल कहाँ? ॥१०॥ पाप पंक में पतित हुआ हो साधु समागम यदि पाता। प्रथम पुण्य से भव वैभव पा मुक्ति समागम पुनि पाता। मिश्री का यदि सुयोग पाता खट्ठी हो वह यदपि दही। इष्ट मिष्ट श्रीखण्ड बनेगा, मूढ चाहता तदपि नहीं ॥११॥ जग के जड़ जंगम जीवों का काय व्याधि का मन्दिर है। दुस्सह दुख का मूल हेतु है चित्त आधि का मन्दिर है॥ साधु जनों का किन्तु काय वह अचलराज है, मन्दर है। निज-पर सुख का कारण मन है जीवित शिव का मन्दिर है ॥१२॥ केवल ज्ञानावरणादिक जड़ कर्मों का जब उदय रहा। पूर्ण ज्ञान का उदय नहीं हो अनन्त सुख का निलय रहा॥ विशाल नभ मण्डल में जैसा उदित प्रभाकर लोहित हो। तारक दल वह लुप्त-गुप्त हो शशि भी शीघ्र तिरोहित हो॥१३॥ गृहस्थ जब तक गृह में रहृता विरागता का श्वास नहीं। जैसा जीवन अनुभव वैसा सरागता का वास वहीं॥ सूखी लकड़ी जलती जिससे धूम नहीं वह उठता है। गीली लकड़ी मन्द जलेगी धूम उठे, दम घुटता है ॥१४॥ मुनियों को अध्यात्म शास्त्र वह प्रायः परमामृत प्याला। विषयरसिक हैं गृही जनों को विषम-विषमतम है हाला॥ जीवन-दाता प्राण-प्रदाता नीर मौन को माना है। औरों को तो मृत्यु रहा है यही योग्यता बाना है ॥१५॥ तन से रीते शिव जिन जीते उनमें संभव हो भव ना। स्वभावदर्शन विभाचघर्षण तन-धारक में संभव ना॥ कहाँ दूध से प्रकाश मिलता तथा दूध में गन्ध कहाँ? प्रकाश देता तथा महकता घृत से जल को बंध कहाँ? ॥१६॥ भोग और उपभोगों से तो विरत रहे हों मानी हो। योग और उपयोगों में जो निरत रहे परमाणी हों। नासा पर फिर दृष्टि रही क्यों? ऐसा यदि भगवान नहीं, मान बिना यह परिणति ना हो मेरा यह अनुमान सही ॥१७॥ जीव पुण्य का उदय प्राप्तकर नर जीवन को पाकर भी। सुखद चरित ना दुखद असंयम प्रायः पाले पामर ही॥ उदार उरवाले पर्वत पर मुड़कर भी नहिं हँसती है। खारा सागर रहा कृपण है सरिता जिस में फंसती है ॥१८॥ दृष्टि रहित हो घोर घोरतर तप तपता उस तापस में। श्रीमन्तों में धीमन्तों में तथा असंयत मानस में॥ अनायास ही होता रहता मद जिससे बहु दोष पले। निशाकाल में निद्रा जैसी प्रायः आती होश टले ॥१९॥ लाल तिलक बिन ललना जनका ललाटतल ना ललित रहे। उद्यम के बिन तथा जगत में देश ख्यात ना दलित रहे। परम शान्त रस बिना किसे वह भाती कवि की कविता है। सम दर्शन के बिना कभी ना भाती मुनि की मुनिता है ॥२०॥ जीर्ण-शीर्ण तन कान्तिहीन है पर भव भी अब निकट रहा। मोही का पर विषयों पर ही झपट रहा मन निपट रहा॥ बहुत पुराना इमली का बह रहा वृक्ष अतिवृद्ध रहा। किन्तु खदाई इमली की नहिं वृद्धा यह अविरुद्ध रहा ॥२१॥ एक रहा श्रृंगार रस में रस में डूबे रहते हैं। तत्त्वज्ञान से विमुख रहे जो इस विध कुछ कवि कहते हैं॥ किन्तु सुनो! अध्यात्म शृंग तक पहुँचाता रस सार रहा। परम-शान्त रस कवियों का वह सुखकर हैं श्रृंगार रहा ॥२२॥ नारायण प्रतिनारायण औ तीर्थंकर बलदेव धनी। महापुरुष वे महामना वे कहाँ गये जिनदेव गणी?॥ काल-गाल में कवल हुए सब विस्मृत मृत हैं आज नहीं। हम सम साधारण जन की क्या? कथा रही यह लाज रही ॥२३॥ गृही बना पर उद्यम बिन हो धन से वंचित यदि रहता। श्रमण बना श्रामण्य रहित हो धन में रंजित यदि रहता॥ ईख-पुष्प आकाश-पुष्पसम इनका जीवन व्यर्थं रहा। सही-सही पुरुषार्थ वन्य हैं जिस बिन सब दुखगर्त रहा॥२४॥ तत्त्व-बोध को प्राप्त हुए पर धन से यश से यदि रीते। प्रायः मानव धनी जनों की हाँ में हाँ भर कर जीते॥ श्वान चाहता सुखमय जीवन जग में सात्त्विक नामी हो। पीछे-पीछे पूँछ हिलाता स्वामी के अनुगामी हो ॥२५॥ मोक्षमार्ग में विचरण करता श्रमण बना है नगन रहा। किन्तु परिग्रह यदि रखता है अणुभर भी सो विघन रहा॥ पवन वेग से मयूर का वह पुच्छ-भार जब ताड़ित हो। मयूर समुचित चल ना सकता विचलित पद हो बाधित हो ॥२६॥ बात संग की कहें कहाँ तक सुनो! संग तो संग रहा। संघ-भार भी अन्त समय में संग रहा सुन दंग रहा। वस्त्राभरणभूषण सारे बौझिल हो मणिहार तथा। वृद्धावस्था में तो कोमल-मलमल भी अतिभार व्यथा ॥२७॥ सुख चाहें उन शिष्यों के प्रति कठोरतर व्यवहार करें। कभी-कभी गुरु रुष्ट हुए से वचनों का व्यापार करें। किन्तु हृदय से सदा सदय हो मार्दवतम हो लघुतम हो। जैसा श्रीफल कठोर बाहर भीतर उज्वल मृदुतम हो॥२८॥ पापात्मा का आश्रय पाकर सन्त वचन भी पाप बने। पुण्यात्मा का आश्रय पाकर पुण्य बने भवताप हने॥ नभ से गिरती जल की धारा! इक्षु-दण्ड में मधुर सुधा। कटुक नीम में अहि में विष हो अब तो मन तू सुधर मुधा ॥२९॥ अहंकार की परिणति से मैं पूर्ण रूप से विरत रहूँ। तथा काय की ममता तजकर समता में नित निरत रहूँ॥ यही नियति है बार-बार फिर तन का धारण नहीं बने। कारण मिटता कार्य मिटेगा प्राण विदारण नहीं बने ॥३०॥ प्रयास पूरा भले करो तुम पाप पाप से नहिं मिटता। पाप पुण्य से पल में मिटता पुरुष पूत हो सुख मिलता॥ मल से लथपथ हुआ वस्त्र हो मल से कब वह धुल सकता? विमल सलिल से धोलो पल में, मूल रूप से धुल सकता ॥३१॥ सब सारौं का सार रहा है चेतन निधि को त्याग जिया। रहा अचेतन दुख का केतन जड़ वैभव में राग किया। कौन रहा वह बुद्धिमान हो सारभूत नवनीत तजे। क्षारभूत रसरीत छाछ मैं भूल कभी क्या? प्रीत सजे ॥३२॥ धन के अर्जन संवर्धन औ संरक्षण में लीन रहा। बार-बार मर दुखी हुआ पर आत्मिक सुख से हीन रहा। मोह मल्ल की महा शक्ति है उसे जगत कब जान रहा। पूँछ उलझती झाड़ी में है चमरी खोती जान अहा ॥३३॥ जीवन को, जीवित रख सकती प्रजापाल के बिना प्रजा। प्रजापाल पर कहाँ रहे ओ! कहाँ सुखी हो बिना प्रजा॥ निश्चित ही पर-आश्रित है वह स्वयं भला क्या सिन्धु रहा? किन्तु बिन्दु निज आश्रित है यह सिन्धु हेतु है बिन्दु रहा ॥३४॥ भोगी बन कर भोग भोगना भव बन्धन का हेतु रहा। योगी बन कर योग साधना भव-सागर का सेतु रहा॥ जैसा तुम बोओगे वैसा बीज फलेगा अहो! सखे। निम्ब वृक्ष पर सरस आम्रफल कभी लगे क्या? कहो सखे!॥३५॥ मोह भाव से दूर हुआ है, साधु परिग्रह त्याग रहा। समता से भरपूर हुआ है उसे कष्ट नहिं जाग रहा। चिकनाहट से रहित हुआ है पात पका है पलित हुआ। सहज रूप से बाधा बिन ही पादप से वह पतित हुआ ॥३६॥ विषयी का बस विषयराग ही भवदुख का वह कारण है। भविकजनों का धर्म राग ही शिवकारण दुखवारण है॥ सन्ध्या में भी लाली होती प्रभात में भी लाली है। एक सुलाती एक जगाती कितने अन्तर वाली है ॥३७॥ वैसा वानर चंचल होता मदिरा पीता पामर है। बिच्छू ने फिर उसको काटा और हुआ वह पागल है॥ उससे भी मानव मन की अति चंचलता मानी जाती। धन्य रहा वह विजितमना जो जिनवर की वाणी गातीं ॥३८॥ पंचेन्द्रिय के विषयों में जो प्रतीति सुख की होती है। मोह-भाव की परिणति है वह स्वरीति सुख की खोती है। जल का मन्थन करने वाला पाता नहिं नवनीत कभी। किन्तु फेन का दर्शन पाता मति होती विपरीत तभी ॥३९॥ वीतरागमय जिनवर का वह जिसके मन में स्मरण हुआ। ज्ञात रहे यह बात, उसी के पाप बाप का मरण हुआ। सावन में सरवर सरिता का मलिन रहे वह सलिल भले। अगस्त्य का जब उदय हुआ बस! विमल बने जल,कलिल टले ॥४०॥ किसी पुरुष के दोष कभी भी होश बिना जो किए गये। अनायास ही सुधीजनों से सुने गये हो लखे गये। तन मन वच से कहें न पर को जग में वे जयवन्त रहें। सदा दया के निलय बने जो शान्तमना हैं सन्त रहें ॥४१॥ महा भयानक दुस्सह दुखमय-भवसागर के पार गहें। स्वभाव तज कर विभाव-भव में जिनवर नहिं अवतार गहें॥ तेल निकलता है तिल से, घृत तथा दूध से वह निकले। किन्तु तेल तिल में नहिं बदले, नहीं दूध में घृत बदले ॥४२॥ लुब्ध हुआ है विषयों में अति मुग्ध कुधी वृषरीत रहे। ज्ञानी की तुम बात पूछते जग से वह विपरीत रहे। बालक को जब मोदक मिलता खाता खाता नृत्य करे। किन्तु वृद्ध वह यद्यपि खाता नृत्य करे ना तथ्य अरे ! ॥४३॥ नग्न दिगम्बर तन से होना केवल यह पर्याप्त नहीं। किन्तु विमलता साथ रहे वह मन की, कहते आप्त सही॥ ऐसा यदि ना, श्वान सिंह पशु नग्न सदा हैं सुखित बनें। किन्तु कहाँ? वे सुखित बने हैं रहें निरन्तर दुखित घने ॥४४॥ परम शान्त निज आतम में यदि जा बसने की चाह रही। भक्ति-भाव से भजो सरलता तजो कुटिलता 'राह-यही॥ कुटिल-चाल से चलता है अहि बाहर में यह उचित रहा। बिल में प्रवेश जब करता है ‘सरल चाल हो, विदित रहा ॥४५॥ हो सकता है जलधि तृप्त वह शत-शत सरिता नदियन से। तथा जहर भी सुधा सरस हो अनल तृप्त हो ईन्धन से॥ पंगू भी यह दैवयोग से गिरि चढ़ सकता संभव है। किन्तु तृप्ति लोभी की धन से कभी न होना सम्भव है ॥४६॥ रहा मनोबल मुक्ति-मार्ग में साधकतम है गुरु तम है। तथा वचन बल तरतमता से आवश्यक है कुछ कम है। तन बल तो बस रहा सहायक निश्चय के वह साथ सही। किन्तु सुनो! तुम मुक्तिमार्ग में धनबल का कुछ हाथ नहीं ॥४७॥ पापार्जन तन मन वच से हो पाप तनक ही तन से हो। विदित रहे यह सब को, तनसे पाप अधिक वाचन से हो। कहूँ कहाँ तक मन की स्थिति मैं पाप मेरु सम मन से हो। करें नियंत्रण मन का हम सब धर्म कार्य बस! मन से हो ॥४८॥ दान धर्म में रत होने से शोभा पाता वह भौगी। ध्यान कर्म में रत होने से शोभा पाता यह योगी॥ पात्र बना हैं निरीह बनना गुण माना है जिनवर ने। नरक द्वार है इच्छा-ज्याला हमें कहा है ऋषिवर ने ॥४९॥ कृषक कृषी का कार्य करे वह ध्येय धान्य का लाभ रहा। किन्तु घास का ध्येय रहा तो हास्य पात्र वह आप रहा। संग सहित-सागारी हो या संग रहित-अनगारी हो। भवक्षय करने धर्मनिरत हो शिवसुख के अधिकारी हो ॥५०॥ यथाशक्ति औं तथाभक्ति से दान पात्र को दे दाता। फल के प्रति यदि किसी तरह भी मन में लालच नहिं लाता॥ वही रहा है प्रशस्त दाता, बुध-मत हमको बतलाता। कीर्ति फैलती जग में उसकी सुख पाता शाश्वत साता ॥५१॥ सही दान बस वहीं कहता विनय-भाव से घुला हुआ। दाता पूजित बुध जन से हो नग्न-भाव में ढला हुआ। दुग्ध पान करके भी बालक तुरत वमन वह कर लेता। मानवती माता के मुख को मुड़कर भी नहिं लख देता ॥५२॥ चिन्ताओं से घिरा रहेगा आजीवन दिन रैन वही। दो दो नारी जिसकी होती गृहीं जिसे सुख-चैन नहीं। लगभग वैसा गुरु संयत भी चिंतित रहता खेद रहा। जिसके शिष्यों में आपस में वैर भाव मन-भेद रहा ॥५३॥ महाव्रतों में महा रहा है मुनियों का व्रत शील रहा। इन्द्रियविषयों में रसना का विजय मुख्य सुखझील रहा। सब दानों में अभय-दान ही श्रेष्ठ रहा वरदान रहा। सब धर्मों में धर्म-अहिंसा मान्य रहा मन मान रहा ॥५४॥ प्रशस्त ध्यानों में सुखदाता शुक्ल-ध्यान वह श्रेष्ठ रहा। प्रधान तप में ध्यान रहा निज-निधि का निधान जेष्ठ रहा॥ सभी रसों में मधुर त्याग ही प्रथम रहा बुध श्लाघ्य रहा। विज्ञ कहें बस यही साध्य है मुनियों का आराध्य रहा ॥५५॥ प्रमाण के अनुचर हो चलते जिनशासन के नय सारे। भिन्न स्वभावी रहें परस्पर किन्तु लड़े नहीं दृग-धारें। भले नदी के एक कुल को अन्य कुल प्रतिकूल रहे। किन्तु नदी को कुल दोनों मिल कूल सदा अनुकूल रहे ॥५६॥ मूढ़ सुनो तुम तन धारण ही दुस्सह दुख का मूल रहा। सब दुःखों में दुःख यही है मन को जो प्रतिकूल रहा। उसमें भी है महा भयानक दुःख पराभव का होता। आत्मबोध हो फिर क्या दुख है अभाव भव-भव का होता ॥५७॥ बाहर से तो छेड़ दिया है धन मणि कंचन सकल अहा। किन्तु उन्हीं में जाकर जिसका मन रमने को मचल रहा॥ शिवसुख उसको मिल नहिं सकता उसे तत्त्व क्या? खबर नहीं। सर्प कांचली भले छोड़ता किन्तु छोड़ता जहर नहीं ॥५८॥ सभी सुखों में आत्मिक सुख ही उत्तम है श्रुति गाती है। सब गतियों में पंचम गति ही उत्तम मानी जाती है। सब आभाओं में मणि-आभा मानव मन को भाती है। सब ज्ञानों में अक्षय केवल-ज्ञान ज्योति सुख लाती है ॥५९॥ जैसी मति होती है वैसी नियम रूप से गति होती। जैसी गति होती है वैसी सुनो नियम से मति होती॥ अभाव मति का जब होता है गति का अभाव तब होता। अभाव मति गति का होने से प्रकटित स्वभाव अब होता ॥६०॥ जल बिन कब हो जल में उठत लहरें जल के आश्रित हो। गगन चूमता भवन बना है स्तम्भों पर आधारित हो॥ उत्तम तम गुण ज्ञानादिक भी विनयाश्रित हैं शोभित हैं। बिना विनय के वृथा सभी गुण इस विध मुनि संबोधित हैं ॥६१॥ शक्ति-शालिनी सेना की भी राजा से ही शोभा है। मस्तक पर वर मुकुट शोभता राजा की भी शोभा है॥ नहीं शोभता बिना विनय के गुणगण का जो निलय बना। इसीलिए बस सुधी जनों से पूजा जाता विनय घना ॥६२॥ ज्यों ही इन्द्रिय सचेत होती विषयों का बस ग्रहण हुआ। कषाय जगती क्रोधाधिक फिर विधि-बन्धन का वरण हुआ। विधि बन्धन से गति मिलती है गति से काया मिलती है। काया में फिर नई इन्द्रियाँ नई खिड़कियाँ खुलती हैं ॥६३॥ फिर क्या पूछे वही-वही फिर चलती रहती चिर से है। परम्परा है बीज वृक्ष से वृक्ष बीज से फिर से है॥ किन्तु बीज को दग्ध करो तो वृक्ष कहाँ फिर जीयेगा। जीती, इन्द्रिय यदि तुमने तो शान्ति सुधा चिर पीयेगा ॥६४॥ जीत इन्द्रियाँ विजितमना है यम संयम ले संयत है। आत्म-ध्यान में सहज रूप से वहीं लीन हो संगत है। यथा-शीघ्र ही घुल मिल जाती सुनो दूध में शक्कर है। जीतो इन्द्रिय इसीलिए तुम विषयों का तो चक्कर है ॥६५॥ ज्ञान मात्र से मात्र चरित से मात्र भावना के बल से। सिद्धि नहीं हो, होती शुचितम ध्यान साधना के बल से॥ समुचित है यह बिना तपाये नहीं दूध से घृत मिलता। अनल योग पा, तप-तप कर ही कनक खरा भास्वत खिलता ॥६६॥ विशेष औ सामान्य गुणों से सहित वस्तु है शाश्वत है। प्रभु के दोनों उपयोगों में एक साथ जो भास्वत है॥ फैला-फैला कर पंखों को पंछी नभ में उड़ता ओ। किन्तु कभी ना दिखा किसी को एक पंख से उड़ता हो ॥६७॥ हित हो अथवा अहित रहा हो निज आतम में निहित रहे। सन्तों के ये वचन रहे हैं तुम सब को भी विदित रहे। पर का इस में हाथ रहा हो निमित्त भर वह कहलाता। उपादान में फल लगता है सुनो! गीत तुम यह गाता ॥६८॥ ज्ञेय-मूल्य भी ज्ञान बिना नहिं दुख ही सुख का मूल्य रहा। बन्ध बिना नहिं मुक्ति रुचेगी निर्धन धन का मूल्य रहा॥ कौन पूछना दाता को बिन पात्र, पथिक बिन पन्था को। गौण हुए बिन मुख्य कौन हो लोचन-मालिक, अन्धा हो ॥६९॥ अज्ञ रहा तब मूल्य विज्ञ को बढ़ा अन्यथा वृथा कथा। शत्रु मित्र की याद दिलाता क्षुधा बिना है अन्न वृथा॥ उचित रहा यह जहाँ निशा हो तथा दिवस भी रहे वहाँ। मूल्य निशाकर तथा दिवाकर का होता बुध कहें यहाँ ॥७०॥ अविवाहित हो जीवन जीता व्यभिचारी भी बना हुआ। गृही विवाहित उससे वर है शुभ आचारी बना हुआ। एक पाप को पल पल ढोता दुर्मति से दुर्गति होती। एक पाप को नियमित धोता धर्म कार्यरत मति होती ॥७१॥ कृपण सेठ से श्रेष्ठ रहा वह साधारण जीवन जीता। दयालु दाता पर के दुख का वैरी उद्यम-जल पीता॥ प्रशस्त-दाता किन्तु नहीं जो अनीति-धन का दान करे। दान बिना भी मान्य रहा वह नीति निपुण गुणवान अरे ! ॥७२॥ श्रद्धा की मम आँखों में प्रभु किसविध आ अवतार लिया। कणभर होकर मन यह मेरा गुरु तम तुमको धार लिया॥ विराग हो तुम अमूर्त भी हो मूर्त रहा यह अन्य रहा। धन्य रहे हो भगवन् तुम तो किन्तु भक्त भी धन्य रहा ॥७३॥ महा विचक्षण योग्य शिष्य हो विनयी हो श्रमशील तना। योग, योग्य गुरु का पा गुरु हो विस्मय क्या समझील बना॥ शिल्पी की यह शिल्पकला है जड़ भी चेतन हो जाता। कठिन-कठिन पाषाण-खण्ड भी विराग केतन हो जाता ॥७४॥ चमक दमक है जिनके चारों ओर विषय ये परे हुए। निज में रमते सदा भ्रमर से बुधजन भ्रम से परे हुए। किन्तु हिताहित नहीं जानते पर में रत जड़ मरते हैं। जैसे कफ में मक्खी फँसती क्यों न विषय से डरते हैं? ॥७५॥ भाग्य खुला तो मुख खिलता है प्रायः जग यह मुदित दिखे। पाप उदय में आता है तब मुख न मुदित हो दुखित दिखे। तपन ताप से नभ मण्डल की धरती जब यह तप जाती। पली छाव में मृदुल लता जो मूर्छित होती अकुलाती ॥७६॥ चरित-शरण में जब आता है शील-अँव में पलता है। ज्ञान स्वयं यह अविनश्वर शुचि पूर्ण-ज्ञान में ढलता है। उचित शाण पर उचित समय तक अनगढ़ हीरा जब चढ़ता। सुजनों के वह कण्ठहार हो मूल्य चरम तक तब बढ़ता ॥७७॥ नहीं भूलता उपकारक को कृतज्ञता गुण भरता है। श्वान सन्त सम कम सोता है निद्रा से अति डरता है। किन्तु द्वेष रखता है निशिदिन निजी जाति से खेद यही। खेल खेलता कर्म कहाँ कब किस विध खुलता भेद नहीं ॥७८॥ उपादान हो निमित्त हो या गौण मुख्य की शर्त नहीं। कार्य पूर्ण हो जाने पर फिर कारण से कुछ अर्थ नहीं॥ बढ़ते बढ़ते ऊपर चढ़ते अंतिम मंजिल वह आती। एक एक कर क्रमशः पीछे सभी सीढ़ियाँ रह जाती ॥७९॥ अशुभ-भाव से जनित भयंकर कर्मों का वह नाश करे। शुभ भावों में वास कर रहे ध्यान सहीं जिन दास ! अरे । पवन योग पा उद्दीपित वह होता दावानल वन में। पूर्ण जलाता राख बनाता पूरण वन को वह क्षण में ॥८०॥ यदपि मनुज की मोह भाव से सुप्त चेतना होती है। विराग पहली दृष्टि दूसरी राग रंगिनी होती है। बादल दल से गिरती धारा प्रथम समय में विमला हो। ज्यों ही धरती को आ छूती धूमिल पंकिल समला हो ॥८१॥ ऐसा देखा जाता जग में सभी नहीं श्रीफल खाते। मनुज तोड़ कर खाता हाथी गिरे हुए श्रीफल खाते॥ आशा के तो दास नहीं हैं समता धन के धनी बने। मुक्ता खाता हंस मोक्षफल खाता है मुनि गुणी बने ॥८२॥ पल-पल में प्रति पदार्थ-दल में अपनी अपनी पर्यायें। नई-नई छवि लेकर उठती मिटती रहती क्षणिकायें॥ तरंगमाला तरल छबीली पवन चले तब जल में है। झिलमिल, झिलमिल करती उठती और समाती पल में है ॥८३॥ नहीं काल में नहीं काल से सुख मिल सकता ज्ञात रहे। सुख तो निर्मल गुण है अपना आत्म तत्त्व के साथ रहे। हित चाहो तो मन वच तन से निज आतम में लीन रहो। यहीं प्रथम कर्तव्य रहा है भूल कभी मत दीन रहो ॥८४॥ विज्ञ जनों के सेव्य नहीं है रहा काल यह ध्येय नहीं। ज्ञेय भले हो नियत रहा हो किन्तु नियम से हेय सही॥ मोक्षमार्ग में शुचि चेतन ही सेव्य रहा है ध्येय रहा। अमेय भी है उपेय भी है शान्त सुधासम पेय रहा ॥८५॥ विषय त्याग से डरते हैं जो मूढ़ रहे वे भूल रहे। मुक्ति समय पर मिलती इस विध कहते हैं प्रतिकूल रहे। मोह-भूत के वशीभूत हो आत्म-बोध से रहित हुए। कषाय-वश नर क्या नहिं करता पाप पंक में पतित हुए ॥८६॥ निजी जाति के प्रति ईर्ष्या नहिं काक सदा अनुराग धरे। दिन में तो सम्भौग-कार्य में ना रत हो ना राग करे॥ तदपि कहाँ है काक समादृत कारण का कुछ पता नहीं। लगता इसमें रुढ़ि रही हो नीति हमें यह बता रही ॥८७॥ आमादिक तरु सम जो होता सरस फलों से भरा नहीं। फूल फूलता यद्यपि जिसमें गन्ध नहीं है हरा नहीं। इक्षु दण्ड उद्दण्ड रहा है किन्तु रहा वह सरस महा। इसीलिए आ-बाल वृद्ध सब जिसे चाहते हरस रहा ॥८८॥ तन के आश्रित जितने तप हैं गौण सभी तब होते हैं। जरा दशा में साधक मुनिजन मौन शमी जब होते हैं। जिसे रोग मंदाग्नि हुआ था जिसने भोजन पाया है। इष्ट मिष्ट भोजन से अब ना अर्थ रहा प्रभु गाया है ॥८९॥ उचित नाव के आश्रित जन को शीघ्र नदी का तीर मिले। छिद्र सहित यदि नाव मिली तो घोर रसातल पीर मिले। शासक शासन उचित चलाता सबका वह संताप हरे। अनुचित सो अभिशाप रहा है आप, पाप परिताप करे ॥९०॥ बिन करनी कथनी में रत है तापस का भ्रम-भाव रहा। ज्ञात नहीं अनुभूत नहिं क्या? शुचितम आतम-भाव रहा॥ पित्तकोप से ज्वर पीड़ित यो सन्निपात का यह रोगी। जैसा प्रलाप करता रहता उसे मानते बुध योगी ॥९१॥ जिस की चर्या गो सम होती पाप कार्य में मौन रहा। बिन पूछे निर्भीक बोलता धर्म कार्य हो गौण रहा॥ गवेषणा में डूब रहा है लोकेषण से भीत रहा। दुर्जन द्वारा दिये गये दुख उपसर्गों को जीत रहा ॥९२॥ शरणागत के शरण प्रदाता निरीह तरु सम उपकारी। नियमित उद्यम में रत रहता रवि शशि सम है तमहारी॥ सिंह वृत्ति का धारक भी है संग रहित है हवा समा। योगों में तो अचल मेरु है धरा बना है धार क्षमा ॥९३॥ अहि सम जिसका खुद का घर नहिं सत्य ओलता इक रसना। जिसके तन मन सर्व-इन्द्रियाँ स्ववश कूर्म सम, परवश ना॥ देख चुका गन्तव्य स्थान को किन्तु नदी सम भाग रहा। योगी वह जयवन्त रहे नित भनँ उसे मन जाग रहा ॥९४॥ विज्ञों का उपयोग चपल यदि निज को निहार नहिं पाते। अज्ञों की क्या बात रही फिर पर में विहार कर जाते॥ सलिल स्वच्छ हो सरवर का पर मुख उसमें नहिं दिख सकता। जहाँ पवन से लहर उठ रहीं वहाँ नेत्र क्या? टिक सकता ॥९५॥ जननी सुत को ताड़ित करती नेत्र सजल हो सुत रोता। माँ सहलाती, भूल तुरत सब हँसमुख सुत प्रत्युत होता॥ नेत्र रहे प्रतिशोध-भाव बिन अपलक बालक जैसा हो। महाभाग्य वह यथाजात यति व्रत का पालक वैसा हो ॥९६॥ शब्दों के तो पात्र रहे हैं जग के सारे शास्त्र महा। मल का कोई पात्र यहाँ है तेरा जड़मय गात्र रहा॥ सुख का पावन पात्र रहा तो शुचितम चेतन मात्र रहा। ऐसा मन में चिंतन कर लो अपात्र सब सर्वत्र रहा ॥९७॥ जो भी देखी जाती हमसे वही प्रकृति स्त्री कहलाती। अमूर्त जो है पुरुष रहा वह ऐसी कविता यह गाती॥ मूर्त रूप से देखा जाता स्त्री पुरुषों का अभिनय जो। केवल यह व्यवहार रहा है भीतर निश्चय अतिशय हो ॥९८॥ बल में बालक हूँ किस लायक बोध कहाँ मुझ में स्वामी। तव गुणगण की स्तुति करने से पूर्ण बनँ तुम सा नामी॥ गिरि से गिरती सरिता पहली पतली सी ही चलती है। किन्तु अन्त में रूप बदलती सागर में जा ढलती है ॥९९॥ रहे नीति के वीर प्रणेता शिवपथ के जो नेता हो। नीति प्राप्त हो तुम्हें भऊँ मैं सकल तत्त्व के वेत्ता हो। क्यों न निर्धनी करे धनिक की सेवा धन से प्रीति रही। रीति नीति हम कभी न भूलें गीत गा रही नीति यही ॥१००॥
  18. (वसन्ततिलका छन्द) शोभें प्रभो परम पावन पा पदों को, योगी करें नमन ये जिनके पदों को। सौभाग्य मान उनको उर में बिठा लूँ, साफल्यपूर्ण निज-जीवन को बना लूँ ॥१॥ ध्यानाग्नि से मदन को तुमने जलाया, पीयूष स्वानुभव का निज को पिलाया। धारा सुरत्नत्रयहार, अतः कृपालो, पूजूँ तुम्हें मम गुरो! मद मेट डालो ॥२॥ अन्धा विमोहतम में भटका फिरा हूँ, कैसे प्रकाश बिन संवर भाव पाऊँ। है शारदे! विनय से द्वय हाथ जोडूँ, आलोक दे विषय को विष मान छोडूँ ॥३॥ सम्मान मैं समय का करता करता, हूँ ‘भावनाशतक' काव्य अहो बनाता। मेरा प्रयोजन प्रभो कुछ और ना है, जीतूँ विभाव भव को बस भावना है ॥४॥ आदर्श सादृश सुदर्शन शुद्धि प्यारी, पाके जिसे जिन बने स्व-परोपकारी। ऐसा जिनेश मत है मत भूल रे! तू, साक्षात् भवाम्बुनिधि का यह भव्य सेतु ॥५॥ होता विनष्ट जब दर्शनमोह स्वामी, जाती तदा वह अनन्त कषाय नामी। पाते इसे जन तभी जिन! जैन जो हैं, सदभारती कह रही जनमीत जो हैं ॥६॥ जो अंग-अंग करुणारस से भरा है, शोभायमान दृग से वह हो रहा है। औचित्य है समझ में यह बात आती, अत्युज्ज्वला शशिकला निशि में सुहाती ॥७॥ हो प्राप्त, स्वर्ग तक पुण्यविधान से भी, होता न प्राप्त दृग शस्त निदान से भी। सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती, लक्ष्मी अहो मृदुल हाथ तभी मिलाती ॥८॥ दुर्जेय मोहरिपु को जिनने दबाया, शुद्धोपयोग मणिहार गले सजाया। वे साधु बोध बिन भी दृग शुद्धि पाते, जो बाह्य में निरत हैं दुख ही उठाते ॥९॥ आलोक दे सुजन को रवि से जगाती, है भव्य कंज दल को सहसा खिलाती। है पापरूप तम को क्षण में मिटाती, ऐसी सुदर्शन विशुद्धि किसे न भाती ॥१०॥ ना पाप को, विनय को शिर मैं नमाता, हे वीर! क्योंकि मुझको निज सौख्य भाता। जो भी गया तपन तापतया-सताया, क्या चाहता अनल को, तज नीर छाया ॥११॥ सेना विहीन नृप ज्यों जय को न पाता, त्यों हीन जो विनय से शिव को न पाता। सत् साधना यदि करे दुख भी टलेगा, संसार में सहज से सुख भी मिलेगा ॥१२॥ निर्भीक से विनय आयुध को सुधारा, हे वीर! मान रिपु को पुनि शीघ्र मारा। पाया स्वकीय निधि को जिसने यदा है, क्या माँगता वह कभी जड़ संपदा है ॥१३॥ वे व्यर्थ का नहिं घमण्ड कभी दिखाते, सन्मार्ग को विनय से विनयी दिखाते। पापी कुधी तक तभी भवतीर पाते, विद्वान भी हृदय में जिनको बिठाते ॥१४॥ संसार में विनय के बिन तु चलेगा, आनन्द भी अमित औं मित क्यों मिलेगा। योगी सुधी तक सदा इसका सहारा, लेते अतः नमन हो इसको हमारा ॥१५॥ विद्वेष जो विनय से करते कराते, निर्भान्त वे नहिं भवोदधि तैर पाते। जाना उन्हें भव-भवान्तर क्यों न होगा, ना मोक्ष का विभव संभव भव्य होगा ॥१६॥ कामाग्नि से जल रहा त्रयलोक सारा, देखे जहाँ दुख भरा कुछ ना सहारा। ऐसे जिनेश कहते, जग के विधाता, जो काम मान मद त्याग बने प्रमाता ॥१७॥ पूजा गया मुनिगणों यति योगियों से, त्यों शील, नीलमणि ज्यों जगभोगियों से। सत् शील में सतत लीन अतः रहूँ मैं, लो! मोक्ष को निकट ही फलतः लखूँ मैं॥१८॥ गंगाम्बु को न हिम को शशि को न चाहूँ, चाहूँ न चन्दन कभी मन में न लाऊँ। जो शीलझील मन की गरमी मिटाती, डूबूँ वहाँ सहज शीतलता सुहाती ॥१९॥ मैं भूत भावि सब साम्प्रत पाप छोडूँ, चारित्र संग झट चंचल चित्त जोडूँ। सौभाग्य मान जिसको मुनि साधु त्यागी, हैं पूजते नमन भी करते विरागी ॥२०॥ जैसे सती जगत में गजचाल हो तो, शोभे उषा पवन मन्द सुगन्ध हो तो। संसार शोभित रहे गति चार होवें, सर्वज्ञ सिद्ध सब वे गति चार खोवें। वैसा सुशीलव्रत संयम योग से रे, होते सुशोभित सुधी, न हि भोग से रे।। सिद्धान्तपारग सभी गुरु यों बताते, सद्ध्यान में सतत जीवन हैं बिताते॥२१॥ निर्भीक मैं बढ़ रहा शिव ओर स्वामी, आरूढ़ शीलरथ पै अतिशीघ्रगामी। लो! काल व्याल-विकराल-कुचाल वाला, है भीति से पड़ गया वह पूर्ण काला॥२२॥ होता विनिर्विष रसायन से धतूरा, है अग्नि से पिघलता झट मोम पूरा। ज्यों काम देख शिव को दश प्राण खोता, विज्ञान को निरख त्यों मद नष्ट ह्येता ॥२३॥ संयोग पा मदन मञ्जुल कान्त का वे, जैसा नितान्त ललनाजन मोद पावे। किंवा सुखी कुमुद वारिधि चन्द्र से हो, वैसा मदीय मन मोदित ज्ञान से हो ॥२४॥ ज्ञानोपयोग बन तु मम मित्र प्यारा, ज्यों अग्नि का पवन मित्र बना उदारा। पीड़ा मिटे, सुख मिले, भव-जेल छूटे, धारा अपूर्व सुख की न कदापि टूटे ॥२५॥ स्वामी! भले ही शिर पै शशि भा रहा हो, विज्ञान से विकल शंकर हो रहा हो। श्रीकृष्ण पाकर इसे कुछ ही दिनों में, होंगे सुपूज्य यतियों मुनि सज्जनों में ॥२६॥ ज्ञानोपयोग वर संवर साधता है, चाञ्चल्यचित्त झट से यह रोकता है। भाई निजानुभवियों यति नायकों ने, ऐसा कहा सुन! जिनेन्द्र उपासकों ने ॥२७॥ जाज्वल्यमान न कदापि चलायमान, हो ज्ञानदीप कर में यदि विद्यमान। रूपी दिखे, पर पदार्थ सभी अरूपी, हैं स्पष्टरूप दिखते जिन चित्स्वरूपी ॥२८॥ माला सुमेरु मणि से जिस भाँति भाती, वाणी गणेश मुख से जिन की सुहाती। संवेग से मनुज भी उस भाँति भाता, जो है सदैव जिनका गुणगीत गाता ॥२९॥ बोले विहंगम, उषा मन को लुभाती, शोभावती वह निशा शशि से दिखाती। हो पूर्ण शान्तरस से कविता कहाती, शुद्धात्म में मुनि रहें मुनिता सुहाती ॥३०॥ ज्यों मारता सहज अर्जुन कौरवों को, संवेग त्यों दुरित कर्म अरातियों को। दावा यथा सधन कानन को जलाता, संसाररूप वन को यह भी मिटाता॥ ज्यों नाग नाम सुन मेंढक भाग जाता, त्यों ही कषाय इसके नहिं पास आता। ऐसी विशेष महिमा इसकी सुनी रे! संवेगरूप धन पा बन जा धनी रे! ॥३१॥ संवेग है परम सौख्यमयी उषा का, धाता, परन्तु शशि है दुखदा निशा का। निर्दोष है यह सदा शशि दोष धाम, संवेग श्रेष्ठ शशि से लसता ललाम ॥३२॥ सम्यक्त्वज्योति बल से रवि को हराता, है तेज वाडव भवाम्बुधि को सुखाता। चाञ्चल्यचित्त मृग को यह व्याघ्र खाता, संवेग आत्मिक मह्मसुख का विधाता॥३३॥ संसार से स्वतन से जड़ भोग से वे, होते निरीह बुध हैं इनको न सेवें। पीम अतीव इनसे दिन रैन होती, शीघ्रातिशीघ्र बुझती निजबोध ज्योति॥३४॥ कामाग्नि से जल रहा यदि पूर्ण रागी, धाता नहीं वह न शंकर है न त्यागी। तो विश्व का अमित दुःख त्रिशूलधारी, कैसे मिटाकर, बने स्वपरोपकारी ? ॥३५॥ ले क्षीर स्वाद रसना अति मोद पाती, पा फूल फूल-सम नासिक फूल जाती। संतुष्ट ओ तृषित शीतल नीर से हो, मेरा सुतृप्त मन तो अघ त्याग से हो ॥३६॥ संतुष्ट बाल जननीस्तनपान से हो, फुले लता ललित लो! जलस्नान से हो। हो तुष्ट आम्रकलिका लख कोकिला वे, मेरा कषाय तज के मन मोद पावे॥३७॥ शास्त्रानुसार यदि त्याग नहीं बना है, लो! दुःख ही न मिटता उससे अहा है। जो अन्नसार रस से अति ही भरा है, भाई कभी न मिटती उससे क्षुधा है ॥३८॥ क्या साधु से सुबुध से ऋषि से यमी से, भाई। प्रशंसित रही समता सभी से। सौभाग्य है मम घड़ी शुभ आ गई है, सर्वांग में सुसमता सुसमा गई है ॥३९॥ मैं वीतराग बन के मन रोकता हूँ, तो सत्य तथ्य निजरूप विलोकता हूँ। आलोक हो अरुण ओ जब जन्म लेता, अज्ञात को नयन भी झट देख लेता॥४०॥ शुद्धात्म में स्थिति सही तप ही वही हो, तो नश्यमान तन में रुचि भी नहीं हो। ऐसा न हो सुख नहीं दुख ही अतीव, हैं वीतराग गुरु यों कहते सदीव॥४१॥ आतापनादि तप से तन को तपाया, योगी बना, बिन दया निज को न पाया। पाया नहीं सुख कभी बहु दुःख पाया, होता अहिंसक सुखी जिनदेव गाया ॥४२॥ दीखे परीषहजयी वह देखने में, है लीन यद्यपि महाव्रत पालने में। लक्ष्मी उसे तदपि है वरती न स्वामी, जो मूढ़ है विषय लम्पट भूरिकामी ॥४३॥ लोहा सुवेष्टित रहे यदि वस्त्र से जो, होगा नहीं कनक पारस संग से ओ। तो संग के सहित जो तप भी करेंगे, ना आत्म को परम पूत बना सकेंगे ॥४४॥ दावा यथा वनज हो वन को जलाता, भाई तथा तप सही तन को जलाता। सम्यक्त्व पूर्ण तप की महिमा यही है, देवाधिदेव जिन ने जग को कही है॥४५॥ आशा निवास जिसमें करती नहीं है, सम्यक्त्वबोध युत जो तप ही सही है। ऐसा सदैव कहती प्रभु सन्त वाणी, तृष्णा मिटे, झटिति पी अति शीत पानी॥४६॥ साधू समाधि करना भव मुक्त होना, पा कीर्ति पूजन गुणी बन दुःख खोना। ऐसा जिनेश कहते शिवमार्गनेता, वेत्ता बने जगत के मन अक्ष जेता॥४७॥ ये आधि व्याधि समुपाधि सभी अनादि, से आ रही, पर मिली न निजी समाधि। चाहूँ समाधि, नहिं नाक नहीं किसी को, चाहें सभी चतुर चेतन भी इसी को॥४८॥ मानी नही मुनि समाथि करा सकेगा, तो वीरदेव निज को वह क्या ? लखेगा। सम्मान मैं न उसका मुनि हो करूँगा, शुद्धात्म को नित नितान्त अहो स्मरूँगा॥४९॥ वैराग्य का प्रथम पाठ अहो पढ़ाता, पश्चात् प्रभो प्रथम देव बने प्रमाता। मैं भी समाधि सधने बनता विरागी, ऐसी मदीय मन में वर ज्योति जागी॥५०॥ लाली लगे कर-लता अति शोभती है, शोभे जिनेन्द्र नुति से मम भारती है। होता पसगवश वात सुगंधवाही, शोभा तभी मुनि करे मुनि की समाधि॥५१॥ है भव्यकौमुद शशी जग में समाधि, है कामधेनु सुर पादप से अनादि। कैसे मुझे यह मिले कब तो मिलेगी? है वीर देव! कब ज्ञानकली खिलेगी॥५२॥ राजा प्रजाहित करे पर स्वार्थ त्यागे, देता प्रकाश रवि है कुछ भी न मांगे। कर्तव्य मानकर तू कर साधु सेवा, पाले पुनः परम पावन बोधमेवा ॥५३॥ जो साधु सेवक नहीं उन मानियों को, चाहूँ न मैं, नित भजूँ मुनि सज्जनों को। क्या चाहता कृपण को परिवार प्यारा, क्या प्यार से कुमुद ने रवि को निहारा ॥५४॥ जो पूर्ण पूरित दयामय भाव से है, औ दूर भी विमलमानस मान से है। सेवा सुसाधु जन की करता यहाँ है, होता सुखी वह अवश्य जहाँ तहाँ है ॥५५॥ ये साधु सेवक कहीं मिलते यहाँ हैं, जो जातरूप धरते जग में अहा है। प्रत्येक नाग, मणि से कब शोभता है? प्रत्येक गज कब मौक्तिक धारता है? ॥५६॥ जैसा सरोज अलि से सबको सुहाता, उद्योग से जगत में यश देश पाता। वैसा विराग मुनि से यह साधु सेवा, होती सुशोभित अतीव विभो सदैवा ॥५७॥ मैं काय से वचन से मन से सदैवा, सौभाग्य मान करता बुध साधु सेवा। होऊँ अबन्ध भवबन्धन शीघ्र छूटे, विज्ञान की किरण मानस मध्य फूटे ॥५८॥ बाधा बिना सहज से जिनसे निहारे, जाते अनागत गतागत भाव सारे। शुद्धात्म में निरत जो जिनदेव ज्ञानी, वे विश्व पूज्य जयवन्त रहें अमानी ॥५९॥ हो पूर्ण इन्द्रियजयी जितकाम आप, पाके अनंत सुख को तज पापताप। क्रीड़ा सदैव करते शिवनारि साथ, जोडूँ तुम्हें सतत हाथ, अनाथ-नाथ ॥६०॥ पीयूष पावन पवित्र पयोद धारा, ज्यों तृप्त भूमि तल को करती सुचारा। त्यों शान्ति दो दुखित हूँ भवताप से जो, है प्रार्थना मम विभो! बस आप से यों ॥६१॥ हो मोह सर्प, तुम से गरुणेन्द्रनामी, से मुक्तिपन्थ-अधिनायक, हो अमानी। स्वामी, निरंजन, न अञ्जन की निशानी, पूजूँ तुम्हें बन सकूँ द्रुत दिव्यज्ञानी ॥६२॥ है आदि में स्वमन को फिर मार मारा, हे आदिनाथ ! तुमने-तज भोग सारा। कामारि है इसलिए जग में कहाते, स्वामी! सुशीघ्र मम क्यों न व्यथा मिटाते॥६३॥ वे शान्त, सन्त, अरहन्त अनन्त ज्ञाता, वन्दूँ उन्हें निरभिमान स्वभाव धाता। होऊँ प्रवीण फलतः पल में प्रमाता, गाता सुगीत ‘जिनका' वह सौख्यपाता॥६४॥ इच्छा नहीं भवन की रखते कदापि, आचार्य ये न वन से डरते प्रतापी। होते विलीन निज में विधि पंक धोते, पूजो इन्हें समय क्यों तुम व्यर्थ खोते ॥६५॥ शास्त्रानुसार चलते सबको चलाते, पाते स्वकीय सुख को पर में न जाते। ये रागरोष तजते सबकी उपेक्षा, मैं तो अभी कुछ रखूँ उनकी अपेक्षा ॥६६॥ आचार्यदेव मुझको कुछ बोध देवो, रक्षा करो शरण में शिशु शीघ्र लेवो। क्या दिव्य अंजन प्रकाश नहीं दिलाता, क्या शीघ्र नेत्रगत धूलि नहीं मिटाता?॥६७॥ ये योग में अचल मेरु बने हुए हैं, ले खड्ग कर्मरिपु को दुख दे रहे हैं। आचार्य तो अमृतपान करा रहे हैं, ये मेघ हैं, हम मयूर सुखी हुए हैं ॥६८॥ हो ज्येष्ठ में नित नहीं रवि ओ प्रतापी, संतप्त पूर्ण करता जग को कुपापी। आचार्य कोटि शत भास्कर तेज वाले, देते सदा सुख हमें समदृष्टि वाले ॥६९॥ आचार्य को विनय से ऊर में बिठा लूँ, मैं पूज्यपाद रज को शिरपै चढ़ा लूँ। है मित्र! मोक्ष मुझको फलतः मिलेगा, विश्वास है यह नियोग नहीं टलेगा ॥७०॥ ज्ञाता बने समय के निज-गीत, गाते, तो भी कदापि मद को मन में न लाते। वे ही अवश्य उवझाय वशी कहाते, भाई उन्हें स्मरण में तुम क्यों न लाते ॥७१॥ कालुष्यभाव रतिराग मिटा दिया है, आत्मावलोकन तथा जिनने किया है। पूजूँ भजूँ नित उन्हें दुख को तजूँगा, विज्ञान से सहज ही निज को सजूँगा॥७२॥ तारा समूह नभ में जब दीख जाता, दोष शशी न दिन में निशि में सुहाता। पै दोष मुक्त उवझाय सदा सुहाते, ये श्रेष्ठ इष्ट शशि से जिन यों बताते ॥७३॥ स्वाध्याय से चपलता मन की घटा दी, काषायिकी परिणति जिनने मिटा दी। पावें सुशीघ्र उमझाय स्वसंपदा वे, आवें न लौट भव में गुरु यों बतावें ॥७४॥ साथी बना कुमुद को शशि पक्षपाती, भाई सरोज दल का वह है अराती। पै साम्यधार उवझाय सुखी बनाते, हैं विश्व को, इसलिए सबको सुहाते ॥७५॥ वे वैद्य लौकिक शरीर इलाज जाने, ये वैद्यराज भवनाशक हैं सयाने। हैं वन्द्य, पूज्य, शिवपन्थ हमें बताते, निःस्वार्थपूर्ण निज जीवन को बिताते ॥७६॥ था, है जिनागम, रहे जयवन्त आगे, पूजो इसे तुम सभी उरबोध जागे। पावो कदापि फिर ना भवदुःख नाना, से मोक्षलाभ, भव में फिर हो न आना॥७७॥ आता वसन्त वन में वन फूल जाता, नाना प्रकार एस पी दुख भूल जाता। पीऊँ जिनागम सुधा चिरकाल जीऊँ, दैवादि शास्त्र मदिरा उसको न पीऊँ ॥७८॥ निष्पक्ष हो श्रमण आगम देखता है, शुद्धात्म को सहज से वह जानता है। जाके निवास करना निज धाम में ओ, संदेह विस्मय नीं इस काम में हो ॥७९॥ आधार ले अयि जिनागम पूर्ण तेरा, हैं भव्य जीव करते शिव में बसेरा। मैं भी तुझे इसलिए दिन रैन ध्याऊँ, धारूँ तुझे हृदय में सुख चैन पाऊँ ॥८०॥ ज्ञाता नहीं समय का दुख ही उठाता, औ ना कभी विमल केवलज्ञान पाता। राजा भले वह बने, निधि क्यों न पाले, भाई न खोल सकता वह मोक्ष ताले ॥८१॥ श्रद्धा समेत जिन आगम को निहारें, जो भी प्रभो! हृदय में समता सुधारे। वे ही जिनेन्द्र पद का द्रुत लाभ लेते, संसार का भ्रमण त्याग विराम लेते ॥८२॥ हो सूत्र में कुसुम सज्जन कण्ठ भाता, निर्दोष ही कनक आदर नित्य पाता। जैसी समादरित गाय सुधी जनों से, वैसी सदैव समता मुनि सज्जनों से ॥८३॥ वर्षा हुई कृषक तो हल जोत लेगा, बोया असामयिक बीज नहीं फलेगा। तू देव वन्दन अकाल अरे! करेगा, होगा न, मोक्ष तुझको भव में फिरेगा ॥८४॥ राजा सशस्त्र रण से जय लूट लाता, से दाँत, भोजन करो अति स्वाद आता। सम्यक् जिनेन्द्रनुति भी सुख को दिलाती, भाई निजानुभव पेय पिला जिलाती ॥८५॥ ज्यों वात जो सरित ऊपर हो चलेगा, से शीत, शीघ्र सब के मन को हरेगा। आख्यान अन्त प्रति के बल पा विधाता, आत्मा अवश्य बनता सुख पूर्ण पाता ॥८६॥ प्राची प्रभात जब रागमयी सुहाती, तो अंगराग लगता वनिता सुहाती। पै राग से समनुरंजित कायक्लेश, होता सुशोभित नहीं सुख हो न लेश ॥८७॥ दुर्वेदना हृदय की क्षण भाग जाती, संवेदना स्वयम की झट जाग जाती। ऐसी प्रतिक्रमण की महिमा निराली, तू धार शीघ्र इसको बन भाग्यशाली ॥८८॥ भाई सुनो मदन से मन को बचाओ, संसार के विषय में रुचि भी न लाओ। पाओ निजानुभव को निज को जगाओ, सद्धर्म की फिर अपूर्व प्रभावना से ॥८९॥ संसार के विभव वित्त असार सारे, सागार भी सतत यों मन में विचारें। रोगी दुखी क्षुधित पीड़ित जो विचारे, दे, अन्नपान उनके दुख को निवारें ॥९०॥ हे वीर देव! तव सेवक धर्म सेवें, होवें ध्वजा विमल धर्म प्रसार में वे । सम्यक्त्वबौध व्रत से निज को सजावें, ज्वाला बनें कुमत कानन को जलावें ॥९१॥ अच्छा लगे तिलक से ललना ललाट, है साम्य से श्रमणता लगती विराट। होता सुशोभित सरोवर कंज होते, सद्भावना वश मनुष्य प्रशस्य होते ॥९२॥ गंगा प्रदान करती बस शीत पानी, तो गाय दूध दुहती जग में सयानी। चाहूँ इन्हें न, इनसे न प्रयोजना है, देती निजामृत जिनेन्द्र प्रभावना है ॥९३॥ संसार सागर असार अपार खारा, कोई न धर्म बिन है तुमको सहारा। नौका यही तरणतारण मोक्षदात्री, ये जा रहे, कुछ गये उस पार यात्री ॥९४॥ गो वत्स में परम हार्दिक प्रेम जैसा, साधर्मि में तुम करो यदि प्रेम वैसा। शुद्धात्म को सहज से द्रुत पा सकोगे, औ मोक्ष में अमित काल बिता सकोगे ॥९५॥ वात्सल्य हो उदित ओ उर में जभी से, हैं क्रूरभाव मिटते सहसा तभी से। भानू गे गगन भू उजले दिखाते, क्या आप तामस निशा तब देख पाते? ॥९६॥ निर्दोष से अनल से झट लोह पिण्ड, वात्सल्य से विमल आतम हो अखण्ड। आलोक से सकललोक अलोक देखा, यों वीर ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥९७॥ वात्सल्य तो जनम से तुम में भरा था, सौभाग्य था सुकृत का झरना झरा था। त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव तभी हुए हो, शुद्धात्म में प्रभव वैभव पा लिए हो ॥९८॥ बन्धुत्व को जलज के प्रति भानू धारा, मैत्री रखे सुजल में वह दुग्ध धारा। स्वामी! परन्तु जग के सब प्राणियों में, वात्सल्य हो, न मम केवल मानवों में ॥९९॥ उन्मत्त होकर कभी मन का न दास, हो जा उदास सबसे अन वीर दास। वात्सल्यरूप सर में डुबकी लगाले, ले ले सुनाम 'जिन' का प्रभु गीत गा ले ॥१००॥ गुरु-स्मृति आशीष लाभ यदि, मैं तुमसे न पाता, तो भावनाशतक काव्य लिखा न जाता। है ज्ञानसागर गुरो! मुझको संभालो, विद्यादिसागर बना तुममें मिला लो ॥१०१॥
  19. आचार्य श्री के संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष के अंतर्गत न्यूयाॅर्क अमेरिका मे 48दीपकों से ऋद्धि मंत्रों द्वारा पहली बार भक्तामर पाठ हुआ
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