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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. (दोहा) सीधे सीझे शीत हैं, शरीर बिन जीवन्त। सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त ॥१॥ अमर उमर भर भ्रमर बन, जिन-पद में हो लीन। उन पद में पद-चाह बिन, बनने नमूँ नवीन ॥२॥ शिव-पथ-नेता जितमना, इन्द्रिय-जेता धीश। तथा प्रणेता शास्त्र के, जय जय जय जगदीश ॥३॥ सन्त पूज्य अरहन्त हो, यथाजात निर्ग्रन्थ। अन्त-हीन-गुणवन्त हो, अजेय हो जयवन्त ॥४॥ सार-सार दे शारदे, बनूँ विशारद धीर। सहार दे, दे तार, दे उतार, दे उस तीर ॥५॥ बनूँ निरापद शारदे! वर दे, ना कर देर। देर खड़ा कर-जोड़ के, मन से बनूँ सुमेर ॥६॥ ज्ञानोदधि के मथन से, करूँ निजामृत-पान। पार, भवोदधि जा करूँ, निराकार का मान ॥७॥ ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है विश्राम। लायक बन नायक नहीं, जाना है शिव-धाम ॥८॥ जीवन समझे मोल है, ना समझे तो खेल। खेल-खेल में युग गये, वही खिलाड़ी खेल ॥९॥ खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल। आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल ॥१०॥ दूर दिख रही लाल-सी, पास पहुँचते आग। अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग ॥११॥ यथा-काल करता गृही, कन्या का है दान। सूरि, सूरिपद का करे, त्याग जिनागम जान ॥१२॥ प्रतिदिन दिनकर दिन करे, फिर भी दुर्दिन आय। दिवस रात, या रात दिन, करनी का फल पाय ॥१३॥ खिड़की से क्यों देखता? दिखे दुखद् संसार। खिड़की में अब देख ले, दिखे सुखद साकार ॥१४॥ राजा ही जब ना रहा, राजनीति क्यों आज? लोकतन्त्र में क्या बची, लोकनीति की लाज ॥१५॥ वचन-सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जायें। लद्ध-सिद्धि-परसिद्रिय, अनायास फल जायें ॥१६॥ सूक्ष्म वस्तु यदि न दिखे, उनका नहीं अभाव। तारा-राजी रात में, दिन में नहीं दिखाया ॥१७॥ दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर। आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर ॥१८॥ भूल नहीं पर भूलना, शिव-पथ में वरदान। नदी भूल गिरि को करे, सागर का संधान ॥१९॥ प्रभु दिखते तब और ना, और समय संसार। रवि दिखता तो एक ही, चन्द्र साथ परिवार ॥२०॥ सुर-पुर भी नीरस रहा, रस का नहीं सवाल। क्षार रसातल और हैं, देती ‘रसा रसाल ॥२१॥ रसाल सुरभित सूंध, छू रस का हो अनुमान। विषय-संग बिन सन्त में, विरागता को मान ॥२२॥ प्रभु को लख हम जागते, वरना सोते घोर। सूर्योदय प्रभु आप हैं, चन्द्रोदय हैं और ॥२३॥ कार्य देखकर हो हमें, कारण का अनुमान। दिशा दिशान्तर में दिखा, सूर्य तभी गतिमान ॥२४॥ अनुभव ना शिव-पंथ में, आतम का अविकार। लवण मिला जल शुचि दिखे, किन्तु स्वाद तो खार॥२५॥ वतन दिखे ना प्रभु उन्हें, धनान्ध मन-आधीन। उल्लू को रवि कब दिखा, दिवान्ध दिन में दीन ॥२६॥ विषय-वित्त के वश हुए, ना पाते शिव-सार। फँसे कीच क्या? चल सके, शिर पर भारी भार ॥२७॥ भांति-भांति की भ्रान्तियां, तरह-तरह की चाल। नाना नारद-नीतियां, ले जार्ती पाताल ॥२८॥ लोकतन्त्र का भेष है, लोभ-तन्त्र ही शेष। देश-भक्त क्या देश में, कहीं हुए निश्शेष? ॥२९॥ सत्ता का ना साथ दो, सदा सत्य के साथ। बिना सत्य सत्ता सुनो, दे न सम्पदा साथ ॥३०॥ अनाथ नर हो धर्म बिन, धर्म-धार हो नाथ। पुजता उगता सूर्य ही, नहीं डूबता भ्रात! ॥३१॥ मानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके गुणमेल। पानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके घृत, तैल ॥३२॥ घूँघट ना हो राग का, मरघट जब लाँ होय। जमघट, पनघट पर रहे, पर ना दल-दल होय ॥३३॥ ठोकर खा-खा फिर रहा, दर-दर दूर दरार। स्व-पर दया कर, दान कर, कहते दीन-दयाल ॥३४॥ यकीन किन-किन पर करो, किन-किन के हो दास। उदास क्यों हो? एक ही, उपास्य के दो पास ॥३५॥ दूर, सहज में डूब हो, दूर रहे सब धूल। आगत तो अभिभूत हो, और भूत हो भूल ॥३६॥ न, मन नमन परिणमन हो, नहीं श्रमण में खेद। जब तब अब कब सब नहीं, और काल के भेद ॥३७॥ धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण। तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन ॥३८॥ फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग। तभी फूल का पतन हो, राग त्याग, तू जाग ॥३९॥ दुबला-पतला हूँ नहीं, सबल समल ना मूढ़। रूढ़ नहीं हूँ प्रौढ़ ना, व्यक्त नहीं हैं गूढ. ॥४०॥ नहीं नपुंसक पुरुष हूँ, अबला नहीं बबाल। जरा जरा से ग्रसित भी, नहीं युवा हूँ बाल ॥४१॥ काया, माया से तथा, छायाँ से हैं हीन। राजा राणा हूँ नहीं, जाया के आधीन ॥४२॥ तुलना उपमा की हवा, मुझे न लगती धूप। स्वरूप मेरा रूप ना, कुरूप हो या रूप ॥४३॥ क्रोध काँपता, बिचकता, मान भूल निज भाव। लाभ लौटता दूर से, मेरे देख स्वभाव ॥४४॥ जीव जिलाना जालना, दिया जलाना कार्य। भूल भुलाना भूलना, शिव-पथ में अनिवार्य ॥४५॥ राग बिना आतम दिखे, आतम बिन ना राग। धूम बिना तो आग हो, धूम नहीं बिन आग ॥४६॥ लौकिकता से हो परे, धरे अलौकिक शील। कर्म करे ना फल चखे, प्रभु तो ज्यों नभ नील ॥४७॥ स्वर्गों में ना भेजते, पटके ना पाताल। हम तुम सब को जानते, प्रभु तो जाननहार ॥४८॥ ना दे अपने पुण्य को, पर के ना ले पाप। पाप-पुण्य से हैं परे, प्रभु अपने में आप ॥४९॥ थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास। रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ॥५०॥ चेतन का जब जतन हो, सो तन की हो धूल। मिले सनातन धाम सो, मिटे तनातन भूल ॥५१॥ मोह दुःख का मूल है, धर्म सुखों का स्रोत। मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत ॥५२॥ चिन्तन से चिन्ता मिटे, मिटे मनो मल-मार। प्रसाद मानस में भरे, उभरें भले विचार ॥५३॥ भले-बुरे दो ध्यान हो, समाधि इक हो, दो न। लहर झाग तट में रहे, नदी मध्य में मौन ॥५४॥ रही सम्पदा, आपदा, प्रभु से हमें बचाय। रही आपदा सम्पदा, प्रभु में हमें रचाय ॥५५॥ कटुक मधुर गुरु वचन भी, भविक-चित्त हुलसाय। तरुण अरुण की किरण भी, सहज कमल विकसाय ॥५६॥ सत्ता का सातत्य सो, सत्य रहा है तथ्य। सत्ता का आश्रय रहा, शिवपथ में है पथ्य ॥५७॥ ज्ञेय बने उपयोग ही, ध्येय बने उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सदा करो उपयोग ॥५८॥ योग, भोग, उपयोग में, प्रधान हो उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सुधी करे उपयोग ॥५९॥ रसना रस गुण को कभी, ना चख सकती भ्रात! मधुरादिक पर्याय को, चख पाती हो ज्ञात ॥६०॥ तथा नासिका सूँघती, सुगन्ध या दुर्गन्ध। अविनश्वर गुण गन्ध से, होता ना सम्बन्ध ॥६१॥ इसी भाँति सब इन्द्रियाँ, ना जानें गुण-शील । इसीलिए उपयोग में, रमते सुधी सलील ॥६२॥ मूर्तिक इन्द्रिय विषय भी, मूर्तिक हैं पर्याय। तभी सुधी उपयोग का, करते हैं स्वाध्याय ॥६३॥ सर परिसर ज्यों शीत हो, सर परिसर हो शीत। वरना अध्यातम रहा, स्वप्नों का संगीत ॥६४॥ खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल । खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ॥६५॥ प्रतिभा की इच्छा नहीं, आभा मिले अपार। प्रतिभा परदे की प्रथा, आभा सीधी पार ॥६६॥ वेग बढ़े इस बुद्धि में, नहीं बढ़े आवेग। कष्ट-दायिनी बुद्धि है, जिसमें ना संवेग ॥६७॥ कल्प काल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प। अल्प काल भी मौन लूँ, चलता अन्तर्जल्प ॥६८॥ पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़। पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़ ॥६९॥ कहीं कभी भी ना हुआ, नदियों का संघर्ष। मनुजों में संघर्ष क्यों? दुर्लभ क्यों? है हर्ष ॥७०॥ शास्त्र पठन ना, गुणन से, निज में हम खो जायें। कटि पर ना, पर अंक में, मां के शिशु सो जायें ॥७१॥ दृश्य नहीं दर्शन भला, ज्ञेय नहीं है ज्ञान। और नहीं आतम भला, भरा सुधामृत-पान ॥७२॥ समरस अब तो चख जरा, सब रस सम बन जाय। नयनों पर उपनयन हो, हरा, हरा दिख जाय ॥७३॥ सुधी पहिनता वस्त्र को, दोष छुपाने भ्रात! किन्तु पहिन यदि मद करे, लज्जा की है बात ॥७४॥ हित-मित-नियमित-मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल। वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा ‘खोल' ॥७५॥ भार उठा दायित्व का, लिखा भाल पर सार। उदार उर हो फिर भला, क्यों ना? हो उद्धार ॥७६॥ आगम का संगम हुआ, महापुण्य का योग। आगम हृदयंगम तभी, निश्छल हो उपयोग ॥७७॥ अर्थ नहीं परमार्थ की, ओर बढ़े भूपाल। पालक जनता के बनें, बनें नहीं भूचाल ॥७८॥ दूषण ना भूषण बनो, बनो देश के भक्त। उम्र बढे बस देश की, देश रहे अविभक्त ॥७९॥ नहीं गुणों की ग्राहिका, रहीं इन्द्रियाँ और। तभी जितेन्द्रिय जिन बने, लखते गुण की ओर ॥८०॥ सब सारों में सार है, समयसार उर धार। सारा सारासार सो, विसार तू संसार ॥८१॥ विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक। अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक ॥८२॥ दिन का हो या रात का, सपना सपना होय। सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय ॥८३॥ जो कुछ अपने आप है, नहीं किसी पर रूढ़। अनेकान्त से ज्ञात हो, जिसे न जाने मूढ़ ॥८४॥ अपने अपने धर्म को, छोड़े नहीं पदार्थ। रक्षक-भक्षक जनक सो, कोई नहीं यथार्थ ॥८५॥ खण्डन मण्डन में लगा, निज का ना ले स्वाद। फूल महकता नीम का, किन्तु कटुक हो स्वाद ॥८६॥ नीर-नीर को छोड़ कर, क्षीर-क्षीर का पान। हंसा करता, भविक भी, गुण लेता गुणगान ॥८७॥ पक्षपात बिन रवि यथा, देता सदा प्रकाश। सबके प्रति मुनि एक हो, रिपु हो या हो दास ॥८८॥ घने वनों में वास सो, विविध तपों को धार। उपसर्गों का सहन भी, समता बिन निस्सार ॥८९॥ चिन्तन मन्थन मनन जो, आगम के अनुसार। तथा निरन्तर मौन भी, समता बिन निस्सार ॥९०॥ विजितमना हो फिर हुए, महामना जिनराज। हिम्मतवाला बन अरे ! मतवाला मत आज ॥९१॥ रसना रस की ओर ना, जा जीवन अनमोल । गुरु - गुण गरिमा गा अरी! इसे न रस से तोल ॥१२॥ चमक दमक की ओर तू, मत जा नयना मान। दुर्लभ जिनवर रूप का, निशि-दिन करना पान ॥९३॥ पके पत्र फल डाल पर, टिक ना सकते देर। मुमुक्षु क्यों ना? निकलता, घर से देर सबेर ॥९४॥ नीरस हो पर कटुक ना, उलटी सौ बच जाय। सूखा हो, रुखा नहीं, बिगड़ी सो बन जाय ॥९५॥ छुआछूत की बात क्या? सुनो और तो और। फरस रूप से शून्य हूँ, देखूँ, दिखूं, विभोर ॥९६॥ दास-दास ही न रहे, सदा-सदा का दास। कनक, कनकपाषाण हो, ताप मिले प्रभु पास ॥९७॥ आत्म-तोष में जी रहा, जिसके यश का नाप। शरद जलद की धवलिमा, लज्जित होती आप ॥९८॥ रस से रीता हूँ, रहा, ममता की ना गन्ध। सौरभ पीता हूँ सदा, समता का मकरन्द ॥९९॥ तव-मम तव-मम कब मिटे, तरतमता का नाश। अन्धकार गहरा रहा, सूर्योदय ना पास ॥१००॥ समय व स्थान परिचय बीना बारह क्षेत्र में, नदी बही सुख-चैन। ग्रीष्मकाल का योग है, मन लगता दिन-रैन ॥१०१॥ गगन गन्ध गति गोत्र के, रंग पंचमी संग। सूर्योदय के उदय से, मम हो प्रभु सम रंग ॥१०२॥
  2. मैं ज्ञानधारा हूँ- प्रतिपल प्रवाहमान ध्रुव धावमान सतत गतिमान रहती हूँ प्रत्येक आत्मा में, बहती हूँ... निःशब्द मैं...।। विकारों की सघन चट्टानों से ढक देते अज्ञानी मुझे, कल-कल करती कर्मधारा का ही तब संवेदन करते हैं वे, विरला कोई ज्ञानी ही जान पाता है मुझे। मैंने आँखों से अगम और बुद्धि से दुर्गम गूढ़ रहस्यों को जाना है, अतीत के भूगर्भ को अनागत के गोद की अतलांत गहराइयों को और वर्तमान की धरा को पहचाना है। आने वाले समय की पदचाप सुनने की क्षमता । सामान्य मनुष्य में कहाँ? नियति के खेल से सब अपरिचित थे, लेकिन मैं परिचित थी मेरी ही कोख में तो समायी थी नियति की परिणति और उसका नियन्ता… जो ध्रुव अडिग दृढ़ संकल्पी चैतन्य चिन्मयी सहज निर्विकल्पी। जिनके परिचय से स्वयं का सहज परिचय होने लगता है, जिनके दर्शन से स्वयं का दर्शन कर निज को निज में ही खोने लगता है। जो नाम, काम और जगत के धाम से परे आप्तकाम, कृतकाम, पूर्णकाम होने को लालायित है..." जो अपने ही पूर्वकृत् पुण्य कर्मों से ‘माँ श्रीमंति' की कोख में अवतरित है। प्रकृति भी आज अत्यधिक पुलकित है; मानो स्वर्ग से चयकर किसी पवित्र आत्मा के आने का दे रही है संकेत… कि अचानक कुछ हल्का-सा, झलका-सा, अपूर्व-सा। सुखद अनुभूत हुआ कुछ अदभुत हुआ पर दृश्य कुछ नहीं। गर्भ के रहस्य में समा गया चेतनात्मा...! गर्भस्थ के गर्भ में ज्ञान और ज्ञान में समाया भगवान... प्रगट नहीं, किंतु इसमें बहुत कुछ अप्रगट सत्य निहित है। अंतर्मुहूर्त में आहार, शरीरादि छहों पर्याप्तियाँ पूर्णकर गर्भ में ही जगत कल्याण की कामना से मानो प्राणियों को संकेत दे रहा हो, भगवान होने की भावना ले। पर्याप्त सुख-शांति का आश्वासन दे रहा हो। कौन जानता था कि ब्रह्मचारी, मुनि, आचार्य बन मोक्षमार्ग की दूरी तय करेंगे और एक दिन अपना गंतव्य पा लेंगे।
  3. (वसन्ततिलका छन्द) योगी करें स्तवन भावभरे स्वरों से, जो हैं सुसंस्तुत नरों, असुरों, सुरों से। वे वर्धमान गतमान मुझे बचायें, काटें कुकर्म मम मोक्ष विभो! दिलावें ॥१॥ जो चन्द्रगुप्त मुनि के गुरु हैं, बली हैं, वे भद्रबाहु समधी श्रुत-केवली हैं। वंदु उन्हें द्रुत भवोदधि पार जाऊँ, संसार में फिर कदापि न लौट आऊ ॥२॥ है ‘कुन्दकुन्द' मुनि! भव्य-सरोजबन्धु मैं बार-बार तव पाद-सरोज वंदें। सम्यक्त्व के सदन हो, समता सुधाम, है धर्म-चक्र शुभ धार लिया ललाम ॥३॥ जो ‘ज्ञानसागर' सुधी गुरु हैं हितैषी, शुद्धात्म में निरत नित्य हितोपदेशी। वे पाप- ग्रीष्म ऋतु में जल हैं सयाने, पूजें उन्हें सतत केवल-ज्ञान पाने ॥४॥ हे शारदे! अब कृपा कर दे जरा तो, तेरा उपासक खरा, भव से डरा जो! माता! विलम्ब करना मत, मैं पुजारी, आशीष दो, बन सकें बस निर्विकारी ॥५॥ रे। साधु का निहित है हित साधुता में, धारूँ उसे तज असार असाधुता मैं। भाई अतः श्रमण के हित मैं लिखेंगा, शुद्धात्म को सहज से फलतः लगा ॥६॥ विद्वान मान मन में मुनि जो न धारें, वे 'वीर' के वचन से मन को सुधारें। जाके रहे विपिन में मन मोद पाते, हैं स्नान आत्म-सर में करते सुहाते ॥७॥ जो कर्म को यति यदा करता नहीं है, आत्मा उसे वह तदा, दिखता सही है। ऐसा सदैव कहती जिनदेव वाणी, होते सुखी सुन जिसे सब भव्य प्राणी ॥८॥ तू छोड़ के विषमयी स वासना को, निश्चिन्त हो, कर निजीय उपासना को। निर्धान्त शिवरमा तुझको वरेगी, योगी कहे परम प्रेम सदा करेगी ॥९॥ हैं पुण्य-पाप पर, पुद्गल रूप जानें, सम्यक्त्व भाव इनसे किस भाँति मानँ। ना नीर के मथन से नवनीत पाना, अक्षुण्ण कार्य करके थक मात्र जाना ॥१०॥ नाना प्रकार तप से तन को तपाया, है छोड़ वस्त्र जिनने अघ को हटाया। पाया निजानुभव को निज को दिपाया, मैंने उन्हें विनय से उर बीच पाया ॥११॥ कम्पायमान मन को जिसने न रोका, आत्मा उसे न दिखता जड़ से अनोखा। आकाश में अरुण शोभित हो रहा है, क्या अन्धको नयनगोचर हो रहा है? ॥१२॥ जो जीतता सब क्षुधादिं परीषों को, संसार रागमय-भाव स्ववैरियों को। है वीतराग बनता वह शीघ्रता से, शुद्धात्म को निरखता बचता व्यथा से ॥१३॥ है वंद्य दिव्य निज आतम द्रव्य न्यारा, जो शुद्ध निश्चय नयाश्रित मात्र प्यारा। योगी गृही सम से न कभी निवारें, जो त्याग के पुनि परिग्रह-भार धारें ॥१४॥ सबोध रूप सर शोभित है विशाल, ना हैं जहाँ वह विकल्प तरंग-जाल। शोभे तथा परम धर्म पयोज प्यारे, तू छोड़ के मनमराल! से न जा रे ॥१५॥ जीतीं जिनेश जिसने निज इन्द्रियाँ हैं, माना गया यति वी, जग में यहाँ है। श्रद्धा-समेत उसको सिर मैं नमाता, शुद्धात्म को निरख, शीघ्र बर्ने प्रमाता ॥१६॥ सबोध से परम शोभित जो यहाँ है, पीयूष पी स्वपद में रमता रहा है। क्या संयमी विषय-पान कदापि चाहे? जो जीव को विष समान सदैव दाहे ॥१७॥ विज्ञान से स्वपद को जिसने पिछवाना, त्यागा सभी तरह से पर को सुजाना। वो दुःख रूप अस आस्रव को नशाता, स्वामी! सही सुखद संवर तत्त्व पाता ॥१८॥ मायादि शल्य-त्रय को मुनि नित्य त्यागें, ज्ञानादि रत्नत्रय धार सदैव जागें। वे शुद्ध तत्त्व फलतः पल में लखेंगे, संसार में परम सार उसे गहेंगे ॥१९॥ आदेय-हेय जिनने सहसा पिछाने, लाये स्वचिन्तनतया मन को ठिकाने। ज्ञानी वशी परम धीर मुमुक्षु ऐसे, स्वामी रखें कुपथ में निजपाद कैसे?॥२०॥ संसार से बहुत यद्यपि जो डरा है, जाना जिनागम सभी जिसने खरा है। आत्मा से न दिखता यदि है प्रमादी, ऐसा सदैव कहते गुरु सत्यवादी ॥२१॥ है ज्ञान जो सघन पावन पूर्णं प्यारा, सद्ज्ञान रूप जल की झरती सुधारा। शोभामयी अतुलनीय सुखैक डेरा, नाचे उसे निरख मानस-मौर मेरा ॥२२॥ होते घनिष्ठ जिसके दुग-बोध साथी, होता वहीं चरित आतम का सुखार्थी। देता निजीय सुख, तीरथ भी कहाता, तू धार मित्र! उसको दुख क्यों उठाता? ॥२३॥ पीता निजानुभव पावन पेय प्याला, डाले गले शिवरमा उसके सुमाला। जो लोक में अनुपमा शुचि-धारिणी है, ऐसा जिनेश कहते सुख-कारिणी है ॥२४॥ रागादि भाव जिसमें न, वही समाधि, पाके उसे मुदित से मुनि अप्रमादी। सेती नदी अमित सागर पा यथा है, किं वा दरिद्र खुश हो निधि पा अथाह ॥२५॥ है देह-नेह भव-कारण तो उसी से, मोक्षेच्छु मैं, बहुत दूर रहें खुशी से। मैं हो विलीन निज में, निज को भजुँगा स्वामी अनन्त सुखपा, भवको तनँगा ॥२६॥ जो भी निजानुभव को जब प्राप्त होते, वे रागद्वेष लव को न कदापि ढोते। तो कौन सा फिर पदार्थ रहाऽवशेष? प्राप्तव्य जो कि उनको न रह्म विशेष ॥२७॥ रागादि भाव पर हैं पर से न नाता, ज्ञानी-मुनीश रखता पर में न जाता। धिक्कार मूढ़ पर को करता, कराता, ना तत्त्व-बोधरखता, अति दुःख पाता ॥२८॥ सम्बन्ध होत विधि से विधि का सदा है, बोधकथाम 'जिन' ने जग को कहा है। ऐसा रहस्य फिर भी मुनि ने गहा है, जो आत्मभाव करता सहसा रहा है ॥२९॥ आत्मानुभूति वर चेतन-मूर्ति प्यारी, साक्षात् यदा उपजती शिवसौख्यकारी। माँगे तथापि मुनि क्या जग-सम्पदा को? देती सदा जनम जो बहु आपदा को ॥३०॥ संपूर्ण भोग मिलने पर भी कदापि, भोगी नहीं मुनि बने, बनते न पापी। पीते तभी सतत हैं समता सुधा को, गाली मिले, नफिर भी करते क्रुधा को ॥३१॥ मिथ्यात्व को हृदय में मत स्थान देना, है दुष्ट व्याल वह, क्यों दुख मोल लेना। छोड़ो उसे निकट भी उसके न जाओ, तो शीघ्र अतुल संपति-धाम पाओ ॥३२॥ जैसे कहे जलज जो जल से निराला, वैसे बना रह सदा जड़ से खुशाला।। क्यों तु प्रमत्त बनता बन भोग त्यागी, रागी नहीं बन कभी बन वीतरागी ॥३३॥ हैं देह से पृथक चेतन शक्ति वाला, स्वामी! सदैव मुझसे तन भी निराला। यों जान, मान तन का मद छेड़ता हूँ, मैं मात्र मोक्ष-पथ से मन जोड़ता हैं ॥३४॥ हो काम नष्ट अघ भी मिटता यदा है, योगी विहार करता निज में तदा है। आकाश में विहग क्या फिर भी उड़ेगा? जो जाल में फँस गया फिर क्या करेगा?॥३५॥ सौभाग्य से श्रमण जो कि बना हुआ है, सच्चा जिसे प्रशमभाव मिला हुआ है। छोड़े नहीं वह कभी उस निर्जरा को, जो नाशती जनम-मृत्यु तथा जरा को॥३६॥ संसार में धन न सार असार सारा, स्थायी नहीं, न उनसे सुख हो अपारा। है सार तो समय-सार अपार प्यारा, से प्राप्त शीघ्र जिससे वह मुक्तिदारा॥३७॥ निस्संग हो विचरते गिरि-गवरों में, वे साधु ज्यों पवन है वन कन्दरों में। कामाग्नि को स्वरस पी झट से बुझा के, विश्राम पूर्ण करते निज-धाम जाके॥३८॥ शोभे सरोज-दल से सर ठीक जैसा, सद्द रूप जल से मुनि-मीन वैसा। से कंज में मृदुपना न असंयमी में, ‘ना शब्द व्योम गुण हैं-कहते यमी हैं॥३९॥ ये आर्त्तरौद्र मुझको रुचते नहीं हैं, संसार के प्रमुख कारण पाप वे हैं। श्री रामचन्द्र फिर भी मृग-भ्रान्ति भूले? जो देख कांचन-मृगी इस भाँति फूले।४०॥ योगी निजानुभव से पर को भुलाता, है वीतरागपन को फलरूप पाता। वो क्या कभी मरण से मुनि से डरेगा? शुद्धोपयोग धन को फिर क्या तजेगा ॥४१॥ जो भानु है, दूग-सरोज विकासता है, योगी सुदूर रहता उससे यदा है। वो तो तदा नियम से पर भावनायें, हा! हा! करे, सहत है फिर यातनायें ॥४२॥ ये पंच पाप इनको बस शीघ्र छोड़ो, आरो मह्मव्रत सभी मन को मरोड़ो। औ! राग का तुम समादर ना करो रे! देवाधिदेव 'जिन' को उर में धरो रे! ॥४३॥ रे। 'वीर' ने जड़मयी तज के क्षमा को, है धार ली तदुपरान्त मा क्षमा को। जो चाहते जगत में बनना सुखी हैं, धारें इसे, परम मुक्ति-वधू सखी है ॥४४॥ आस्था घनिष्ठ निज में जिनकी रही है, विज्ञान से चपलता मन की रुकी है। लेता चरित्र उनका वर मोक्ष-दाता, ऐसा रहस्य यह छन्द हमें बताता ॥४५॥ आत्मा जिसे न रुचता वह तो मुधा है, मिथ्यात्व से रम रहा पर में वृथा है। ज्ञानी निजीय घर में रहते सदा ये, वन्दै उन्हें, द्रुत मिले निज संपदायें ॥४६॥ कैसे रहे अनल दाहकता बिना वो, तो अग्नि से पृथक दाहकता कहाँ से? आकाश के बिन कही रह तो सकेगा, पै ज्ञान आतम बिना न कहीं रहेगा ॥४७॥ जो मात्र शुद्धनय से न हि शोभता है, पै वीतरागमय भाव सुधारता है। लक्ष्मी उसे वरण है करती खुशी से, सागार को निरखती तक ना इसी से ॥४८॥ हैं पूर्व में मुनि सभी बनते अमानी, पश्चात् जिनेश बनते, यह 'वीर' वाणी। तू भी अभी इसलिए तज मान को रे, शुद्धात्मको निरख, ले सुख की हिलोरें ॥४९॥ संसार सागर किनार निहारना है, तो मार मार, दृग को द्रुत धारना है। औ! जातरूप 'जिन' को नित पूजना है, भाई! तुझे परम आतम जानना है ॥५०॥ सल्लीन हों स्वपद में सब सन्त साधु, शुद्धात्म के सुरस के बन जाये स्वादु। वे अन्त में सुख अनन्त नितान्त पावें, सानन्द जीवन शिवालय में बितावें ॥५१॥ ये रोष-रागमय भाव विकार सारे, मेरे स्वभाव नहिं हैं बुध यों विचारें। ये पाप पुण्य इनमें फिर मौन धारें, औ देह स्नेह तज के निज को निहारें ॥५२॥ संसार के जलधि से कब तैरना हो, ऐसी त्वदीय यदि हार्दिक भावना से। आस्वाद ले जिनप-पाद पयोज का तू, नानामले अब कभी उस काम का तू ॥५३॥ संसार-बीच बहिरातम वो कहाता, झूठा पदार्थ गहता, भव को बढ़ाता। बेकार मान करता निज को भुलाता, लक्ष्मी उसे न वरती, अति कष्ट पाता ॥५४॥ जो पाप से रहित चेतन मूर्ति प्यारी, से प्राप्त शीघ्र उनको भव-दुःखहारी। जो भी महाश्रमण हैं निज गीत गाते, सच्चे क्षमादि दश धर्म स्वचित्त लाते ॥५५॥ सम्यक्त्व-लाभ वह है किस काम आता, है कर्म का उदय ही यदि पाप लाता। तो हाय! मुक्ति-ललना किसको वरेगी, वो सम्पदा अतुलनीय किसे मिलेगी ॥५६॥ लेवें निजीय निधि का मुनि वे सहारा, संसार मूल जड़ वैभव को बिसारा। ना चाहते विबुध वे यश सम्पदा को, हाँ, चाहते जड़ उसे सहते व्यथा को ॥५७॥ संसार में सुख नही , दुख का न पार, ले आत्म में रुचि भला-सुख ले अपार। सिद्धान्त का मनन या कर चाव से तु, क्यों लोक में भटकता पर भाव सेतू? ॥५८॥ जो भी रहे समय में रत, मौन धारे, पाते अलौकिक सही सुख शीघ्र सारे। वो विज्ञ ना समय का, वह कष्ट पाता, पीड़ार्त ले, समय है जब बीत जाता ॥५९॥ आत्मा अनन्त-गुण-आम सदैव जानो, सम्यक्त्व प्राप्त करके निज को पिछानो। जाओ वहाँ इधर या तुम शीघ्र आओ, आदेश ईंदूश नहीं पर को सुनाओ ॥६०॥ भोगे हुए विषय को मन में न लाता, औ प्राप्त को पकड़ना न जिसे सुहाता। कांक्षा नहीं उस अनागत की करेगा, यो सत्य पाकर कभी अहि से डरेगा?॥६१॥ हे वीर देव! तुमको नमते मुमुक्षु, पीते तभी स्वरस को सब सन्त भिक्षु। क्यों बीच में मनुज तेज कचौड़ि खाते? पश्चात् अवश्य फलतः हलुवा उड़ाते॥६२॥ चारित्र का नित समादर जो करेंगे, वे ही जिनेन्द्र-पद की स्तुति को करेंगे! ऐसा सदैव कहती प्रभु भारती है, नौका-समान भव पार उतारती है ॥६३॥ आकार जो न करते समयानुसार, औ धारते न रतनत्रय-रूप हार। रागाग्नि से सतत वे जलते रहेंगे, संसार वारिधि मा फिर क्यों तिरेंगे ॥६४॥ देखो सखे! अमर लोग सुखी न सारे, वे भी दुखी सतत, खेचर जो विचारे। दुःखातं हि दिख रहे नर मेदिनी में, शुद्धात्म में रम अतः, मत रागिनी में ॥६५॥ कामाग्नि से परम तप्त हुआ सदा से, तू आत्म को कर सुतृप्त स्व की सुधा से। कोई प्रयोजन नहीं जड़ सम्पदा से, पा बोध से नर! सुखी अति शीघ्रता से ॥६६॥ सम्बन्ध द्रव्य श्रुत से नहिं मात्र रक्खो, रक्खो स्वभाव श्रुत से, निज स्वाद चखो। है मेदिनी तप गई रवि ताप से जो, क्यों शांत हो जल बिना जल नाम से वो ॥६७॥ पर्याय वो जनमती मिटती रही है, वैकालिकी यह पदार्थ, यही सही है।" श्री वीर दैव जिन की यह मान्यता है, पूजें उसे विनय से यह साधुता है ॥६८॥ संमोह राग मद है यदि भासमान, या विद्यमान मुनि के मन में भिमान। आनन्द ले न उस जीवन में कदापि, ह्य! हा! वी नरक कुण्डबना तिपापी ॥६९॥ श्रद्धाभिभूत जिसने मुनि लिंग धारा, कंदर्प को सहज से फिर मार द्वारा। अत्यन्त शान्त निज को उसने निहारा, औ अन्त में बल ज्वलन्त अनन्त धारा ॥७०॥ रे! पाप ही अहित है, रिपु है तुम्हारा, काला कराल अहि है, दुख दे अपारा। से दूर शीघ्र उससे, तब शान्ति धारा, ऐसा कहें जिनप जो जग का सारा ॥७१॥ ले रम्य दृश्य ऋतुराज वसन्त आता, ज्यों देख कोकिल उसे मन मोद पाता। हे वीर! त्यों तव सुशिष्य खुशी मनाता, शुद्धात्म को निरख औ दुख भूल जाता॥७२॥ हृता कुधी, वह सुखी दिवि में नहीं है, तू आत्म में रह, अतः सुख तो वही है। क्या नाक से, नरक से? इक सार माया, सम्यक्त्व के जिन सदा! दुख ही उठाया॥७३॥ ज्योत्स्ना लिए तपन यद्यपि है प्रतापी, छ जाय बादल, तिरोहित से तथापि। आत्मा अनन्त युति लेकर जी रहा है, झे कर्म से अवश कुन्दित हो रहा है ॥७४॥ कैसे मिले? नहिं मिले सुख माँगने से, कैसे उगे अरुण पश्चिम की दिशा से? तो भी सुदूर वह मूढ़ निजी दशा से, ता अशान्त अति पीड़ित हो तृषा से ॥७५॥ लिप्सा कभी विषय की मन में न लाओ, चारित्र धारण करो, पर में न जाओ। चिन्ता कदापि न अनागत की करोगे, विश्राम स्वीय घर में चिरकाल लोगे॥७६॥ संसार सागर असार अपार खारा, है दुःख हो, सुख जहाँ न मिले लगा। तो आत्म में रत रहो, सुख चाहते जो, है सौख्य तो सहज में, नहिं जानते हो?॥७७॥ "कैवल्य-साधन न केवल नग्न-भेष, "त्रैलोक्य वन्य इस भाँति कहें जिनेश । इत्थम् न ले, पशु दिगम्बर क्या न होते ? होते सुखी ? दुखित क्यों दिन रात रोते?॥७८॥ “संसार की सतत वृद्धि विभाव से है, तो मोक्ष सम्भव स्वतन्त्र स्वभाव से है। झे जा अतः अभय, हे विभु में विलीन, "हैं केवली-वचनये“बनजा प्रवीण ॥७९॥ सम्यक्त्व नीलम गया जिसमें जड़ाया, चारित्र का मुकुट ना सिर पे चढ़ाया। तूने तभी परम आतम को न पाया, पाया अनन्त दुख ही, सुख को न पाया॥८०॥ जो काय से वचन से मन से सुचारे, पा बोध, राग मल धोकर शीघ्र हारे। याता निरन्तर निरंजन जैन को है, पाता वीं नियम से सुख चैन को है॥८१॥ दुस्संग से प्रथम जीवन शीघ्र मोझे, तो संग को समझ पाप तथैव छोड़ो। विश्वास भी कुपथ में न कदापि लाओ, शुद्धात्म को विनय से तुम शीघ्र पाओ॥८२॥ पत्ता पका गिर गया तरु से यथा है, योगी निरीह तन से रहता तथा है। औ ब्रह्म को हृदय में उसने बिठाया, तू क्यों उसे विनय स्मृति में न लाया ?॥८३॥ वाणी, शरीर, मन को जिसने सुधारा, सानन्द सेवन करे समता-सुधारा। धर्माभिभूत मुनि है वह भव्य जीव, शुद्धात्म में निरत हैं रहता सदीव ॥८४॥ जो साधु जीत इन इन्द्रिय-हाथियों को, आत्मार्थ जा, वन बसें तज अन्थियों को। पूजें उन्हें सतत वे मुझको जिलावें, पानी सदा द्रगमयी कृषि को पिलायें ॥८५॥ मैं उत्तमाङ्ग उसके पद में नमाता, जो है क्षमा-रमणि से रमता-रमाता। देती क्षमा अमित उत्तम सम्पदा को, भाई ! अतः तज सभी जड़-संपदा को ॥८६॥ ना वन्द्य है, न नय निश्चय मोक्ष-दाता, ना है शुभाशुभ, नहीं दुख को मिटाता। मैं तो नमूँ इसलिए मम ब्रह्म को ही, सद्यः टले दुख मिले सुख और बोधि ॥८७॥ सत् चेतना हृदय में जब देख पाता, आत्मा मदीय भगवान समान भाता। तू भी उसे भज जरा, तज चाह-दाह, क्यों व्यर्थ हो नित व्यथा सहता अथाहा ॥८८॥ “गम्भीर-धीर यति जो मद ना धरेंगे, औ भाव-पूर्ण स्तुति भी निज की करेंगे। वे शीघ्र मुक्ति ललना वर के रहेंगे, "ऐसा जिनेश कहते-‘सुख को गहेंगे॥८९॥ आत्मावलोकन कदापि न नेत्र से ले, पूरा भरा परम पावन बोधि से जो। आदर्श-रूप अरहन्त हमें बताते, कोई कभी दूग बिना सुख को न पाते॥९०॥ जो 'वीर' के चरण में नमता रहा है, चारित्र का वहन भी करता रहा है। औ गोत्र का, दृग बिना, मद ये रहा है, विज्ञान को न गहता, जड़ सो रहा है ॥२९॥ धिक्कार! मोक्ष-पथ से च्युत हो रहा है, तू अंग-संग ममता रखता अहा है। भाई! अतः सह रहा नित दुःख को ही, ले ले विराम अघ से, तज मोह मोही ॥९२॥ जो सन्त हैं समय-सार सरोज का वे, आस्वाद ले भ्रमर-से पर में न जावें। सम्यक्त्व हो न पर से, निज आत्म से है, भाई सुधा-रस झरेशशि-बिम्ब से ही॥९३॥ आया हुआ उदय में यह पुण्य पिण्ड, औ पाप, भिन्न मुझको जड़ का करण्ड। ब्रह्मा न किन्तु पर है, वर-बोध भानु, मैं सर्व-गर्व तज के इस भाँति जानें ॥९४॥ साधू सुधार समता, ममता निवार, जो है सदैव शिव में करता विहार। तो अन्य साधु तक भी उसके पदों में, लेते सुलीनअलि-से, फिर क्या पदों में?॥९५॥ प्रायः सभी कुतप से सुर भी हुए हैं, लाखों दफा असुर हो, मर भी चुके हैं। देदीप्यमान नहिं 'केवलज्ञान' पाया, है वीर देव! हमने दुख ही उठाया ॥९६॥ सानन्द यद्यपि सदा जिन नाम लेते, योगी तथापि न निजातम देख लेते। तो वो उन्हें शिवरमा मिलती नहीं है, तेरा जिनेश! मत ईदृश क्या नहीं है?॥९७॥ अत्यन्त मोह-तम में कुछ ना दिखेगा, तू आत्म मैं रहू, प्रकाश वहाँ मिलेगा। स्वादिष्ट मोक्ष-फल यो फलतः फलेगा, व्दीप्त दीपक सदैव अहो! जलेगा ॥९८॥ तू चाहता विषय में मन ना भुलाना, तो सात तत्त्व-अनुचिन्तन में लगा ना! ऐसा न ले, कुपथ से सुख क्यों मिलेगा ? आत्मानुभूति झरना फिर क्यों झरेगा? ॥ ९९॥ हूँ बाल, मन्द-मति हूँ लघु हैं यमी हूँ, मैं राग की कर रहा कम से कमी हूँ। है चेतने! सुखद-शान्ति-सुधा पिला दे, माता! मुझे कर कृपा मुझमें मिला दे ॥१००॥ चाहूँ कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी! पीऊँ सुधा रस निजीय बनें न कामी। पा 'ज्ञानसागर' सुमन्थन से सुविद्या, ‘विद्यादिसागर' बनू, तज दें अविद्या ॥१०१॥
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव के अंतर्गत विशेष आयोजन ☀☀☀☀☀☀☀ श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान ???????? 9 से 17 जून 2018 तक जबलपुर की धर्मनगरी शिवनगर में आचार्यश्रीजी के आशीर्वाद और द्वितीय अद्वितीय आर्यिकाश्रेष्ठ श्री दृढमति माताजी ससंघ और आर्यिकाश्रेष्ठ श्री मृदुमति माताजी ससंघ के सानिध्य में ब्र.संजीव भैया,ब्र.अरुण भैया कटंगी के निर्देशन में होने जा रहा है। कर्म निर्जरा के इस मंगलकारी अनुष्ठान में आप सपरिवार सादर आमंत्रित हैं। ?????????? निवेदक विकास चौधरी शिवनगर,जबलपुर मप्र
  5. View this quiz अभ्यास प्रश्नोत्तरी हम जल्द ही संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता शुरू करेंगे - यह एक अभ्यास प्रश्नोत्तरी हैं इस अभ्यास का उद्देश्य हैं की आप सभी वेबसाइट पर काउंट बना के इसमें भाग लेना सीख ले ताकि जब अगले हफ्ते से प्रतियोगिता शुरू हो तो आप सभी आसानी से तुर्रंत उत्तर देकर आकर्षक उपहार के दावेदार बन सके | निवेदन - सभी को भाग लेना सिखाएं, जिससे हम प्रतियोगिता शीग्र शुरू कर सके Submitter संयम स्वर्ण महोत्सव Type Graded Mode Time 5 minutes Total Questions 4 Category संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता Submitted 06/04/2018
  6. निःशुक्ल योग शिविर योग है जीवन का आधार संत शिरोमणि ध्यान योग शिविर प्रारंभ दिनांक : 4 जून दिन सोमवार समय : प्रातः 7:00 से 8:00 स्थान : आचार्यश्री विद्यासागर सभा भवन (लाखा भवन) में आयोजित किया जा रहा है जिसमे सभी जाति वर्ग के समस्त जन समलित होकर स्वास्थ्य लाभ ले सकते है। मार्गदर्शक - डॉक्टर योगाचार्य नवीन जैन प्रायोजक - केंद्रीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद(आयुष मंत्रालय) भारत सरकार सहयोगी संस्था - दि.जैन पंचायत सभा, जैन नवयुवक सभा, दि.जैन संरक्षणी सभा जबलपुर, वसुंधरा विकास सेवा समिति, अहिंसा योग फाउंडेशन, लार्डगंज महिला परिषद जबलपुर संपर्क सूत्र - 9837636708
  7. पु. आचार्य श्री मूकमाटी महाकाव्य में कहा है मिट्टी पानी और हवा, सौ रोगों की एक दवा प्रकृति से जुड़े अध्यात्मिक संत आचार्य श्री का आशीष व प्रेरणा दे आपको स्वस्थ तन, स्वस्थ मन अपनाएँ : प्राकृतिक चिकित्सा "लपेट" स्वस्थ हो, भोजन कर सको भरपेट साफा लपेट : तनाव दूर करे विधि : 6 इंच चौड़ी व 2 मीटर लंबी सूती पट्टी, इस प्रकार की 2-3 पट्टियों को गोल घड़ी कर, पानी में गीला कर निचोड़ लें। इस पट्टी को (नाक का हिस्सा छोड़कर) समस्त चेहरे पर लपेट लें। लाभ : इस पट्टी के प्रयोग से मस्तिष्क की अनावश्यक गर्मी कम होकर मस्तिष्क में अदभुत ठंडक व शांति का अनुभव होता है, साथ ही सिरदर्द व कान के रोग दूर होते हैं, मन व हृदय भी शांत बना रहता है। गले की लपेट : गले के रोगों में चमत्कारिक लाभ गले रोगों में चमत्कारिक परिणाम देने वाली यह लपेट है इसे करने से तुरन्त लाभ होना प्रारंभ हो जाता है। गले में हो रही खराश, स्वर यंत्र की सूजन (टांसिल) में इसके प्रयोग से लाभ होता है। वास्तव में गले की लपेट पेडू की लपेट व वास्ति प्रदेश की लपेट व अन्य लपेट एक तरह से गर्म ठण्डी पट्टी के ही समान है। विशेष तौर पर खाँसी व गला दुखने की अवस्था में इसे करने से तुरन्त लाभ हो जाता है और जब ये विकार खासतौर पर रोगी में जब उपद्रव मचाते हैं तो इस लपेट को करने से तुरन्त लाभ मिलता है व नींद भी अच्छी आ जाती है क्योंकि उक्त विकार की वजह से बैचेनी से जो हमें मुक्ति मिल जाती है। विधि : 6 इंच चौड़ा व करीब डेढ़ मीटर लम्बा सूती कपड़ा गीला कर अच्छी तरह निचोड़ दें। इसे गले पर लपेट दें। इस गीली लपेट पर गर्म कपड़ा (मफलर) अच्छी तरह से लपेट कर अच्छी तरह पेक कर दें ताकि गीला कपड़ा अच्छी तरह से ढंक जाए। इस लपेट को 1 से डेढ़ घंटे तक किया जा सकता है किन्तु रोग की बढ़ी हुई अवस्था में इसे अधिक समय तक भी कर सकते हैं। लपेट की समाप्ति पर गले को गीले तौलिये से अच्छी तरह स्वच्छ कर लें। छाती की लपेट : कफ ढीला करे किसी भी अंग को ठंडक प्रदान करने के लिए पट्टी का प्रयोग किया जाता है। इस पट्टी के प्रयोग से रोग ग्रस्त अंग पर रक्त का संचार व्यवस्थित होता है। इसके साथ ही श्वेत रक्त कणिकाओं की संख्या में वृद्धि होती है। इस पट्टी के प्रयोग से छाती में जमा कफ ढीला होता है। हृदय को बल प्राप्त होता है। विधि : 7-10 इंच चौड़ा, 3/2 मीटर लंबा गीला सूती कपड़ा निचोड़ कर छाती पर लपेटे। इसके ऊपर गर्म कपड़ा (बुलन/फलालेन) लपेट दें। लाभ : इससे हृदय की तीव्र धड़कन सामान्य हो जाती है, क्योंकि ठंडे पानी की पट्टी हृदय पर लपेटने से इस क्षेत्र का रक्त संचार व्यवस्थित हो जाता है। साथ ही विजातीय द्रव्य पसीने के माध्यम से बाहर हो जाते हैं। इस प्रयोग द्वारा हृदय की धड़कन सामान्य हो जाती है। छाती में जमा कफ ढीला हो जाता है। यह प्रयोग कफ रोग में लाभकारी है। विशेष सावधानी : पट्टी के पश्चात् हथेलियों से छाती की हल्की मसाज कर उसे गर्म कर लेना चाहिए, ताकि शरीर का उक्त अंग अपने सामान्य तापमान पर आ जाए। पेडू की लपेट : पेट रोग में चमत्कारी लाभ पेडू की पट्टी समस्त रोगों के निदान में सहायक है। विशेषकर पाचन संस्थान के रोगों के निदान में रामबाण सिद्ध होती है। इससे पेट के समस्त रोग, पेट की नई पुरानी सूजन, पुरानी पेचिश, अनिद्रा, ज्वर, अल्सर, रीढ़ का दर्द व स्त्रियों के प्रजनन अंगों के उपचार में भी सहायक है। इसके अतिरिक्त यह किडनी व लीवर के उपचार में विशेष लाभ पहुँचाती है। विधि : एक फीट चौड़ी व 1 से 1.5 मीटर लंबी पतले सूती कपड़े की पट्टी को पानी में भिगोकर निचोड़े व पूरे पेडू व नाभि के दो इंच ऊपर तक लपेटकर ऊपर से गर्म कपड़ा लपेट लेवें। समयावधि : उक्त पट्टी खाली पेट सुबह शाम 2-2 घंटे तक लगा सकते हैं। रात्रि को सोने के पूर्व लगा सकते हैं। रात-भर पट्टी लगी रहने दें। भोजन के 2 घंटे बाद भी पट्टी लगा सकते हैं। इस पट्टी को लगाकर ऊपर से कपड़े पहनकर अपने नियमित कार्य भी कर सकते हैं। पट्टी लगाने के बाद जब पट्टी हटाएँ तो गीले तौलिए अथवा हथेली से पेडू की हल्की मसाज कर गर्म कर लें। विशेष सावधानी : शीत प्रकृति के रोगी इस पट्टी के पहले पेडू को हाथों से अथवा गर्म पानी की थैली से गर्म कर पट्टी लपेटें। शीत प्रकृति के व्यक्ति सिर्फ 2 घंटे के लिए इस पट्टी का प्रयोग कर सकते हैं। वस्ति प्रदेश की लपेट : जननांगों में चमत्कारिक लाभ पेडू के विभिन्न रोग, पुरानी कब्ज, मासिक धर्म में अनियमितता, प्रजजन अंगों के रोग, जननेंद्रीय की दुर्बलता व अक्षमता में चमत्कारिक लाभ देने वाली लपेट वस्ति प्रदेश की लपेट है। इसके नियमित प्रयोग से उक्त रोग ही नहीं वरन् अनेक रोगों में लाभ होता है। विधि : एक भीगा कपड़ा निचोड़कर वस्ति प्रदेश पर लपेट दें। यदि वस्ति प्रदेश पर ठंडक का अहसास हो रहा हो तो गर्म पानी की थैली से उक्त अंग को गर्म अवश्य करें। अब इस लपेट पर गर्म कपड़ा लपेट दें। उक्त प्रयोग को एक से डेढ़ घंटा किया जा सकता है। मुख्य सावधानी : इस पट्टी को एक बार उपयोग करने के पश्चात साबुन अच्छी तरह से लगाकर धोकर धूप में सुखाकर पुनः इस पट्टी का प्रयोग किया जा सकता है। चूंकि पट्टी विजातीय द्रव्यों को सोख लेती है, अतः ठीक प्रकार से पट्टी की सफाई नहीं होने से चर्म रोग हो सकता है। उक्त पट्टी को सामान्य स्वस्थ व्यक्ति सप्ताह में एक दिन कर सकते हैं। लाभ : पेट के रोगों में चमत्कारिक लाभ होता है। पैरों की लपेट : खाँसी में तुरन्त लाभ पहुंचाने वाली पट्टी इस लपेट के प्रयोग से सारे शरीर का दूषित रक्त पैरों की तरफ खींच जाता है। फलस्वरुप ऊपरी अंगों का रक्ताधिक्य समाप्त हो जाता है। इस वजह से शरीर के ऊपरी अंगों पर रोगों द्वारा किया आक्रमण पैरों की ओर चला जाता है। अतः मेनिनजाईटिस, न्यूयोनिया, ब्रोंकाइटीज, यकृत की सूजन व गर्भाशय के रोग की यह सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति है। विधि : एक भीगे हुए और अच्छी तरह निचोड़े कपड़े की पट्टी को रोल बना लें, एड़ी से लेकर जंघा तक इस कपड़े को लपेट दें। इस पट्टी पर गर्म कपड़ा अच्छी तरह लपेट दें ताकि सूती कपड़ा अच्छी तरह से ढंक जाये। यदि पैरों में ठंडक हो तो गर्म पानी की थैली से पैरों को गर्म कर लें। ध्यान रहें रोगी के सिर पर ठंडे पानी की नैपकीन से सिर ठंडा रहे। इस प्रयोग को एक घंटे तक करें। किन्तु रोगी को आराम महसूस हो तो इस प्रयोग को अधिक समय तक किया जा सकता है। इस प्रयोग को रोगों के समय गला दुखने, खाँसी की तीव्रता की अवस्था में कर चमत्कारिक लाभ पाया जा सकता है। इस प्रयोग को करने के पश्चात अन्त में तौलिये से सम्पूर्ण शरीर को घर्षण स्नान द्वारा स्वच्छ कर लें। पूर्ण चादर लपेट : मोटापा दूर करें सामग्री : अच्छा मुलायम कम्बल जिसमें हवा का प्रवेश न हो सके एक डबल बेड की चादर, जिसमें सारा शरीर लपेटा जा सके, आवश्यकतानुसार मोटा या पतला एक तौलिया छाती से कमर तक लपेटने के लिए। विधि : बंद कमरे में एक खाट पर गद्दी बिछा लें तथा उसके ऊपर दोनों कम्बल बिछायें सूती चादर खूब ठंडे पानी में भिगोकर निचोड़ने के बाद कम्बल के ऊपर बिछा दें। सूती चादर के ऊपर तौलिया या उसी नाप का दूसरा कपड़ा गीला करके पीठ के निचले स्थान पर बिछा दें। यह लपेट पूर्ण नग्न अवस्था में होना चाहिए। लेटते समय यह ध्यान रखें कि भीगी चादर को गले तक लपेटे। अब मरीज के सब कपड़े उतारकर उसे बिस्तर पर लिटा दें। लेटने के बाद तुरन्त सबसे पहले तौलिए को दोनों बगल में से लेकर कमर तक पूरे हिस्से को लपेट देना चाहिए। हाथ तौलिए के बाहर रहे, यह नहीं भूलना चाहिए। दाहिनी ओर लटकती हुई चादर से सिर की दाहिनी ओर, दाहिना कान, हाथ व पैर पूरी तरह ढंक देने चाहिए। इसी तरह बायीं ओर सिर, कान, हाथ तथा पैर चादर के बाएँ छोर से ढंकने चाहिए। चादर लपेटने के बाद नाक तथा मुँह को छोड़कर कोई भी भाग बाहर नहीं रहना चाहिए। अब चादर के ठीक ऊपर पूरी तरह ढंकते हुए पहला कम्बल और बाद में सबसे ऊपर वाला कम्बल लपेटा जाए। इस स्थिति में रोगी को 30-45 मिनिट रखें। ठंड ज्यादा लगे तो रोगी को बगल में गर्म पानी की बॉटल रख सकते हैं। चादर लपेट की अवधि रोगी की अवस्था के अनुसार घटा-बढ़ा सकते हैं। लाभ : चादर लपेट के प्रयोग से रोगी विजातीय द्रव्य के जमाव से मुक्त होकर आरोग्य प्राप्त करता है। पेट की गर्म-ठंडा सेक : अम्लता (एसीडिटी) दूर करे सामग्री : एक बर्तन में गर्म पानी, दूसरे बर्तन में ठंडा पानी व दो नेपकीन। विधि : गर्म पानी के बर्तन में नेपकीन को गीला कर पेडू पर तीन मिनिट तक रखे। अब गर्म पानी का नेपकीन हटा दें। अब ठंडे पानी में गीला किया नेपकीन रखें। इस प्रकार क्रमशः तीन मिनिट गर्म व एक मिनिट ठंडा नेपकीन रखें। इस प्रक्रिया को 15 से 20 मिनिट तक करें। ध्यान रहे कि इस प्रक्रिया का प्रारंभ गर्म पानी की पट्टी से करें व क्रिया की समाप्ति ठंडे पानी की पट्टी से करें। लाभ : इस पट्टी के प्रयोग से पेडू का रक्त का संचार तेज होगा व गर्म-ठंडे के प्रयोग से आँतों का मल ढीला होकर पेडू मल के अनावश्यक भार से मुक्त हो जाएगा। सावधानी : पेट में छाले, हायपर एसिडिटी व उच्च रक्तचाप की स्थिति में इसे कदापि न करें। विशेष टीप : गर्म पानी के नेपकीन के स्थान पर गर्म पानी की बॉटल अथवा रबर की थैली का प्रयोग किया जा सकता है। साभार :- 125 स्वस्थ व निरोगी रहेने का रहस्य डॉ. जगदीश जोशी एवं सुनीता जोशी
  8. समय-समय पर दान करना सीखें श्रावक- आचार्यश्री प्रसिद्ध जैन तीर्थक्षेत्र पपौराजी में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज को सागर से ढाई हजार श्रावको ने सामूहिक रुप से आचार्यश्री से सागर में चातुर्मास हेतु निवेदन करते हुए श्रीफल समर्पित किया सागर समाज की तरफ से मुकेश जैन ढाना ने कहा कि 1998 के बाद से सागर में आचार्य संघ का वर्षा कालीन चातुर्मास नहीं हुआ है। सागर में चतुर्मुखी जिनालय का का निर्माण कार्य चल रहा है आपके चातुर्मास से इस कार्य में और तेजी आएगी | ब्रह्मचारिणी रेखा दीदी ने कहा कि सागर में प्रतिभास्थली कॉलेज की आवश्यकता है। और चातुर्मास के दौरान कॉलेज की आधारशिला रखी जा सकती है इस अवसर पर विधायक शैलेंद्र जैन ने भी सागर में चातुर्मास हेतु निवेदन किया। आचार्यश्री की सामूहिक पूजन सागर जैन समाज के श्रावक श्रेष्ठियो ने की। पारसनाथ मंदिर कटरा की पारस प्रगति महिला मंडल ने द्रव्य सजाकर पूजन की। समाज के श्रावक श्रेष्ठि महेश बिलहरा,विधायक शैलेंद्र जैन, प्रेमचंद जैन उपकार,आनंद जैन स्टील और गुरुवर यात्रा संघ के सदस्यों ने आचार्य श्री का पाद प्रक्षालन किया। आचार्य श्री जी ने इस अवसर पर अपने मंगल प्रवचन में कहा प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है की वह बांटना सीखे समय-समय पर वितरण (दान) करते रहना चाहिए । क्योंकि दान बहुत महत्वपूर्ण है जैसे किसान फसल काटने के बाद वितरण करता है उसी प्रकार श्रावक को दान करना चाहिए आप लोगों के द्वारा चातुर्मास की मांग की गई है देखते हैं क्या होता है बुंदेलखंड में नौतपा की एक अलग परंपरा है 9 दिन के तपा यहां पर तपते हैं और जो नीचे तप् जाता है वह ऊपर चला जाता है सागर का जल तप गया और बादल बनकर ऊपर चला गया। और उसके बाद फिर झमाझम बरसता है आचार्य श्री जी ने कहा मानसून आकर भी भटक जाता है जो अनुमान का विश्वास करते हैं वह उनकी ओर नहीं आता है उसे ही भटकना कहते हैं। भाग्योदय परिसर में बनने वाले सहस्त्रकूट जिनालय के लिए श्रीमती साधना राजीव जैन, श्रीमती अनीता पदम सिंघई, अनिल मोदी दलपतपुर और सुषमा प्रदीप फणीन्द्र अंकुर कॉलोनी ने एक-एक प्रतिमा जी स्थापना कराने की स्वीकृति दी । सागर से प्रमुख रुप से पपौरा जी जाने वालों में देवेंद्र जैन स्टील मुकेश जैन ढाना, ऋषभ जैन ठेकेदार, सुरेंद्र जैन मालथोन, सट्टू कर्रापुर, डॉक्टर अरुण सराफ पूर्व विधायक सुनील जैन, ऋषभ मडावरा, अमित जैन रामपुरा, राजाभैया जैन, संतोष कर्द, अनुराग कैटर्स, राजेंद्र सुमन, राजेश जैन रोडलाइंस अशोक पिडरुआ, श्रीमती शकुंतला जैन, डॉ नीलम जैन,जिनेश बहरोल मोनू जैन, संजय शक्कर, गुरुवर यात्रा संघ से सपन जैन, संजय जैन टडा, अंकुश जैन, प्रशांत जैन, मनीष नायक, राकेश निश्चय,आशीष बाछल,अजय लॉटरी,इंजी अनिल जैन,राहुल सतभैया,जित्तू जैन,कमलेश जैन, ऋषभ जैन,सोनू आईटीआई, सहित हजारों लोग उपस्थित थे।
  9. सागर से ढाई हजार लोगों ने श्रीफल भेंट कर चातुर्मास का किया निवेदन सागर/ प्रसिद्ध जैन तीर्थक्षेत्र पपौराजी में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज को सागर से ढाई हजार श्रावको ने सामूहिक रुप से आचार्यश्री से सागर में चातुर्मास हेतु निवेदन करते हुए श्रीफल समर्पित किया सागर समाज की तरफ से मुकेश जैन ढाना ने कहा कि 1998 के बाद से सागर में आचार्य संघ का वर्षा कालीन चातुर्मास नहीं हुआ है। सागर में चतुर्मुखी जिनालय का का निर्माण कार्य चल रहा है आपके चातुर्मास से इस कार्य में और तेजी आएगी ब्रह्मचारिणी रेखा दीदी ने कहा कि सागर में प्रतिभास्थली कॉलेज की आवश्यकता है। और चातुर्मास के दौरान कॉलेज की आधारशिला रखी जा सकती है इस अवसर पर विधायक शैलेंद्र जैन ने भी सागर में चातुर्मास हेतु निवेदन किया। आचार्यश्री की सामूहिक पूजन सागर जैन समाज के श्रावक श्रेष्ठियो ने की। पारसनाथ मंदिर कटरा की पारस प्रगति महिला मंडल ने द्रव्य सजाकर पूजन की। समाज के श्रावक श्रेष्ठि महेश बिलहरा,विधायक शैलेंद्र जैन, प्रेमचंद जैन उपकार,आनंद जैन स्टील और गुरुवर यात्रा संघ के सदस्यों ने आचार्य श्री का पाद प्रक्षालन किया। आचार्य श्री जी ने इस अवसर पर अपने मंगल प्रवचन में कहा प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है की वह बांटना सीखे समय-समय पर वितरण (दान) करते रहना चाहिए । क्योंकि दान बहुत महत्वपूर्ण है जैसे किसान फसल काटने के बाद वितरण करता है उसी प्रकार श्रावक को दान करना चाहिए आप लोगों के द्वारा चातुर्मास की मांग की गई है देखते हैं क्या होता है बुंदेलखंड में नौतपा की एक अलग परंपरा है 9 दिन के तपा यहां पर तपते हैं और जो नीचे तप् जाता है वह ऊपर चला जाता है सागर का जल तप गया और बादल बनकर ऊपर चला गया। और उसके बाद फिर झमाझम बरसता है आचार्य श्री जी ने कहा मानसून आकर भी भटक जाता है जो अनुमान का विश्वास करते हैं वह उनकी ओर नहीं आता है उसे ही भटकना कहते हैं। भाग्योदय परिसर में बनने वाले सहस्त्रकूट जिनालय के लिए श्रीमती साधना राजीव जैन, श्रीमती अनीता पदम सिंघई, अनिल मोदी दलपतपुर और सुषमा प्रदीप फणीन्द्र अंकुर कॉलोनी ने एक-एक प्रतिमा जी स्थापना कराने की स्वीकृति दी । सागर से प्रमुख रुप से पपौरा जी जाने वालों में देवेंद्र जैन स्टील मुकेश जैन ढाना, ऋषभ जैन ठेकेदार, सुरेंद्र जैन मालथोन, सट्टू कर्रापुर, डॉक्टर अरुण सराफ पूर्व विधायक सुनील जैन, ऋषभ मडावरा, अमित जैन रामपुरा, राजाभैया जैन, संतोष कर्द, अनुराग कैटर्स, राजेंद्र सुमन, राजेश जैन रोडलाइंस अशोक पिडरुआ, श्रीमती शकुंतला जैन, डॉ नीलम जैन,जिनेश बहरोल मोनू जैन, संजय शक्कर, गुरुवर यात्रा संघ से सपन जैन, संजय जैन टडा, अंकुश जैन, प्रशांत जैन, मनीष नायक, राकेश निश्चय,आशीष बाछल,अजय लॉटरी,इंजी अनिल जैन,राहुल सतभैया,जित्तू जैन,कमलेश जैन, ऋषभ जैन,सोनू आईटीआई, सहित हजारों लोग उपस्थित थे।
  10. पपौरा जी में 17 जून को महामस्तकाभिषेक होने की संभावना सागर- टीकमगढ़ नगर से 5 किलोमीटर दूर स्थित पपौरा जी जैन तीर्थ क्षेत्र में इन दिनों आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर महाराज ससंघ विराजमान है। इन दिनों पूरे देश भर से श्रद्धालु गुरुदेव के चरणों में श्रीफल अर्पित करने के लिए आ रहे हैं। देश के हर कोने से लोग गुरुदेव की एक झलक देखने को मिल जाए इसके लिए पपौरा जी पहुंच रहे हैं। 17 जून श्रुत पंचमी के दिन पपौरा जी के मूलनायक 1008 श्री आदिनाथ भगवान का महामस्तकाभिषेक का कार्यक्रम होने की संभावनाएं है। आचार्य श्री के ससंघ सानिध्य में पपौरा जी के सभी जिनालयों में महामस्तकाभिषेक का कार्यक्रम कमेटी के द्वारा आचार्य भगवन के समक्ष निवेदित किया गया है। श्रुत पंचमी से चातुर्मास के होने लगते हैं संकेत श्रुत पंचमी के दिन से ही आचार्य भगवन के द्वारा अपने शिष्यों को वर्षायोग चातुर्मास देने के संकेत करने लगते है। देश भर से सैकड़ों स्थानों से समाज के पदाधिकारी गुरुदेव के चरणों में पहुंच करके मुनि संघ या आर्यिका संघ का चातुर्मास उनके नगर में हो ऐसा निवेदन भी किया जाता है। वह भाग्यशाली नगर होते हैं जहां पर मुनि संघ या आर्यिका संघ का चातुर्मास मिल जाता है क्योंकि यह वर्ष संयम स्वर्ण जयंती वर्ष के रूप में पूरे देश में मनाया जा रहा है। 28 जून 2017 से शुरू हुए इस संयम स्वर्ण जयंती महोत्सव में साल भर तक अनेको कार्यक्रम समाज के द्वारा कराए जा रहे है आचार्य श्री जी की दीक्षा के 50 वर्ष आगामी 17 जुलाई 2018 को पूर्ण हो रहे हैं। कार्यक्रम की शुरुआत छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र चंदगिरी डोंगरगढ़ से हुई थी। 50 वां दीक्षा समारोह 17 जुलाई को कहां होगा इसको लेकर के लोगों की नजरें लगी हुई है। गुरुदेव का मंगल चातुर्मास जिस नगर में होगा वह धन्य हो जाएगा थोड़ा इंतजार करें इंतजार की घड़ियां भी 17 जुलाई तक समाप्त हो जाएगी। जय जिनेंद्र
  11. आशीर्वाद एवं देशनाकार - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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