गृहकार्य से निवृत्त हो
कई बार दिन में
सुनाती लोरी
एक दिन माँ बोली
“तू वृषभनाथ-सा बनना
विद्यासागर-सा बनना
मेरे विद्या
जन-जन को देना ज्ञान रे,
तू ज्ञानानंद स्वरूपी
तू अनंत सुख स्वरूपी
मेरे लाला
तू करना स्वातम ध्यान रे”
ध्यान से सुनते ही
भरने लगा हुंकार…
नयन विस्फारित हो
बोल पड़ी वह
समझ रहे हो मेरी बात?
फिर से मुँह खोलकर
गले से ‘हूँ’ शब्द से
दे दी स्वीकृति...
झूले में झूलते-झूलते
बार-बार अधमींची आँखों से...
देख रहा था माँ को
और
माँ देख रही थी वत्स को
पल भर लगा उसे कि
विद्या कह रहा है कुछ…
इसी तरह
शुभोपयोग से शुद्धोपयोग का
प्रवृत्ति से निवृत्ति का
समिति से गुप्ति का
झूला मुझे झूलना है,
स्व के सिवा
सब कुछ भूलना है...
और
पल में ही सो गया
लगा कि अपने में ही खो गया…
यह क्या!
आज पहली बार
सोकर उठते ही
चुपचाप हौले-हौले
घुटने से चलकर
आकर बैठ गया,
नयन मूँद कर बैठी
जाप करती माँ को
निहारने लगा...
धार्मिक क्रिया करते समय
कभी माँ को
परेशान नहीं करना
यह तो उसने
ठान लिया था बचपन से ही।