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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • भावना शतक

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    (वसन्ततिलका छन्द)

     

    शोभें प्रभो परम पावन पा पदों को,

    योगी करें नमन ये जिनके पदों को।

    सौभाग्य मान उनको उर में बिठा लूँ,

    साफल्यपूर्ण निज-जीवन को बना लूँ ॥१॥

     

    ध्यानाग्नि से मदन को तुमने जलाया,

    पीयूष स्वानुभव का निज को पिलाया।

    धारा सुरत्नत्रयहार, अतः कृपालो,

    पूजूँ तुम्हें मम गुरो! मद मेट डालो ॥२॥

     

    अन्धा विमोहतम में भटका फिरा हूँ,

    कैसे प्रकाश बिन संवर भाव पाऊँ।

    है शारदे! विनय से द्वय हाथ जोडूँ,

    आलोक दे विषय को विष मान छोडूँ ॥३॥

     

    सम्मान मैं समय का करता करता,

    हूँ ‘भावनाशतक' काव्य अहो बनाता।

    मेरा प्रयोजन प्रभो कुछ और ना है,

    जीतूँ विभाव भव को बस भावना है ॥४॥

     

    आदर्श सादृश सुदर्शन शुद्धि प्यारी,

    पाके जिसे जिन बने स्व-परोपकारी।

    ऐसा जिनेश मत है मत भूल रे! तू,

    साक्षात् भवाम्बुनिधि का यह भव्य सेतु ॥५॥

     

    होता विनष्ट जब दर्शनमोह स्वामी,

    जाती तदा वह अनन्त कषाय नामी।

    पाते इसे जन तभी जिन! जैन जो हैं,

    सदभारती कह रही जनमीत जो हैं ॥६॥

     

    जो अंग-अंग करुणारस से भरा है,

    शोभायमान दृग से वह हो रहा है।

    औचित्य है समझ में यह बात आती,

    अत्युज्ज्वला शशिकला निशि में सुहाती ॥७॥

     

    हो प्राप्त, स्वर्ग तक पुण्यविधान से भी,

    होता न प्राप्त दृग शस्त निदान से भी।

    सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती,

    लक्ष्मी अहो मृदुल हाथ तभी मिलाती ॥८॥

     

    दुर्जेय मोहरिपु को जिनने दबाया,

    शुद्धोपयोग मणिहार गले सजाया।

    वे साधु बोध बिन भी दृग शुद्धि पाते,

    जो बाह्य में निरत हैं दुख ही उठाते ॥९॥

     

    आलोक दे सुजन को रवि से जगाती,

    है भव्य कंज दल को सहसा खिलाती।

    है पापरूप तम को क्षण में मिटाती,

    ऐसी सुदर्शन विशुद्धि किसे न भाती ॥१०॥

     

    ना पाप को, विनय को शिर मैं नमाता,

    हे वीर! क्योंकि मुझको निज सौख्य भाता।

    जो भी गया तपन तापतया-सताया,

    क्या चाहता अनल को, तज नीर छाया ॥११॥

     

    सेना विहीन नृप ज्यों जय को न पाता,

    त्यों हीन जो विनय से शिव को न पाता।

    सत् साधना यदि करे दुख भी टलेगा,

    संसार में सहज से सुख भी मिलेगा ॥१२॥

     

    निर्भीक से विनय आयुध को सुधारा,

    हे वीर! मान रिपु को पुनि शीघ्र मारा।

    पाया स्वकीय निधि को जिसने यदा है,

    क्या माँगता वह कभी जड़ संपदा है ॥१३॥

     

    वे व्यर्थ का नहिं घमण्ड कभी दिखाते,

    सन्मार्ग को विनय से विनयी दिखाते।

    पापी कुधी तक तभी भवतीर पाते,

    विद्वान भी हृदय में जिनको बिठाते ॥१४॥

     

    संसार में विनय के बिन तु चलेगा,

    आनन्द भी अमित औं मित क्यों मिलेगा।

    योगी सुधी तक सदा इसका सहारा,

    लेते अतः नमन हो इसको हमारा ॥१५॥

     

    विद्वेष जो विनय से करते कराते,

    निर्भान्त वे नहिं भवोदधि तैर पाते।

    जाना उन्हें भव-भवान्तर क्यों न होगा,

    ना मोक्ष का विभव संभव भव्य होगा ॥१६॥

     

    कामाग्नि से जल रहा त्रयलोक सारा,

    देखे जहाँ दुख भरा कुछ ना सहारा।

    ऐसे जिनेश कहते, जग के विधाता,

    जो काम मान मद त्याग बने प्रमाता ॥१७॥

     

    पूजा गया मुनिगणों यति योगियों से,

    त्यों शील, नीलमणि ज्यों जगभोगियों से।

    सत् शील में सतत लीन अतः रहूँ मैं,

    लो! मोक्ष को निकट ही फलतः लखूँ मैं॥१८॥

     

    गंगाम्बु को न हिम को शशि को न चाहूँ,

    चाहूँ न चन्दन कभी मन में न लाऊँ।

    जो शीलझील मन की गरमी मिटाती,

    डूबूँ  वहाँ सहज शीतलता सुहाती ॥१९॥

     

    मैं भूत भावि सब साम्प्रत पाप छोडूँ,

    चारित्र संग झट चंचल चित्त जोडूँ।

    सौभाग्य मान जिसको मुनि साधु त्यागी,

    हैं पूजते नमन भी करते विरागी ॥२०॥

     

    जैसे सती जगत में गजचाल हो तो,

    शोभे उषा पवन मन्द सुगन्ध हो तो।

    संसार शोभित रहे गति चार होवें,

    सर्वज्ञ सिद्ध सब वे गति चार खोवें।

    वैसा सुशीलव्रत संयम योग से रे,

    होते सुशोभित सुधी, न हि भोग से रे।।

    सिद्धान्तपारग सभी गुरु यों बताते,

    सद्ध्यान में सतत जीवन हैं बिताते॥२१॥

     

    निर्भीक मैं बढ़ रहा शिव ओर स्वामी,

    आरूढ़ शीलरथ पै अतिशीघ्रगामी।

    लो! काल व्याल-विकराल-कुचाल वाला,

    है भीति से पड़ गया वह पूर्ण काला॥२२॥

     

    होता विनिर्विष रसायन से धतूरा,

    है अग्नि से पिघलता झट मोम पूरा।

    ज्यों काम देख शिव को दश प्राण खोता,

    विज्ञान को निरख त्यों मद नष्ट ह्येता ॥२३॥

     

    संयोग पा मदन मञ्जुल कान्त का वे,

    जैसा नितान्त ललनाजन मोद पावे।

    किंवा सुखी कुमुद वारिधि चन्द्र से हो,

    वैसा मदीय मन मोदित ज्ञान से हो ॥२४॥

     

    ज्ञानोपयोग बन तु मम मित्र प्यारा,

    ज्यों अग्नि का पवन मित्र बना उदारा।

    पीड़ा मिटे, सुख मिले, भव-जेल छूटे,

    धारा अपूर्व सुख की न कदापि टूटे ॥२५॥

     

    स्वामी! भले ही शिर पै शशि भा रहा हो,

    विज्ञान से विकल शंकर हो रहा हो।

    श्रीकृष्ण पाकर इसे कुछ ही दिनों में,

    होंगे सुपूज्य यतियों मुनि सज्जनों में ॥२६॥

     

    ज्ञानोपयोग वर संवर साधता है,

    चाञ्चल्यचित्त झट से यह रोकता है।

    भाई निजानुभवियों यति नायकों ने,

    ऐसा कहा सुन! जिनेन्द्र उपासकों ने ॥२७॥

     

    जाज्वल्यमान न कदापि चलायमान,

    हो ज्ञानदीप कर में यदि विद्यमान।

    रूपी दिखे, पर पदार्थ सभी अरूपी,

    हैं स्पष्टरूप दिखते जिन चित्स्वरूपी ॥२८॥

     

    माला सुमेरु मणि से जिस भाँति भाती,

    वाणी गणेश मुख से जिन की सुहाती।

    संवेग से मनुज भी उस भाँति भाता,

    जो है सदैव जिनका गुणगीत गाता ॥२९॥

     

    बोले विहंगम, उषा मन को लुभाती,

    शोभावती वह निशा शशि से दिखाती।

    हो पूर्ण शान्तरस से कविता कहाती,

    शुद्धात्म में मुनि रहें मुनिता सुहाती ॥३०॥

     

    ज्यों मारता सहज अर्जुन कौरवों को,

    संवेग त्यों दुरित कर्म अरातियों को।

    दावा यथा सधन कानन को जलाता,

    संसाररूप वन को यह भी मिटाता॥

    ज्यों नाग नाम सुन मेंढक भाग जाता,

    त्यों ही कषाय इसके नहिं पास आता।

    ऐसी विशेष महिमा इसकी सुनी रे!

    संवेगरूप धन पा बन जा धनी रे! ॥३१॥

     

    संवेग है परम सौख्यमयी उषा का,

    धाता, परन्तु शशि है दुखदा निशा का।

    निर्दोष है यह सदा शशि दोष धाम,

    संवेग श्रेष्ठ शशि से लसता ललाम ॥३२॥

     

    सम्यक्त्वज्योति बल से रवि को हराता,

    है तेज वाडव भवाम्बुधि को सुखाता।

    चाञ्चल्यचित्त मृग को यह व्याघ्र खाता,

    संवेग आत्मिक मह्मसुख का विधाता॥३३॥

     

    संसार से स्वतन से जड़ भोग से वे,

    होते निरीह बुध हैं इनको न सेवें।

    पीम अतीव इनसे दिन रैन होती,

    शीघ्रातिशीघ्र बुझती निजबोध ज्योति॥३४॥

     

    कामाग्नि से जल रहा यदि पूर्ण रागी,

    धाता नहीं वह न शंकर है न त्यागी।

    तो विश्व का अमित दुःख त्रिशूलधारी,

    कैसे मिटाकर, बने स्वपरोपकारी ? ॥३५॥

     

    ले क्षीर स्वाद रसना अति मोद पाती,

    पा फूल फूल-सम नासिक फूल जाती।

    संतुष्ट ओ तृषित शीतल नीर से हो,

    मेरा सुतृप्त मन तो अघ त्याग से हो ॥३६॥

     

    संतुष्ट बाल जननीस्तनपान से हो,

    फुले लता ललित लो! जलस्नान से हो।

    हो तुष्ट आम्रकलिका लख कोकिला वे,

    मेरा कषाय तज के मन मोद पावे॥३७॥

     

    शास्त्रानुसार यदि त्याग नहीं बना है,

    लो! दुःख ही न मिटता उससे अहा है।

    जो अन्नसार रस से अति ही भरा है,

    भाई कभी न मिटती उससे क्षुधा है ॥३८॥

     

    क्या साधु से सुबुध से ऋषि से यमी से,

    भाई। प्रशंसित रही समता सभी से।

    सौभाग्य है मम घड़ी शुभ आ गई है,

    सर्वांग में सुसमता सुसमा गई है ॥३९॥

     

    मैं वीतराग बन के मन रोकता हूँ,

    तो सत्य तथ्य निजरूप विलोकता हूँ।

    आलोक हो अरुण ओ जब जन्म लेता,

    अज्ञात को नयन भी झट देख लेता॥४०॥

     

    शुद्धात्म में स्थिति सही तप ही वही हो,

    तो नश्यमान तन में रुचि भी नहीं हो।

    ऐसा न हो सुख नहीं दुख ही अतीव,

    हैं वीतराग गुरु यों कहते सदीव॥४१॥

     

    आतापनादि तप से तन को तपाया,

    योगी बना, बिन दया निज को न पाया।

    पाया नहीं सुख कभी बहु दुःख पाया,

    होता अहिंसक सुखी जिनदेव गाया ॥४२॥

     

    दीखे परीषहजयी वह देखने में,

    है लीन यद्यपि महाव्रत पालने में।

    लक्ष्मी उसे तदपि है वरती न स्वामी,

    जो मूढ़ है विषय लम्पट भूरिकामी ॥४३॥

     

    लोहा सुवेष्टित रहे यदि वस्त्र से जो,

    होगा नहीं कनक पारस संग से ओ।

    तो संग के सहित जो तप भी करेंगे,

    ना आत्म को परम पूत बना सकेंगे ॥४४॥

     

    दावा यथा वनज हो वन को जलाता,

    भाई तथा तप सही तन को जलाता।

    सम्यक्त्व पूर्ण तप की महिमा यही है,

    देवाधिदेव जिन ने जग को कही है॥४५॥

     

    आशा निवास जिसमें करती नहीं है,

    सम्यक्त्वबोध युत जो तप ही सही है।

    ऐसा सदैव कहती प्रभु सन्त वाणी,

    तृष्णा मिटे, झटिति पी अति शीत पानी॥४६॥

     

    साधू समाधि करना भव मुक्त होना,

    पा कीर्ति पूजन गुणी बन दुःख खोना।

    ऐसा जिनेश कहते शिवमार्गनेता,

    वेत्ता बने जगत के मन अक्ष जेता॥४७॥

     

    ये आधि व्याधि समुपाधि सभी अनादि,

    से आ रही, पर मिली न निजी समाधि।

    चाहूँ समाधि, नहिं नाक नहीं किसी को,

    चाहें सभी चतुर चेतन भी इसी को॥४८॥

     

    मानी नही मुनि समाथि करा सकेगा,

    तो वीरदेव निज को वह क्या ? लखेगा।

    सम्मान मैं न उसका मुनि हो करूँगा,

    शुद्धात्म को नित नितान्त अहो स्मरूँगा॥४९॥

     

    वैराग्य का प्रथम पाठ अहो पढ़ाता,

    पश्चात् प्रभो प्रथम देव बने प्रमाता।

    मैं भी समाधि सधने बनता विरागी,

    ऐसी मदीय मन में वर ज्योति जागी॥५०॥

     

    लाली लगे कर-लता अति शोभती है,

    शोभे जिनेन्द्र नुति से मम भारती है।

    होता पसगवश वात सुगंधवाही,

    शोभा तभी मुनि करे मुनि की समाधि॥५१॥

     

    है भव्यकौमुद शशी जग में समाधि,

    है कामधेनु सुर पादप से अनादि।

    कैसे मुझे यह मिले कब तो मिलेगी?

    है वीर देव! कब ज्ञानकली खिलेगी॥५२॥

     

    राजा प्रजाहित करे पर स्वार्थ त्यागे,

    देता प्रकाश रवि है कुछ भी न मांगे।

    कर्तव्य मानकर तू कर साधु सेवा,

    पाले पुनः परम पावन बोधमेवा ॥५३॥

     

    जो साधु सेवक नहीं उन मानियों को,

    चाहूँ न मैं, नित भजूँ मुनि सज्जनों को।

    क्या चाहता कृपण को परिवार प्यारा,

    क्या प्यार से कुमुद ने रवि को निहारा ॥५४॥

     

    जो पूर्ण पूरित दयामय भाव से है,

    औ दूर भी विमलमानस मान से है।

    सेवा सुसाधु जन की करता यहाँ है,

    होता सुखी वह अवश्य जहाँ तहाँ है ॥५५॥

     

    ये साधु सेवक कहीं मिलते यहाँ हैं,

    जो जातरूप धरते जग में अहा है।

    प्रत्येक नाग, मणि से कब शोभता है?

    प्रत्येक गज कब मौक्तिक धारता है? ॥५६॥

     

    जैसा सरोज अलि से सबको सुहाता,

    उद्योग से जगत में यश देश पाता।

    वैसा विराग मुनि से यह साधु सेवा,

    होती सुशोभित अतीव विभो सदैवा ॥५७॥

     

    मैं काय से वचन से मन से सदैवा,

    सौभाग्य मान करता बुध साधु सेवा।

    होऊँ अबन्ध भवबन्धन शीघ्र छूटे,

    विज्ञान की किरण मानस मध्य फूटे ॥५८॥

     

    बाधा बिना सहज से जिनसे निहारे,

    जाते अनागत गतागत भाव सारे।

    शुद्धात्म में निरत जो जिनदेव ज्ञानी,

    वे विश्व पूज्य जयवन्त रहें अमानी ॥५९॥

     

    हो पूर्ण इन्द्रियजयी जितकाम आप,

    पाके अनंत सुख को तज पापताप।

    क्रीड़ा सदैव करते शिवनारि साथ,

    जोडूँ तुम्हें सतत हाथ, अनाथ-नाथ ॥६०॥

     

    पीयूष पावन पवित्र पयोद धारा,

    ज्यों तृप्त भूमि तल को करती सुचारा।

    त्यों शान्ति दो दुखित हूँ भवताप से जो,

    है प्रार्थना मम विभो! बस आप से यों ॥६१॥

     

    हो मोह सर्प, तुम से गरुणेन्द्रनामी,

    से मुक्तिपन्थ-अधिनायक, हो अमानी।

    स्वामी, निरंजन, न अञ्जन की निशानी,

    पूजूँ तुम्हें बन सकूँ द्रुत दिव्यज्ञानी ॥६२॥

     

    है आदि में स्वमन को फिर मार मारा,

    हे आदिनाथ ! तुमने-तज भोग सारा।

    कामारि है इसलिए जग में कहाते,

    स्वामी! सुशीघ्र मम क्यों न व्यथा मिटाते॥६३॥

     

    वे शान्त, सन्त, अरहन्त अनन्त ज्ञाता,

    वन्दूँ उन्हें निरभिमान स्वभाव धाता।

    होऊँ प्रवीण फलतः पल में प्रमाता,

    गाता सुगीत ‘जिनका' वह सौख्यपाता॥६४॥

     

    इच्छा नहीं भवन की रखते कदापि,

    आचार्य ये न वन से डरते प्रतापी।

    होते विलीन निज में विधि पंक धोते,

    पूजो इन्हें समय क्यों तुम व्यर्थ खोते ॥६५॥

     

    शास्त्रानुसार चलते सबको चलाते,

    पाते स्वकीय सुख को पर में न जाते।

    ये रागरोष तजते सबकी उपेक्षा,

    मैं तो अभी कुछ रखूँ उनकी अपेक्षा ॥६६॥

     

    आचार्यदेव मुझको कुछ बोध देवो,

    रक्षा करो शरण में शिशु शीघ्र लेवो।

    क्या दिव्य अंजन प्रकाश नहीं दिलाता,

    क्या शीघ्र नेत्रगत धूलि नहीं मिटाता?॥६७॥

     

    ये योग में अचल मेरु बने हुए हैं,

    ले खड्ग कर्मरिपु को दुख दे रहे हैं।

    आचार्य तो अमृतपान करा रहे हैं,

    ये मेघ हैं, हम मयूर सुखी हुए हैं ॥६८॥

     

    हो ज्येष्ठ में नित नहीं रवि ओ प्रतापी,

    संतप्त पूर्ण करता जग को कुपापी।

    आचार्य कोटि शत भास्कर तेज वाले,

    देते सदा सुख हमें समदृष्टि वाले ॥६९॥

     

    आचार्य को विनय से ऊर में बिठा लूँ,

    मैं पूज्यपाद रज को शिरपै चढ़ा लूँ।

    है मित्र! मोक्ष मुझको फलतः मिलेगा,

    विश्वास है यह नियोग नहीं टलेगा ॥७०॥

     

    ज्ञाता बने समय के निज-गीत, गाते,

    तो भी कदापि मद को मन में न लाते।

    वे ही अवश्य उवझाय वशी कहाते,

    भाई उन्हें स्मरण में तुम क्यों न लाते ॥७१॥

     

    कालुष्यभाव रतिराग मिटा दिया है,

    आत्मावलोकन तथा जिनने किया है।

    पूजूँ भजूँ नित उन्हें दुख को तजूँगा,

    विज्ञान से सहज ही निज को सजूँगा॥७२॥

     

    तारा समूह नभ में जब दीख जाता,

    दोष शशी न दिन में निशि में सुहाता।

    पै दोष मुक्त उवझाय सदा सुहाते,

    ये श्रेष्ठ इष्ट शशि से जिन यों बताते ॥७३॥

     

    स्वाध्याय से चपलता मन की घटा दी,

    काषायिकी परिणति जिनने मिटा दी।

    पावें सुशीघ्र उमझाय स्वसंपदा वे,

    आवें न लौट भव में गुरु यों बतावें ॥७४॥

     

    साथी बना कुमुद को शशि पक्षपाती,

    भाई सरोज दल का वह है अराती।

    पै साम्यधार उवझाय सुखी बनाते,

    हैं विश्व को, इसलिए सबको सुहाते ॥७५॥

     

    वे वैद्य लौकिक शरीर इलाज जाने,

    ये वैद्यराज भवनाशक हैं सयाने।

    हैं वन्द्य, पूज्य, शिवपन्थ हमें बताते,

    निःस्वार्थपूर्ण निज जीवन को बिताते ॥७६॥

     

    था, है जिनागम, रहे जयवन्त आगे,

    पूजो इसे तुम सभी उरबोध जागे।

    पावो कदापि फिर ना भवदुःख नाना,

    से मोक्षलाभ, भव में फिर हो न आना॥७७॥

     

    आता वसन्त वन में वन फूल जाता,

    नाना प्रकार एस पी दुख भूल जाता।

    पीऊँ जिनागम सुधा चिरकाल जीऊँ,

    दैवादि शास्त्र मदिरा उसको न पीऊँ ॥७८॥

     

    निष्पक्ष हो श्रमण आगम देखता है,

    शुद्धात्म को सहज से वह जानता है।

    जाके निवास करना निज धाम में ओ,

    संदेह विस्मय नीं इस काम में हो ॥७९॥

     

    आधार ले अयि जिनागम पूर्ण तेरा,

    हैं भव्य जीव करते शिव में बसेरा।

    मैं भी तुझे इसलिए दिन रैन ध्याऊँ,

    धारूँ तुझे हृदय में सुख चैन पाऊँ ॥८०॥

     

    ज्ञाता नहीं समय का दुख ही उठाता,

    औ ना कभी विमल केवलज्ञान पाता।

    राजा भले वह बने, निधि क्यों न पाले,

    भाई न खोल सकता वह मोक्ष ताले ॥८१॥

     

    श्रद्धा समेत जिन आगम को निहारें,

    जो भी प्रभो! हृदय में समता सुधारे।

    वे ही जिनेन्द्र पद का द्रुत लाभ लेते,

    संसार का भ्रमण त्याग विराम लेते ॥८२॥

     

    हो सूत्र में कुसुम सज्जन कण्ठ भाता,

    निर्दोष ही कनक आदर नित्य पाता।

    जैसी समादरित गाय सुधी जनों से,

    वैसी सदैव समता मुनि सज्जनों से ॥८३॥

     

    वर्षा हुई कृषक तो हल जोत लेगा,

    बोया असामयिक बीज नहीं फलेगा।

    तू देव वन्दन अकाल अरे! करेगा,

    होगा न, मोक्ष तुझको भव में फिरेगा ॥८४॥

     

    राजा सशस्त्र रण से जय लूट लाता,

    से दाँत, भोजन करो अति स्वाद आता।

    सम्यक् जिनेन्द्रनुति भी सुख को दिलाती,

    भाई निजानुभव पेय पिला जिलाती ॥८५॥

     

    ज्यों वात जो सरित ऊपर हो चलेगा,

    से शीत, शीघ्र सब के मन को हरेगा।

    आख्यान अन्त प्रति के बल पा विधाता,

    आत्मा अवश्य बनता सुख पूर्ण पाता ॥८६॥

     

    प्राची प्रभात जब रागमयी सुहाती,

    तो अंगराग लगता वनिता सुहाती।

    पै राग से समनुरंजित कायक्लेश,

    होता सुशोभित नहीं सुख हो न लेश ॥८७॥

     

    दुर्वेदना हृदय की क्षण भाग जाती,

    संवेदना स्वयम की झट जाग जाती।

    ऐसी प्रतिक्रमण की महिमा निराली,

    तू धार शीघ्र इसको बन भाग्यशाली ॥८८॥

     

    भाई सुनो मदन से मन को बचाओ,

    संसार के विषय में रुचि भी न लाओ।

    पाओ निजानुभव को निज को जगाओ,

    सद्धर्म की फिर अपूर्व प्रभावना से ॥८९॥

     

    संसार के विभव वित्त असार सारे,

    सागार भी सतत यों मन में विचारें।

    रोगी दुखी क्षुधित पीड़ित जो विचारे,

    दे, अन्नपान उनके दुख को निवारें ॥९०॥

     

    हे वीर देव! तव सेवक धर्म सेवें,

    होवें ध्वजा विमल धर्म प्रसार में वे ।

    सम्यक्त्वबौध व्रत से निज को सजावें,

    ज्वाला बनें कुमत कानन को जलावें ॥९१॥

     

    अच्छा लगे तिलक से ललना ललाट,

    है साम्य से श्रमणता लगती विराट।

    होता सुशोभित सरोवर कंज होते,

    सद्भावना वश मनुष्य प्रशस्य होते ॥९२॥

     

    गंगा प्रदान करती बस शीत पानी,

    तो गाय दूध दुहती जग में सयानी।

    चाहूँ इन्हें न, इनसे न प्रयोजना है,

    देती निजामृत जिनेन्द्र प्रभावना है ॥९३॥

     

    संसार सागर असार अपार खारा,

    कोई न धर्म बिन है तुमको सहारा।

    नौका यही तरणतारण मोक्षदात्री,

    ये जा रहे, कुछ गये उस पार यात्री ॥९४॥

     

    गो वत्स में परम हार्दिक प्रेम जैसा,

    साधर्मि में तुम करो यदि प्रेम वैसा।

    शुद्धात्म को सहज से द्रुत पा सकोगे,

    औ मोक्ष में अमित काल बिता सकोगे ॥९५॥

     

    वात्सल्य हो उदित ओ उर में जभी से,

    हैं क्रूरभाव मिटते सहसा तभी से।

    भानू गे गगन भू उजले दिखाते,

    क्या आप तामस निशा तब देख पाते? ॥९६॥

     

    निर्दोष से अनल से झट लोह पिण्ड,

    वात्सल्य से विमल आतम हो अखण्ड।

    आलोक से सकललोक अलोक देखा,

    यों वीर ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥९७॥

     

    वात्सल्य तो जनम से तुम में भरा था,

    सौभाग्य था सुकृत का झरना झरा था।

    त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव तभी हुए हो,

    शुद्धात्म में प्रभव वैभव पा लिए हो ॥९८॥

     

    बन्धुत्व को जलज के प्रति भानू धारा,

    मैत्री रखे सुजल में वह दुग्ध धारा।

    स्वामी! परन्तु जग के सब प्राणियों में,

    वात्सल्य हो, न मम केवल मानवों में ॥९९॥

     

    उन्मत्त होकर कभी मन का न दास,

    हो जा उदास सबसे अन वीर दास।

    वात्सल्यरूप सर में डुबकी लगाले,

    ले ले सुनाम 'जिन' का प्रभु गीत गा ले ॥१००॥

     

    गुरु-स्मृति

     

    आशीष लाभ यदि, मैं तुमसे न पाता,

    तो भावनाशतक काव्य लिखा न जाता।

    है ज्ञानसागर गुरो! मुझको संभालो,

    विद्यादिसागर बना तुममें मिला लो ॥१०१॥


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