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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 4

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    वह पवित्र भावों में डूबी

    ह्रदय की गहराई में खोयी

    मन ही मन

    प्रभु से करने लगी प्रार्थना

     

    हे अतीन्द्रिय सुख भोक्ता!

    मेरे जीवन के यह भोगों का परिणाम

    अनंत भोग को उपलब्ध करने वाले

    जीव के जन्म का कारण बने

    मेरी कोख से एक ऐसा कमल खिले

    जिसकी सुंगध से जगत का वातावरण

    धर्म से महक उठे।

     

    इस तरह...

    प्रार्थना के प्रभाव से

    गर्भावस्था के प्रथम मास में

    एक ‘शुद्धात्म तत्त्व' की विशुद्धि

    छलकने लगी,

    द्वितीय मास में राग-द्वेष से रहित

    होने की भावना जगी,

    फिर क्रमशः नौ माह तक

    ‘रत्नत्रय' अंगीकार कर

    ‘चउ आराधना' आराधने की

    भावना हुई,

    ‘पंचम गति' को पाने के लिए

    साधु के ‘षट् आवश्यक’

    पालन करने की लौ लगी,

    सातवें माह में विशेष रूप से

    सप्तम तत्त्व ‘मोक्ष' को

    जानने की भावना जगी,

     

    अष्ट द्रव्यों से

    कामदेव बाहुबली भगवान की

    पूजा करने की तीव्र इच्छा रूप

    दोहला उत्पन्न हुआ।

    और...

    अंदर ही अंदर कोख में पल रहा लाल

    कामदेव-सा कमनीय होगा

    यह दोहले से एहसास हुआ।

     

    अप्रगट शिशु ने माँ से

    प्रभु पूजा करवाई

    ऐसा प्रतीत हुआ

    मानो भविष्य में पूज्य होने की

    प्रामाणिकता प्रगटाई।

     

    नवदेवता की आराध्या के उर में

    क्षायिक नौ लब्धियों की प्यास जगी,

    और भावी मुक्तात्मा के निमित्त से

    अखंड पद को पाने की आस लगी,

     

    ज्यों-ज्यों गर्भ में वृद्धि होती गई

    त्यों-त्यों विचारों में विशुद्धि बढ़ती गई,

    लेकिन

    लेखनी दिग्मूढ़-सी हो गई कि

    संस्कारित कर रही है माँ बालक को

    या बालक माँ को?

    सामान्य बालक को

    माँ के माध्यम से मिलते हैं संस्कार,

    किंतु तीर्थंकरादि जैसी महान आत्माओं के

    गर्भस्थ होते ही

    माता को मिलते हैं संस्कार...।

     

    रत्नों के कारण ही

    अथाह जल को कहते हैं रत्नाकर,

    रश्मियों के कारण ही

    रवि को कहते हैं प्रभाकर।

     

    जैनदर्शन कहता है कि-

    एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है,

    किंतु यह एकांत नहीं है

    उपादान दृष्टि से अकर्त्ता होते हुए भी

    निमित्त दृष्टि से अकर्त्ता नहीं है,

     

    वरना दिनकर के आते ही

    सरवर में कमल खिलते हैं क्यों?

    और

    बसंत के आते ही

    तरुवर पर फल फलते हैं क्यों?

     

    ज्यों हीरा-पन्नादि रत्नों को अपने गर्भ में

    समेटती धरा रत्नगर्भा कहलाती है,

    त्यों ही अनेक गुण संपन्न शिशु को

    गर्भ में धरती...

    माँ, पूतगर्भा कहलाती है।

     

    तीर्थंकर के गर्भ कल्याणक पर बरसे रत्न

    अभी दिखें या ना दिखें,

    किंतु अनेकों को रत्नत्रय देने वाला

    अदभुत दिव्यरत्न

    ‘श्रीमंती ने कोख में पा लिया।’


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