तभी बाह्य चन्द्रमा से
बाल चन्द्रमा का
अंतर्विवाद हो गया...
गगन चन्द्र बोला
पहले मैं अमृत बाँटूगा
जन-जन को तृप्त करूंगा।
इतने में ही बोल पड़ा...
रहस्य में बैठा
बाल शिशु चन्द्र...
तू जड़ अमृत बाँटने की बात करता है
जिसे कोई देख भी नहीं पाता है
और
न ही अनुभूत होता है वह,
यदि तू बाँटता अमृत?
तो अमर क्यों नहीं दिखता कोई
वसुंधरा पर...
किंतु मैं हर आत्म तत्त्व के प्यासे को
संतुष्ट कर दूँगा
चैतन्य अमृत पिलाकर।
इसीलिए
तू नहीं पहले मैं जाऊँगा,
यह कहकर
बारह बजने से पूर्व ही
आश्विन माह की शरद पूनम को
जगतजननी, सौभाग्यशालिनी
‘श्रीमंति' की कोख से
उतर आया रवि, शशि-सा सपूत
सदलगा की पुण्य धरा पर।
प्रकृति का कण-कण
प्रसन्नता से गाने लगा...
धर्मरूपी वृक्ष की धारिणी धरित्री
माँ श्रीमंति तुम धन्य हो,
धन्य हो माँ! तुम धन्य हो।
जन्म लेते ही चिक्कोड़ी उपचारालय में
ले जाया गया
शिशु बहुत सुंदर है
मनोज्ञ और स्वस्थ है,
यह समाचार
चिकित्सक ने शीघ्र ही
माता-पिता को सुनाया
द्वितीय होकर भी अद्वितीय है,
यह सुन माँ
फूली नहीं समायी
शिशु को देखने
लालायित हो गयी
“एकः चंद्रः तमो हन्ति”
युक्ति यह चरितार्थ हो आयी।
शरद पूर्णिमा की मध्य निशा से
भोर के आगमन तक
प्रकृति के प्रांगण से
गूंजता रहा अदभुत नाद,
और होते ही भोर
अपनी ज्योति समेट
ज्योत्स्ना कर गई प्रस्थान
अज्ञात पथ की ओर...
तभी
विशाल गगन के उस छोर से
अपनी नैसर्गिक छटा ले
स्नेहिल चाल से उतर रही थी
वसुंधरा के प्रांगण में...
सूरज की एक से एक सुंदर
सुहागिनी बेटियाँ रश्मियाँ
कह गईं उन्हें कि -
लो! सम्हालो,
इस बाल लाल ज्ञान सूर्य को
द्वितीय पुत्र के रूप में
अद्वितीय दिवाकर को।