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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • निरंजन शतक

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    (वसन्ततिलका छन्द)

     

    सन्तों नमस्कृत सुरों बुध मानवों से,

    ये हैं जिनेश्वर नमूँ मन वाक्तनों से।

    पश्चात् करूँ स्तुति निरंजन की निराली,

    मेरा प्रयोजन यही कि मिटे भवाली॥१॥

     

    स्वामी! अनन्त-गुण-धाम बने हुए हो,

    शोभायमान निज की घुति से हुए हो।

    मृत्युंजयी सकल-विज्ञ विभावनाशी,

    वंदूँ तुम्हें, जिन बनूँ सकलावभासी ॥२॥

     

    सच्चा निजी पद निरापद सम्पदा है,

    तो दूसरा पद घृणास्पद आपदा है।

    है। भव्यकंजरवि! यों तुमने बताया,

    शुद्धात्म से प्रभव वैभवभाव पाया ॥३॥

     

    जो चाहता शिव सुखास्पद सम्पदा है,

    वो पूजता तव पदाम्बुज सर्वदा है।

    पाना जिसे कि धन है अयि ‘वीर’ देवा!

    क्या निर्धनी धनिक की करता न सेवा? ॥४॥

     

    सत् तेज से मदन को तुमने जलाया,

    अन्वर्थ नाम फलरूप ‘महेश' पाया।

    नीराग से अमित सन्मति विज्ञ प्यारे,

    स्वामी मदीय मन को तुम ही सहारे॥५॥

     

    हे! देव दो नयन के मिस से तुम्हारे,

    हैं वस्तु को समझने नय मुख्य प्यारे।

    यों जान, मान, हम लें उनका सहारा,

    पायें अवश्य भवसागर का किनारा ॥६॥

     

    उत्पाद ध्रोव्य व्यय भाव सुधारता हूँ,

    चैतन्यरूप वसुधातल पालता हूँ।

    पाते प्रवेश मुझमें तुम हो इसी से,

    स्वामी! यहाँ अमित सागर में शशी से ॥७॥

     

    जो आपमें निरत है सुख लाभ लेने,

    आते न पास उसके विधि कष्ट देने।

    क्या सिंह के निकट भी गज झुण्ड जाता?

    जाके उसे भय दिखाकर क्या सताता ? ॥८॥

     

    हे! शुद्ध! बुद्धमुनिपालक! बोधधारी!,

    है कौन सक्षम कहे महिमा तुम्हारी ?

    ऐसा स्वयं कह रही तुम भारती है,

    शास्त्रज्ञ पूज्य गणनायक भी व्रती हैं ॥९॥

     

    है आपने स्वतन की ममता मिटादी,

    सच्चेतना सहज से निज में बिठादी।

    लो! देह में इसलिए कनकाभ जागी,

    मोह्मन्धकार विघटा, निज, ज्योति जागी ॥१०॥

     

    श्रीपाद ये कमल-कोमल लोक में हैं,

    ये ही यहाँ शरण पंचम काल में हैं।

    है भव्य कंज खिलता, इन दर्श पाता,

    पूजें अतः हृदय में इनको बिठाता ॥११॥

     

    लोहा बने कनक पारस संग पाके,

    मैं शुद्ध किन्तु तुमसा तुम संग पाके।

    वो तो रहा जड़, रहे तुम चेतना हो,

    कैसा तुम्हें जड़ तुला पर तोलना हो? ॥१२॥

     

    सानन्द भव्य तुम में लवलीन होता,

    पाता स्वधाम सुख का, गुणधाम होता।

    औ देह त्याग कर आत्मिक वीर्य पाता,

    संसार में फिर कभी नहिं लौट आता ॥१३॥

     

    काले घने भ्रमर से शिर में तुम्हारे,

    ये केश हैं नहि विभो! जिनदेव प्यारे।

    ध्यानाग्नि से स्वयं को तुमने जलाया,

    लो! सान्द्र थूम मिस बाहर राग आया ॥१४॥

     

    लो! आपके सुभग-सौम्य-शरीर द्वारा,

    दोषी शशी अयशधाम नितान्त हारा।

    वो आपके चरण की नख के बहाने,

    सेवा तभी कर रहा यश कान्ति पाने॥१५॥

     

    लो आपकी सुखकरी कविता विभा से,

    मोहान्धकार मिटता अविलम्बता से।

    ज्योतिर्मयी अरुण है जब जाग जाता,

    कैसे कहूँ कि तम है कब भाग जाता ? ॥१६॥

     

    सौंदर्य पान कर भी मुख का तुम्हारे,

    प्यासा रहा मन तभी, तुम यों पुकारे।

    पीयूष पी निज, तृषा यदि है बुझाना,

    बेटा! तुझे सहज शाश्वत शांति पाना ॥१७॥

     

    मूँगे समा अधर पे स्मित सौम्य रेखा,

    है प्रेम से कह रही मुझ को सुरेखा।

    आनन्द वार्थि तुम में लहरा रहा है,

    पूजें तुम्हें, बन दिगम्बर, भा रहा है ॥१८॥

     

    नक्षत्र है गगन के इक कोन में ज्यों,

    आकाश है दिख रहा तुम बोध में त्यों।

    ऐसी अलौकिक विभा तुम ज्ञान की है,

    मन्दातिमन्द पड़ती धुती भानु की है ॥१९॥

     

    है एक साथ तुममें यह विश्व सारा,

    उत्पन्न हो मिट रहा ध्रुव भाव धारा।

    कल्लोल के सम सरोवर में न स्वामी!

    पै ज्ञेय ज्ञायकतया, शिवपंथगामी ॥२०॥

     

    मैं रागत्याग तुझमें अनुराग लाके,

    होता सुखी कि जितना लघु ज्ञान पाके।

    तेरी बृहस्पति सुभक्ति करें, तथापि,

    से स्वर्ग में नहिं सुखी उतना कदापि ॥२१॥

     

    ज्यों ही मदीय मन है तव स्पर्श पाता,

    त्यों ही त्वदीय सम भासुर हो सुहाता।

    रागी विराग बनता तव संघ में हैं,

    लो ! नीर, दूध बनता गिर दूध में है ॥२२॥

     

    मानूँ तुम्हें तुम शशी तुम में भरी हैं,

    सच्ची सुधा गुणमयी मन को हरी है।

    ऐसा न हो, मम मनोमणि से भला यों,

    सम्यक्त्वरूप झरना, झर है रहा क्यों? ॥२३॥

     

    सम्मोह से भ्रमित हो जग पाप पाता,

    पै आपका मन नहीं अघ ताप पाता।

    लोहा स्वभाव तजता जब जंग खाता,

    हो पंक में कनक पै सब को सुहाता ॥२४॥

     

    हो केवली तुम बली शुचि शान्त शाला,

    ऐसा तुम्हें कब लखें अघ दृष्टि वाला।

    हो पीलिया नयन रोग जिसे हमेशा,

    पीला शशी नियम से दिखता जिनेशा ॥२५॥

     

    ऐसी कृपा यह हुई मुझपे तुम्हारी,

    आस्था जगी कि तुममें मम निर्विकारी।

    संसार भोग फलतः रुचते नहीं हैं,

    प्रत्यक्ष मात्र तुम हो जड़ गौण ही है ॥२६॥

     

    स्वामी! निवास करते मुझमें सुजागा,

    आत्मानुराग फलतः पर राग भागा।

    लो दूध में जब कि माणिक ही गिरेगा,

    क्या लाल लाल तब दूध नहीं बनेगा? ॥२७॥

     

    वैराग्य से तुम सुखी भज के अहिंसा,

    होता दुखी जगत है कर राग हिंसा।

    सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती,

    दुःसाधना दुखमयी विष से पिलाती ॥२८॥

     

    श्रद्धा समेत तुम में रममान होता,

    वो ओज तेज तुम सा स्वयमेव ढोता।

    काया हि कंचन बने कि अचेतना हो,

    आश्चर्य क्या? धुतिमई यदि चेतना से ॥२९॥

     

    जैसा कि वृक्ष फल फूल ला सुहाता,

    माथा, धरा जननि के पद में झुकाता।

    ऐसे लगे कि गुण भार लिए हुए हो,

    चैतन्यरूप-जननी पद में झुके हो ॥३०॥

     

    छत्रादि स्वर्णमय वैभव पा लिए हो,

    स्वामी! न किन्तु उनसे चिपके हुए हो।

    तेरी अपूर्व गरिमा गणनायकों से,

    जाती कसै न फिर क्या? हम बालकों से ॥३१॥

     

    विज्ञानरूप रमणी तुममें शिवाली,

    जैसी लसी अमित अव्यय कांतियाली।

    वैसी नहीं शशिकला शशि में निराली,

    अत्यन्त चूँकि कुटिला व्यय-शीलवाली ॥३२॥

     

    देखा विभामय विभो मुख आपका है,

    ऐसा मुझे सुख मिला नहिं नाप का है।

    जैसा यहाँ गरजता लख मेघ को है,

    पाता मयूर सुख भूलत खेद को है ॥३३॥

     

    सर्वज्ञ हो इसलिए विभु हो कहाते,

    निस्संग हो इसलिए सुख चैन पाते।

    मैं सर्वसंग तजके तुम संग से हैं,

    आश्चर्य आत्म सुख लीन अनंग से हूँ ॥३४॥

     

    आकाश में उदित हो रवि विश्वतापी,

    संतप्त त्रस्त करता जग को प्रतापी।

    पै आप कोटि रवि तेज स्वभाव पाये,

    बैठे मदीय उर में न मुझे जलाये ॥३५॥

     

    वे कामधेनु सुरपादप स्वर्ग में ही,

    सीमा लिए दुख घुले सुख दें, विदेही!

    पै आपका स्तवन शाश्वत मोक्ष-दाता,

    ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ॥३६॥

     

    जो आपकी स्तुति सरोवर में घुली है,

    मेरी खरी श्रमणता शुचि हो चुली है।

    तो साधु स्तुत्य मम क्यों न सुचेतना हो?

    औ शीघ्र क्यों न कल-केवल-केतना हो? ॥३७॥

     

    तल्लीन नित्य निज में तुम हो खुशी से,

    नीरादि से परम शीतल से इसी से।

    पा अग्नि योग जल है जलता जलाता,

    कर्माग्नि से तुम नहीं, यह साधु गाथा ॥३८॥

     

    लो आपकी रमणि एक गुणावली है,

    दूजी सती विशदकीर्तिमयी भली है।

    पै एक तो रम रही नित आप में है,

    कैसा विरोध यह? एक दिगंत में है ॥३९॥

     

    देवाधिदेव मुनिवन्छ कुकाम वैरी,

    पाती प्रवेश तुम में मति हर्ष मेरी।

    जैसी नदी अमित सागर में समाती,

    लेती सुखी मिलन से दुख भूल जाती ॥४०॥

     

    उत्फुल्ल नीरज खिले तुम नेत्र प्यारे,

    हैं शोभते करुण केशर पूर्ण धारें।

    मेरा वहीं पर अतः मन स्थान पाता,

    जैसा सरोज पर जा अलि बैठ जाता ॥४१॥

     

    हैं आप दीनजनरक्षक, साधु माने,

    दावा प्रचण्ड विधि कानन को जलाने।

    पंचेंद्रि-मत्त-गज-अंकुश हैं सुहाते,

    हैं मेघ विश्वमदताप-तृषा बुझाते ॥४२॥

     

    चारों गती मिट गयी तुम ईश! शम्भू,

    से ज्ञान पूर निजगम्य अतः स्वयम्भू।

    ध्यानाग्नि दीप्त मम हो तुम बात हो तो,

    संसार नष्ट मम हो तुम हाथ हो तो ॥४३॥

     

    ले आपको नमन तो सघना अघाली,

    पाती विनाश पल में दुखशील वाली।

    फैला पयोद दल हो नभ में भले ही,

    थोड़ा चले पवन तो बिखरे उड़े ही ॥४४॥

     

    श्रीपाद मानस सरोवर आपका है,

    होते सुशोभित जहाँ नख मौक्तिका हैं।

    स्वामी! तभी मनस हंस मदीय जाता,

    प्रायः वहीं विचरता चुग मोति खाता ॥४५॥

     

    लो! आपके चरण में भवभीत मेरा,

    विश्रान्त है अभय पा मन है अकेला।

    माँ का उदारतम अंक अवश्य होता,

    निःशंक से शरण पा शिशु चूँकि सोता ॥४६॥

     

    हो वर्धमान गतमान प्रमाणधारी,

    क्यों ना सुखी तुम बनो जब निर्विकारी।

    स्वात्मस्थ से अभय हो मन अक्षजेता,

    हो दुःख से बहुत दूर निजात्मवेत्ता ॥४७॥

     

    सन्मार्ग पे विचरता मुनि से अकेला,

    स्वामी! हुआ बहुत काल व्यतीत मेरा।

    मेरै थके पग अभी कितना विहारा,

    बोलो कि दूर कितना तुम धाम प्यारा ॥४८॥

     

    स्वामी अपूर्व रवि से द्युति धाम प्यारे,

    ये तेज सैन रवि सन्मुख हो तुम्हारे।

    मानों नहीं स्वयं को रवि है विरागी!

    क्यों अग्नि है मम तपो मणि में सुजागी? ॥४९॥

     

    हे ईश धीश मुझमें बल बोधि डालो!

    कारुण्य धाम करुणा मुझमें दिखा लो।

    देहात्म में बस विभाजन तो करूंगा,

    शीघ्रातिशीघ्र सुख भाजन तो बनूँगा ॥५०॥

     

    विज्ञान से शमित की रति की निशा है,

    पाया प्रकाश तुमने निज की दशा है।

    तो भी निवास करते मुझमें विरागी!

    आलोक धाम तुम हो, तम मैं सरागी ॥५१॥

     

    शुद्धात्म में तुम सुनिश्चय से बसे हो,

    जो जानते जगत को व्यवहार से हो।

    होती सदा सहजवृत्ति सुधी जनों की,

    इच्छामयी विकृतवृत्ति कुधी जनों की ॥५२॥

     

    संसार को निरखते न यथार्थ में हैं,

    लो आप केवल निजीय पदार्थ में हैं।

    संसार ही झलकता दुग में तथा हैं,

    नाना पदार्थ दल दर्पण में यथा हैं ॥५३॥

     

    स्वादी तुम्हीं समयसार स्वसम्पदा के,

    आदी कुधी सम नहीं जड़ सम्पदा के।

    औचित्य है अमर जीवन उच्च जीता,

    मक्खी समा मल न, पुष्य पराग पीता ॥५४॥

     

    है वस्तुतः जड़ अचेतन ही तुम्हारी,

    वाणी तथापि जग पूज्य प्रमाण प्यारी।

    है एक हेतु इसमें तुमने निहारा,

    विज्ञान के बल अलोक त्रिलोक सारा ॥५५॥

     

    सम्यक्त्व आदिक निजी बल मोक्षदाता,

    वे ही अपूर्ण जब लौं सुर सौख्यधाता।

    औचित्य वस्त्र बनता निज तन्तुओं से,

    ऐसा कहा कि तुमने मित सत् पदों से ॥५६॥

     

    होता विलीन भवदीय उपासना में,

    तो भूलता सहज ही सुख याचना मैं ।

    जो डूबता जलधि में मणि ढूँढ लाने,

    क्या मांगता जलधि से मणि दे! सयाने ॥५७॥

     

    औचित्य है प्रथम अम्बर को हटाया,

    पश्चात् दिगम्बर विभो! मन को बनाया।

    रे! धान का प्रथम तो छिलका उतारो,

    लाली उतार, फिर भात पका, उड़ालो ॥५८॥

     

    शंका न मृत्यु भय ने सबको हराया,

    संसार ने तब परिग्रह को सजाया।

    है सेव्य है अभय सेवक मैं विरागी,

    मैं भी बनूँ अभय जो सब ग्रन्थत्यागी ॥५९॥

     

    जो देह नेह मद को तजना कहाता !

    स्वामी ! अतीन्द्रिय वही सुख है सुहाता।

    तेरे सुशान्त मुख को लख ले रहा है,

    ऐसा विबोध, मन का मल धो रहा है ॥६०॥

     

    गंभीर सागर नहीं शशि दर्श पाता,

    गांभीर्य त्याग तट बाहर भाग आता।

    गंभीर आप रहते निज में इसी से,

    लेते प्रभावित नहीं जग में किसी से ॥६१॥

     

    है चाहता अबुध ही तुम पास आना,

    धारे बिना नियम संयम शील बाना।

    धीमान कौन वह है। श्रम देख रोये,

    चाहे यहाँ सुफल क्या बिन बीज बोये ॥६२॥

     

    शुद्धात्म में रुचि बिना शिवसाधना है,

    रे निर्विवाद यह आत्मविराधना है।

    हो आत्मघात शिर से गिरि फोड़ने से,

    तेरा यही मत इसे सुख मानने से ॥६३॥

     

    ना आत्म तृप्ति उदयागत पुण्य में है,

    वो शांति की लहर ना शशिबिम्ब में है।

    जो आपके चरण का कर स्पर्श पाया,

    आनन्द ईदृश कही अब लौ न पाया ॥६४॥

     

    स्वामी! निजानुभवरूप समाधि द्वारा,

    पाया, मिटी-भव-भवाब्धि, भवाब्धि पारा।

    ये धैर्य धार बुध साधु समाधि साधे,

    साधे अतः सहज को निज को अराधे ॥६५॥

     

    है वज्र, कर्म-धरणीधर को गिराता,

    दावा बना कुमत कानन को जलाता।

    ऐसा रहा सुखद शासन शुद्ध तेरा,

    पाथेय पंथ बन जाय सहाय मेरा ॥६६॥

     

    से तेज भानु भवसागर को सुखाने,

    गंगा तुम्हीं तृषित की कुतृषा बुझाने।

    से जाल इंद्रियमयी मछली मिटाने,

    मैं भी, तुम्हें सुबुध भी, इस भाँति मानें ॥६७॥

     

    मेरी मती स्तुति सरोवर में रहेगी,

    हेगी मदाग्नि मुझमें, ह क्या करेगी।

    पीयूष सिंधु भर में विषबिन्दु क्या है?

    अस्तित्व में पर प्रभाव दबाव क्या है?॥६८॥

     

    स्याद्वादरूप मत में, मत अन्य खारे,

    ज्यों ही मिले मधुर से बन जाएँ प्यारे।

    मात्रानुसार यदि भोजन में मिलाओ,

    खारा भले लवण हे अति स्वाद पाओ ॥६९॥

     

    ले आपकी प्रथम मैं स्तुति का सहारा,

    पश्चात् नितांत निज में करता विहारा।

    ज्यों बीच बीच निज पंख विहंग फैला,

    फैला विहार करता नभ में अकेला ॥७०॥

     

    मिथ्यात्व से भ्रमित चित्त सही नहीं है,

    तेरे उसे वचन ये रुचते नहीं हैं।

    मिश्री मिला पय से रुचता कहाँ है?

    जो दीन पीड़ित दुखी ज्वर से अहा है ॥७१॥

     

    लालित्य पूर्ण कविता लिख के तुम्हारी,

    होते अनेक कवि हैं कवि नामधारी।

    मैं भी सुकाव्य लिख के कवि तो हुआ हूँ,

    आश्चर्य तो यह निजानुभवी हुआ हूँ ॥७२॥

     

    श्रद्धासमेत तुमको यदि जानता है,

    शुद्धात्म को वह अवश्य पिछानता है।

    धूवाँ दिखा अनल का अनुमान होता,

    है तर्क शास्त्र पढ़ते दृढ़ बोध होता ॥७३॥

     

    मोहादि कर्म मल को तुमने मिटाया,

    स्वामी स्वकीय पद शाश्वत सौख्य पाया।

    लेता सहार मुनि से अब मैं तुम्हारा,

    तोता जहाज तज कुत्र उड़े विचारा ॥७४॥

     

    त्यों आपके स्तवन की किरणावली है,

    पाती प्रवेश मुझमें सुखदा भली है।

    ज्यों ज्योति पुंज रवि की प्रखरा प्रभाली,

    से रंध में सदन के घुसती निराली ॥७५॥

     

    कामारिरूप तुम में मन को लगाता,

    है वस्तुतः मुनि मनोभव को मिटाता।

    हो जाय नाश जब कारण का तथापि,

    क्या कार्य का जनम से जग में कदापि ॥७६॥

     

    स्वामी तुम्हें न जिसने रुचि से निहारा,

    देता उसे न ‘दृग' दर्शन है तुम्हारा।

    जो अन्ध है, विमल दर्पण क्या करेगा,

    क्या नेत्र देकर कृतार्थ उसे करेगा? ॥७७॥

     

    वाणी सुधा सदृश सज्जन संगती से,

    तेरी, बने कलुष दुर्जन संगती से।

    औचित्य मेघ जल है गिरता नदी में,

    तो स्वाद्य पेय बनता, विष से अही में ॥७८॥

     

    जैसा सुशान्त रस वो मम आत्म से है,

    धारा प्रवाह झरता इस काव्य से है।

    वैसा कहाँ झर रहा  शशि बिंब से है,

    पूजें तुम्हें तदपि दूर सुवृत्त से है ॥७९॥

     

    संसार के विविध वैभव भोग पाने,

    पूजें तुम्हें बस कुधी जड़, ना सयाने।

    ले स्वर्ण का हल, कृषि करता कराता,

    वो मूर्ख ही कृषक है जग में कहाता ॥८०॥

     

    है मोह नष्ट तुममें फिर अन्न से क्या?

    त्यागा असंयम, सुसंयम भार से क्या?

    मारा कुमार तुमने फिर वस्त्र से क्या?

    हैं पूज्य ही बन गये, पर पूज्य से क्या? ॥८१॥

     

    मेरा जभी मन बना शिवपंथगामी,

    संसार भोग उसको रुचते न स्वामी।

    धीमान कौन वह है घृत छोड़ देगा,

    क्या! मान के परम नीरस छाछ लेगा ॥८२॥

     

    मेरी भली विकृति पै मति चेतना है,

    चैतन्य से उदित है जिन-देशना है।

    कल्लोल के बिन सरोवर तो मिलेगा,

    कल्लोल वो बिन सरोवर क्या मिलेगा? ॥८३॥

     

    लो! आपके स्तवन से बहु निर्जरा हो,

    स्वामी! तथापि विधिबंधन भी जरा हो।

    अच्छी दुकान चलती धन खूब देती,

    तो भी किराय कम से कम क्या न लेती? ॥८४॥

     

    वो आपकी सकल वस्तुप्रकाशिनी है,

    नासा प्रमाणमय, विभ्रम-नाशिनी है।

    नासाग्र पे इसलिए तुम साम्यदृष्टि,

    आसीन है सतत शाश्वत शान्ति सृष्टि ॥८५॥

     

    हैं आप नम्र गुरु चूँकि भरे गुणों से,

    हैं पूज्य राम निज में रमते युगों से।

    पी, पी, पराग निजबोधन की सुखी हैं,

    नीराग हैं, पुरुष हैं, प्रकृती तजीं हैं ॥८६॥

     

    हो धीर वीर तुम चूँकि निजात्म जेता,

    मारा कुमार तुमने शिव साधु नेता।

    सर्वज्ञ हो इसलिए तुम सर्वव्यापी,

    बैठे मदीय मन में अणु हो तथापि ॥८७॥

     

    साता नहीं उदय में जब हो असाता,

    मैं आपके भजन में बस डूब जाता।

    है चन्द्र को निरखता सघनी निशा में,

    जैसा चकोर रुचि से न कभी दिवा में ॥८८॥

     

    धाता तुम्हीं अभय दे जग को जिलाते,

    नेता तुम्हीं सहज सत्पथ भी दिखाते।

    मृत्युंजयी बन गये भगवान् कहाते,

    सौभाग्य है, कि मम मन्दिर में सुहाते ॥८९॥

     

    ऐसी मुझे दिख रही तुम भाल पे है,

    जो बाल की लटकती लद गाल पे है।

    तालाब में कमल पे अलि भा रहा हो,

    संगीत ही गुनगुना कर गा रहा हो ॥९०॥

     

    काले घने कुटिल चिक्कण केश प्यारे,

    ऐसे मुझे दिख रहे शिर के तुम्हारे।

    जैसे कहीं मलयचन्दन वृक्ष से ही,

    हो कृष्ण नाग लिपटे अयि दिव्य देही! ॥९१॥

     

    चाहूँ न राज सुख मैं सुरसम्पदा भी,

    चाहूँ न मान यश देह नहीं कदापि।

    है ईश गर्दभ समा तन भार ढोना,

    कैसे मिटे, कब मिटे, मुझको कहो ना ! ॥९२॥

     

    मेरी सुसुप्त उस केवल की दशा में,

    ये आपकी सहज तैर रहीं दशायें।

    यों आपका कह रहा श्रुत सत्य प्यारा,

    मैंने उसे सुन गुना रुचि संग धारा ॥९३॥

     

    संसार से विरत हूँ तुम ज्योति में हैं,

    निस्तेज कर्म मुझमें जब होश में हूँ।

    बैठा रहे निकट नाग कराल काला,

    टूटा हुआ, कि जिसका विषदन्त भाला ॥९४॥

     

    विज्ञान से अति सुखी बुध वीतरागी,

    अज्ञान से नित दुखी मद-मत्त, रागी।

    ऐसा सदा कह रहा मत आपका है,

    धर्मात्म का सहचरी, रिपु पाप का है ॥९५॥

     

    हो आज सीमित भले मम ज्ञान आरा,

    होगी असीम तुम आश्रय पा अपारा।

    प्रारम्भ में सरित हो पतली भले ही,

    पै अन्त में अमित सागर में ढले ही ॥९६॥

     

    लो आपके सुखमयी पदपंकजों में,

    श्रद्धासमेत नत हैं तब लौं विभो मैं।

    विज्ञानरूप रमणी मम सामने आ,

    ना नाच गान करती जब लौं न नेहा ॥९७॥

     

    स्वामी तुम्हें निरख सादर नेत्र दोनों,

    आरूढ़ मोक्षपथ हों मम पैर दोनों।

    ले ईश नाम रसना, शिर तो नती से,

    यों अंग अंग हुरषे तुम संगती से ॥९८॥

     

    हो मृत्यु से रहित अक्षर हो कहाते,

    हो शुद्ध जीव जड़ अक्षर हो न ततै।

    तो भी तुम्हें न बिन अक्षर जान पाया,

    स्वामी अतः स्तवन अक्षर से रचाया ॥९९॥

     

    चाहूँ कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी,

    पीऊँ सुधारस स्वकीय बनूँ न कामी।

    पा ज्ञानसागर सुमंथन से सुविद्या,

    विद्यादिसागर बनँ तज हैं अविद्या ॥१००॥


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