इस तरह
दिन-रात गुजरते-गुजरते
गर्भभार बढ़ता गया,
किंतु माँ हलकी होती गयी।
एक दिन अचानक
महसूस किया
अपूर्व स्पंदन को
मानो यह कह रहा हो
मुझे शीघ्र बाहर बुला लो;
क्योंकि बाहर आये बिना
भीतर जा नहीं पाऊँगा
और आपके स्वप्नों को
साकार रूप दे नहीं पाऊँगा।
वह जननी
शिशु की परोक्ष वार्ता
एकतान हो सुन रही थी...
तरह-तरह की कल्पना के
ताने-बाने से
उसके सुखद भविष्य को
आनंद विभोर हो बुन रही थी…|
आज स्वाध्याय के समय
‘पद्मपुराण’ में श्रीराम के जीवन से
कुछ विशेष
उद्बोधन हुआ-
अपने ही भीतर विराजित
आतमराम का
अनुभवन हुआ
राम भवन से वन की ओर गये
भगवन् बन गये
जब यह ज्ञात हुआ
तो मन चिंतन में डूब गया।
अहो चेतना!
तुम्हारा ऐसा शुभ अवसर कब आयेगा?
जड़ तन को तजकर
कब अक्षय अविनाशी
पूर्ण ज्ञानधाम में निवास होगा?
सहृदय हुआ यह चिंतन
सजल हो आये नयन
गौर वर्ण का मुखमण्डल
लाल-लाल गुलाब-सी
आभा ले और...
चमकने लगा,
अंतर की विशुद्धि से
चिंतन लब्धि से
मन की शांति से
प्रभावित हो
शरीर दमकने लगा।
ग्रंथ का शब्द-शब्द
कर्णकुहरों में
गूँजने लगा,
और
यही चिंतन का आनंद
कोख में पलने वाले
शिशु को
आनंदित करने लगा।