इधर
खेलते-खेलते
ज्येष्ठ पुत्र महावीर
स्नेहभरी माँ की गोद में
आ बैठ गये,
लेकिन माँ की आँखें
अभी भी मूँदी हैं
कौन गोद में है
कौन कोख में है
पलभर
सब कुछ भूली है
वह तो अपने आप में ही खोई है।
इतने में ही
सखी ने आ आवाज़ लगाई
अरी!
क्या सोच रही हो?
आगंतुक कौन है
बेटा है या बेटी?
यह विचार रही हो ना
आखिर तुम क्या
चाह रही हो?
गुलाब की पाँखुरियों-सी
हौले-हौले खुले नयनों से निहार
सखी से
कहने लगी-
बेटा हो या बेटी
क्या फर्क पड़ता है
पर्यायों को नहीं
आने वाली पवित्र आत्मा को देखना है,
देहाकृति को नहीं,
देह के भीतर वैदेही चेतना को निरखना है।
और
सखी जाते-जाते कहने लगी-
तुम्हारे गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से
होने वाले सद् विचार से
मैं अति प्रभावित हूँ।
ऐसी ही पवित्र दृष्टि
मेरी भी हो
यही भावना भाते हुए
उल्लसित हूँ।