श्रवणबेलगोला के
उन्नत पर्वत पर
चढ़ते दंपत्ति ने
अचानक सुनी
गिरने की आवाज़...
वह किसी और की नहीं,
डेढ़ वर्ष के पीलू की थी आवाज़
गिर गया दस सीढ़ी
पर रोया नहीं,
मुँह से निकलने लगा खून
पर कुछ बोला नहीं...
औरों के आँसू पौंछने वाला
हो सकता है कैसे?
गिरतों को थामने वाला
लक्ष्य से गिर सकता है कैसे?
देह राग से
घिर सकता है कैसे?
‘श्रीमंत’ ने देख बालक को
झट छाती से लगा लिया
आँखें नम हो गई
श्वासें थम-सी गईं...
प्यार से
उसके कपाल पर
और नयनों पर
गंधोदक लगा दिया
प्रभु पद-रज का पाकर स्पर्श
प्रफुल्लित हुआ ‘विद्या’
और जननी को भी हँसा दिया।
दूध के चार दाँत हँसते समय
बड़े प्यारे लगते थे,
अभी तक वह कुछ खाते नहीं थे
पीते थे केवल दूध
वह भी मात्र गाय का,
पीने से भैस का दूध
पड़ जाते थे बीमार
सभी बारी-बारी से विशेष
रखते थे उनका ध्यान...।
तीर्थवंदना के क्षणों में
एक और हो गई घटना
पिता मल्लप्पाजी ने
ज्यों ही चढ़ाई बादाम
झुकाया सिर
त्यों ही अपनी नाजुक अंगुलियों से
उठाकर बादाम
रख ली अपनी जेब में...
माँ ने पूछा- क्या करोगे...
इसे खाओगे?
सिर हिलाकर ना करते हुए बोले
‘त्यै की है।’
वाह! क्या विवेक बुद्धि
पायी थी बचपन से ही!
कहते हैं ना
“होनहार बिरवान के
होत चीकने पात”
चलते-फिरते योगी सम विहरते
दूज के चन्द्रमा की भाँति
बढ़ते ही जा रहे थे,
देखते ही देखते
इतने बड़े हो गये कि
अपने दो कोमल,
किंतु अति सबल
पैरों से दौड़कर दूर चले जाते
माँ की पकड़ में नहीं आते।
नहीं जानती थी माँ की मति
कि यह बनकर यति
मोह की पकड़ से भी परे
परम हो जायेगा,
माँ के आसपास सदा
छाया की भाँति रहने वाला
उसी की कृपा छाया पाने
एक दिन
सारा जग तरस जायेगा,
और वह वीतरागी हो
स्वयं में खो जायेगा…
अनेक गृह कार्यों के बीच भी
वह पाती थी उसे हर पल समीप
नज़र गड़ाये देखता था जो
माँ की हर क्रिया,
तभी
पैनी नज़र से
दही मंथन से
ऊपर तैरते नवनीत को देख बोला-
यह मेरे लिए है माँ?
मंथन-क्रिया छोड़
माँ ने बिठा लिया गोद में,
देख भोला-सा चेहरा
बोली
यह सार तत्त्व तेरे लिए ही है
और दोनों कराञ्जलि भर दी
कुछ खाया
बाहर ज्यादा बिखर गया।
बिखरते नवनीत को देख
माँ खो गई विचारों में
तेरा हृदय भी
नवनीत-सा है
पर पीड़ा देख
पिघल जाता है,
जब मैं थककर लेटती हूँ
तब नन्हीं कोमल हथेलियों से
सर दबाने लगता है।
छोटे से आँगन में
विराट व्यक्तित्व के धनी
बाल सम्राट को देख
माँ आनंद से भर आयी...
बीस एकड़ भूमि
साथ ही दुकान
और साहूकारी भी
इस तरह...
कुल मिलाकर
मल्लप्पाजी का परिवार
था सुख संपन्न
चल रहा था जीवन रथ
सहज सानंद…
जिनके नैतिक संस्कारों की
होती थी घर-घर चर्चा
प्रतिदिन जिन मंदिर में
करते थे तत्त्व चर्चा,
जब पढ़ते थे शास्त्र मल्लप्पा
अनेकों श्रावक-श्राविकाएँ
श्रवण करने आते थे वहाँ
साथ ही सबसे छोटा
एक श्रावक ‘विद्या’
जो अग्रिम पंक्ति में बैठ
एकाग्रमना हो
करता था श्रवण |
फिर घर जाकर पिता के निकट
पूछ लेता था कोई प्रश्न,
समाधान मिलते ही
कर लेता दूसरा सवाल,
यूँ ही प्रश्नों की झड़ी
लगा देता वह...
खोजी दृष्टि वाले को
स्नेहिल आँखों से निहार
मल्लप्पाजी बाँहों में भर लेते
प्यार से माथा चूम लेते,
फिर कह देते
अब बस करो बेटा!
सवाल नहीं,
जीवन की हर समस्या का
तुम सम्यक् समाधान खोजो!
भले ही पाई हो बुद्धि की गहराई,
किंतु वय से तो
हो अभी बालक ही।
इन दिनों..
चॉकलेट-सी मीठी गोली खाने की
बन गई है आदत-सी
घर के किसी भी सदस्य को मनाना
और गोली पा लेना
दैनिक कार्यक्रम बन गया है यह,
कहते अन्य सदस्यों को भी
तुम भी खाओ अशुद्ध नहीं, दूध की है यह
खाने योग्य है।
तब वे
मुँह चलाकर यूँ ही बता देते,
किंतु वे विश्वास कहाँ करते
पूछ बैठतेअच्छी लग रही है?
पुनः वे
चटखारे ले कहते
बहुत अच्छी लग रही है...
अंतिम अपनी ही बात
रखना जिनकी आदत थी,
बोल पड़ते कि
“अब रोज खाना
चॉकलेट-सी मीठी गोली
क्योंकि चॉक यानी पहिया
जीवन रथ का,
इससे लेट नहीं होगा
जल्दी मिलेगी तुम्हें अपनी मंज़िल
खाने से मीठी गोली
मीठा बोलोगे अवश्य।''
उसकी निश्छल बात सुन
लोगों के हँसते-हँसते
पेट में बल पड़ जाते
और उसे
गोद में उठाकर
चूम लेते लाल गाल...।