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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

व्यभिचार


संयम स्वर्ण महोत्सव

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पर नर के संयोग वश्य ज्यों नारी अधमा होती है।

उससे भी कुछ अधिक परस्त्री-रत नर यों समझोती है॥१०२॥

 

क्योंकि स्त्री का जीवन तो, भूतल पर परवश होता है।

किन्तु मनुज निजवश होकर भी, ले कल्मष में गोता है॥

हन्त हन्त हम खुद तो देखो, रावणता को लिए रहें।

महिलाओं में सीतापन हो, ऐसी सुख से बात कहें ॥१०३॥

 

तो फिर होगा क्योंकि विश्व में, विप्लव ही हो पावेगा।

चन्दन में से आगी होकर, जगत् भस्म हो जावेगा॥

हा हा घर में प्रेम पियारी, मदन सुन्दरी नारी है।

फिर भी देखो पर अबला पर होती ताक हमारी है॥१०४॥

 

उसके गूढ़ाङ्गों को लख कर, मनो मुग्ध हो जाते हैं।

कब कैसे इसका चुम्बन, पावें यों विचार लाते हैं।

मौका पाकर गुप्ततया, उसके घर में घुसना चाहे।

भूख प्यास को भुला सतत, सोचा करते उसकी राहें ॥१०५॥

 

घर का हलवा तज पर का मलवा ही मन को भाता है।

कुत्ते का ज्यों जूठन खाने को ही जी ललचाता है।

इस उधेड़ बुन में यदि आई याद कदापि लज्जिका की।

तो फिर क्या था बड़ी खुशी से लेते राह बंगला की ॥१०६॥

 

कञ्चनमय भूषण तज कर भाया हार मुलम्मे का।

हुआ विचार धार तज कर कीचड़ में डुबकी लेने का॥

पाऊडर परिपूर्ण वदन का पारायण पा जाने में।

लगी दृष्टि मुग्ध हुआ मानस सरस सुरीले गाने में ॥१०७॥

 

उसने जहाँ दादरा ठुमरी पीलू कव्वाली गाई।

एक-एक टप्पे पर फिर तो बाहु बन्द बंगडी आई॥

घर वाली को चने नहीं इसको बरफी बालूसाई।

उसको चिथड़ा नहीं यहाँ चिक्कन की बनी साड़ी आई॥१०८॥

 

कहीं शोरबा चुसकी ली तो मानों त्रिभुवन सुख लूटा।

किन्तु जहाँ छूटा शरीर पल भर में वहाँ कर्म फूटा॥

क्योंकि वहाँ बेहूदेपन से खोटा कर्म कमाते हैं।

उपदंशादिक संक्रामक रोगों के घर बन जाते हैं ॥१०९॥

 

कहें किसे क्या अपनी करनी यौवन का अभिमान हुआ।

पैसा गया धर्म भी हारा यों जीवन निस्सार हुआ।

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