मानव जीवन
मानव जीवन इस भूतल पर उत्तम सब सुखदाता है।
जिसको अपनाने से नर से नारायण हो पाता है।
गिरि में रत्न तक्र में मक्खन ताराओं में चन्द्र रहे।
वैसे ही यह नर जीवन भी जन्म जात में दुर्लभ है ॥१॥
फिर भी इस शरीरधारी ने भूरि-भूरि नर तन पाया।
इसी तरह से महावीर के शासन में है बतलाया॥
किन्तु नहीं इसके जीवन में कुछ भी मानवता आई।
प्रत्युत वत्सलता के पहले खुदगर्जी दिल को भाई ॥२॥
हमको लडडू हों पर को फिर चाहे रोटी भी न मिले।
पड़ौसी का घर जलकर भी मेरा तिनका भी न हिले॥
हम सोवें पलंग पर वह फिर पराल पर भी क्यों सोवे।
हमको साल दुसाले हों, उसको चिथड़ा भी क्यों होवे ॥३॥
मेरी मरहम पट्टी में उसकी चमड़ी भी आ जावे।
रहूँ सुखी मैं फिर चाहे वह कितना क्यों न दुःख पावे॥
औरों का हो नाश हमारे पास यथेष्ट पसारा से।
अमन चैन हो जावे ऐसी ऐसी विचार धारा से ॥४॥
बनना तो था फूल किन्तु यह हुआ शूल जनता भर का।
खून चूसने वाला होकर घृणा पात्र यों दर दर का॥
होनी तो थी महक सभी के दिल को खुश करने वाली।
हुई नुकीली चाल किन्तु हो पद पद पर चुभने वाली ॥५॥
होना तो था हार हृदय का कोमलता अपना करके।
कठोरता से रुला ठोकरों में ठकराया जा करके॥
ऊपर से नर होकर भी दिल से राक्षसता अपनाई।
अपनी मूँछ मरोड़ दूसरों पर निष्ठुरता दिखलाई ॥६॥
लोगों ने इसलिए नाम लेने को भी खोटा माना।
जिसके दर्शन हो जाने से रोटी में टोटा जाना॥
कौन काम का इस भूतल पर ऐसे जीवन का पाना।
जीवन हो तो ऐसा जनता, का मन मोहन हो जाना ॥७॥
मानवता है यही किन्तु है कठिन इसे अपना लेना,
जहाँ पसीना बहे अन्य का अपना खून बहा देना॥
आप कष्ट में पड़कर भी साथी के कष्टों को खोवे।
कहीं बुराई में फँसते को सत्पथ का दर्शक होवे ॥८॥
पहले उसे खिला करके अपने खाने की बात करे।
उचित बात के कहने में फिर नहीं किसी से कभी डरे॥
कहीं किसी के हकूक पर तो कभी नहीं अधिकार करे।
अपने हक में से भी थोड़ा औरों का उपकार करे ॥९॥
रावण सा राजा होने को नहीं कभी भी याद करे।
रामचन्द्र के जीवन का तन मन से पुनरुद्धार करे॥
जिसके संयोग में सभी के दिल को सुख साता होवे।
वियोग में दृगजल से जनता भूरि भूरि निज उर धोवे ॥१०॥
पहले खूब विचार सोचकर किसी बात को अपनावे।
तब सुदृढ़ाध्यवसान सहित फिर अपने पथ पर जम जावे॥
घोर परीषह आने पर भी फिर उस पर से नहीं चिगे।
कल्पकाल के वायुवेग से,भी क्या कहो सुमेरु डिगे ॥११॥
विपत्ति को सम्पत्ति मूल कह कर उसमें नहि घबरावे।
पा सम्पत्ति मग्न हो उसमें अपने को न भूल जावे॥
नहीं दूसरों के दोषों पर दृष्टि जरा भी फैलावे।
बन कर हंस समान विवेकी गुण का गाहक कहलावे॥१२॥
कृतज्ञता का भाव हृदय अपने में सदा उकीर धरे।
तृण के बदले पय देने वाली गैय्या को याद करे॥
गुरुवों से आशिर्लेकर छोटों को उर से लगा चले।
भरसक दीनों के दुःखों को हरने से नहि कभी टले॥ १३॥
नहीं पराया इस जीवन में जीने के उजियारे हैं।
सभी एक से एक चमकते हुये गमन के तारे हैं।
मृदु प्रेम पीयूष पान बस एक भाव में बहता हो।
वह समाज का समाज उसका, यों हो करके रहता हो॥ १४॥
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