आवश्यकता पूर्ति का साधन कृषि
अन्न वस्त्र यह दो चीजें मानव भर को आवश्यक हैं।
बिना अन्न के देखो भाई किसके कैसे प्राण रहें।
अन्न और कपड़ा ये दोनों खेती से हो पाते हैं।
इसीलिए खेती का वैभव हमें बुजुर्ग बताते हैं॥ ३१॥
कर्मभूमि की आदि कल्पवृक्षों के विनष्ट होने से।
करुणा पूर्ण हृदय होकर के आर्यजनों के रोने से॥
सबसे पहले ऋषभदेव ने खेती का उपदेश दिया।
जबकि उन्होंने भूखों मरते लोगों को पहचान लिया॥ ३२॥
उनके सदुपदेश पर जिन लोगों ने समुचित लक्ष्य दिया।
शाकाहारी रह यथावगत आर्य जनों का पक्ष लिया।
हन्त जिन्होंने कृषि महत्त्व को फिर भी नहीं जान पाया।
मांसाहारी हो लाचारी से म्लेच्छपना अपनाया॥ ३३॥
ऐसे खेती करना माना गया प्रतीक अहिंसा का।
इसकी उन्नति जहाँ वहाँ से हो निर्वासन हिंसा का॥
क्या कपड़ा क्या मकान आदिक खेती मूलक हैं सारे।
जहाँ नहीं खेती होती वे जङ्ग मचाते बेचारे॥ ३४॥
अगर अहिंसा माता के सेवक होने का चारा है।
तो खेती को उन्नति देना पहला काम हमारा है॥
खेती के करने से हो तो तृण कण के भण्डार भरे।
कण की है दरकार हमें तृण जहाँ हमारे बैल चरें॥ ३५॥
यद्यपि आज जगत भर के, दिल में हीरों का आदर है।
किन्तु अन्न के कण हीरों से भी बढ़कर यों याद रहे।
एक ओर रत्नों की ढेरी दूजी ओर धान की हो।
पहले धान बटोरेगा वह जिसमें बुद्धि आपकी हो ॥३६॥
क्योंकि धान को खाकर जीवित रह सकता है तनुधारी।
भूखे को है व्यर्थ भेंट में दी हो रत्नों की लारी॥
रत्न खण्ड से अधिक सुरक्षित सदा अन्न का दाना हो।
घर में जिससे अतिथि जनों का भी सत्कार सहाना हो ॥३७॥
अहो अन्न की महिमा को हम कहो कहाँ तक बतलावें।
जिसके बिना विश्व वैरागी ऋषिवर भी न रहन पावें॥
सुख से अन्न भरोसे ही इस भारत का युग बीता है।
किन्तु हमारा भारत प्यारा, आज अन्न से रीता है ॥३८॥
जहाँ अन्न की लगी रहा करती सड़कों पर झंझोटी।
इतर देश के निवासियों को, भी जो देता था रोटी॥
आज उसी भारत में परदेशों से अगर अन्न आवे।
तो यह भारत देश निवासी यथा पेट रोटी पावे ॥३९॥
यह क्यों हुआ कि हुए अन्न तज हम कंकर लेने वाले।
इसीलिए पड़ रहे हमारे लिए रोटियों के लाले॥
जहाँ अन्न की कदर नहीं फिर खेती को क्यों याद करें।
यों पर के मारक बनकर फिर सहसा अपने आप मरें॥४०॥
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