योगिभक्ति
नरक-पतन से भीत हुये हैं जाग्रत-मति हैं मथित हुये।
जनन-मरण-मय शत-शत रोगों से पीड़ित हैं व्यथित हुये ॥
बिजली बादल-सम वैभव है जल-बुद्-बुद्-सम जीवन है।
यूँ चिन्तन कर प्रशम हेतु मुनि वन में काटें जीवन है ॥१॥
गुप्ति-समिति-व्रत से संयुत जो मन शिव-सुख की ओर रहा।
मोहभाव के प्रबल-पवन से जिनका मन ना डोल रहा ॥
कभी ध्यान में लगे हुये तो श्रुत-मन्थन में लीन कभी।
कर्म-मलों को धोना है सो तप करते स्वाधीन सुधी ॥२॥
रवि-किरणों से तपी शिला पर सहज विराजे मुनिजन हैं।
विधि-बन्धन को ढीले करते जिनका मटमैला तन है॥
गिरि पर चढ़ दिनकर के अभिमुख मुख करके हैं तप तपते।
ममत्व मत्सर मान रहित हो बने दिगम्बर-पथ नपते ॥३॥
दिवस रहा हो रात रही हो बोधामृत का पान करें।
क्षमा-नीर से सिंचित जिनका पुण्यकाय छविमान अरे!
धरे छत्र संतोष-भाव के सहज छाँव का दान करें।
यूँ सहते मुनि तीव्र-ताप को ‘ज्ञानोदय' गुणगान करें ॥४॥
मोर कण्ठ या अलि-सम काले इन्द्रधनुष युत बादल हैं।
गरजे बरसे बिजली तड़की झंझा चलती शीतल है ॥
गगन दशा को देख निशा में और तपोधन तरुतल में।
रहते सहते कहते कुछ ना भीति नहीं मानस-तल में ॥५॥
वर्षा ऋतु में जल की धारा मानो बाणों की वर्षा।
चलित चरित से फिर भी कब हो करते जाते संघर्षा ॥
वीर रहे नर-सिंह रहे मुनि परिषह रिपु को घात रहे।
किन्तु सदा भव-भीत रहे हैं इनके पद में माथ रहे ॥६॥
अविरल हिमकण जल से जिनकी काय-कान्ति ही चली गई।
साँय-साँय कर चली हवायें हरियाली सब जली गई ॥
शिशिर तुषारी घनी निशा को व्यतीत करते श्रमण यहाँ।
और ओढ़ते धृति-कम्बल हैं गगन तले भूशयन अहा! ॥७॥
एक वर्ष में तीन योग ले बने पुण्य के वर्धक हैं।
बाह्याभ्यन्तर द्वादश-विध तप तपते हैं मद-मर्दक हैं॥
परमोत्तम आनन्द मात्र के प्यासे भदन्त ये प्यारे।
आधि-व्याधि औ उपाधि-विरहित समाधि हममें बस डारें ॥८॥
ग्रीष्मकाल में आग बरसती गिरि-शिखरों पर रहते हैं।
वर्षा-ऋतु में कठिन परीषह तरुतल रहकर सहते हैं।
तथा शिशिर हेमन्त काल में बाहर भू-पर सोते हैं।
वन्द्य साधु ये वन्दन करता दुर्लभ-दर्शन होते हैं ॥९॥
अञ्चलिका
(दोहा)
योगीश्वर सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग।
आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥१०॥
अर्ध सहित दो द्वीप तथा दो सागर का विस्तार जहाँ।
कर्म-भूमियाँ पन्द्रह जिनमें संतों का संचार रहा ॥
वृक्षमूल-अभ्रावकाश औ आतापन का योग धरें।
मौन धरें वीरासन आदिक का भी जो उपयोग करें ॥११॥
बेला तेला चोला छह-ला पक्ष मास छह मास तथा।
मौन रहें उपवास करें हैं करें न तन की दास कथा ॥
भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को।
वन्दें पूजूँ अर्चन कर लूँ मन करूँ इन मुनिजन को ॥१२॥
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।
वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ! ॥