पञ्चमहागुरुभक्ति
(चौपाई)
सुरपति शिर पर किरीट धारा जिसमें मणियाँ कई हजारा।
मणि की द्युति-जल से धुलते हैं प्रभु पद-नमता सुख फलते हैं ॥१॥
सम्यक्त्वादिक वसु-गुण धारे वसु-विध विधि-रिपु नाशन-हारे।
अनेक-सिद्धों को नमता हूँ इष्ट-सिद्धि पाता समता हूँ ॥२॥
श्रुत-सागर को पार किया है शुचि संयम का सार लिया है।
सूरीश्वर के पदकमलों को शिर पर रख लूँ दुख-दलनों को ॥३॥
उन्मार्गी के मद-तम हरते जिनके मुख से प्रवचन झरते।
उपाध्याय ये सुमरण कर लूँ पाप नष्ट हो सु-मरण कर लूँ ॥४॥
समदर्शन के दीपक द्वारा सदा प्रकाशित बोध सुधारा ॥
साधु चरित के ध्वजा कहाते दे-दे मुझको छाया तातैं ॥५॥
विमल गुणालय-सिद्धजिनों को उपदेशक मुनि-गणी गणों को ॥
नमस्कार पद पञ्च इन्हीं से त्रिधा नमूँ शिव मिले इसी से ॥६॥
नमस्कार वर मन्त्र यही है पाप नसाता देर नहीं है।
मंगल-मंगल बात सुनी है आदिम मंगल-मात्र यही है॥७॥
सिद्ध शुद्ध हैं जय अरहन्ता गणी पाठका जय ऋषि संता।
करे धरा पर मंगल साता हमें बना दें शिव सुख धाता ॥८॥
सिद्धों को जिनवर चन्द्रों को गणनायक पाठक वृन्दों को।
रत्नत्रय को साधु जनों को वन्दूँ पाने उन्हीं गुणों को ॥९॥
सुरपति चूड़ामणि-किरणों से लालित सेवित शतों दलों से।
पाँचों परमेष्ठी के प्यारे पादपद्म ये हमें सहारे ॥१०॥
महाप्रातिहार्यों से जिनकी शुद्ध गुणों से सुसिद्ध गण की।
अष्ट-मातृकाओं से गणि की शिष्यों से उपदेशक गण की ॥
वसु विध योगांगों से मुनि की करूँ सदा थुति शुचि से मन की॥११॥
अञ्चलिका
पञ्चमहागुरु भक्ति का करके कायोत्सर्ग।
आलोचन उसका करूँ ले प्रभु तव संसर्ग ॥१२॥
(ज्ञानोदय छन्द)
लोक शिखर पर सिद्ध विराजे अगणित गुणगण मण्डित हैं।
प्रातिहार्य आठों से मण्डित जिनवर पण्डित-पण्डित हैं॥
आठों प्रवचन-माताओं से शोभित हों आचार्य महा।
शिव पथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य यहाँ ॥१३॥
उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिव पथ का।
रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का ॥
भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को।
वंन्दूँ पूजूँ अर्चन कर लूँ नमन करूँ मैं गुरुगण को ॥१४॥
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।
वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥
समय व स्थान परिचय
गगन चूमता शिखर है भव्य जिनालय भ्रात।
विघन-हरण मंगलकरण महुवा में विख्यात ॥१॥
बहती कहती है नदी ‘पूर्णा' जिसके तीर।
पार्श्वनाथ के दर्श से दिखता भव का तीर ॥२॥
गन्ध गन्ध गति गन्ध की सुगन्ध दशमी योग।
अनुवादित ये भक्तियाँ पढ़ो मिटे सब रोग ॥३॥
पूर्णा नदी के तट पर अवस्थित श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ की मनोहारी प्रतिमा के लिए सुप्रसिद्ध श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महुवा (सूरत) गुजरात में वर्षायोग के दौरान भाद्रपद शुक्ल सुगन्ध दशमी वीर निर्वाण संवत् २५२२, वि. सं. २०५३ तदनुसार २२ सितम्बर १९९६ को भक्तियों का यह पद्यानुवाद सम्पन्न हुआ।
यहाँ ज्ञातव्य है कि नन्दीश्वर भक्ति का पद्यानुवाद आचार्य श्री जी द्वारा बहुत पहले किया जा चुका था।