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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • चैत्यभक्ति

       (1 review)

    चैत्यभक्ति

     

    अजेय अघहर अद्भुत-अद्भुत पुण्य बन्ध के कारक हैं।

    करें उजाला पूर्ण जगत् में सत्य तथ्य भव तारक हैं॥

    गौतम-पद को सन्मति-पद को प्रणाम करके कहता हूँ।

    चैत्य-वन्दना' जग का हित हो जग के हित में रहता हूँ ॥१॥

     

    अमर मुकुटगत मणि आभा जिन को सहलाती सन्त कहे।

    कनक कमल पर चरण कमल को रखते जो जयवन्त रहे ॥

    जिनकी छाया में आकर के उदार उर वाले बनते।

    अदय क्रूर उर धारे आरे मान दम्भ से जो तनते ॥१/१॥

     

    जैनधर्म जयशील रहे नित सुर-सुख शिव-सुख का दाता।

    दुर्गति दुष्पथ दुःखों से जो हमें बचाता है त्राता ॥

    प्रमाणपण औ विविध नयों से दोषों के जो वारक हों।

    अंग-बाह्य औ अंग-पूर्वमय जिनवच जग उद्धारक हों ॥२॥

     

    अनेकान्तमय वस्तु तत्त्व का सप्तभंग से कथन करे।

    तथा दिखाता सदा द्रव्य को ध्रौव्य-आय-व्यय वतन अरे!॥

    पूर्णबोध की इस विध थुति से निरुपम सुख का द्वार खुले।

    दोष रहित औ नित्य निरापद संपद का भण्डार मिले ॥३॥

     

    जन्म-दुःख से मुक्त हुए हैं अरहन्तों को वन्दन हो।

    सिद्धों को भी नमन करूं मैं जहाँ कर्म की गन्ध न हो ॥

    सदा वन्द्य हैं सर्ववन्द्य हैं साधुजनों को नमन करूँ।

    गणी पाठकों को वन्दूँ मैं मोक्ष-धाम को गमन करूं ॥४॥

     

    मोह-शत्रु को नष्ट किये हैं दोष-कोष से रहित हुये।

    तदावरण से दूर हुये हैं प्रबोध-दर्शन सहित हुये ॥

    अनन्त बल के धनी हुये हैं अन्तराय का नाम नहीं।

    पूज्य योग्य अरहन्त बने हैं तुम्हें नमूं वसु याम सही ॥५॥

     

    वीतरागमय धर्म कहा है जिनवर ने शिवपथ नेता।

    साधक को जो सदा संभाले मोक्षधाम में धर देता ॥

    नमूं उसे मैं तीन लोक के हित सम्पादक और नहीं।

    आर्जव आदिक गुणगण जिससे बढ़ते उन्नति ओर सही ॥६॥

     

    सजे चतुर्दश पूर्वो से हैं औ द्वादश विध अंगों से।

    तथा वस्तुओं और उपांगों से गुंथित बहु भंगों से ॥

    अजेय जिनके वचन रहे ये अनन्त अवगम वाले हैं।

    इन्हें नमन अज्ञान-तिमिर को हरते परम उजाले हैं ॥७॥

     

    भवनवासियों के भवनों में स्वर्गिक कल्प विमानों में।

    व्यन्तर देवावासों में औ ज्योतिष देव विमानों में ॥

    विश्ववन्द्य औ मर्त्यलोक में जितने जिनवर चैत्य रहें।

    मन-वच-तन से उन्हें नमूं वे मम मन के नैवेद्य रहे ॥८॥

     

    सुरपति नरपति धरणेन्द्रों से तीन लोक में अर्चित हैं।

    अनन्य दुर्लभ सभी सम्पदा जिनचरणों में अर्पित हैं॥

    तीर्थकरों के जिनालयों को तन-वच-मन-परिणामों से।

    नमूं बनूं बस शान्त बनूं मैं भव-भवगत दुख-अनलों से ॥९॥

     

    इस विध जिनको नमन किया है पावनपण को हैं धारे।

    पञ्चपदों से पूजे जाते परम पुरुष हैं जग प्यारे॥

    जिनवर जिनके वचन धर्म औ बिम्ब जिनालय ये सारे।

    बुधजन तरसे विमल-बोधि को हमें दिलावे शिव-द्वारे॥१०॥

     

    नहीं किसी से गये बनाये स्वयं बने हैं शाश्वत हैं।

    चम-चम चमके दम-दम दमके बाल-भानुसम भास्वत हैं॥

    और बनाये जिनालयों में नरों सुरों से पूजित हैं।

    जिनबिम्बों को नमन करूँ मैं परम पुण्य से पूरित हैं ॥११॥

     

    आभामय भामण्डल वाली सुडौल हैं बेजोड़ रहीं।

    जिनोत्तमों में उत्तम जिन की प्रतिमायें युग मोड़ रहीं ॥

    विपदा हरती वैभव लाती सुभिक्ष करती त्रिभुवन में।

    कर युग जोडूं विनम्र तन से नमूं उन्हें हरखू मन में ॥१२॥

     

    आभरणों से आवरणों से आभूषण से रहित रही।

    हस्त निरायुध उपांग जिनके विराग छवि से सहित सही ॥

    प्रतिमायें अ-प्रमित रही हैं कान्ति अनूठी है जिनकी।

    क्लान्ति मिटे चिर शान्ति मिले बस भक्ति करूँ निशिदिन उनकी ॥१३॥

     

    बाहर का यह रूप जिनों का स्वरूप क्या? है बता रहा।

    कषाय कालिख निकल गई है परम शान्ति को जता रहा ॥

    स्वभाव-दर्शक भव-भवनाशक जिनबिम्बों को नमन करूँ।

    साधन से सो साध्य सिद्ध हो कषाय-मल का शमन करूँ॥१४॥

     

    लगा भक्ति में जिन, बिम्बों की हुआ पुण्य का अर्जन है।

    सहजरूप से अनायास ही हुआ पाप का तर्जन है॥

    किये पुण्य के फल ना चाहूँ विषय नहीं सुरगात्र नहीं।

    जन्म-जन्म में जैनधर्म में लगा रहे मन मात्र यही ॥१५॥

     

    सब कुछ देखें सब कुछ जानें दर्शनधारी ज्ञानधनी।

    गुणियों में अरहन्त कहाते चेतन के द्युतिमान मणी ॥

    मिली बुद्धि से उन चैत्यों का भाग्यमान गुणगान करूं।

    अशुद्धियों को शीघ्र मिटाकर विशुद्धियों का पान करूं ॥१६॥

     

    भवनवासियों के भवनों में फैली वैभव की महिमा।

    नहीं बनाई बनी आप हैं आभावाली हैं प्रतिमा ॥

    प्रणाम उनको भी मैं करता सादर सविनय सारों से।

    पहुँचा देवें पञ्चमगति को तारें मुझको क्षारों से ॥१७॥

     

    यहाँ लोक में विद्यमान हैं जितने अपने आप बने।

    और बनाये चैत्य अनेकों भविक जनों के पाप हरें॥

    उन सब चैत्यों को वन्दूँ मैं बार-बार संयत मन से।

    बार-बार ना एक बार बस आप भरूँ अक्षय धन से ॥१८॥

     

    व्यन्तरदेवों के यानों में प्रतिमा - गृह हैं भास्वर हैं।

    संख्या की सीमा से बाहर चिर से हैं अविनश्वर हैं॥

    सदा हमारे दोषों के तो वारण के वे कारण हों।

    ताकि दिनों दिन उच्च-उच्चतर चारित का अवधारण हो ॥१९॥

     

    ज्योतिषदेव विमानों में भी रहे जिनालय हैं प्यारे।

    कितनी संख्या कही न जाती अनगिन माने हैं सारे॥

    विस्मयकारी वैभव से जो भरे हुये हैं अघहारी।

    उनको भी हो वन्दन, अपना वन्दन हो शिव सुखकारी ॥२०॥

     

    वैमानिक देवों के यानों में भी जिन की प्रतिमा हैं।

    जिन की महिमा कही न जाती चम-चम-चमकी द्युतिमा हैं॥

    सुरमुकुटों की मणि छवियाँ वे जिनके पद में बिम्बित हैं।

    उन्हें नमूं मैं सिद्धि लाभ हो गुणगण से जो गुम्फित हैं ॥२१॥

     

    उभय सम्पदा वाले जिनका वर्णो से ना वर्णन हो।

    अरि-विरहित अरहंत कहाते जिनबिम्बों का अर्चन हो ॥

    यशःकीर्ति की नहीं कामना कीर्तन जिन का किया करूँ।

    कर्मास्रव का रोकनहारा कीर्तन करता जिया करूँ ॥२२॥

     

    महानदी अरहन्त देव हैं अनेकान्त भागीरथ है।

    भविकजनों का अघ धुलता है यहाँ यही वर तीरथ है॥

    और तीर्थ में लौकिक जो है तन की गरमी है मिटती।

    वही तीर्थ परमार्थ जहाँ पर मन की भी गरमी मिटती ॥२३॥

     

    लोकालोकालोकित करता दिव्यबोध आलोक रहा।

    प्रवाह बहता अहो रात यह कहीं रोक ना टोक रहा ॥

    जिसके दोनों ओर बड़े दो विशाल निर्मल कूल रहे।

    एक शील का दूजा व्रत का आपस में अनुकूल रहे ॥२४॥

     

    धर्म - शुक्ल के ध्यान धरे हैं राजहंस ऋषि चेत रहे।

    पञ्च समितियाँ तीन गुप्तियाँ नाना गुणमय रेत रहे ॥

    श्रुताभ्यास की अनन्य दुर्लभ मधुर-मधुर धुनि गहर रही।

    महातीर्थ की मुझ बालक पर रहा रहे नित महर सही ॥२५॥

     

    क्षमा भंवर है जहाँ हजारों यति-ऋषि-मुनि मन सहलाते।

    दया कमल हैं खुले खिले हैं सब जीवों को महकाते ॥

    तरह-तरह के दुस्सह परिषह लहर-लहर कर लहराते।

    ज्ञानोदय के छन्द हमें यों ठहर-ठहर कर कह पाते ॥२६॥

     

    भविक व्रती जन नहीं फिसलते राग-रोष शैवाल नहीं।

    सार-रहित हैं कषाय तन्मय फेनों का फैलाव नहीं ॥

    तथा यहाँ पर मोहमयी उस कर्दम का तो नाम नहीं।

    महा भयावह दुस्सह दुख का मरण-मगर का काम नहीं ॥२७॥

     

    ऋषि-पति मृदुधुनि से थुति करते श्रुत की भी दे सबक रहे।

    जहाँ लग रहा श्रवण मनोहर विविध विहंगम चहक रहे ॥

    घोर-घोरतर तप तपते हैं बने तपस्वी घाट रहे।

    आस्रव रोधक संवर बनता बँधा झर रहा पाट रहे ॥२८॥

     

    गणधर गणधर के चरणों में ऋषि-यति-मुनि अनगार रहे।

    सुरपति नरपति और-और जो निकट भव्यपन धार रहे ॥

    ये सब आकर परम-भक्ति से परम तीर्थ में स्नान किये।

    पञ्चम युग के कलुषित मन को धो-धोकर छविमान किये॥२९॥

     

    नहीं किसी से जीता जाता अजेय है गम्भीर रहा।

    पतितों को जो पूत बनाता परमपूत है क्षीर रहा ॥

    अवगाहन करने आया हूँ महातीर्थ में स्नान करूं।

    मेरा भी सब पाप धुले बस यही प्रार्थना दान करूं ॥३०॥

     

    नयन युगल क्यों लाल नहीं हैं? कोप अनल को जीत लिया।

    हाव-भाव से नहीं देखते! राग आपमें रीत गया ॥

    विषाद-मद से दूर हुये हैं प्रसन्नता का उदय रहा।

    यूँ तव मुख कहता-सा लगता दर्पण-सम है हृदय रहा ॥३१॥

     

    निराभरण होकर भासुर हैं राग-रहित हैं अघहर हैं।

    कामजयी बन यथाजात बन बने दिगम्बर मनहर हैं॥

    निर्भय हैं सो बने निरायुध मार-काट से मुक्त हुये।

    क्षुधा-रोग का नाश हुआ है निराहार में तृप्त हुये ॥३२॥

     

    अभी खिले हैं नीरज चन्दन-सम घम-घम-घम-वासित हैं।

    दिनकर शशिकर हीरक आदिक शतवसु लक्षण भासित हैं ॥

    दश-शत रवि-सम भासुर फिर भी आँखें लखती ना थकती।

    दिव्यबोध जब जिन में उगता देह दिव्यता यूँ जगती।

    बाल बढ़े नाखून बढ़े ना मलिन धूलि आ ना लगती ॥३३॥

     

    शिवपथ में हैं बाधक होते मोह-भाव हैं राग घने।

    जिनसे कलुषित जन भी तुम को लखते वे बेदाग बने ॥

    किसी दिशा से जो भी देखे उसके सम्मुख तुम दिखते।

    शरदचन्द्र-से शान्त धवलतम संत सुधी जन यूँ लिखते ॥३४॥

     

    सुरपति मुकुटों की मणिकिरणें झर-झुर झर-झुर करती हैं।

    पूज्यपाद के पदपद्मों को चूम रही मन हरती हैं॥

    वीतराग जिन! दिव्य रूप तव सकल लोक को शुद्ध करे।

    अन्ध बना है कुमततीर्थ में शीघ्र इसे प्रतिबुद्ध करे ॥३५॥

     

    मानथंभ सर पुष्पवाटिका भरी खातिका शुचि जल से।

    स्तूप महल बहु कोट नाट्यगृह सजी वेदियाँ ध्वज-दल से ॥

    सुरतरु घेरे वन उपवन है और स्फटिक का कोट लसे।

    नर सुर मुनि की सभा पीठिका-पर जिनवर हैं और बसे।

    समवसरण की ओर देखते पाप ताप का घोर नसे ॥३६॥

     

    क्षेत्र-पर्वतों के अन्तर में क्षेत्रों मन्दरगिरियों में।

    द्वीप आठवाँ नन्दीश्वर में और अन्य शुभ पुरियों में ॥

    सकल-लोक में जितने जिन के चैत्यालय हैं यहाँ लसे।

    उन सबको मैं प्रणाम करता मम मन में वे सदा बसे ॥३७॥

     

    बने बनाये बिना बनाये यहाँ धरा पर गिरियों में।

    देवों राजाओं से अर्चित मानव-निर्मित पुरियों में ॥

    वन में उपवन में भवनों में दिव्य विमानों यानों में।

    जिनवर बिम्बों को मैं सुमरूँ अशुभ दिनों में सुदिनों में ॥३८॥

     

    जम्बू-धातकि-पुष्करार्ध में लाल कमल-सम तन वाले।

    कृष्ण मेघ-सम शशी कनक-सम नील कण्ठ आभा वाले ॥

    साम्य-बोध चारितधारक हो अष्टकर्म को नष्ट किया।

    विगत-अनागत-आगत जिन को नर्मू नष्ट हो कष्ट जिया॥३९॥

     

    रतिकर रुचके चैत्य वृक्ष पर औ दधिमुख अञ्जन भूधर

    रजत कुलाचल कनकाचल पर वृक्ष शाल्मली-जम्बू पर॥

    इष्वाकारों वक्षारों पर व्यन्तर-ज्योतिष सुर जग में।

    कुण्डल मानुषगिरि वर-प्रतिमा नमूं उन्हें अन्तर जग में ॥४०॥

     

    सुरासुरों से नर नागों से पूजित वंदित अर्चित हैं।

    घंटा तोरण ध्वजादिकों से शोभित बुधजन चर्चित हैं ॥

    भविक जनों को मोहित करते पाप-ताप के नाशक हैं।

    वन्दें जग के जिनालयों को दयाधर्म के शासक हैं ॥४१॥

     

    अञ्चलिका

    (दोहा)

     

    पूज्य चैत्य सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग।

    आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥४२॥

     

    अधोलोक में ऊर्ध्वलोक में मध्यलोक में उजियारे।

    बने बनाये हैं बनवाये चैत्य रहे अनगिन प्यारे॥

    देव चतुर्विध अपने-अपने उत्साहित परिवार लिये।

    पर्वो विशेष तिथियों में औ प्रतिदिन शुभ श्रृंगार किये ॥४३॥

     

    दिव्यगन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य दिव्य ले सुमनलता।

    दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य दिव्य ले वसन तथा ॥

    अर्चन पूजन वन्दन करते सविनय करते नमन सभी।

    भाग्य मानते पुण्य लूटते बने पापका शमन तभी ॥४४॥

     

    मैं भी उन सब जिन चैत्यों को भरतखण्ड में रहकर भी।

    पूजूँ वन्दूँ अर्चन कर लूं नमन करूँ सर झुककर ही ॥

    कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।

    वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति हो ॥४५॥

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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