भक्ति निःस्वार्थ होना चाहिए – आचार्यश्री
छत्तीसगढ़ के प्रथम दिगम्बर जैन तीर्थ चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के शिष्य मुनि श्री निर्दोष सागर जी ने रविवार को हुये प्रवचन में कहा की आचार्य श्री कहते है कि भक्त कि भक्ति निःस्वार्थ होना चाहिए जिसमे किसी भी प्रकार की फल की प्राप्ति की कामना नही होना चाहिए तभी वह भक्ति सच्ची भक्ति होती है। उन्होने उदाहरण के माध्यम से समझाया कि भक्त दो प्रकार के होते है एक भक्त मंदिर में भगवान ने जो छोड़ा है उसकी प्राप्ति के लिये जाते हैं और दूसरे वे जो भगवान ने प्राप्त किया है उसे प्राप्त करने के लिये जाते है। हमे मंदिर भगवान से कुछ मांगने नही जाना चाहिए बल्कि उनके जैसा बनने के लिये जाना चाहिए। मुनि श्री ने कहा कि बिना गुरू के लक्ष्य की प्राप्ति संभव नही है। मुनि श्री ने प्रतिभा स्थली की बच्चीयों और चंद्रगिरि प्रांगण में उपस्थित सभी लोगों को स्वस्थ्य और सुखी रहने के 3 मूल मंत्र दिये कि – खाना कम, चबाना ज्यादा। बोलो कम, विचारो ज्यादा। बड़ों से विनय और छोटा से स्नेह करो।
इसके पश्चात- मुनि श्री योग सागर जी ने कहा कि दान परिग्रह का प्रायश्चित है इसमे अहंकार नही होना चाहिए। यदि आप दायें हाथ से दान कर रहे हो तो आपके बाएँ हाथ को भी इसका पता नही चलना चाहिए। एक दृष्टांत के माध्यम से दान की महिमा बताई कि दान सिर्फ अमीर व्यक्ति ही नहीं कर सकते बल्कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी दान कर सकते है। उन्होने बताया कि एक गरीब किसान किसी महाराज जी के दर्शन करने को पहुंचा तो वह महाराज जी से कहने लगा कि मै बहुत गरीब हूँ मै तो कुछ भी दान नहीं कर सकता तो महाराज जी ने किसान से पूछा कि आप कितनी रोटी खाते हैं तो किसान ने कहा कि वह 6 रोटी खाता है तो महाराज ने कहा कि आप 5 रोटी खाएँ और 1 रोटी को दान कर दे।
यह सुनकर किसान बहुत प्रसन्न हुआ और उसकी दान करने के भाव इतने निर्मल थे कि वह बहुत खुशी – खुशी यह कार्य रोज करने लगा तो एक दिन स्वर्ग से एक देव उसकी परीक्षा के लिये पृथ्वी पर सिंह का रूप धारण कर मंदिर में घुस गये तो गाँव के सभी लोग डर के कारण मंदिर में प्रवेश नहीं कर रहे थे और काफी भीड़ मंदिर के बाहर जमा हो गयी तब किसान रोज कि तरह मंदिर में 1 रोटी चढ़ाने आया तो उसको लोगों ने रोका की अंदर मत जाओ वहाँ सिंह बैठा है तो उस किसान ने कहा मुझे जाने दो और वह किसी कि नहीं सुना और मंदिर के अंदर गया और रोज कि तरह 1 रोटी मंदिर में दान किया और अपने काम के लिये चला गया कुछ समय बाद देव किसान के पीछे – पीछे गये और अपने असली स्वरूप में आये और किसान के पैर पड़े और कहा आपका त्याग धन्य है और आपकी भक्ति भी सच्ची है।
फिर एक दिन गाँव में राजकुमारी का स्वयंबर था तो वह किसान भी राजा के दरबार में स्वयंबर देखने गया था वह दूर एक पेड़ के नीचे बैठा था और वहाँ राजमहल में कई राजकुमार सजे – धजे हुये आसन पर विराजमान थे तभी राजकुमारी वर माला लेकर आयी और बारी – बारी सभी विराजमान राजकुमारों को देखने लगी फिर पास में खड़े पूरे गाँव वालो को एक – एक कर देखा फिर वह राजकुमारी माला लिये किसान के पास गयी और उसके गले में वर माला डाल दी। राजकुमारी से जब पूछा गया कि अगर गाँव के गरीब किसान से ही शादी करनी थी तो इन राजकुमारों की बेजती करने क्यों राज महल के दरबार में उन्हे बुलाया तो राजकुमारी ने शालिनता से कहा कि मैने किसान के मस्तिष्क पर चंदन का तिलक देखकर उसके गले में वर माला डाली जबकि उस समय उस दरबार में किसी भी राजकुमार एवं प्रजा के माथे पर चंदन का तिलक नही था। मुनि श्री ने इस दृष्टांत के माध्यम से हमे यह समझाया कि दान छोटा या बड़ा नही होता उसके पीछे हमारी क्या भावना है, हमारा विचार कैसा है, हमे संतोष है कि नहीं यह मायने रखता है।
उन्होंने कहा कि सुख साधन में नही साधना में है। मुनि श्री ने कहा आप विद्यासागर क्यों नही बन पा रहे? उन्होने कहा कि विद्यासागर बनने के लिये गुरू चरण के साथ – साथ उनका आचरण भी हमें अपनाना चाहिये। गुरू चरण तो छू लिया तूमने तो कई बार एक बार आचरण को छू लो तो हो जाये भव सागर पार।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now