आज लोगों को अपने तन की चिन्ता है वतन की नहीं, इसलिए वतन का पतन हो रहा है। यदि वतन को पतन से बचाना चाहते हो तो वतन की बात करो, तन की नहीं। वतन की रक्षा के लिए हमको अपने ऐतिहासिक प्रसंगों को याद करना होगा। अपना इतिहास खोलना होगा, अपनी संस्कृति को सामने रखना होगा। इतिहास और संस्कृति को भूलकर हम अपने देश का नव निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि हमारी संस्कृति अहिंसा प्रधान रही है जबकि आज हम अहिंसा को भूलकर हिंसा को पसंद कर रहे हैं। कैसे कहें कि हम अपने देश को सुरक्षित रख सकेंगे? संस्कृति को मिटाकर, इतिहास को भुलाकर देश का सुधार नहीं किया जा सकता, संस्कृति को आदर्श मानकर ही हम अपने कदम आगे बढ़ा सकते हैं अन्यथा हम अपना कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सकते। भारतीय साहित्य कहता है पानी को कपड़े में छानकर पियो, रास्ते पर नीचे देखकर चलो, मुँह से सत्य बोलो और मन को पवित्र रखो। लेकिन आज तो लोग खून को छानकर पीने की बात कर रहे हैं। पशुवध होने लगा, पशुओं का मांस निर्यात होने लगा, कहाँ गई वह हमारी भारतीय आचार संहिता की सत्यता? आज सत्य ही लुप्त हो रहा है, पवित्रता ही लुप्त हो रही है, अहिंसा ही लुप्त हो रही है, दयाकरुणा ही लुप्त हो रही है क्या होगा इस देश का? यह आज एक सोचनीय बिन्दु है।
-१९९७, नेमावर