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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, के ज्ञाता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के रत्नत्रयी गुणों के सागर में अवगाहन कर वंदन करता हूँ.... हे गुरुवर! आपने मुनि विद्यासागर जी की प्रतिभा को पहचान कर उन्हें हिन्दी, संस्कृत भाषा में तो निपुण बनाया ही साथ ब्रम्हचारी अवस्था में विद्याधर जी को अंग्रेजी भाषा की रुचि होने के कारण आपने उन्हें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान कराने के लिए भी विद्वान लगवाए थे। एक वर्ष की अवधि में ही विद्याधर जी अंग्रेजी में पारंगत हो गए थे। इस विषय में दीपचंद जी छाबड़ा नांदसी वालो ने एक संस्मरण लिख कर दिया। वह आपको बता रहा हूँ- प्रत्युत्पन्नमति मुनि श्री विद्यासागर जी अजमेर १९६८ में प्रथम चातुर्मास सोनीजी की नसियाँ में चल रहा था। एक दिन प्रोफेसर निहालचंद जी बड़जात्या ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से किसी गलती पर क्षमायाचना करते हुए कहा- 'I am sorry तब मुनि विद्यासागर जी महाराज ने मनोरंजनात्मक शब्दों में हँसते हुए कहा- I am not a lorry to carry your sorry' इतना सुनते ही वहाँ पर उपस्थित सभी लोग ठहाका मारते हुए हँस पड़े, तब अंग्रेजी के विद्वान प्रोफेसर निहालचंद जी बोले - महाराज श्री इतने कम समय में अंग्रेजी सीखना एवं हाजिर जवाबी होना बड़ा ही महत्व रखता है। मैं आपका कायल हो गया हूँ। इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी ने अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति से अपनी सुप्त पड़ी प्रतिभा को खूब चमकाया, उस प्रतिभा से जो भी परिचय होता, वह उनका कायल बन जाता था। ऐसे प्रतिभावान गुरु के चरणों में नमस्कार करता हूँ..... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  2. प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {2 दिसंबर 2017} चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की आप लोग कहते हैं की अग्नि जल रही है जबकि अग्नि जलती नहीं जलाती है, जलता तो ईंधन है। इसी प्रकार गाड़ी अपने आप चलती नहीं है उसे ड्राईवर चलाता है। वैसे ही हमारी आत्मा हमारे शरीर को चलाती है और हमारा शरीर उसी के अनुसार कार्य करता है। इसे ही भेद विज्ञान कहा जाता है जो इसे समझ लिया उसे फिर कुछ और समझने की आवश्यकता नहीं होती है। यह शरीर उस आत्म तत्व के लिए एक जेल के सामान है वह इसके अन्दर कैदी की भांति कैद है। हम जो भी कार्य करते हैं उठते, बैठते, चलते – फिरते एवं आदि जो भी शरीर के द्वारा दैनिक क्रियाएँ करते हैं वह सब आत्म तत्व के द्वारा ही निर्देशित होता है शरीर तो केवल उसके अनुरूप कार्य करता है। हमें केवल अपने आत्म तत्व की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। आज आचार्य श्री को आहार कराने का सौभाग्य ब्रह्मचारिणी उन्नति दीदी, नरेश भाई जैन, जयसुख भाई जैन मुंबई निवासी के यहाँ हुए | यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  3. जीवन में स्वयंभू, सत्यधर्मो का प्रकाश प्रकट करने वाले गुरूवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के प्रकाशवान् चरणो में वंदना करता हूँ.... हे गुरुवर! मेरे गुरु की साधना और वैराग्य को देखते हुए आप इतने प्रभावित हुए थे, कि आपने, उनको उदाहरण के रूप में उपस्थित किया था। वह वाकया पण्डित विद्याकुमार सेठी जी ने १९९४ अजमेर चातुर्मास में मुझे सुनाया। जिसे सुनकर हम शिष्यों को गौरव की अनुभूति होती है। वह संस्मरण हमने लिख लिया था, जो आपको प्रेषित कर रहा हूँ........ गुरुदेव ने मुनि विद्यासागर जी को उदाहरण के स्वरूप प्रस्तुत किया " ज्ञानसागर जी महाराज बड़े ही शान्त प्रकृति के थे, वो कहते थे- सिद्धान्त तो निश्चयरूप है और व्यवहार प्रैक्टीकल रूप है। उत्सर्ग और अपवाद में विरोध नही है। उत्सर्ग मार्ग अपवाद सापेक्ष है। इस तरह वो जब भी किसी को समझाते थे तो पिता-पुत्र के समान समझाते थे या कोई ज्ञानी आता तो उसे मित्र के समान बोला करते थे। विद्याधर जी की मुनि दीक्षा होने के बाद एक दिन मुझको देख कर गुरूदेव ज्ञानसागर जी बोले- अरे पण्डित जी संयम के बिना जीवन अपूर्ण है। विद्यासागरजी जी को देखो ! कुछ तो शिक्षा लो। भारी जवानी में संयम की साधना कर रहे है और ज्ञान को अंदर उतार रहे है। जो उनके आचरण में प्रकट हो रहा है। उनसे कुछ शिक्षा ले लो, खाली पंडित बने रहने से कुछ नही होगा। आपको स्वस्थ शरीर मिला है तो इसको बाह्य उपकरण बनाओ। इसको स्वर्ण की पेटी बनाकर सम्यकदर्शनादि रत्न उसमें रखो। तभी वह सुरक्षित रह सकेगा। इतना सुनकर मेरा ह्रदय परिवर्तित हो गया और हमने तत्काल चार प्रतिमा के व्रत गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से ले लिए।" इस तरह आपकी और आपके शिष्य, मेरे गुरुवर के कई विशेषताएं हम शिष्यों को प्रेरणा प्रदान करती है। ऐसे प्रेरक गुरुओं के उपकारों को कोटी-कोटी प्रणाम करता हुआ..... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  4. द्रष्टान्त से सिद्धान्त की ओर - आचार्य विद्यासागर जी की चिन्तन यात्रा
  5. द्रष्टान्त से सिद्धान्त की ओर (आचार्यश्री विद्यासागर जी की चिन्तन यात्रा ) संकलन प्रस्तुति - मुनिश्री प्रसादसागर जी आमुख जैन धर्म अनादि अनन्त काल से तीर्थकरों द्वारा प्रवर्तित होता चला आ रहा है। उनके अभावों में गणधर - आचार्यों द्वारा उन का अनुकरण कर जिनशासन की धर्म ध्वजा फहराई जाती रही है। आचार्यों ने जिनशासन के धर्म सिद्धान्तों को सरलीकरण करने के लिए जनभाषा एवं लौकिक उदाहरणों क मध्यम अपनाया । न्याय-दर्शन विदों ने उदाहरण/दृष्टान्त को भी तत्व को समझाने का एक साधन स्वीकार किया है। आज दार्शनिक-सन्त-विद्वान् आदि अपने व्याख्यानों में लौकिक-वैज्ञानिक उदाहरणों/दृष्टान्तों के माध्यम से अपने भावों को प्रस्तुत करते हुए देखे जाते हैं। इसी प्रकार परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज अपने प्रवचनों में धार्मिक कक्षाओं में ऐसे सटीक उदाहरण/दृष्टान्त देते हैं कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते । तब लोग विचार करते हैं कि आचार्य श्री ने वर्तमान विज्ञान को पढ़ा नहीं, सांसारिकता से दूर रहते हैं, लौकिक पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते नहीं, फिर आचार्य श्री जी वर्तमान ज्ञान-विज्ञान के उदाहरणों से धर्म सिद्धान्तों को सहज-सरल रूप में कैसे हृदयंगम करा देते हैं। इस प्रसंग में यह देखा गया कि गुरुदेव अपने शिष्यों से जब कभी लौकिक ज्ञान के बारे में चर्चा करते हैं उससे वो मूल बात पकड़ लेते हैं और चिन्तन कर उन वैज्ञानिक उदाहरणों से धर्म सिद्धान्तों को सहज सुबोध बना देते हैं। यह गुरुदेव की विशेषता है कि वो या तो अपनी आत्मा में डूबे रहते हैं या फिर बाहर आने पर दृष्टि में जो भी आता है उसमें तत्व खोजते हैं। तत्वों के रहस्य को जानकर सभी को बताते हैं। आचार्य श्री जी द्वारा रचित मूकमाटी महाकाव्य उदाहरणों का उदाहरण है। प्रस्तुत कृति में आचार्य श्री द्वारा कक्षाओं में और प्रवचनों में दिए गए दृष्टान्त एवं द्रष्टान्तों का संकलन किया गया है। इस संकलन का पुण्य-पुरुषार्थ गुरुदेव के शिष्य मुनि श्री प्रसादसागर जी महाराज ने किया है। उनकी इस अनुपम रुचि से गुरुदेव द्वारा दिए गए दृष्टान्त और द्रष्टान्तों से पाठकगणों की जिज्ञासाओं का समाधान होगा।गुरुदेव के सम्पूर्ण प्रवचनों एवं कक्षाओं के दृष्टान्त व द्रष्टान्तों के संकलन की महती आवश्यकता है। जिससे जैन दर्शन के गूढ़तम विषयों को जिज्ञासु जन समझ सकें। क्षुल्लक धैर्यसागर
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