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Blog Entries posted by संयम स्वर्ण महोत्सव
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गुरुवर ने कहा क़ि जितना नापा तुला होता है उसका उतना महत्व होता है । जीवन मेला है सब अपने बारे मैं सोच रहे हैं अपनी पर्याय के बारे मैं कोई नहीं सोच रहा। सबका ध्यान सूर्य की और जाता है परन्तु सूर्य के पीछे की असली शक्ति की तरफ नहीं जाता उस शक्ति की तरफ हमारा ध्यान नहीं जा रहा जो भीतर विद्यमान है । आज संपर्क सूत्र एक नंबर मैं सिमट कर रह गया है जो आप पसंद करते हो बो नंबर हासिल कर लेता है। मैंने भी ऐंसे महामरणं का नंबर लगा रखा है जो महामृत्युंजय की और जाता है जो समाधिमरण की और जाता है। उन्होंने कहा की सीमा रेखा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए जो निर्धारित मापदंड बनाए गए हैं उनका पालन होना चाहिए । एक कथा के माध्यम से समझाते हुए गुरुवर ने कहा की सीमा का उल्लंघन करता है उसे दंड का भागी बनना पड़ता है । अतिथि सत्कार आपका परम धर्म है परंतु आगंतुक अतिथि या भिक्षुक सीमा रेखा पार करे तो सावधान हो जाना चाहिए । सीमा मैं रहकर अनंत बनने के लिए ध्यान लगाया जा सकता है । बड़े को बड्डे , ज्येष्ठ कहा जाता है छोटे को देवर कहा जाता है । सीता का अपहरण हुआ कंचन मृग की अभिलाषा मैं जिसके पीछे राम गए और लक्ष्मण जी सीमा रेखा बना कर गए ,उसकी मर्यादा को पार किया सीता ने तो उसका अपहरण हो गया बैसे ही हम यदि सरकार की सीमा रेखा का उल्लंघन करते हैं तो हमारे सुख चैन का अपहरण हो जाता है । यदि हम प्रकृति की सीमा रेखा को तोड़ते हैं तो हमारे मानव जीवन का हरण हो जाता है हमारी सृष्टि को नुकसान पहुँचता है । गुरुवर ने कहा की कर्म की रेखा के कारण संसार मैं महापुरुषों को भी बहुत कुछ भोगना पड़ता है ये सीख हमें रामायण की कुछ घटनाओं से मिलता है । सबके जीवन मैं परिवरवर्तन पुरुषार्थ के अंतर्गत किया जा सकता है अपने पुरुषार्थ से कर्म के लेखे को भी परिवर्तित किया जा सकता है परंतु बो पुरुषार्थ तभी प्रारम्भ हो सकता है जा परमार्थ प्रारम्भ होता है । हमारे आदर्श पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करने से हम अपने जीवन को आदर्शमयी बना सकते हैं। दुसरे के गुणों पर दोषारोपण करने से हम अपने दोषों से मुक्ति नहीं पा सकते बल्कि हमें स्वयं के भीतर के गुणों को जागृत करना होगा | उन्होंने कहा की भीतर से अशांति का वातावरण है तो बहार की शांति कुछ नहीं कर सकती है पहले भीतर जाओ फिर तर जाओ। गुरुदेव ने कहा की जब शनिवार आएगा तभी तो रविवार आएगा कभी सोमवार के बाद रविवार नहीं आता इसलिए अच्छे समय का भी इंतज़ार करो क्योंकि बो भी निर्धारित समय पर आता है । हमारी कषाएं जब मंद होंगी तभी दुखों की यात्रा कम होगी। कल्पनाओं से बहार निकलकर यथार्थ मैं आने पर श्रद्धान जाग्रत होगा ,पुरुषार्थ करें अपने कर्तव्यों का पालन करते जाएँ ।
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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज विवाह का उद्देश्य बदल गया है। प्राण ग्रंथों में कथायें आती हैं पहले ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करते थे, गुरूकुल पद्धति से शिक्षा होती थी संस्कार दिये जाते थे, आज शिक्षा का स्तर बिगड़ गया है।
समवशरण विधान के छटवें दिन राष्ट्रीय संत छत्तीसगढ़ के राजकीय अतिथि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने एक कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि एक लड़का शुक्ल पक्ष और लड़की कृष्ण पक्ष ब्रम्हचर्य व्रत ले लेते हैं और आजीवन निभाते हैं। आचार्य श्री ने दिल्ली के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटिका कुल भूषण देष भूषण का उदाहरण दिया, जिसमें कहा गया कि किसी भी लड़की की ओर ऑंख उठाकर नहीं देखना, सभी को मॉं, बहन, बेटी की तरह देखना है। ज्ञात हो कि आज मोबाईल, टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट, फेस बुक, पत्रिकाएँ आदि पर बुरी चीजों के संस्कार के कारण बच्चे आदि बिगड़ रहे हैं, उनके लिए ब्रम्हचर्य व्रत पॉजीटिव एनर्जी है। इस बारे में बच्चों को बताना चाहिए क्योंकि ब्रम्हचर्य व्रत से हमारी रक्षा हो सकती है।
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चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की उचित स्मृति रहती है तो विषयांतर नहीं होता है ! यह समझ भी आ जाता है की ठोस ज्ञान कितना है ! आप कई पृष्ठ पढ़ लो लेकिन उपयोग में नहीं आया तो क्या मतलब ! प्रतिभा संपन्न विद्यार्थी हमेशा परीक्षा को लेकर अलर्ट रहता है ! खूब लिखने से भी कुछ नहीं होता सही लिखोगे तो ही नंबर मिलेंगे ! शब्द जो आप बोलते हैं तीन लोक तक जाता है ! नदी कभी घर तक नहीं आती हमें जाना पड़ता है ! लोग कहते हैं नल आ गया पर नल तो वहीं रहता है ! आज लोग चाहते हैं की हमारे मुख में बटन दबाते ही पाने आ जाए ! आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र में विशुद्ध होना चाहिए ! जैसे वस्त्र आदि से बनी पताका जय को प्रकट करती है ! वैसे ही आराधना भी संसार में विमुक्ति को प्रकट करती है ! जिसका जीवन वर्गीकृत नहीं है वह निश्चित फेल होगा ! किसी कार्य को करने से पहले कर्मठता जरुरी है !
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चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि यह जीव आहार मय है, अन्न ही इसका प्राण है। अनुशासन में रहना कठिन होता है। सिंह को भी रिंग मास्टर अपने काबू में कर लेते हैं। ज्ञानी आचार्य के द्वारा श्रुत का ज्ञान कराने से और योग्य शिक्षा रूप भोजन से उपकृत होने पर भूख प्यास से पीडि़त होते हुए भी ध्यान में स्थिर होता है। अनुशासन रूपी भोजन 24 घंटे करो आप। डाॅ. रोगी के आवेश से हताश नहीं होते हैं और होने भी नहीं देते, रोगी को “यू आर प्रोग्रेसिव” कहते हैं। साधक भले ही दुबला पतला हो लेकिन धैर्य शाली होता है। वह योद्धा की भाँति होता है। रोगी को औषधी के प्रति आस्था और बहुमान होना चाहिये और पावर भी होना चाहिये। जैन साइंस शब्द के बारे में कुछ अलग बताता है। शब्द कभी नहीं कहते कि हमें सुनो। केवली भगवान का यह वैचित्र है जो 4 घंटे लगातार दिव्य ध्वनि खिरती है। शब्दों के द्वारा लड़ो नहीं भाव देखो फिर बोलो। आप लोग बोलते हैं कि “हमारा लड़का तो ऐसा कर ही नहीं सकता”, भीतरी आत्मा की बात करते हैं तो शब्द गौंण हो जाते हैं। वह ठीक हो तो ट्रीटमेंट किया जाता है। मानसिकता अच्छी हो तो ही इलाज किया जा सकता है। आत्मा पर चोट पड़ जाये तो काम हो जाता है। बिन भाषा के भाव से भी काम हो जाता है। वह साधक पावरफुल हो जाता है उपदेश से। बहुत अच्छी आर्ट बतायी गयी है यहाँ धर्म के माध्यम से। यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन “संचार” एवं सप्रेम जैन ने दी है।
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चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि करोड़ो रूपयो का व्यय होने पर भी कुछ नहीं हो रहा है और कहते हैं कि आप जानों, और कहते हैं कि श्ष्वेत क्रांतिश् है । शासन क्या है आप जानो। कमा – कमाकर रख रहे हो क्या होगा, केवल नारे लगाने से कुछ नहीं होगा। आज दूध में मिलावट हो रही है, वह दूध बच्चों को भी पिलाया जाता है कितनी सारी बिमारियाँ होती है। धन विदेषों में रखते हैं क्योंकि माता – पिता, भाई – बहन, पति/पत्नि पर विष्वास नही रहता है। कोई ड्रेस एड्रेस नहीं है कोड से चलता है। इससे बढ़कर कोई पागलपन नहीं है । सारी सम्पदा विदेष में रखते हैं यह समझ में नहीं आ रहा है। जनसंख्या बढ़ती जा रही है, धर्म की श्रेणी नीचे आ रही हैै। आज हार्ट अटैक की औसत उम्र 40 साल हो गई है।जैसे व्यापारी सुबह अखबार नहीं देखता है तो व्यापार कैसे करेगा इसी प्रकार जिनवाणी पूछती है कि देखो और चर्या करो। दान श्रावक के लिये वरदान है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने आशीष वचनों में कहा कि आप नीचे रहकर भी पर्वत के मंदिर और शिखर को देख सकते हैं। एक बार दृष्टी से दिखाई दे जाते हैं। जहां से रास्ता होता है वही से मंदिर की तरफ जाया जाता है। जब पहाड़ चढ़ते हैं तो झुकना पड़ता है,साबधानी रखनी पड़ती है। व्यबधान का समाधान एकाग्रता,संकल्पशक्ति में होता है। रास्ते को सुव्यवस्थित करने से आगे बढ़ा जा सकता है। रास्ते में नदी आती है तो नाव के सहारे नाविक आपको पतवार चलाकर पार लगाता है। जब उस पार पहुँच जाते हैं तो स्वयं चलकर फिर लक्ष्य की और बढ़ना पड़ता है। कोई आपके साथ नहीं जाता है। स्वयं का सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र जागृत करने पर ही मोक्ष मार्ग पर बढ़ा जा सकता है। यदि इस मार्ग का अनुशरण करना है तो उस पथ पर आरूढ़ पथगामी का अनुशरण करते जाओ।
उन्होंने कहा कि व्यवधान आते हैं परंतु यदि साधन को साधन मानकर उसे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ेंगे तो बढ़ते चले जाएंगे। जो संसारी भ्रमजाल में फंसे हैं वे बिकलांग के सामान हैं पहले मानसिक विकलांगता को छोड़ना पडेगा अपने भीतर की ऊर्जा को संचारित करना पडेगा। अपने पैरों को पहले मजवूत बना लो उसके बाद इस कठिन मार्ग की यात्रा का शुभारम्भ करो। सड़क को उपयोग करो उसे अपना मत बनाओ ऐंसे ही मोह को छोड़कर मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ करें और सदगुरु को पकड़ कर चलो। सारे व्यवधान को दूर करते हुए आगे बढ़ो। व्यवधान का समाधान अवधान से ही हो सकता है।
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मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [06/06/2016]
कुंडलपुर। कार्यकर्ता अपने कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। कार्य करते समय का ध्यान नहीं रहता है। कर्तव्य करते समय का ध्यान रखें। समय पर कार्य होता जाए। सागर का जल बहुत राशि व्यय के बाद उसको हम उपयोग योग्य बनाते हैं।
संग्रह हुआ सागर का जल खारा होता ऊर्जा लगाकर सूर्य नारायण ऊपर उठाते हैं। सूर्य नारायण की ऊर्जा लगते उर्ध्वमान करता वाष्पित हो ऊपर बादलों का रूप धारण कर नीचे बरसना प्रारंभ हो जाता है। धरती-पहाड़ों पर वह पानी गिरता। विद्धानों ने इसे निम्नगा कहा, जो जल नीचे की ओर गिरता। स्वर्गों में खेती नहीं होती, धरती पर ही बीज बोए जाते हैं। ऊपर से पानी की पूर्ति होकर बीज अंकुरित होता है।
उक्त उद्गार विश्व संत दिगंबराचार्य पूज्य विद्यासागरजी महामुनिराज ने कुंडलपुर महामहोत्सव में प्रवचन देते हुए व्यक्त किए। आचार्यश्री ने देश के कोने-कोने से आए हजारोहजार श्रद्धालुओं के बीच कहा कि अंकुरित होने की क्षमता मात्र धरती में है। धरती में जो अंकुर उत्पन्न होता है, वह सात्विक हो, जिससे जगत का हित हो। जगत के कल्याण हेतु पुरुषार्थ आवश्यक है। जो व्यक्ति उठ नहीं पा रहा, उसे ऊंचा उठाने का पुरुषार्थ हो। धरती कठोर होती गिरे हुए जल कण से भीग जाती। उसे देख कठोर हृदय भी भीग जाते हैं।
आचार्यश्री ने कहा कि हमें अपनी ऊर्जा शक्ति, प्रतिभा का उपयोग करना है। जो नीचे हैं, पतित हैं, उन्हें उठाने का उपक्रम होना चाहिए। संयम के माध्यम से हम ब्रेन को स्थिर कर सकते हैं। 5 इन्द्रियों से मन पागल होता व चंचल रहता, उसे नियंत्रित करें। ज्ञान चिल्लाता है, जब आपत्ति आ जाती है। आस्था का केंद्र दिल होता है, धैर्य होता है, ज्ञान की भूख होती है, प्यास होती है। दिल को जोड़ने का काम दिल ही करता है, ज्ञान माध्यम नहीं हो सकता। दिल से दिल मिलाना बहुत बड़े दिल वाले का काम होता है। प्रत्येक कण में अंकुरित होने की क्षमता है। जल पाते ही अंकुरित हो जाता है। न्यूनका एक नदी का नाम है। नीचे की ओर बहती है। भीतर डला हुआ बीज छोटा क्यों न हो, वह वटवृक्ष का रूप धारण कर लेता।
आचार्यश्री ने एक बुंदेलखंडी शब्द ‘हओ’ का प्रयोग प्रवचन में करते हुए हास्य बिखेरते कहा कि हओ यह बुंदेलखंड का मंत्र है। यह सब लोग सीखें। हओ से एक आवाज आती, मंत्र बन जाता है। बड़े से बड़ा कार्य हो जाता हओ कहने से।
आचार्यश्री ने कहा कि खारे जल में दाल-चावल-खिचड़ी पकती नहीं। पानी मीठा होता तो उसमें पक जाती। हमें मीठे जल की आवश्यकता है। यह धरती की कृपा है। जहां बीज अंकुरित होता वह मीठा जल है। धरती पर भारी जल भी है। तो वह कोमल हो बीज अंकुरित करने की क्षमता हो। वात-पित्त-कफ के माध्यम से रोग का निदान होता है। बिना कारण कोई कार्य नहीं होता है। हम लोग असंयमित होने कारण आगे नहीं बढ़ रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र में संयमित होना बहुत आवश्यक है। दुनिया में परिवर्तन चाहते हैं। आत्मा में परिवर्तन का उपक्रम जब चाहे आप कर सकते है। चिंता का विषय नहीं, चिंतन का विषय है।
जयकुमार जलज ने बताया कि प्रात: बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक करने हेतु श्रद्धालुओं की लंबी कतार लगी रही। एक-एक कर क्रम से आकर बड़ी संख्या में भक्तजनों ने अभिषेक कर पुण्य अर्जित किया।
इस अवसर पर मप्र शासन के उच्च शिक्षामंत्री उमाशंकर गुप्ता, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई, भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरिताजी का सम्मान कुंडलपुर क्षेत्र महोत्सव समिति ने किया। सरिताजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि इतने बड़े महोत्सव में आपको अभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
पूज्य बड़े बाबा एवं आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शन प्राप्त हो रहे हैं। आप लोग तीर्थ क्षेत्र कमेटी के आजीवन सदस्य बनें एवं तीर्थ क्षेत्रों को बचाने हेतु आगे आएं। अपने तीर्थ क्षेत्रों के संरक्षण, संवर्द्धन हेतु सतत प्रयासरत रहें। बड़े बाबा का मंदिर शीघ्र बने।
इस अवसर पर वित्तमंत्री जयंत मलैया, दमोह सांसद प्रहलाद पटेल, पथरिया विधायक लखन पटेल, दमोह नगर पालिका अध्यक्ष मालती असाटी ने कुंडलपुर पहुंचकर आचार्यश्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद ग्रहण किया।
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भगवान की भक्ति से भक्त अपने आप को स्वयं भगवान बना सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर आगामी तीस दिसंबर से आठ जनवरी तक छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के मुख्यालय जगदलपुर में चैबीसी समवशरण विधान का आयोजन हो रहा है।
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने नगर में होने वाले इस विश्व शांति महायज्ञ और चैबीसों जैन तीर्थंकरों की पूजा का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा कि यह पुण्य अवसर है कि समूचे भारत वर्ष में तीसरे स्थान पर यह विशेष अनुष्ठान का आयोजन हो रहा है। इसके लिए सीमित समय में बस्तर के दिगंबर जैन समाज ने जो तैयारियां की हैं वह प्रशंसनीय है। यह उल्लेखनीय है कि संभगीय मुख्यालय में आगामी 30 दिसंबर से यह विशेष अनुष्ठान आरंभ होकर 8 जनवरी तक संचालित होगा। इसके लिए रात दिन एक कर स्थानीय जैन समाज ने समूची तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं। और निश्चित समय पर यह अनुष्ठान प्रांरभ हो जाएगा। इसके लिए पात्रों का चयन एवं अन्य व्यवस्थाओं का सिलसिला जारी है। महायज्ञ का निर्देशन ब्रम्हचारी विनय भैया बंडा वाले के द्वारा संपन्न होगा। इस अनुष्ठान से न केवल स्थानीय जैन समाज में अपूर्व उत्साह है वरन छत्तीसगढ़ सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आकर इसमें भाग लेने की सहमति जता चुके हैं।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि व्यक्ति राग द्वेष और विभिन्न बुराईयों से घिरा हुआ रहता है। जीवन में उसे शांति नहीं मिल पाती। जीवन में यदि शांति पाना है तो अध्यात्म और धर्म का पथ अपनाना ही होगा। प्रस्तुत विधान एवं पूजा अर्चना में हम अपने घर परिवार और अन्य चिंताओं को छोड़कर केवल प्रभु की भक्ति और आराधना करेंगे। इस आराधना एवं भक्ति से हम राग द्वेष और क्रोध मान को छोड़कर सभी बुराईयों से मुक्त होकर भक्त से भगवना बनने की प्रक्रिया में संलग्र रहेंगेे। स्मरण रहे कि हम जब तक संसार के वैभव को नहीं छोड़ेंगे, उसका त्याग नहीं करेंगे तब तक वीतरागता प्राप्त नहीं होगी। इस आयोजन से न केवल मानव अपने आप को भगवान बनने की दिशा में वीतरागता पाने के लिए प्रस्तुत होगा वरन त्याग, संयम व तप के माध्यम से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए सार्थक प्रयास करेगा। इस अनुष्ठान में संपूर्ण विश्व के कल्याण एवं मंगल की भावना भी निहित है जो मंत्रों के माध्यम से निश्चय ही फली भूत होगी।
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चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि साक्षात महावीर भगवान आज नहीं है लेकिन उनके द्वारा बताया हुआ मार्ग तो है। यह धारा अनादि अनिधन है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा दिया हुआ यह चिन्ह है। यहाँ व्यक्ति की पूजा नहीं व्यक्तित्व की पूजा होती है। मुद्रा घर की नहीं रहती है, देष के द्वारा छपती है, उसके लिये सभी मान्यता देते हैं। विदेश की मुद्रा से यहाँ व्यापार नहीं होता है उसके लिये करेन्सी को कन्वर्ट करना पड़ता है। जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण करना है। टेंशन मत रखो intension सही रखो और मैडिटेशन करो। जैसा उद्देश्य होता है वैसा ही निर्देश होता है। जैसे नगर में प्रवेष करने का उपाय उसका द्वार होता है वैसे ही ज्ञान, चारित्र आदि का द्वार सम्यक्त्व है। यदि जीव सम्यक्त्व रूप से परिणत होता है तो वह ज्ञानादि में प्रवेश कर सकता है। जैसे नेत्र मुख को शोभा प्रदान करते हैं वैसे ही सम्यक्त्व से ज्ञानादि शोभित होते हैं। ‘‘आप’’ यह शब्द आदर सूचक है। छोटो को भी सम्मान सूचक शब्द बोला जाता है। राजस्थान, महाराष्ट्र में भी आदर सूचक शब्दों का प्रयोग होता है। इस जगत में लोग पर पदार्थों में अनुराग रूप हैं, स्नेही जनों में प्रेमानुरागी है कोई मंजानुरागी है किन्तु तुम जिनषासन में रहकर सदा धर्मानुरागी रहो। अमेरिका में घाटा लगता है और भारत में चेहरा मुरझा जाता है, ब्लड़ प्रेशर में अंतर आ जाता है, श्वासोष्वास में अंतर आ जाता है, खून ही जल जाता है इसलिये इससे बचने के लिये देव, शास्त्र, गुरू के प्रति आस्था आवष्यक है।
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प्रभु का जन्मोत्सव लोक रूपी घर में छिपे हुए अन्धकार के फैलाव को दूर करने में तत्पर होता है ! अमृतपान की तरह समस्त प्राणियों को आरोग्य देने वाला है ! प्रिय वचन की तरह प्रसन्न करता है ! पुण्य कर्म की तरह अगणित पुण्य को देने वाला है ! प्रभु का जन्म होता है तो तहलका मच जाता है तीनो लोको में ! निरंतर बजने वाली मंगल भेरी और वाद्यों की ध्वनि से समस्त भुवन भर जाता है ! भगवान् के जन्म के समय इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हो जाता है ! भेरी के शब्द को सुनकर इन्द्रादि प्रमुख सब देवगण एकत्र हो जाते हैं ! जन्माभिषेक के समय जिन बालक को लाने के लिए आई हुई इन्द्राणी के नूपुरों के शब्द से चकित हुई हंसी के विलास से राजमंदिर का आँगन शोभित होता है ! ऐरावत हांथी से उतरकर इन्द्र अपनी वज्रमयी भुजाएं फैला देता है ! गमन करते समय बजाये जाने वाले अनेक नगारों का गंभीर शब्द होता है ! इन्द्रों का समूह अपूर्ण चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ चमरों को दक्षतापूर्वक ढोरता है ! इन्द्रानियाँ जिन बालक का मुख देखने के लिए उत्कंठित होती है ! श्वेत छत्र रूपी मेघों की घटाओं से आकाश ढक जाता है ! पताकाएं बिजली की तरह प्रतीत होती है ! इन्द्रनील्मय सीढियों की तरह देव सेना गमन करती है !
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प्रातरूकाल उठते ही सबसे पहली जरुरत आदमी को अग्नि की होती है। चाहे वह पानी गरम करने के लिए हो अथवा भोजन बनाने के लिए या फिर प्रकाश करने के लिए, हर कार्य के लिए अग्नि की जरुरत होती है। उसी प्रकार से धन पर भी नियंत्रण रखना अतिआवश्यक होता है। यदि धन आने के बाद उस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो वह भी विनाश का कारण बनता है। यहां प्रवास कर रहे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने एक जनसभा को स्थानीय जैन दिगम्बर मंदिर में प्रवचन करते हुए उक्त बातें कहीं।
उन्होंने आगे कहा कि यदि सीमा से अधिक अग्रि का विस्तार हो जाता है तो वह विनाश का ही कारण बनती है। उसकी सीमा में आने वाले सभी को वह स्वाह कर जाती है और बाद में कुछ नहीं बचता। इसी लिए अग्नि का उपयोग करते समय बड़ी सावधानी से कार्य करना पड़ता है और उस अग्नि को सीमा से बाहर न जाये युक्तिपूर्वक कार्य करना पड़ता है। इसी प्रकार यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह हो जाये और उसका विवेक पूर्वक उपयोग नहीं किया जाये तो वह धन मानव के लिए अग्नि का कार्य करता है। नीति एवं विवेक के अनुसार धन का उपयोग करने से वह न केवल व्यक्ति के लिए वरन् उसके परिवार, समाज, प्रदेश सहित समूचे देश के लिए उपयोगी होता है। उसके ठीक विपरीत यदि धन पर नियंत्रण नहीं रखा गया और उसे युक्तिपूर्वक खर्च नहीं किया गया तो वहीं धन घमंड, नशा सहित कई विकृतियां लाकर उस व्यक्ति, परिवार तथा समाज के लिए विनाश का कारण बनता है। इसीलिए धन और अग्नि को हमेशा भुक्ति सहित युक्ति से उपयोग करते हुए मुक्ति का मार्ग पर चलने का हर व्यक्ति को प्रयास करना चाहिए। सीमा से बाहर जाने पर यदि धन संग्रह हो गया है तो वह विनाश का कारण बनता है। इसीलिए जितना धन आता है उसका संग्रह करने के बजाये अतिरिक्त धन को धर्म, आध्यात्म तथा जनोपयोगी कार्यों में खर्च करना चाहिए। यदि व्यक्ति समझदार है तो वह स्वयं तो उस धन का उपयोग भंली भांति करेगा किन्तु उसने आवश्यकता से अधिक संग्रह कर लिया तो वह अतिरिक्त धन उस परिवार के आने वालों के लिए तथा उसकी संतान के लिए विकृति का कारण बनता है। इसीलिए समय रहते धन का अग्नि के समान युक्तियुक्त उपयोग करना आवश्यक होता है। इस अवसर पर प्रवचन के दौरान लोगों ने भाव विभोर होकर इसे अपने जीवन में उतारने का संकल्प लिया तथा आचार्य श्री के प्रति छोटी सी बात से इतना बड़ा जीवन जीने का सिद्धांत देने के लिए आभार मना।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि श्रावक को धर्म के दायरे में रहकर ही धर्म के मूल सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करना चाहिए। श्रावकों को जीवन में आचार,विचार, आहार, और व्यवहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
उन्होंने कहा कि दृष्टि का उपयोग सही नहीं कर पा रहे हैं। अपने द्रष्टीकोण को सही दिशा में ले जाना है तो उसका उपयोग सही करना होगा। गुरुवर ने कहा कि पानी में रहने वाला प्राणी जितनी आवश्यकता हो उतना ही पानी लेता है पूरा नहीं पी जाता है परंतु आप जरूरत से ज्यादा संग्रह करते हो चाहे वो पानी हो या धन हो। अभिमान करना अनावश्यक है परंतु आपने उसे आवश्यक बना लिया है। लोग कमजोर के सामने मूंछ पर ताव देते हैं और वजनदार के सामने चुप रहते हैं। जो धर्म के सिद्धांत को समझता है वो अभिमान से दूर रहता है। मोह को जीता जा सकता है परंतु क्रम से ही जीता जा सकता है। 18 दोषों से रहित जो आप्त है वो इष्ट हैं।परम में जो उत्कृष्ट हैं वे परमेष्टि होते हैं । ज्ञान तो हम लोगों के पास भी है परंतु अन्धकार के साथ है अथार्थ दिया तले अन्धेरा है। हमारा ज्ञान सामान्य है, अधूरा है। हरेक व्यक्ति के मन में भय व्याप्त होता है, भय रखने से भय कभी छूटता नहीं है। मृत्यु का भय सभी में व्याप्त है परंतु मृत्यु होती किसकी है ये नहीं जानते। जो सैनिक होता है वो कभी पीछे नहीं हट सकता, राजा और मंत्री एक कदम पीछे हट सकते हैं। सैनिक के सामने मृत्यु भी खड़ी हो तो वो मृत्यु से नहीं डरता है। जो व्यक्ति जीवन और मृत्यु को समझ लेता है वो स्वांस और विश्वास से परिपूर्ण रहता है। स्वांस के बिना अनेक तपस्वी लंबे समय तक रह सकते हैं क्योंकि उनके भीतर विश्वास होता है।
उन्होंने कहा कि जो अपने स्वागत की चिंता करते हैं वे स्वागत के योग्य होते ही नहीं हैं। स्वागत तो सिर्फ उनका होता है जो सत्कार और पुरष्कार की भावना से दूर रहते हैं। मान कषाय ही पागलपन की ओर ले जाती है। मेरा कोई सत्कार नहीं हुआ, मेरा कोई कीर्तन ही नहीं हुआ बस इसी होड़ में सब लगे हैं और मान कषाय की पुष्टि न होने के कारण विचलित हो जाते हैं। जिसको ये ज्ञात हो जाता है कि सत्कार और पुरुष्कार क्षणिक भर के होते हैं और आत्मा चिर काल तक सम्मानित होती है उसके सामने दुनिया नतमस्तक हो जाती है। नदी के किनारे या जंगल में तपस्या की फ़ोटो निकलवाने से तप और त्याग नहीं होता है। तप तो अंतरंग की प्रक्रिया है जो भीतर ही भीतर चलती है। ये रहस्य जिसके समझ आ जाता है वो रहस्य की गुत्थी को सुलझा लेता है। अपने पीछे या आगे उपाधि लगवाना ये भी एक प्रकार से भूख है जो अनादिकाल से चली आ रही है। उपाधि के चक्कर में अपना मूल नाम भी लोग भुला देते हैं। अपने भीतर की कमियों को ढूंढना प्रारम्भ कर दो तो साधना सध जायेगी। स्वार्थ त्याग का नाम ही परमार्थ होता है। आदर्श मार्ग को वही प्रशस्त कर पाता है जो पहले स्वयं आदर्शों की स्थापना करता है। जो सदमार्ग पर चल रहा है यदि उसके पीछे लग जाओगे तो दुनिया भी तुम्हारे पीछे पीछे आएगी।
भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय द्वारा सम्मानित पुस्तक "संपूर्ण योग विद्या" के नवीन संस्करण का विमोचन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के समक्ष पूर्व कलेक्टर, नगरीय एवं आवास विभाग में उपसचिव श्री राजीव शर्मा जी ने किया। आचार्य श्री ने श्री शर्मा को आशीष प्रदान किया। उक्त पुस्तक योगाचार्य श्री राजीव जैन लायल ने लिखी है।
आज दोपहर में मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष श्रीमती लता वानखेड़े ने एवं पूर्व मंत्री श्रीमती अलका जैन ने भिन्न भिन्न समय पर आचार्य श्री को श्रीफल भेंटकर आशीष प्राप्त किया।
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साधु को यह प्रषिक्षण दिया जाता है कि आप व्यापार कर रहे हो यदि अचानक कुछ हो जाये तो सावधानी से अंतिम समय अच्छे से निकल जाये। रत्नात्रय ऐसा माल है जो कोई लूट नहीं सकता यदि लूट ले तो माला – माल हो जायेगा। दुनिया छूट जाये तो कोई बाधा नहीं लेकिन रत्नात्रय नहीं छूटना चाहिये। संसार रूपी महान वन से पार कर देते हैं। आना इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना जाना है। अपनी – अपनी इन्द्रियों को चोर के समान समझो वेल्कम नहीं वेल गो के बारे मे ंसोचो। पाॅंच इंद्रिय और मन के द्वारा आप लूट रहे हैं। जो इंद्रियों का दमन करते हैं, कषायों का शमन करते हैं, देव उन्हे नमन करते हैं। इंद्रिय और मन को जो काबू में करता है वह सबको वष मे ंकरता है। आत्मा इंद्रियों से वषीभूत होकर भगवान को भूल जाती है। गुरू अपने आप में सहायक तत्व है मोक्ष मार्ग में । अनंत कालीन संस्कार रहते हैं जो छूटने के बाद भी बार – बार आ जाते हैं, उन्हे वह गुरू दूर करते रहते हैं। मोक्ष मार्ग में जो जाना चाहता है उसको मोह, प्रमाद से बचना चाहिये। यदि स्कूल में कोई प्रमाद करता है तो बैंच पर खड़ा कर देते हैं।
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चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महारज जी ने कहा की जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से प्रलय, भूत पिशाच, विघ्न, शाकिनी, विष का प्रभाव आदि नष्ट हो जाता है | हमारे जन्म – जरा – मृत्यु के कष्ट समाप्त नहीं हो रहे हैं | तृष्णा सर्पिणी की भांति है वह हमारे अन्दर प्रवेश कर रही है | जिनेन्द्र भगवान् का गंधोदक सब रोग, कष्ट हर लेता है, सर्वश्रेष्ठ औषधि है | भावों का खेल है भाव अच्छे रखेंगे तो सब अच्छा हो सकता है | पदम् पुराण में कैकई और दशरथ का दृष्टान्त देते हुए कहा की मान सम्मान की भूख प्रत्येक व्यक्ति में रहती है | संसारी व्यक्ति तो कर्म पर विश्वास करता है पर कर्म नहीं करता है | मन सबसे ज्यादा अविश्वास का पात्र है | संबोधन के लिए अच्छे व्यक्ति की आवश्यकता होती है | करंट एक रहता है जीरो से हेलोजन में प्रकाश अलग – अलग रहता है | आत्मा करंट की भांति है और शरीर बल्ब की भांति है | सब बीज नष्ट हो सकते हैं लेकिन कर्म बीज नष्ट नहीं होते हैं | जो अनुभवी होते हैं उनका अनुभव सुनने से अनुभव बढ जाता है |
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चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि सभी आत्मा एक सी है, मैं छोटा मैं बड़ा यही नहीं सोचना चाहिये। सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान की गुण की प्रषंसा सुनना लज्जित होता है। तब वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रषंसा कैसे कर सकता है। जिस समय वस्तु हम चाहते हैं नहीं मिलती है। अपनी प्रषंसा स्वयं न करने वाला स्वयं गुण रहीत होते हुये भी सज्जनों के मध्य में गुणवान की तरह होता है। कस्तूरी की गंध के लिये कुछ करना नहीं होता है। वचन से गुणों का कहना उनका नाष करना है। बहुत सोच समझकर इस दुनिया में कदम रखना चाहिये। एक कहावत है श्एक सबको हराता हैश् परनिंदा आपस में बैर, भय, दुःख, शोक और लघुता को करती है, पाप रूप है दुर्भाग्य को लाती है और सज्जनों को अप्रिय है। जो पर की निंदा करके अपने को गुणी कहलाने की इच्छा करता है वह दूसरे के द्वारा कडुवी औषधी पीने पर अपनी निरोगता चाहता है। सज्जनों के पास रहने से सज्जनता अपने आप आने लगती है। दूध लोकप्रिय बन जाता है सभी पीते हैं और चाहते हैं । साधना में पक्के होते हैं तब जाकर अन्तर दृष्टि होती है। श्क्वालिटी अपने आप में पुरस्कारश् है ऐसा एवार्ड तो संसार में है ही नहीं। चर्या के माध्यम से गुणों का कथन करें चर्या ही गुणों का प्रकाषन है। आज वेटिंग, सेटिंग, मीटिंग, गेटिंग हो रही है।
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चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की जो प्राणियों में दया नहीं करता तथा दूसरों को पीड़ा पंहुचा कर भी पछताता नहीं है वह दुर्भावना करता है | कई लोगो को कुछ भी करने के बाद भी पश्चाताप नहीं होता है | ऋण और बैर भव – भव में पीछा करते हैं | आज मुक्ति नहीं होती है लेकिन संबर और निर्जरा भी मोक्ष का कारण है | परिग्रह कम करते चले जाओ तो सुख मिलेगा | वेट कम करो धन और शरीर का | तीन लोक की सम्पदा मिलने पर भी साधू को कुछ नहीं होता | अशुधि के भाव रखोगे तो विशुधि नहीं बढेगी| बार – बार सेवन किया गया विषय सुख राग को उत्पन्न करता है | द्रव्य और भाव रूप तप की भावना से पाँचों इन्द्रियां दमित होकर उस तप भावना वाले के वश में हो जाती है | इन्द्रियों के पोषण के लिए नहीं लगाम लगाने के लिए तप किये जाते हैं | मदोन्मत्त हांथी भी भोजन नहीं मिलने से वश में हो जाता है |
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चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की संसारी प्राणी भ्रम के सांथ ही यात्रा करता रहता है | प्रत्येक व्यक्ति अपराधी सिद्ध होता है तो दंड संहिता लागू ही नहीं हो पायेगी | मोक्ष मार्ग में शब्दों और भावों से ही मार पड़ती है | जिसकी दृष्टि में इन्द्रिय विषय है तो आत्मस्थ कैसे कह सकते हैं | केवल ज्ञानी के ज्ञान में अनंतानंत विषय आ रहे हैं वह दूर नहीं होते हैं बस राग द्वेष नहीं करते हैं | भाव होने के बाद भी राग द्वेष नहीं करना यही सही पुरुषार्थ है | मान को रखोगे तो अपमान और सम्मान होगा | मान अधिक हो जाता है तो धरती नहीं दिखती वह आकाश की ओर देखता है | क्रोध, मान, माया, लोभ सम्बन्धी विषय पर प्रकाश डाला गया | मकान में मशीन लगते ही पता चल जाता है धन कहाँ – कहाँ छिपा रखा है | शरीर में भी कहाँ छिपा कर रखा है धन यह भी पता चल जाता है | जब शरीर ही मेरा नहीं है तो हम क्यों चिल्लायें, शांत रहे और इसे ऊपर उठायें, शरीर से काम लो इसको भोग सामग्री नहीं बनाओ |
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चंद्रगिरी डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की किसने कहा हम गृहस्थों को दीक्षा नहीं देते, देखकर दे सकते हैं ! ३० वर्ष दीक्षा का समय लिखा है क्योंति ३० वर्ष तक ऊंचाई शरीर में वृद्धि होती है ! एक दिन में ही इंजिनियर बनता है क्या कोई ? कई – कई एक्साम देने के बाद बनते हैं ! आज कालेजों की भरमार हो गयी है !
उन मुनिराजों को विक्रिया – चारण और क्षीरा – स्रवित्व आदि रिधियाँ उत्पन्न होती है किन्तु राग का अभाव होने से उनका प्रयोग नहीं करते ! थोड़ी सी साधना होने के बाद चमत्कार होने लगते हैं lekin उससे प्रभावित नहीं होंगे तो शक्तियां बढेगी और प्रयोग करेंगे तो वह समाप्त हो जाती है ! पहले वैद्य दवाओं के बारे में सीखते थे और सेवा करते थे और रोगी दान देते थे, औषधि दान के रूप में वह वैद्य हाँथ नहीं लगाते थे ! एलोपेथिक में यही गड़बड़ी हो रही है बड़े – बड़े लोग भी यह मेडिकल कालेज खोल रहे हैं ! लाखों रुपयों में एम.बी.बी.एस. होती है ! भावों में कलुषता नहीं होनी चाहिए ! पहले भारत को ऋषि, साधक, संत उपदेश के माध्यम से चलाते थे !
पार्शवनाथ मोक्ष कल्याणक निर्वाण दिवस मनाया गया :-
आज यह महावीर भगवान् से पूर्व पार्शवनाथ के निर्वाण कल्याणक को सूचित करने वाला दिन है यह एक ऐसी परम्परा है जिसको किसी ने रोका नहीं यह धारा निरंतर बहती रहती है ! यह धारा वीतराग धारा है जो टूट नहीं सकती अपनी मंजिल तक पहुचकर विश्राम पा लेती है ! विकृति का मिटना ही संस्कृति है ! नीर के मंथन से नवनीत की प्राप्ति नहीं होती है ! आत्मा मरती नहीं यह किसी को ज्ञात नहीं है ! सब लोग धन के चक्कर में पड़ गए हैं इसलिए आत्मा को भूल गए हैं ! आत्मा की उपलब्धि भू-शयन वालों को ही हुई है ! राम-राम रटने से कुछ नहीं होता है राम जैसा काम करो ! आत्मराम का चिंतन करो ! इसके पहले अनंत प्रभु हो चुके हैं, यह धारा टूटी नहीं है ! अब नींद की धारा को तोडना है वह है मोह की नींद ! माया के कारण उठ नहीं पा रहा है व्यक्ति ! धन के पीछे पड़ोगे तो दिमाग खराब होगा ! सोना ज्यादा रखने से पीलिया हो जाता है !
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज कृषि के क्षेत्र में हम जिस यूरिया का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारी कृषि को कमजोर तो बना ही रहा है साथ ही हमारे स्वास्थ्य को भी नुक्सान पहुंचा रहा है। सरकार भी इस और ध्यान नहीं दे रही है ,सरकार आप स्वयं बनो और इस तरफ आप खुद ही ध्यान दो। सरकार विज्ञापन के माध्यम से बातें तो बहुत सी करती है परंतु सही दिशा की और सार्थक कदम नहीं उठा ती है। आज अपने बच्चों को हमें स्वयं ही सही शिक्षा का ज्ञान कराने की जरूरत है क्योंकि यदि भारत का भविष्य उज्जवल और सुरक्षित बनाना है तो संस्कारों की मजवूत नींव तो हम सब को मिलकर ही डालनी होगी।
उन्होंने कहा कि आज की शिक्षा प्रणाली का जो व्यवसायीकरण हो रहा है बो भविष्य के लिए अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। अच्छे और लुभाबने विज्ञापन देकर शिक्षा संस्थाएं अच्छी शिक्षा का ढिंढोरा पीटती हैं बो दूर के ढोल सुहाबने सिद्ध होती हैं। शिक्षा और दीक्षा ये दोनों बहुत महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं इनमें किसी प्रकार का कोई समझोता नहीं होना चाहिए।
आचार्य श्री ने आजकल जो अशुद्ध खाद्य सामग्रियों का चलन चल रहा है उस पर अपनी बात कहते हुए कहा की हम अपने बच्चों को स्वयं ही जहर देने का काम आँख मूंदकर कर रहे हैं और उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। विद्यार्थियों को जब तक शुद्ध आहार नहीं मिलेगा उनका शारीरिक और मानसिक विकास संभव नहीं है। हम से अधिक विवेक तो मूक प्राणियों में होता है जो सोच समझकर सामग्री को खाते हैं। अच्छे अच्छे पढे लिखे लोग भी इस दिशा में अज्ञानी बने हुए हैं। कुँए और नदी का शुद्ध जल छोड़कर बंद बोतल का तत्व रहित जल पीने के आदि स्वयं भी बने हैं और बच्चों को भी बना रहे हैं। ये कौनसे पढ़े लिखे होने की निशानी है। जिसे आप बिसलरी बता रहे हैं बो धीमे बिष का काम कर रहा है क्योंकि उसमें जरूरी तत्वों का आभाव है । प्राशुक और छने जल को रोग का कारण बताया जा रहा है और तत्वरहित जल को पीने की सलाह खुद चिकित्सकों द्वारा दी जा रही है । मेरे द्वारा किये गए इन जटिल प्रश्नों का हल आपको स्वयं को ही खोजना होगा तभी रोग रहित और योग सहित स्वस्थ्य भारत और सशक्त समाज के निर्माण की दिशा में आप सार्थक कदम बढ़ा सकेंगे।सरकार की तरफ टकटकी लगाकर देखने की अपेक्षा आप स्वयं ही सरकार बनकर सामाजिक ताने बाने को दुरुस्त करने का उपक्रम प्रारम्भ करें।
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लोभ के कारण अपने कुटुम्बियों की और अपनी भी चिन्ता नहीं करता उन्हें भी कष्ट देता है और अपने शरीर को भी कष्ट देता है। साधक के दर्षन बडे़ पुण्य से मिलते हैं, महत्व समझ में आ जाये तो महत्व हीन पदार्थ छूट जायेगा। परिणामों की विचित्रता होती है। निरीहता दुर्लभता से होती है। परिग्रह कम करते जाओ निरीहता बढ़ाते जाओ। जिसको हीरे की किमत मालूम है वह तुरंत नहीं बेचता है। जो लोभ कषाय से रहित है उसके शरीर पर मुकुट आदि परिग्रह होने पर भी पाप नहीं होता अर्थात् सारवान् द्रव्य का सम्बन्ध भी लोभ के अभाव में बन्ध का कारण नहीं है। जिसका वस्तु मे ममत्व भाव नहीं है वह दरिद्र होते हुए भी सुख प्राप्त करता है। अतः चिता की शान्ति सन्तोष के अधीन है, द्रव्य के अधीन नहीं है। महान द्रव्य होते हुए भी जो असन्तुष्ट है उसके हृदय मे महान दुःख रहता है।
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चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की जब व्यक्ति उठता है प्रातः तो ताजगी महसूस करता है सूर्योदय के कारण और सूर्यास्त के समय बेहोशी जैसी लगती है | एक विषयों की नींद है और एक दिन अस्त होने की नींद है | महान पुरुष विपरीत परिस्तिथियों में भी अपने आपको संयत बनाये रखते हैं | तीन घंटे तक हम कोई कार्यक्रम देखते हैं तो वह याद में बना रहता है | जब स्वाभाव का बोध होता है तो पश्चाताप होता है | हमारी दिशा, दशा भगवान् की भांति हो जायेगी जिस दिन बोध हो जाएगा | दिन और रात की तरह ही जन्म – मरण का सम्बन्ध है | हमारा मन कही न कही से कमजोर रहता है | दुखानुभूती क्षणिक होती है | कथा और गाथा के सही कथाकार भगवान् होते हैं |
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज व्यक्ति को जो सुख प्राप्त हुआ है वो उसे न देखकर, उसे न भोगकर पडोसी के सुख को देखकर दुखी हो रहा है। किसी ने मकान बनाया और कम समय में सूंदर मकान बन गया तो उसका खुद का घर कितना ही सूंदर क्यों न हो उसके मन में ये भाव जर्रूर आते हैं की इसका मकान इतनी जल्दी और इतना सुन्दर कैंसे बन गया। ऐंसे ही दान के क्षेत्र में कुछ लोगों को दूसरों का दान देखकर ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होते हैं और मन में मलिनता उत्पन्न होती है। यदि किसी ने दान दिया है और उस दान की अनुमोदना अच्छे मन से आपने की है तो पुण्य का संचय आपको भी अवश्य होगा।
उन्होंने कहा कि देवलोक में सूंदर सूंदर अकृतिम भवन बने होते हैं उधर किसी को बनाने की जरूरत नहीं होती ,सारे सुख वैभव ,सारे संसाधन उपलब्ध हो जाते हैं। आप लोग उलझनों में उलझने की अपेक्षा सुलझने की तरफ कदम बढ़ाओ तो आपको भी देवों जैंसे वैभव प्राप्त हो सकते हैं।
उन्होंने कहा कि में जब ग्राम और कस्बों में विहार करता हूँ तो छोटे छोटे रस्ते भी सुगम होते हैं जबकि भोपाल में चौड़े चौड़े रास्ते होते हुए भी पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलती है। महानगर का जीवन ऐंसे ही भीड़ भाड़ और आपा धापी में निकल जाता है।
उन्होंने कहा कि बड़ी दूर दूर से आप लोग संतों के दर्शन करने आते हो परंतु अच्छे से दर्शन नहीं हो पाते तो उसमें मन आपका खिन्न हो जाता है परंतु न तो तो आप इसमें कुछ कर सकते हो न संत इसमें कुछ कर सकते हैं, आप सबका मन भारत नहीं है। संसार की ही समस्या है की मन कभी नहीं भरता ,उस मन को ठन्डे बस्ते मेडाल दीजिये क्योंकि ठन्डे बस्ते में मन को रखना ही मोक्ष मार्ग है। कल से आप अपने साथ एक बस्ता लेकर आओ और अपना मन उस बस्ते में रखकर संतों के सानिध्य में जाओ आपके भीतर खिन्नता नहीं आएगी। सबसे ज्यादा महत्व संयम का है क्योंकि इसके बिना मोक्ष मार्ग की यात्रा प्रारम्भ ही नहीं होती है । शहर की अपेक्षा ग्रामों में ज्यादा संतोषप्रद जीवन होता है क्योंकि उधर जीवन की आपा धापी और भागदौड़ कम होती है । जो संतोष का जीवन जीता है उसका हर पल ,हर क्षण सुखमयी होता है। जो परंपरा से धर्म के संस्कार आपको प्राप्त हुए हैं उन्हें सहेजने और सँवारने की आवश्यकता है । मन की मांग को पूरा करना कोई बुरी बात नहीं है परंतु जायज मांग और फालतू मांग में फर्क का ज्ञान होना तो जरूरी है। सोच बिचार कर अपने मन की मांग का प्राथमिकता से निर्धारण करना चाहिए। आमदनी के हिसाब से खर्च का प्रबंधन करना जरूरी होता है। आमद कम खर्चा ज्यादा लक्षण है मिट जाने का, कूबत कम गुस्सा ज्यादा लक्षण है पिट जाने का। इसलिए अपनी चादर के अनुसार ही अपने पैर फैलाना चाहिए। यही धर्म है जिसे ज्ञानी लोग अच्छे से जानते हैं । मन से जो काम लेता है वो अच्छा होता है और जो मन का काम करता है वो अच्छा हो ही नहीं सकता। जो मन से काम लेता है वो सेठ होता है और जो मन का काम करता है वो नोकर होता है ।जो मन के नियंत्रण में चलता है उसकी कोई चिकित्सा हमारे पास भी नहीं है , उसका तो भगवान ही मालिक है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने आशीर्वचनों में कहा कि पहले की शिक्षा में तीन चरणों में परीक्षा के माध्यम से विद्यार्थी की योग्यता का मापदंड किया जाता था फिर अगली कक्षा में जाने के लिए भी एक परीक्षा होती थी ताकि सरलता से उसे प्रवेश की पात्रता मिल जाय ।आज सेमिस्टर सिस्टम के माध्यम से हर 6 माह में पाठ्यक्रम की परीक्षा होती है ये अव्यवहारिक तरीका है क्योंकि वह 6 माह में पुनराबलोकन उस पाठ्यक्रम का नहीं कर पाता है और उसकी पढाई की धारा भी टूट जाती है जिससे उसका मनोबल टूटता है ।इस शिक्षा नीति का कुछ लोग बिरोध भी करते हैं क्योंकि ये प्रणाली प्रासंगिक नहीं है। इसमें अभिभावक और विद्यार्थी भी संतुष्ट नहीं है परन्तु उनकी आवाज सुनने बाला कोई नहीं है क्योंकि शिक्षा का ब्यबसायिकरण होता जा रहा है।
उन्होंने कहा की आज शिक्षा के नाम पर जो क्षल किये जा रहे हैं बो हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है । और ये सब सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है । गोधूलि बेल में गाय भैंस लौटकर आ जाते हैं फिर बो जुगाली करते हैं जिससे अंदर सात तत्व बनते हैं जिससे दूध बनता है । आपके लिए भी कुछ सिद्धान्त बनाए गए हैं जो आपके ज्ञान को विकसित करने में सहायक सिद्ध होते हैं ,आप जिनवाणी बगल में नहीं सामने रखोगे तभी ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी। आप बच्चों को भी यदि संस्कारित करना चाहते हो तो उन्हें ज्ञान का सही मार्ग दिखाने का उपक्रम करें।
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चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि अशोभनीय गुण वाले मनुष्य के संसर्ग से मनुष्य उसी की तरह स्वयं भी अशोभनीय गुणवाला हो जाता है। दुर्जनों की गोष्ठी के दोष से सज्जन भी अपना बड़प्पन खो देता है। फूलों की कीमती माला भी मुर्दे पर डालने से अपना मूल्य खो देती है। दुर्जन के संसर्ग से लोग व्यक्ति के सदोष होने की शंका करते हैं। जैसे मद्यालय में (शराब की दुकान में) बैठकर दूध पीने वाले की भी मद्यपायी (शराबी) होने की शंका करते हैं। लोग दूसरों के दोषों को पकडने के इच्छुक होते हैं और परोक्ष में दूसरो के दोषों को कहने में रस लेते हैं। इसलिये जो दोषों का स्थान है उससे अत्यन्त दूर रहो क्योंकि ऐसा न करने से लोगोें को अपवाद करने का अवसर मिल जाता है।दुर्जनों की संगति से प्रभावित मनुष्य को सज्जनों का सत्संग रूचिकर नहीं लगता। वोट नहीं देता है लेकिन सपोर्ट तो रहता है। इसलिये जैसी स्थिति हो उसमें विवेक लगाकर कार्य करना चाहिये। हमें सभी बातों पर गौर करना चाहिये। हमें धार्मिक वातावरण बनाये रखना चाहिये जिससे परिणाम अच्छे रहते हैं। सज्जनों का सत्संग पुण्यवर्धन में सहायक होता है। पूज्य महापुरूषों की विनय करने से उनके जैसा बनने में सहायता मिलती है।
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