अपनी प्रषंसा घातक है।
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि सभी आत्मा एक सी है, मैं छोटा मैं बड़ा यही नहीं सोचना चाहिये। सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान की गुण की प्रषंसा सुनना लज्जित होता है। तब वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रषंसा कैसे कर सकता है। जिस समय वस्तु हम चाहते हैं नहीं मिलती है। अपनी प्रषंसा स्वयं न करने वाला स्वयं गुण रहीत होते हुये भी सज्जनों के मध्य में गुणवान की तरह होता है। कस्तूरी की गंध के लिये कुछ करना नहीं होता है। वचन से गुणों का कहना उनका नाष करना है। बहुत सोच समझकर इस दुनिया में कदम रखना चाहिये। एक कहावत है श्एक सबको हराता हैश् परनिंदा आपस में बैर, भय, दुःख, शोक और लघुता को करती है, पाप रूप है दुर्भाग्य को लाती है और सज्जनों को अप्रिय है। जो पर की निंदा करके अपने को गुणी कहलाने की इच्छा करता है वह दूसरे के द्वारा कडुवी औषधी पीने पर अपनी निरोगता चाहता है। सज्जनों के पास रहने से सज्जनता अपने आप आने लगती है। दूध लोकप्रिय बन जाता है सभी पीते हैं और चाहते हैं । साधना में पक्के होते हैं तब जाकर अन्तर दृष्टि होती है। श्क्वालिटी अपने आप में पुरस्कारश् है ऐसा एवार्ड तो संसार में है ही नहीं। चर्या के माध्यम से गुणों का कथन करें चर्या ही गुणों का प्रकाषन है। आज वेटिंग, सेटिंग, मीटिंग, गेटिंग हो रही है।
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