मानव जीवन इस भूतल पर उत्तम सब सुखदाता है।
जिसको अपनाने से नर से नारायण हो पाता है।
गिरि में रत्न तक्र में मक्खन ताराओं में चन्द्र रहे।
वैसे ही यह नर जीवन भी जन्म जात में दुर्लभ है ॥१॥
फिर भी इस शरीरधारी ने भूरि-भूरि नर तन पाया।
इसी तरह से महावीर के शासन में है बतलाया॥
किन्तु नहीं इसके जीवन में कुछ भी मानवता आई।
प्रत्युत वत्सलता के पहले खुदगर्जी दिल को भाई ॥२॥
हमको लडडू हों पर को फिर चाहे रोटी भी न मिले।
पड़ौसी का घर जलकर भी मेरा तिनका भी
सामाजिक सुधार के बारे में हम आज बताते हैं।
जो इसके सच्चे आदी उनकी गुण गाथा गाते हैं।
व्यक्ति व्यक्ति मिल करके चलने से ही समाज होता है।
नहीं व्यक्तियों से विभिन्न कोई समाज समझौता है॥ १५॥
सह निवास तो पशुओं का भी हो जाता है आपस में।
एक दूसरे की सहायता किन्तु नहीं होती उनमें॥
इसीलिए उसको समाज कहने में सभ्य हिचकते हैं।
कहना होती समाज नाम, उसका विवेक युत रखते हैं॥१६॥
बूंद बूंद मिलकर ही सागर बन पाता है हे भाई।
सूत सूत से मिलकर चादर बनती सबको सु
सबसे पहली आवश्यकता अन्न और जल की होती।
उसके पीछे गृहस्थ लोगों की, टांगों में हो धोती॥
इन दोनों के बिना जगत का, कभी नहीं हो निस्तारा।
पेट पालने से ही हो सकता है भजन भाव सारा॥ ३०॥
अन्न वस्त्र यह दो चीजें मानव भर को आवश्यक हैं।
बिना अन्न के देखो भाई किसके कैसे प्राण रहें।
अन्न और कपड़ा ये दोनों खेती से हो पाते हैं।
इसीलिए खेती का वैभव हमें बुजुर्ग बताते हैं॥ ३१॥
कर्मभूमि की आदि कल्पवृक्षों के विनष्ट होने से।
करुणा पूर्ण हृदय होकर के आर्यजनों के रोने से॥
सबसे पहले ऋषभदेव ने खेती का उपदेश दिया।
जबकि उन्होंने भूखों मरते लोगों को पहचान लिया॥ ३२॥
उनके सदुपदेश पर जिन लोगों ने समुचित लक्ष्य दिया।
शाकाहारी रह यथावगत आर्य ज
खेती को देना बढ़वारी भू पर स्वर्ग बसाना है।
खेती का विरोध करना, राक्षसता का फैलाना है॥
खेती की उन्नति निमित पशुपालन भी आवश्यक है।
जो कि हमें दे दूध घास खावे फिर हल की साथ रहे॥४१॥
अहो दूध का नम्बर माना गया अन्न से भी पहला।
हर मानव क्या नहीं दूध माँ के से शिशुपन में बहला॥
दूध शाक ही खाद्य मनुज का पशु का भी दिखलाता है।
लाचारी में वा कुसङ्ग में, पलभक्षी हो जाता है ॥४२॥
अतः दूध की नदी बहे तृण कण की टाल लगे भारी।
फिर से इस भारत पर ऐसी, खेती की हो
किञ्च जीव मरना हिंसा हो, तो वे कहाँ नहीं मरते।
ऋषियों के भी हलन चलन में, भूरि जीव तनु संहरते॥
कहीं जीव मारा जाकर भी, हिंसा नहीं बताई है।
यतना पूर्वक यदि मानव, कर्तव्य करे सुखदाई है ॥४७॥
अस्त्र चिकित्सक घावविदारण करता हो सद्भावों से।
मर जावे रोगी तो भी वह, दूर पाप के दावों से॥
अगर किसी की गोली से भी, जीव नहीं मरने पाता।
फिर भी अपने दुर्भावों से वह है हिंसक बन जाता ॥४८॥
तो क्या बुरा विचार किसी के, प्रति भी होता किसान का।
वह तो सन्तत भला चाहने वाला होता जहान का॥
उदारता जो किसान में वह क्या बनिये में होती है।
कारुपना तो कहा गया संकीर्ण भाव का गोती है ॥४९॥
किन्तु हुआ व्यापार कारुपन पर ही आज लक्ष्य सारा।
खेती से हो गई घृणा यों बनी बुरी विचारधारा॥
बनने लगे कारखाने यन्त्रालय आगे से आगे।
अतः व्यर्थ हो पशु बेचारे, जीवित ही कटने लागे ॥५०॥
गो सेवा में दिलीप, ने अपना सर्वस्व लगाया था।
बन गोपाल कृष्ण ने भारत को परमोच्च बनाया था।
वृषभदास ने पशुपालन में था कैसा चित्त लगाया।
हा उस भारत के लालों ने आज ढंग क्या अपनाया ॥५१॥
देखो सोमदेव ने अपने नीति सूत्र में अपनाया।
जहाँ कि होवे सहस्त्रांशु का, समुदय होने को आया॥
शय्या से उठते ही राजा, पहले गो दर्शन करले।
तब फिर पीछे प्रजा परीक्षण, में दे चित्त पाप हरले ॥५२॥
अहो पुरातनकाल में रहा, पशु पालन पर गौरव था।
हर गृहस्थ के घर में होता, पाया जाता गोरव था॥
किसी हेतु वश अगर गेह में, नहीं एक भी गो होती।
भाग्यहीन अपने को कहकर, उसकी चित्तवृत्ति रोती ॥५३॥
सुख स्वास्थ्य मूलक होता जिसका इच्छुक है तनधारी।
चैन नहीं रुग्ण को जरा भी यद्यपि हों चीजें सारी॥
रोग देह में हुआ गेह यह नीरस ही हो जाता है।
देखे जिधर उधर ही उसको अन्धकार दिखलाता है ॥५६॥
मनोनियन्त्रण सात्त्विक भोजन यथाविधि व्यायाम करे।
वह प्रकृति देवी के मुख से सहजतया आरोग्य वरे॥
इस अनुभूत योग को सम्प्रति मुग्ध बुद्धि क्यों याद करे।
इधर उधर की औषधियों में तनु धन वृष बर्बाद करे॥५७॥
मन के विकार मदमात्सर्य क्रोध व्यभिचारादिक हैं।
नहीं विकलता दूर हटेगी, जब तक ये उद्रित्त्क रहें।
देखों काम ज्वर को वैद्यक में कैसा बतलाया है।
जिसमें फँसकर कितनों ही ने, जीवन वृथा गमाया है॥५८॥
सात्विकता में द्रव्य देश या काल भाव की विवेच्यता।
द्रव्य निरामिष निर्मदकारक हो वह ठीक हुआ करता॥
विहार आदिक में भातों का खाना ही अनुकूल कहा।
मारवाड़ में नहीं, वहाँ तो मोठ और बाजरा अहा ॥५९॥
सूर्योदय से घण्टे पीछे, घण्टे पहले दिनास्त से।
भूख लगे जोर से तभी खाना निश्चित यह आगम से॥
अरविकाल में भोजन करना मनुज देह के विरुद्ध है।
जो कि रात्रि में भोजन करता उसको कहा निशाचर है॥६०॥
मिट्टी कंकर आदि से रहित योग्य रीति से बना हुआ।
यथाभिरूचि खाया जावे वह जिस का दुर्जर भाव मुवा॥
है व्यायाम शरीर परिश्रम को विज्ञों ने बतलाया।
समुदिष्ट वह एक, दूसरा सहजतया होता आया॥ ६१॥
पहला दण्ड पेलना आदिक रूप से किया जाता है।
दूजा घर धन्धों में अपने आप किन्तु हो पाता है।
चून पीसना, पानी भरना, रोटी करना आदिक में।
औरत लोग कहो क्या भैय्या श्रमित दीखती नहीं हमें॥६२॥
बिनजी करना, लाङ्गल धरना, कुदाल आदि चलाने में।
मानव भी तो थक रहता है, निज कर्तव्य निभाने में॥
किन्तु इसी सादे सुन्दर जीवन से श्री प्रभु राजी है।
और इसी से हम लोगों की तबियत
व्यायाम के अनन्तर ही भोजन कर लेना ठीक नहीं।
नहीं भोजनानन्तर ही व्यायाम तथा यों गई कही।
प्रायः निश्चित वेला पर ही भोजन करना कहा भला।
वरना पाचन शक्ति पर अहो आ धमके गी बुरी बला॥६४॥
बिलकुल कम खाने से शरीर में दुर्बलता है आती।
किन्तु खूब खा लेने से भी अलसतादि आधि सताती॥
ब्रह्मचारियों का तो भोजन, हो मध्याह्न समय काही।
शाम सुबह दो बार गेहि लोगों का होता सुखदाई ॥६५॥
किन्तु सुबह के भोजन से, अन्थउ की मात्रा हो आधी।
ताकि सहज में पच जावे व
समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी।
इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥
एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है।
फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥
कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को।
तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥
क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है।
भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥
यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना।
कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान दे
एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था।
निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥
बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था।
अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥
जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है।
जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥
सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था।
किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥
क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था।
कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने
ईंट और मिट्टी चूने आदिक से बना न घर होता।
वह तो विश्राम स्थल केवल जहाँ कि तनुधारी सोता॥
किन्तु स्त्रीसुत पितादिमय कौटाम्बिक जीवन ही घर है।
इसमें मूल थम्भ नर नारी वह जिन के आधार रहें ॥८९॥
कल्पवृक्ष की तुल्य घर बना जिस का तना वना नर है।
नारी जिस की छाया आदिक जिसके ये सुफलादिक है॥
नारी का हृदयेश्वर नर तो वह भी उसका हृदय रहे।
वह उसको सर्वस्व और वह उसको जीवन सार कहे॥९०॥
वह उसके हित प्राण तजे तो वह उसका हित चिन्तक हो।
दोनों का हो एक चित
वह कुलाङ्गना धन्य जो कि हो पति के लिए पुष्वल्ली।
अगर और का हाथ बढ़े तो वहाँ घोर विष की वल्ली॥
हो परिणीत कोढिया भी तो कामदेव से बढ़कर हो।
चिन्चा पुरुष समान पुष्ट होकर भी जिसके पर नर हो ॥९३॥
एक पाणिपरिणीत पुरुष ही जिस के लिए वरद साँई।
और सभी सर्वदा मनोवाक् तनु से पिता पुत्र भाई॥
अगर कहीं पति रूठ गया तो, शरण एक परमात्मा की।
जिसके लिए शेष रह जाती और किसी को क्या झांकी॥९४॥
उन पतिव्रताओं के आगे मस्तक सभी झुकाते हैं।
जिनके शील गुण प्रभाव से विघ
पर नर के संयोग वश्य ज्यों नारी अधमा होती है।
उससे भी कुछ अधिक परस्त्री-रत नर यों समझोती है॥१०२॥
क्योंकि स्त्री का जीवन तो, भूतल पर परवश होता है।
किन्तु मनुज निजवश होकर भी, ले कल्मष में गोता है॥
हन्त हन्त हम खुद तो देखो, रावणता को लिए रहें।
महिलाओं में सीतापन हो, ऐसी सुख से बात कहें ॥१०३॥
तो फिर होगा क्योंकि विश्व में, विप्लव ही हो पावेगा।
चन्दन में से आगी होकर, जगत् भस्म हो जावेगा॥
हा हा घर में प्रेम पियारी, मदन सुन्दरी नारी है।
फिर भी द
मूल्यांकन अब घर वाली का वे हजरत कर पाते हैं।
वहीं एक साथिन जब होती, और दूर भग जाते हैं ॥११०॥
अपनी भूल हुई पर अब तो मन ही मन पछताते हैं।
जिसे पगरखी तुल्य कही, उसको खुद हृदय लगाते हैं॥
कहते हैं इस पर ही तो है घर का बोझ भार सारा।
नर क्या करे बना यह केवल मेहनतिया है बेचारा ॥१११॥
शिशुलालन, पशुपालन, चुल्लीवालन, भिक्षुनिभालन भी।
ये औरत से ही होते, नहि नर के वश की बात कभी॥
जबकि हमारे धीठ दिलों में गौरव रहा न औरत का।
बिना पंख के पक्षी जैसा हाल हमारी
बाल बालिकाओं को शिक्षा दिला सुयोग्य बना देना।
माता-पिता का काम उन्हें व्यसनों से सदा बचा लेना॥११८॥
किन्तु आज रह गया सिर्फ कर देना उनकी शादी का।
यह ही सबसे पहला कारण समाज की बरबादी का॥
जो भी हों कर रहे आप से उन्हें वही करने देना।
अनुशासन का लाड़ चाव में कुछ भी नहीं नाम लेना॥ ११९॥
बालपन है चलो अभी यों कहकर टाल बता देना।
उनकी बुरी वासनाओं को पहले तो पनपा लेना॥
जब वे पकड़ गई जड़ तो फिर कैसे कहो दूर होवें।
यों उनके दुश्मन बन करके अपने
महिलाओं को आज भले ही व्यर्थ बता कर हम कोसें।
नहीं किसी भी बात में रही वे है पीछे मरदों से॥११४॥
जहाँ कुमारिल बातचीत में हार गया था शंकर से।
तो उसकी औरत ने आकर पुनः निरुत्तर किया उसे॥
दशरथ राजा का सारथिपन किया कैकेयी रानी ने।
कैसा लोहा लिया शत्रु से था झांसी की रानी ने॥११५॥
श्रेणिक को सत् पथ पर लाने वाली हुई चेलना थी।
रहा विपत् में अहो सिर्फ वह नारी ही नर का साथी॥
बहुत जगह ललनाओं ने है मरदों से बाजी मारी।
लिखी नहीं जा सकती हमसे उनकी कथा यह