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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है

रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है   शारीरिक शास्त्र जो कि मनुष्य स्वास्थ्य को दृष्टि में रख कर बना उसका कहना है कि दिन में पित्त प्रधान रहता है तो रात्रि में कफ। एवं भोजन को पचाना पित्त का कार्य है अतः मनुष्य को दिन में ही भोजन करना चाहिये। इसलिये वैद्य लोग अपने रोगी को लंघन कराने के अनन्तर जो पथ्य देते हैं वह कर्तव्य पथ प्रदर्शन रात्रि में कभी भी न देकर दिन में ही देते हैं। दिन में भी सूर्योदय से एक डेढ़ घण्टे बाद से लगातार मध्यान्ह के बारह बजे से पहले ही पथ्य देने का आ

नशेबाजी से दूर हो

नशेबाजी से दूर हो   दुनिया की चीजों में से कुछ अन्न आदि चीजें तो ऐसी हैं जिनका संबंध मनुष्य की बुद्धि के साथ में नहीं होकर वे सब केवल शरीर के सम्पोषण के लिये ही खाये जाते हैं। ब्राह्मी, शंख पुष्पी आदि जड़ी बूटियां ऐसी हैं जो मनुष्य की बुद्धि को ठिकाने पर रखकर उसके बढ़ाने में सहायक होती है परन्तु भांग, तम्बाकू, चरस, गांजा, सुलफा वगैरह वस्तुएं ऐसी भी हैं जो उत्तेजना देकर मनुष्य की बुद्धि को विकृत बना डालती हैं। जिनके सेवन करने से काम वासना उद्दीप्त होती है। अतः ऐस चीजों को कामुक लोग पहले

दूध का उपयोग

दूध का उपयोग   भोले भाई ही नहीं बल्कि कुछ पढ़े लिखे लोग भी ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं कि जो दूध पीता है वह भी तो एक प्रकार से मांस खाने वाला है,  क्योंकि दूध मांस से ही होकर आता है, फिर दूध तो पिया जाये और मांस खाना छोड़ा जाए यह व्यर्थ की बात है। उन ऐसा कहने वाले भले आदमियों को जरा सोचना चाहिये कि अन्न भी तो खाद में से पैदा होता है सो क्या अनाज को खाने वाला खाद को भी लेता है? नहीं, क्योंकि खाद के गुण -धर्म कुछ और हैं तो अन्न के गुण -धर्म कुछ और ही। अत: खाद जुदी चीज है तो अन्न उससे जुद

शाकाहारी बनना चाहिये

शाकाहारी बनना चाहिये   जिससे शरीर पुष्टि को प्राप्त हो या भूख मिटे उसे आहार कहते हैं। वह मुख्यतया दो भागों में विभक्त होता है। शाकपात और मांस। जब हम पशुओं की ओर निगाह डालते हैं तो दोनों ही तरह के जीव उनमें पाते हैं। गाय, बैल, भैंस, ऊँट, घोड़ा, हाथी, हिरण आदि पशु शाकाहारी हैं जो कि उपयोगी तथा शान्त होते हैं परन्तु सिंह, चीता, भालू, भेड़िया आदि पशु मांसाहारी होते हैं जो कि क्रूर एवं अनुपयोगी होते हैं। इनसे मनुष्य सहज में ही दूर रहना चाहता है।    इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मां

मानवपन नपा तुला होना चाहिये

मानवपन नपा तुला होना चाहिये   मनुष्य जीवन पानी की तरह होता है। पानी बहता न होकर अगर एक ही जगह पड़ा रहे तो सड़ जाये। हां, वही बहता होकर भी बगल के दोनों तटों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर तितर बितर हो जाये तो भी शीघ्र ही नष्ट हो रहे। मनुष्य भी निकम्मा हो कर पड़ा रहे तो शोभा नहीं पा सकता। उसे भी कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिये। उचितार्जन और त्यागरूप दोनों तटों के बीच में होकर नदी की भांति बहते रहना चाहिये। यह तो मानी हुई बात है कि खाने के लिये कमाना भी पड़ता ही है परन्तु कोई यदि विष ही कमाने

अनर्थदण्ड के प्रकार

अनर्थदण्ड के प्रकार   बात ही बात में यदि ऐसा कहा जाता है कि देखो हमारे भारत वर्ष में गेहूं बीस रुपये मन है और सोना सौ रुपये तोले से बिक रहा है परन्तु हम से पन्द्रह बीस कोस दूर पर ही पाकिस्तान आ जाता है जहां कि गेहूं तीस रुपये मन में बिक रहे हैं तो सोना पचहत्तर रुपये तोला पर मिल जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति यहां से वहां तक यातायात की दक्षता प्राप्त कर ले तो उसे कितना लाभ हो। इस बात को सुनते ही कार-व्यापार करने वाले का या किसान को सहसा अनुचित प्रोत्साहन मिल जाता है जिससे कि वह ऐसा करने मे

व्यर्थ का पाप पाखण्ड

व्यर्थ का पाप पाखण्ड   कहते हुए सुना जाता है कि पेट पापी है इसी के लिए अनेक तरह के अनर्थ करने पड़ते हैं। जब हाथ-पैर हिला डुला कर भी मनुष्य पेट नहीं भरपाता है तो वह चोरी-चकोरी करके भी अपने पेट की ज्वाला को शान्त करना चाहता है, यह ठीक हे। इसी बात को लक्ष्य में रखकर हमारे महर्षियों ने स्थितिकरण अंग का निर्देश किया है। यानी समर्थ धर्मात्माओं को चाहिये कि आजीविका भ्रष्ट लोगों को उनके योग्य आजीविका बताकर उन्हें उत्पथ में जाने से रोकें ताकि देश में विप्लव न होने पावे।   कुछ लोग ऐसे

साधक का कार्य क्षेत्र

साधक का कार्य क्षेत्र   भूमितल बहुत विशाल है और इसमें नाना विचारों के आदमी निवास करते हैं, कोई बुरी आदत वाला आदमी है तो कोई कुछ अच्छी आदत वाला। एवं मनुष्य का हिसाब ही कुछ ऐसा है कि यह जैसे की संगति में रहता है तो प्रायः आप भी वैसा ही हो रहता है जिसमें भी अच्छे के पास में रह कर अच्छाई को बहुत कम पकड़ पाता है किन्तु बुरे के पास में होकर बुराई को बहुत शीघ्र ले लेता है जैसे कि उजला कपड़ा कोयलों पर गिरते ही मैला हो जाता है परन्तु फिर वही साबुन पर गिर कर उजला बन जाता है, सो बात नहीं कर्

कर्त्तव्य और कार्य

कर्त्तव्य और कार्य   शरीर के भरण-पोषण के लिये जो किया जाता है ऐसा खाना पीना, सोना, उठना वगैरह कार्य कहलाता है जिससे संसारी प्राणी चाह पूर्वक अनायास रूप से किया करता है। जो आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नपूर्वक किया जाता है ऐसा भगवद्भजन, परोपकार आदि कर्तव्य होता है। कार्य तो इतर प्राणियों की भांति नामधारी मानव भी लगन के साथ करता है मगर वह कर्त्तव्य को सर्वथा भूले हुये रहता है। उसके विचार में कर्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता परन्तु वही जब मानवता की ओर ढलता है तो कर्तव्य को भी पहिचानने लगता है। य

पशु पालन

पशु पालन   सुना जाता है कि एक न्यायालय में न्यायाधीश के आगे पशुओं में और मनुष्यों में परस्पर में विवाद छिड़ गया। मनुष्यों का दावा था कि पशुओं की अपेक्षा से हम लोगों का जीवन बहुमूल्य है। पशुओं ने कहा कि ऐसा कैसे माना जा सकता है बल्कि कितनी ही बातों को लेकर हम सब पशुओं का जीवन ही तुम्हारी अपेक्षा से अच्छा है। देखो कि गजमुक्ता सरीखी कितनी ही बेशकीमती चीजें, तुम्हें पशुओं से ही प्राप्त होती है। इसी तरह कवि लोग जब कभी तुम्हारी प्रेयसी के रूप का वर्णन करते हैं तो मृगनयनी, गजगामिनी इत्यादि रू

अन्याय के धन का दुष्परिणाम

अन्याय के धन का दुष्परिणाम   एक दर्जी के दो लड़के थे जो कि एक-एक टोपी रोजाना बनाया करते थे, उनमें से एक जो संतोषी था वह तो अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा तो खुद खाता था और एक पैसा किसी गरीब को दे देता था। एक रोज दो दिन का भूखा एक आदमी उसके आगे आ खड़ा हुआ उस दर्जी ने जो टोपी तैयार की थी उसके दो पैसे उसके पास आये तो उनमें के एक पैसा उसने उस पास में खड़े गरीब को दे दिया। गरीब ने उस पैसे के चने लेकर खा लिये और पानी पी लिया। अब उसके दिल में विचार आया कि देखों यह दर्जी का लड़का एक टोपी

उदारता का फल सुमधुर होता है

उदारता का फल सुमधुर होता है   रामपुर नाम के नगर में एक रधुवरदयाल नाम के बोहराजी रहते थे। जिनके यहां कृषकों को अन्न देना, जिसे खाकर वे खेती का काम करें और फसल पककर तैयार होने मन भर अन्न के बदले में पांच सेर, मन अन्न के हिसाब से बोहराजी को दे दिया करें बस यही धन्धा होता है। बोहराजी के दो  107 लड़के थे, एक गौरीशंकर दूसरा राधाकृष्ण बोहराजी के मरने पर दोनों भाई पृथक-पृथक हो गये और अपने-अपने कृषकों को उसी प्रकार अन्न देकर रहने लगे। विक्रम सम्वत् उन्नीस सौ छप्पन की साल में भयंकर दुष्काल पड़ा।

व्यापार

व्यापार   व्यापार शब्द का अर्थ होता है किसी चीज को व्यापकता देना यानी आवश्यकताओं से अधिक होने वाली एक जगह की चीज को जहां पर उसकी आवश्यकता हो वहां पर पहुंचा देना एवं सब जगह के लोगों के लिए सब चीजों की सहूलियत कर देना ही व्यापार कहलाता है। व्यापार का मतलब जैसा कि आजकल लिया जाने लगा है धन बटोरना, सो कभी नहीं हो सकता है। किन्तु जनसाधारण के सम्मुख उसकी आवश्यक चीज को एक सरीखी दर पर उपस्थिति करना और उसमें जो कुछ उचित कमीशन कटौती मिले उस पर अपना निर्वाह करना ही व्यापार का सच्चा प्रयोजन है। उदा

शिल्प कला

शिल्प कला   यद्यपि खाने पीने और पहनने ओढ़ने वगैरह की, हमारे जीवन निर्वाह योग्य चीजें सब खेती करने से प्राप्त होती हैं, जमीन जोतकर पैदा कर ली जाती है, फिर भी इतने मात्र से ही वे सब हमारे काम में आने लायक हो रहती हों सो बात नहीं, किन्तु उन्हें रूपान्तर करने से उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कि खेत मैं उत्पन्न हुए अन्न को पीसकर उसकी रोटियां बनाकर खाई जाती हैं अथवा उसे भूनकर चबाया जाता है। कपास को चरखी में से निकालकर उसे पींजकर फिर उसे चरखें से कातकर सूत बनाया जाता है और बाद में उसका कर्मे क

हमारी आँखों देखी बात

हमारी आँखों देखी बात   एक बहिनजी थीं जिनके विचार बड़े उदार थे। उनके यहां खेती का। धंधा होता था। सभी आवश्यक चीजें प्रायः खेती से प्राप्त हो जाया करती थीं। अतः प्रथम तो किसी सो चीज लेने की वहां जरूरत ही नहीं होती थी, फिर भी कोई चीज किसी से लेनी हो तो बदले में उससे भी अधिक परिणाम की कोई दूसरी चीज अपने यहां की उसे दिये बिना नहीं लेती थी। वह सोचती थी कि मेरी यहां की चीज मुझे जिस तरह से प्यारी है उसी प्रकार दूसरे को भी उसकी अपनी चीज मुझसे भी कहीं अधिक प्यारी लगती है। हां, जब कोई भी भाई आकर उ

न्यायोचित वृत्ति

न्यायोचित वृत्ति   सबसे पहले तो वह है कि जमीन में हल जोतकर अन्न पैदा किया जाय, वह इसी विचार से कि मैंने जिसका अन्न कर्ज लेकर खाया है वह ब्याज बाढ़ी सुदा चुका दिया जावे एवं बाल बच्चों सहित मेरा उदर पोषण हो जावे और द्वार पर आये हुये अतिथि का स्वागत भी हो जावे। हां कहीं- मैं खेती तो करता हूं परन्तु इसमें उत्पन्न हो गया हुआ अन्न यदि अधिकांश उसी के यहां चला जावेगा जिसके यहां का अन्न मैंने पहले से लेकर रखा है, ठीक तो जब हो कि वह मर जावे ताकि मुझे उसे न देना पड़े और सारा अन्न मेरे ही पास में

दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।

दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।   यह बात है कि ठीक क्योंकि कमाई करने के योग्य होकर भी जो दूसरों की ही कमाई खाता है वह औरों को भी ऐसा ही करने का पाठ सिखाता है एवं जब और सब लोग भी ऐसा ही करने लग जावें तो फिर कमाने वाला कौन रहे? ऐसी हालत में फिर सभी भूखे मरें, निर्वाह कैसे हो? इसीलिये न्यायवृत्ति वाला महानुभाव औरों की कमाई की तो बात ही क्या खुद अपने पिता की कमाई पर भी निर्भर होकर रहना अपने लिये कलंक की बात मानता है। जैसा कि   उत्तमं स्वार्जित वित्त मध्यमम् पितुरर्जितं

न्यायोपात्त धन

न्यायोपात्त धन   ऊपर बताया गया है कि परिग्रह अनर्थ का मूल है और धन है वह परिग्रह है। अतः वह त्याज्य है परन्तु याद रहे कि इसमें अपवाद है क्योंकि पारिवारिक जीवन बिताने वाले गृहस्थों को अभी रहने दिया जाय, उनका तो निर्वाह बिना धन के हो ही नहीं सकता परन्तु मैं तो कहता हूं कि परिवार से दूर रहने वाले त्यागी तपस्वियों के लिए भी किसी न किसी रूप में वह अपेक्षित ठहरता है क्योंकि उनको भी जब तक यह शरीर है तब तक इसे टिका रखने के लिए भोजन तो लेना पड़ता ही है जो कि धन के आधार पर निर्धारित है। यह बात द

अहिंसा में अपवाद

अहिंसा में अपवाद   पीछे बताया गया है कि त्रसों की हिंसा कभी नहीं करना चाहिए, फिर भी साधक के सम्मुख ऐसी विषम परिस्थिति कभी-कभी आ उपस्थित होती है। कि वह उसे हिंसा करने के लिए बाध्य करती है। मान लीजिये कि आप यात्रा को जा रहे हैं। एक कुलीन बहिन भी आपके भरोसे पर आपके साथ चल रही है। रास्ते में कोई लुटेरा आकर उस पर बलात्कार करना चाहता है। क्या आप उसे ऐसा करने देंगे? कभी नहीं। जहां तक हो सकेगा उसका हाथ भी उस बहिन को नहीं लगने देने के लिए आप डटकर उस डाकू का मुकाबला करेंगे और उसे मार लगायेंगे।

परिग्रह ही सब पापों का मूल है

परिग्रह ही सब पापों का मूल है   मनुष्य अपने पतनशील शरीर को स्थायी बनाये रखने के लिये इसे हष्टपुष्ट कर रखना चाहता है। अत: जिन चीजों को इस शरीर को पोषण के लिए साधकस्वरूप समझता है उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में संग्रह कर रखने का और जिनको उसके बाधक समझता है उन्हें दूर हटाने के लिए एडी से चोटी तक का पसीना बहा देने में संलग्न हो रहने का अथक प्रयत्न करता है। इसी दुर्भाव का नाम ही परिग्रह है।   अर्थात् इस शरीर के साथ मोह और शरीर की सहायक सामग्री के साथ ममत्व होने का नाम परिग्रह है।

गरीब कौन है

गरीब कौन है   जिसके पास कुछ नहीं है वह। ऐसा कहना भूल से खाली नहीं है। जिसके पास भले ही कुछ न हो परन्तु उसे किसी बात की चाह भी न हो तो वह गरीब नहीं, वह तो अटूट धन का धनी है। गरीब तो वही है जिसके पास में अपने निर्वाह से भी अधिक सामग्री मौजूद है फिर भी उसकी चाह पूरी नहीं हुई है। जिसके पास खाने को कुछ भी नहीं है और उसने खाया भी नहीं मगर भूख बिल्कुल नहीं है तो क्या उसे भूखा कहां जावे? नहीं। हां जिसने दो लडडू तो खा लिए हैं और चार लडडू उसकी पत्तल में धरे हैं जिसको कि वह खाने लग रहा है किन्तु

सन्तोष ही सच्चा धन है

सन्तोष ही सच्चा धन है   जिस चीज से हमें आराम मिले, जिस किसी चीज की मदद से हम अपनी जीवन यात्रा के उस छोर तक आसानी से पहुंच सकें उसे धन समझना चाहिए। इस दुनिया के लोगों ने कपड़ा-लत्ता, रुपया पैसा आदि बाह्य चीजों में ही आराम समझा अत: इन्हीं के जुटाने में अपनी प्रज्ञा का परिचय देना शुरू किया। कपड़े के लिए सबसे पहले लोगों ने अपने हाथों से अपने खेत में कपास पैदा की, उसे पींज कर अपने हाथ के चरखे से सूत कातकर अपने हाथ से उसका कपड़ा बुनकर अपना तन ढकना शुरू किया फिर जब और आगे बढ़ा तो मिलों को जन्

विवाह का मूल उद्देश्य

विवाह का मूल उद्देश्य   सामाजिकता को अक्षुण्ण बनाये रखना है और दुराचार से दूर रहकर भी वैषयिक सुख की मिठास को चखते रहना है जैसे कि हमारे पूर्व विद्वान् श्रीमदाशाधर के ‘‘रति वृत कलोन्नति'' इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है। यह जभी बन सकता है कि विवाहित दम्पतियों में परस्पर सौहार्दपूर्ण प्रेमभाव हो। इसके लिए दोनों के सौहार्द रहन-सहन, शील-स्वभाव में प्रायः हरबात में समकक्षता होनी चाहिए। अन्यथा तो वह दाम्पत्य पथ कण्टकाकीर्ण होकर सदा के लिए क्लेश का कारण हो जाता है। जैसा कि सोमा सती आदि में आख्य
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