अब क्षायिक भाव के नौ भेद कहते हैं-
ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च॥४॥
अर्थ - केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य तथा ‘च' शब्द से क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र, ये नौ क्षायिक भाव हैं।
English - The nine kinds of disposition arising from destruction are the destruction of karmas affecting the knowledge, perception, charity, gain, enjoyment, re-enjoyment, prowess, right belief and conduct.
विशेषार्थ - ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं। दानान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से दिव्यध्वनि वगैरह के द्वारा अनंत प्राणियों का उपकार करने वाला क्षायिक अभय दान होता है। लाभान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से, भोजन न करने वाले केवली भगवान् के शरीर को बल देने वाले जो परम शुभ सूक्ष्म नोकर्म पुद्गल प्रतिसमय केवली के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, जिनसे केवली का औदारिक शरीर बिना भोजन के कुछ कम एक पूर्व कोटी वर्ष तक बना रहता है, वह क्षायिक लाभ है। भोगान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से सुगन्धित पुष्पों की वर्षा, मन्द सुगन्ध पवन का बहना आदि क्षायिक भोग है। उपभोगान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, आदि का होना क्षायिक उपभोग है। वीर्यान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिकवीर्य होता है। मोहनीय कर्म की ऊपर कहीं सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है और समस्त मोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र प्रकट होता है।
यहाँ इतना विशेष जानना कि अरहन्त अवस्था में ये क्षायिक दान वगैरह शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के रहते हुए होते हैं। सिद्धों में ये भाव इस रूप में नहीं होते, क्योंकि सिद्धों में किसी कर्म का सद्भाव नहीं है। फिर भी जब सिद्धों के सब कर्मों का क्षय हो गया है तो कर्मों के क्षय से होने वाले क्षायिक दान आदि भाव होने चाहिए। इसलिये अनन्तवीर्य और बाधा रहित अनन्त सुख के रूप में ही ये भाव सिद्धों में पाये जाते हैं।