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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 : सूत्र 1

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    Vidyasagar.Guru

    अब सम्यग्दर्शन के विषय रूप से कहे गये सात तत्त्वों में से जीव तत्त्व का वर्णन करते हैं-

     

    औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य

    स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकौ च ॥१॥

     

     

    अर्थ - औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के पाँच भाव हैं।

     

    English - The distinctive characteristic of the soul are the dispositions (thought-activities) arising from subsidence, destruction, destruction-cum-subsidence of karmas, the rise of karmas, and the inherent nature or capacity of the soul.

     

    विशेषार्थ - जैसे मैले पानी में निर्मली मिला देने से मैल नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है। वैसे ही कारण के मिलने पर प्रतिपक्षी कर्म की शक्ति के दब जाने से आत्मा में निर्मलता का होना औपशमिक भाव है। ऊपर वाले दृष्टान्त में उस स्वच्छ जल को, जिसके नीचे मैल बैठ गया है, किसी साफ बर्तन में निकाल लेने पर उसके नीचे का मैल दूर हो जाता है और केवल निर्मल जल रह जाता है। वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म का बिलकुल अभाव होने से आत्मा में जो निर्मलता होती है, वह क्षायिक भाव है। जैसे - उसी पानी को दूसरे बर्तन में निकालते समय कुछ मैल यदि साथ में चला आये और आकर जल के नीचे बैठ जाये तो उस समय जल की जैसी स्थिति होती है, वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और आगे उदय में आने वाले निषेकों का सत्ता में उपशम होने से तथा देशघाती स्पर्द्धकों का उदय होते हुए जो भाव होता है, उसे क्षायौपशमिक भाव कहते हैं। उसी का नाम मिश्र भाव है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्म का फल देना उदय है और उदय से जो भाव होता है, उसे औदयिक भाव कहते हैं और जो भाव कर्म की अपेक्षा के बिना स्वभाव से ही होता है, वह पारिणामिक भाव है। इस तरह ये जीव के पाँच भाव होते हैं।


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